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12-11-2012, 01:23 PM | #1 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार मुनिशार्दूल वशिष्ठजी कहकर तूष्णीम् हुए और सर्व श्रोता वशिष्ठजी के वचनों को सुनने और उनके अर्थ में स्थित हो इन्द्रियों की चपलता को त्याग वृत्ति को स्थित करते भये । तरंगों के वेग स्थिर हो गये, पिंजरों में जो तोते थे सो भी सुनकर तूष्णीम् हो गये, ललना जो चपल थीं सोभी उस काल में अपनी चपलता को त्याग करती भईं और वन के पशु पक्षी जो निकट थे सो भी सुनकर तूष्णीम् हुए । निदान मध्याह्न का समय हुआ तब राजा के बड़े भृत्यों ने कहा, हे राजन्! अब स्नान-सन्ध्या का समय हुआ उठ कर स्नान-सन्ध्या कीजिए ।
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
12-11-2012, 01:23 PM | #2 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
तब वशिष्ठजी बोले, हे राजन्! अब जो कुछ कहना था सो हम कह चुके, कल फिर कुछ कहेंगे । राजा ने कहा, बहुत अच्छा और उठकर अर्ध्य पाद्य नैवेद्य से वशिष्ठजी का पूजन किया और और जो ब्रह्मर्षि थे उनकी भी यथायोग्य पूजा की । तब वशिष्ठजी उठ खड़े हुए और परस्पर नमस्कार कर अपने-अपने स्थानों को चले आकाशचारी आकाश को, पृथ्वी पर रहनेवाले ब्रह्मर्षि और राजर्षि पृथ्वी पर, पातालवासी पाताल को और सूर्य भगवान् दिन रात्रि की कल्पना को त्यागकर स्थिर हो रहे और मन्द-मन्द पवन सुगन्ध सहित चलने लगी मानो पवन भी कृतार्थ होने आया है । इतने में सूर्य अस्त होकर और ठौर में प्रकाशने लगे, क्योंकि सन्त जन सब ठौर में प्रकाशते हैं । इतने में रात्रि हुई तो तारागण प्रकट हो गये और अमृत की किरणों को धारण किये चन्द्रमा उदय हुआ ।
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12-11-2012, 01:24 PM | #3 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
उस समय अन्धकार का अभाव हो गया और राजा का द्वार भी चन्द्रमा की किरणों से शीतल हो गया -मानो वशिष्ठजी के वचनों को सुनकर इनकी तप्तता मिट गई । निदान सब श्रोताओं ने विचारपूर्वक रात्रि को व्यतीत किया जब सूर्य की किरण निकली तो अन्धकार नष्ट हो गया-जैसे सन्तों के वचनों से अज्ञानी के हृदय का तम नष्ट होता है-और सब जगत् की क्रिया प्रकट हो आई तब खेचर, भूचर और पाताल के वासी सब श्रोता स्नान सन्ध्या कर अपने-अपने स्थानों में आये और परस्पर नमस्कार कर पूर्व के प्रसंग को उठा कर रामजी सहित बोले, हे भगवन्! ऐसे मन का रूप क्या है- जिससे कि संसाररूपी दुःखों की मञ्जरी बढ़ती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस मन रूप कुछ देखने में नहीं आता । यह मन नाममात्र है । वास्तव में इसका रूप कुछ नहीं है और आकाश की नाई शून्य है ।
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12-11-2012, 01:24 PM | #4 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे रामजी! मन आत्मा में कुछ नहीं उपजा । जैसे सूर्य में तेज, वायु में स्पन्द, जल में तरंग, सुवर्ण में भूषण, मरीचिका में जल है और आकाश में दूसरा चन्द्रमा है वैसे ही मन भी आत्मा में कुछ वास्तव नहीं है । हे रामजी! यह आश्चर्य है कि वास्तव में कुछ उपजा नहीं, पर आकाश की नाई सब घटों में वर्त्तता है और सम्पूर्ण जगत् मन से भासता है । असत्*रूपी जगत् जिससे भासता है उसी का नाम मन है । हे रामजी! आत्मा शुद्ध और अद्वैत है द्वैतरूप जगत् जिसमें भासता है उसका नाम मन है और संकल्प विकल्प जो फुरता है वह मन का रूप है । जहाँ-जहाँ संकल्प फुरता है वहाँ-वहाँ मन है जैसे जहाँ-जहाँ तरंग फुरते हैं वहाँ-वहाँ जल है वैसे ही जहाँ-जहाँ संकल्प फुरता है वहाँ-वहाँ मन है । मन के और भी नाम हैं-स्मृति, अविद्या, मलीनता और तम ये सब इसी के नाम ज्ञानवान् पुरुष जानते हैं ।
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12-11-2012, 01:25 PM | #5 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे रामजी! जितना जगज्जाल भासता है सो सब मन से उत्पन्न हुआ है और सब दृश्य मनरूप हैं, क्योंकि मन का रचा हुआ है वास्तव में कुछ नहीं है । हे रामजी! मनरूपी देह का नाम अन्तवाहक शरीर है वह संकल्परूप सब जीवों का आदि वपु है । उस संकल्प में जो दृढ़ आभास हुआ है उससे आधिभौतिक भासने लगा है और आदि स्वरूप का प्रमाद हुआ है । हे रामजी! यह जगत् सब संकल्परूप है और स्वरूप के प्रमाद से पिण्डाकार भासता है । जैसे स्वप्नदेह का आकार आकाशरुप है उसमें पृथ्वी आदि तत्त्वों का अभाव होता है परन्तु अज्ञान से आधिभौतिकता भासती है सो मन ही का संसरना है वैसे ही यह जगत् है, मन के फुरने से भासता है । हे राम जी! जहाँ मन है वहाँ दृश्य है और जहाँ दृश्य है वहाँ मन है । जब मन नष्ट हो तब दृश्य भी नष्ट हो ।
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12-11-2012, 01:25 PM | #6 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
शुद्ध बोधमात्र में जो दृश्य भासता है जब तक दृश्य भासता है तब तक मुक्त न होगा, जब दृश्यभ्रम नष्ट होगा तब शुद्ध बोध प्राप्त होगा । हे रामजी! दृष्टा, दर्शन, दृश्य यह त्रिपुटी मन से भासती है । जैसे स्वप्न में त्रिपुटी भासती है और जब जाग उठा तब त्रिपुटी का अभाव हो जाता है और आप ही भासता है वैसे ही आत्मसत्ता में जागे हुए को अपना आप अद्वैत ही भासता है । जब तक शुद्ध बोध नहीं प्राप्त हुआ तब तक दृश्यभ्रम निवृत्त नहीं होता । वह बाह्य देखता है तो भी सृष्टि ही दृष्टि आती है, अन्तर देखेगा तो भी सृष्टि ही दृष्टि आती है, और उसको सत्य जानकर राग-द्वेष कल्पना ऊठती है ।
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12-11-2012, 01:25 PM | #7 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
जब मन आत्मपद को प्राप्त होता है तब दृश्यभ्रम निवृत्त हो जाता है । जैसे जब वायु की स्पन्दता मिटती है तब वृक्ष के पत्रों का हिलना भी मिट जाता है । इससे मनरूपी दृश्य ही बन्धन का कारण है । रामजी बोले, हे भगवन्! यह दृश्यरूपी विसूचिकारोग है, उसकी निवृत्ति कैसे हो सो कृपा करके कहो। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! संसाररूपी वैताल जिसको लगा है उसकी निवृत्ति इस प्रकार होती है कि प्रथम तो विचार करके जगत् का स्वरूप जानो, उसको अनन्तर जब आत्मपद में विश्रान्ति होगी तब तुम सर्व आत्मा होगे । हे रामजी! दृश्यभ्रम जो तुमको भासता है उसको मैं उत्तर ग्रन्थ से निवृत्त करूँगा, इसमें सन्देह नहीं ।
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12-11-2012, 01:26 PM | #8 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
सुनिये, यह दृश्य मन से उपजा है और इसका सद्भाव मन में ही हुआ है । जैसे कमल का उपजना कमल के बीज में है वैसे ही संसार का उपजना स्मृति से होता है । वह स्मृति अनुभव आकाश में होती है । हे रामजी! स्मृति पदार्थ की होती है जिसका अनुभव पहिले होता है । जितना कुछ जगत् तुमको भासता है सो संकल्प रूप है-कोई पदार्थ सत्*रूप नहीं । जो वस्तु असत्*रूप है उसकी स्थिरता नहीं होती और जो वस्तु सत्*रूप है उसका कदाचित् नहीं होता । जितना कुछ प्रपञ्च भासता है सो असत्*रूप है मन के चिन्तन से उत्पन्न हुआ है । जब फुरने से रहित हो तब जगत् भ्रम निवृत्त होता है । हे रामजी!
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12-11-2012, 01:26 PM | #9 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
पृथ्वी, पर्वत आदिक जगत् असत् रूप न होते तो मुक्त भी कोई न होता । मुक्त तो दृश्यभ्रम से होता है, जो दृश्यभ्रम से नष्ट न होता तो मुक्त भी कोई न होता; पर ब्रह्मर्षि, राजर्षि देवता इत्यादिक बहुतेरे मुक्त हुए हैं, इस कारण कहता हूँ कि दृश्य असत्यरूप मन के संकल्प में स्थित है । हे रामजी! एक मन को स्थिरकर देखो, फिर अहं त्वं आदिक जगत् तुमको कुछ न भासेगा । चित्तरूपी आदर्श में संकल्परूपी दृश्य मलीनता है । जब मलीनता दूर होगी तब आत्मा का साक्षात्कार होगा । हे रामजी! यह दृश्यभ्रम मिथ्या से उदय हुआ है ।
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12-11-2012, 01:27 PM | #10 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
जैसे गन्धर्वनगर और स्वप्नपुर वैसे ही यह जगत् भी है । जैसे शुद्ध आदर्श में पर्वत का प्रतिबिम्ब होता है वैसे ही चित्तरूपी आदर्श में यह दृश्य प्रतिबिम्ब है । मुकुर में जो पर्वत का प्रतिबिम्ब होता है सो आकाशरूप है उसमें कुछ पर्वत का सद्भाव नहीं वैसे ही आत्मा में जगत् का सद्भाव नहीं । जैसे बालक को भ्रम से परछाहीं में पिशाच बुद्धि होती है वैसे ही अज्ञानी को जगत् भासता है --वास्तव में जगत् कुछ नहीं है । हे रामजी! न कुछ मन उपजा है और न कुछ जगत् उपजा है- दोनों असत्*रूप हैं । जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । जैसे आकाश अपनी शून्यता से और समुद्र जल से पूर्ण है वैसे ही ब्रह्मसत्ता अपने आप में स्थित और पूर्ण है और उसमें जगत् का अत्यन्त अभाव है इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह तुम्हारे वचन ऐसे हैं जैसे कहिये कि बन्ध्या के पुत्र ने पर्वत चूर्ण किया शशे के श्रृंग अति सुन्दर हैं, रेत में तेल निकलता है और पत्थर की शिला नृत्य करती वा मूर्ति का मेघ गर्जन और पत्थर की पुतलियाँ गान करती हैं ।
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