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Old 10-09-2014, 02:29 PM   #11
rafik
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

अधिकार संबंधी अभिमन अनौचित्य की सामर्थ्य का अधिक होता है। यदि अधिकार के अनुचित उपयोग की संभावना दूर कर दी जाए तो स्थान स्थान पर अभिमन की जमी हुई मैल साफ हो जाए और समाज के कार्य विभाग चमक जाएँ। यदि समाज इस बात की पूरी चौकसी रखे कि पुलिस के अफसर उन्हीं लोगों को कष्ट दे सकें जो दोषी हैं, माल के अफसर उन्हीं लोगों को क्षतिग्रस्त कर सकें जो कुछ गड़बड़ करते हैं, तो उन्हें शेष लोगों पर जो निर्दोष हैं, जिनका मामला साफ है और जिससे हर घड़ी काम पड़ता है, अभिमन प्रकट करने का अवसर कहाँ मिल सकता है? जब तक किसी कार्यालय में छोटे से बड़े तक सब अपना अपना नियमित कार्य ठीक ठीक करते हैं तब तक एक के लिए दूसरे पर अपनी बड़ाई प्रकट करने का अवसर नहीं आता है। पर जब कोई अपने कार्य में त्रुटि करता है तब उसका अफसर उसे दंड देकर अपनी बड़ाई या अधिक सामर्थ्य दिखलाता है। सापेक्ष बड़ाई दूसरे को क्षतिग्रस्त करने और दूसरे को नम्र करने की सामर्थ्य का नाम है। अधिकार की सापेक्ष बड़ाई दूसरे को क्षतिग्रस्त करने की सामर्थ्य है और धन या गुण की सापेक्ष बड़ाई में दूसरे को नम्र करने की सामर्थ्य है। इससे विदित हुआ कि यह छोटाई बड़ाई हर समय तमाशा दिखाने के लिए नहीं है, बल्कि अवसर पड़ने पर संशोधन या शिक्षा के लिए है। किसी अवधा के ताल्लुकेदार के लिए बड़ाई का वह स्वाँग दिखाना आवश्यक नहीं है कि वह जब मन में आए तब कामदार टोपी सिर पर रख, हाथी पर चढ़ गरीबों को पिटवाता चले। किसी देहाती थानेदार के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह सिर पर लाल पगड़ी रख गँवारों को गाली देकर हर समय अपनी बड़ाई का अनुभव करता और कराता रहे। अभिमन एक व्यक्तिगत गुण है, उसे समाज के भिन्न व्यवसायों के साथ जोड़ना ठीक नहीं। समाज में स्थान स्थान पर अभिमन के अजायबघर स्थापित होना अच्छा नहीं। इस बात का ध्यानन रखना समाज का कर्तव्यर है कि धर्म औरराजबल से प्रतिष्ठित संस्थाओं के अंतर्गत अभिमानालय और खुशामदखाने न खुलने पाएँ।
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Old 10-09-2014, 02:31 PM   #12
rafik
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इस प्रकार किसी बड़े धनी या गुणी का यह हर घड़ी का काम न हो जाना चाहिए कि वह औरों के धन या गुण से अपने धन या गुण का मिलान किया करे और अपने से कम धनी या गुणी लोगों से अपनी श्रेष्ठता देख दिखाकर संतोष किया करे। इस प्रकार संतोष करना, वस्तु को छोड़ छाया पर संतोष करना है। इस प्रकार के संतोष का सुख मनुष्य के लिए स्वाभाविक है; पर वह ऐसे ही अवसरों तक के लिए निर्दिष्ट है जब किसी त्रुटि का संशोधन हो, कठिनता का निराकरण हो या आवश्यकता की पूर्ति हो। उसे ऐसे अवसरों के अतिरिक्त और अवसरों में घसीटना बुराई है। कई आदमी किसी रास्ते के पत्थर को हटाने में लगे हैं और वह नहीं हिलता है। एक दूसरा आदमी आकर अकेले उस पत्थर को हटाकर फेंक देता है। उस समय उसे अपने को बल में औरों से बढ़कर देख संतोष और आनंद होगा और शेष लोग भी उसके कृत्य से प्रभावित रहने के कारण उस समय उसके इस सापेक्ष आनंद या आनंद प्रदर्शन से कुढ़ेंगे नहीं, बल्कि कुतूहलयुक्त होंगे और शायद कुछ शिक्षा भी ग्रहण करें। पर यदि उसे इस बड़ाई के आनंद का चस्का लग जाएगा और वह हर घड़ी इसका अनुभव करना चाहेगा, उसे प्रकट किया करेगा, तो यह एक प्रकार का दुर्वव्य सन हो जाएगा और अहंकार के नाम से पुकारा जाएगा।
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Old 10-09-2014, 02:40 PM   #13
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जिस किसी के चित्त में इस प्रकार अहंकार घर करेगा, उसमें अपने चारों ओर अपने से घटकर धन, मन, गुण या बल देखने की स्थायी इच्छा स्थापित हो जाएगी और जो वस्तु उसे प्राप्त है, उसे भी दूसरों को प्राप्त करते देख उसे कुढ़न या ईर्ष्या होगी। उसके अहंकार से आहत होकर दूसरे लोग भी उसकी उन्नति न देखना चाहेंगे और उससे एक प्रकार की उचित ईर्ष्या रखेंगे। इस प्रकार ईर्ष्या की अच्छी खेती होगी। सारांश यह कि अभिमन हर घड़ी बड़ाई की भावना भोगने का दुर्वव्यासन है और ईर्ष्या उसकी सहगामिनी है। इस बड़ाई के अनुभव को भोगने का जिसे दुर्वव्यसन हो जाता है, उसके लिए उन्नति का द्वार बंद सा हो जाता है। उसे हर घड़ी अपनी बड़ाई अनुभव करते रहने का नशा हो जाता है, इससे उसकी चाह के लिए वह सदा अपने से घटकर लोगों की ओर दृष्टि डाला करता है और अपने से बड़े लोगों की ओर नशा मिट्टी होने के भय से देखने का साहस नहीं करता। ऐसी अवस्था में वह उन्नति की उत्तेवजना और शिक्षा से वंचित रहता है। इसी से अभिमन को 'मद' भी कहते हैं। दुर्वव्येसन किसी प्रकार का हो, मद है।
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Old 10-09-2014, 02:44 PM   #14
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

यह तो कहा ही जा चुका है कि ईर्ष्या दूसरे की असम्पन्नता की इच्छा की आपूर्ति से उत्पन्न होती है। ऐसी इच्छा यदि किसी हानि के बदले में अथवा हानि की आशंका से हो तो वह शुद्ध ईर्ष्या नहीं है। किसी दूसरे से हानि उठाकर उसकी हानि की आकांक्षा करना केवल बुराई का बुराई से जवाब देना है और क्रोध या वैर के अंतर्गत है। इसी प्रकार यदि किसी की संपन्नता से हमें क्लेश या हानि की आशंका है और हम उसकी ऐसी संपन्नता की अनिच्छा या उसका दु:ख करते हैं तो केवल अपना बचाव करते हैं-आजकल के शब्दों में अपनी रक्षा के स्वत्व का उपयोग करते हैं। यदि हम किसी अन्यायी को कोई अधिकार पाते देख कुढ़ते हैं, तो केवल अपने या समाज के बचाव की फिक्र करते हैं, ईर्ष्या नहीं करते। यदि हमें निश्चय है कि हमारा कोई मित्र इतना घमंडी है कि यदि उसे किसी वस्तु की प्राप्ति होगी तो वह हमसे ऐंठ दिखाकर हमारा अपमन करेगा, तो हमारा यह चाहना कि वह मित्र वह वस्तु न पाए अथवा इस बात पर दु:खी होना कि वह मित्र वह वस्तु पा गया, ईर्ष्या नहीं; बचाव की चिंता है। इसी से अभिमानियों से ईर्ष्या करने का अधिकार मनुष्य मात्र को है। लोग इस अधिकार का उपयोग भी खूब करते हैं। क्या राजनीति में, क्या साहित्य में, क्या व्यवहार में, मनव जीवन के सब विभागों में इस अधिकार का उपयोग होते देखा जाता है। ऐसा देखा गया है कि अच्छे से अच्छे लेखकों के गुणों पर उनके अभिमन से आहत लोगों के प्रयत्न या उदासीनता से बहुत दिनों तक परदा पड़ा रहा है और वे जिंदगी भर भवभूति के इस वाक्य पर संतोष किए बैठे रहे हैं-
उत्पत्स्यते हि मम कोऽपि समनधार्मा
कालो ह्ययं निश्वधिर्विपुला च पृथ्वी।

अभिमनग्रस्त गुण को लोग देखकर भी नहीं देखते हैं। अभिमानी स्वयं अंधा होकर दूसरों की ऑंखें भी फोड़ता है। न उसे दूसरों के उत्कृष्ट गुण की ओर ताकने का साहस होता है और न दूसरों को उसके गुण को स्वीकार करने की उत्कंठा होती है। अभिमन दोनों ओर ज्ञान का निषेधा करता है। अत: जिस प्रकार अभिमन न करना श्रेष्ठ गुण है उसी प्रकार दूसरे के अभिमन को देख क्षुब्धा न होना भी श्रेष्ठ गुण है।
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Last edited by rafik; 10-09-2014 at 02:48 PM.
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Old 10-09-2014, 02:50 PM   #15
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

अब यह स्पष्ट हो गया होगा कि ईर्ष्या दूसरे की प्राप्ति या प्राप्ति की संभावना से उत्पन्न दु:ख है, चाहे वह वस्तु हमें प्राप्त हो या न हो। अत: ईर्ष्या धारण करनेवालों के दो रूप होते हैं। एक असंपन्न और दूसरा संपन्न। असंपन्न रूप वह है, जिसमें ईर्ष्या करनेवाला दूसरों को ऐसी वस्तु प्राप्त करते देख दु:खी होता है जो उसके पास नहीं है। ऐसे दु:ख में आलस्य या असामर्थ्य से उत्पन्न नैराश्य, दूसरे की प्राप्ति से अपनी सापेक्षिक छोटाई का बोध, दूसरे की असंपन्नता की इच्छा और अंत में इस इच्छा की पूर्ति में बाधक उस दूसरे व्यक्ति पर एक प्रकार का मीठा क्रोध, इतने भावों का मेल रहता है। किसी वस्तु को हम नहीं प्राप्त कर सकते दूसरा उसी को प्राप्त करता है। हम समझते हैं कि लोगों की दृष्टि जब हमारी स्थिति पर पड़ती होगी तब उसकी स्थिति पर भी पड़ती होगी। इससे लोगों की दृष्टि में हमारी स्थिति अवश्य कुछ न्यून जँचती होगी। अत: स्थिति की समनता के लिए हम चाहते हैं कि वह दूसरा व्यक्ति उस वस्तु को न प्राप्त करता या खो देता। पर वह दूसरा व्यक्ति जीता जागता यत्नवान् प्राणी होने के कारण उसे प्राप्त करता या रक्षित रखता है। इससे हमारी इच्छापूर्ति में बाधा होती है और हम बाधक के ऊपर मन ही मन चिड़चिड़ाते हैं।
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Old 10-09-2014, 02:57 PM   #16
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ईर्ष्या में क्रोध का भाव किस प्रकार मिला रहता है इसका प्रमाण बराबर मिलता रहता है। दूसरे व्यक्ति को किसी वस्तु से संपन्न देख यदि कोई उससे ईर्ष्या करता है तो केवल यही नहीं होता कि वह उसी वस्तु को उससे अलग करके या अलग करने का प्रयत्न करके संतोष कर ले, बल्कि वह उस संपन्न व्यक्ति को अवसर पाने पर, बिना किसी अन्य कारण के, कुवाक्य भी कह बैठता है। जी दुखाने का यह प्रयत्न बिना किसी प्रकार के क्रोध के नहीं हो सकता। इसी कारण जैसे 'क्रोध से जलना' कहा जाता है वैसे ही ‘ईर्ष्या से जलना' भी कहा जाता है। साहित्य के शब्दों में, क्रोध ईर्ष्यान के संचारी के रूप में समय समय पर व्यक्त होता हुआ देखा जाता है। अब यहाँ पर लगे हाथों यह भी देख लेना चाहिए कि यह क्रोध है किस प्रकार का। यह क्रोध बिलकुल जड़ क्रोध है। जिसके प्रति ऐसा क्रोध किया जाता है उसके मानसिक उद्देश्य की ओर नहीं ध्या न दिया जाता। यदि हम असावधानी से दौड़ते समय किसी सोए आदमी से टकराकर उस पर बिगड़ने लगें, या रास्ते में पत्थर की ठोकर खाकर उसे चूर चूर करने पर उतारू हों तो हमारा यह क्रोध जड़ क्रोध होगा; क्योंकि हमने यह विचार नहीं किया कि क्या वह आदमी हमें ठोकर खिलाने के लिए ही सोया था; या वह पत्थर हमारे पैर में लगने के नामानुकूल इरादे से वहाँ आ पड़ा था। यदि हमारे पास कोई वस्तु नहीं है और दूसरा उसे प्राप्त करता है, तो वह उस उद्देश्य से नहीं प्राप्त करता कि उससे हम अपनी हेठी समझकर दु:खी हों और हमारी इच्छापूर्ति में बाधा पड़े। यह दूसरी बात है कि पीछे से यह मालूम करके भी कि उसकी प्राप्ति से हम अपनी हेठी समझ समझकर बेचैन हो रहे हैं, वह हमारे दु:ख में सहानुभूति न करे और उस वस्तु को लिए आनंद से कान में तेल डाले बैठा रहे। प्राय: तो ऐसा होता है कि किसी वस्तु को प्राप्त करनेवाले मनुष्य को पहले यहख्याल भी नहीं होता कि उसकी प्राप्ति से किन किन महाशयों की मनहानि हो रही है।
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Old 10-09-2014, 02:59 PM   #17
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ऊपर कहा जा चुका है कि ईर्ष्या धारण करनेवालों की दो दशाएँ होती हैं। असंपन्न और संपन्न। असंपन्न दशा का दिग्दर्शन तो ऊपर हो चुका। संपन्न दशा वह है जिसमें जो वस्तु हमें प्राप्त है, उसे दूसरे को भी प्राप्त करते देख हमें दु:ख होता है। असंपन्नता में दूसरे को अपने से बढ़कर होते देख दु:ख होता है। असंपन्न दशा में यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि हम दूसरे से बढ़कर रहें। उसके बराबर न रहें। संपन्न की ईर्ष्यां में आकांक्षा बढ़ी चढ़ी होती है, इससे उसका अनौचित्य भी बढ़कर होता है। असंपन्न ईर्ष्यापवाला केवल अपने को नीचा समझे जाने से बचाने के लिए आकुल रहता है, पर संपन्न ईर्ष्या वाला दूसरे को नीचा समझते रहने के लिए व्याकुल रहता है। असंपन्न की ईर्ष्या में नैराश्य का भाव और अपनी कमी का दु:ख मिला रहता है, इससे उसकी कलुषता उतनी गहरी नहीं जान पड़ती। निराश और अभाव पीड़ित मनुष्य जैसे इधर उधर भूलता भटकता फिरता है, वैसे ही ईर्ष्या की राह में भी जा पड़ता है। पर संपन्न की स्थिति ऐसी क्षोभकारिणी नहीं होती।
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Old 10-09-2014, 03:01 PM   #18
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हमारा कोई साथी है जो किसी वस्तु में हमसे कम है। उसकी कमी और अपनी बड़ाई देख दिखाकर हर घड़ी प्रसन्न होने का हमें दुर्वव्यसन हो गया है। इसी बीच उसको भी वह वस्तु प्राप्त हो जाती है और हमें जान पड़ता है कि हमारी स्थिति, जो सापेक्ष थी, मारी गई। अपने आनंद में इस प्रकार बाधा पड़ते देख हम अपने साथी की उस प्राप्ति से दु:खी होते हैं, और मन ही मन उस पर कुढ़ते भी हैं। साथी को बहुत दिनों तक तो इसका पता ही नहीं चलता, पीछे पता चलने पर भी वह हमारे इस दु:ख में कुछ भी सहानुभूति नहीं करता। हमारी कुप्रवृत्ति का कारण बिना अवसर के हर घड़ी बड़ाई का अनुभव व स्थिति की सापेक्षिकता का सुख भोगने की लत है। किसी स्थिति की वास्तविकता पर मुख्य और सापेक्षिकता पर गौण दृष्टि रखनी चाहिए। सापेक्षिकता नजर का खेल है, और कुछ नहीं। यदि हमें पेट भर अन्न नहीं मिलता है, पर लोग समझते हैं कि हम अपने किसी साथी से अच्छे या धानी हैं, तो लोगों की इस धारणा से हमारा पेट नहीं भर सकता। लोगों की इस धारणा से आनंद होता है पर वह उस आनंद का शतांश भी नहीं है जो वास्तविक स्थिति में प्राप्त वस्तुओं से मिलता है। अत: स्थिति के वास्तविक आनंदों को छोड़ इस छायारूपी आनंद पर मुख्य रूप से ध्या न रखना प्रमाद और स्थिति की रक्षा का बाधक है। यदि हम वास्तविक दशा की ओर ध्या न रख आवश्यक प्रयत्न न करते रहेंगे तो अपनी सँभाल नहीं कर सकते।

कभी कभी ऐसा होता है कि लोगों की धारणा का कुछ मूल्य होता है अर्थात् उससे कोई अनुकूल स्थिति प्राप्त होती है। जैसे, यदि किसी गाँव में मूर्ख और विद्वान् दो वैद्य हैं तो लोग दूसरे को अधिक निपुण समझ उसके पास अधिक जाएँगे और उसकी आमदनी अधिक होगी। अब यदि पहला वैद्य भी परिश्रम करके वैद्यक पढ़ लेगा और लोगों की यह धारणा हो जाएगी कि यह भी विद्वान् है तो दूसरे वैद्य की आमदनी कम हो जाएगी। ऐसी अवस्था में उस दूसरे वैद्य का पहले वैद्य की उन्नति से कुढ़ना शुद्ध ईर्ष्या नहीं, हानि का दु:ख या झुँझलाहट है। ईर्ष्या नि:स्वार्थ होनी चाहिए।
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ईर्ष्या का दु:ख प्राय: निष्फल हो जाता है। अधिकतर तो जिस बात की ईर्ष्या होती है, वह ऐसी बात होती है, जिस पर हमारा वश नहीं होता। जब हममें अपनी ही स्थिति में अनुकूल परिवर्तन करने की सामर्थ्य नहीं है तब हम दूसरे की स्थिति में कहाँ तक परिवर्तन कर सकते हैं ? जितनी जानकारी हमें अपनी स्थिति से हो सकती है उतनी दूसरे की स्थिति से नहीं। किसी स्थिति में परिवर्तन करने के लिए उसके अंग प्रत्यंग का परिचय आवश्यक होता है पर कभी कभी ऐसे अवसर आ जाते हैं जिनमें ईर्ष्या की तुष्टि का साधन सुगम होता है, जैसे यदि किसी आदमी को किसी दूसरे से कुछ लाभ पहुँचनेवाला होता है या पहुँचता होता है तो हम उस दूसरे से उसकी कुछ बुराई कर आते हैं और उसे उस लाभ से वंचित कर देते हैं। पर हमारी यह सफलता निरापद नहीं। यदि वंचित व्यक्ति को हमारी कार्रवाई का पता लग गया तो वह क्रुद्ध होकर हमारी हानि करने के लिए हमसे अधिक वेग के साथ यत्न करेगा। हमने तो केवल जरा सा जाकर जबान हिलाने का कष्ट उठाया था, पर वह हमारी हानि करने के लिए पूरा परिश्रम करेगा।
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Old 10-09-2014, 03:13 PM   #20
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ईर्ष्यात में प्रयत्नोत्पादिनी शक्ति बहुत कम होती है। उसमें वह वेग नहीं होता जो क्रोध आदि में होता है क्योंकि आलस्य और नैराश्य के आश्रय से तो उसकी उत्पत्तिही होती है। जब आलस्य और नैराश्य के कारण अपनी उन्नति के हेतु प्रयत्न करना तो दूर रहा, हम अपनी उन्नति का ध्याकन तक अपने मन में नहीं ला सकते, तभी हम हारकर दूसरे की स्थिति की ओर बार बार देखते हैं और सोचते हैं कि यदि उसकी स्थिति ऐसी न होती तो हमारी स्थिति जैसी है वैसी ही रहने पर भी बुरी न दिखाई देती। अपनी स्थिति को ज्यों की त्यों रख सापेक्षिकता द्वारा संतोष लाभ करने का ढीला यत्न आलस्य और नैराश्य नहीं तो और क्या है? जो वस्तु उज्ज्वल नहीं है उसे मैली वस्तु के पास रखकर हम उसकी उज्ज्वलता से कब तक और कहाँ तक संतोष कर सकते हैं? जो अपनी उन्नति के प्रयत्न में बराबर लगा रहता है उसे न तो नैराश्य होता है और न हर घड़ी दूसरे की स्थिति से अपनी स्थिति के मिलान करते रहने की फुरसत। ईर्ष्या की सबसे अच्छी दवा है उद्योग और आशा। जिस वस्तु के लिए उद्योग और आशा निष्फल हो, उस पर से अपना ध्या न हटाकर दृष्टि की अनंतता से लाभ उठाना चाहिए।
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