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Old 05-02-2012, 08:46 PM   #1
Dr. Rakesh Srivastava
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Default उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

उपन्यास

टुकड़ा - टुकड़ा सच

उपन्यासकार : डॉ. राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - २, गोमती नगर, लखनऊ, इंडिया

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Last edited by Dark Saint Alaick; 06-02-2012 at 10:12 PM.
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Old 05-02-2012, 08:49 PM   #2
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

स्पष्टीकरण
==============
इस कहानी के समस्त पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं और वास्तविक जीवन से इनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है .
अचेतन में संचित स्मृतियों के कारण यदि कोई संवाद अथवा प्रकरण किसी से मेल खाता हो तो इसे मात्र एक संयोग ही समझा जाये .








नोट - सर्वाधिकार लेखकाधीन .

Last edited by Dr. Rakesh Srivastava; 06-02-2012 at 09:11 AM.
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Old 05-02-2012, 09:04 PM   #3
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

( 1 )

निरंकुश हवा उदण्ड तूफ़ान में परिवर्तित होने की धमकी दे रही थी और भटकती मनहूस दुष्टात्मा की भांति अजीब डरावनी आवाजें बिखेरती हुई अंगद के पाँव से मज़बूत विशाल वृक्षों से सर टकरा रही थी----जैसे युगों - युगों से अटल विश्वास को उखाड़ फेंकना चाहती हो . सनसनाते नम ठण्डे झोंके ----शरीर में शूल की भांति चुभकर ----गर्म खून को जमा देने की जिद पकड़े थे . नीले मखमली आकाश में पैबंद से टंके जल से बोझल बादल के टुकड़े ----नीचे----बहुत नीचे तक झुककर पेड़ों के झुरमुट में कुछ खोज सा रहे थे . संभवतः दूर बाहें पसारे बूढ़े गरीब पीपल की अधनंगी टहनियों में अटके - उलझे चाँद को ढूँढ रहे थे . ऊंची चढ़ाई पर लाज से सिकुड़ी सर्पिल सड़क किसी रूपसी की पतली कमर की भांति बलखाती - लहराती हुई दूर ----बहुत दूर ----ऊँचाई तक अविराम चली जा रही थी . जैसे ऊंचे आकाश को छू लेना चाहती हो .मूर्ख सड़क नहीं जानती थी कि भला हरि - कथा – से अनन्त आकाश को कभी कोई छू सका है !
सामान्य जनों के लिए खराब और नवविवाहितों के लिए बेहद हसीन व दिल को शरारती बनाने वाले इस मौसम में - - - इसी पतली सी सड़क पर एक खूबसूरत कार भागी चली जा रही थी - - - उस विलंबित कमसिन लड़की की तरह , जिसका प्रेमी दूर खड़ा देर से उसे सम्मोहक आमंत्रण दे रहा हो .
नवयौवना - सी निखरी कार पर सवार चंचल के सावधान पाँव एक्सेलरेटर पर दबाव बढ़ाते जा रहे थे . वह पगलाए मौसम के कुछ कर गुजरने से पूर्व सकुशल घर पहुँच जाने की उतावली में था .
अचानक उसकी सांस रुकी , धड़कन बढ़ी और जबड़े भिंच गए . उसने संयमित घबराहट में ब्रेक पर पूरी ताकत के साथ अपने जीवन का सम्पूर्ण ड्राइविंग - कौशल पल भर में उड़ेल दिया . कार एक तेज चीत्कार करके जहाँ की तहाँ चिपक गयी .
पुराने सयानों ने सच ही कहा है कि गाड़ी भली - भाँति चला लेना ही कला नहीं है . कला है - - - सामने से सुरसा - सा मुँह बाए चली आ रही विपत्ति को ठेंगा दिखाकर कुशलता पूर्वक अपना बचाव करना और दुर्घटना को टाल देना .
बहरहाल - - - सब कुछ पलक झपकते हो गया . ये पल , वो पल था - - - जिस पल सावधान न रहे - - - चूके तो टिड्डियों के विध्वंसक दल - सा ये पल - - - पल भर में जीवन की पूरी फसल ही चट कर जाता है . या फिर अपशगुनी काली बिल्ली का रूप धरे उम्र भर रास्ता काटा करता है . या तो उल्लुओं - सी मनहूस शक्ल लिए ये पल जबरदस्ती कन्धों पर सवार होकर जीवन भर भयानक कहकहे लगाकर घटना विशेष की कडुवी स्मृतियों को मन - मस्तिष्क से मिटने नहीं देता और उस भारी पल के अनचाहे बोझ को ढोते रहना व्यक्ति की नियति बन जाती है .
खैर - - - उस पल पर सकुशल पार पाते ही - - - इस ठण्ढे मौसम में भी चंचल के माथे पर स्वेद - कण चुचुआ आये और सम्पूर्ण शरीर के रोयें खतरे में फंसी जंगली साही के काँटों की भाँति तनकर खड़े हो गये , क्योंकि नियंत्रित कार के आगे दन्न से कूदकर किसी लड़की ने अपनी जिंदगी के दस्तावेज को बंद करने की कोशिश की थी . एक नाकामयाब कोशिश . आत्महत्या का असफल प्रयास .
संभवतः उस खास लड़की की सोच भी ऐसी आम रही होगी कि उसका चाहा हुआ ही घटित होगा . किन्तु क्या सदैव ऐसा हुआ है ! प्रायः तो नहीं . कोई अपने ही अतीत में झांके - - - तो पायेगा कि उसके जीवन में वह काल - खण्ड भी मुस्कराया है , जब उसने मिट्टी को भी हाथ लगाया तो सोना होता चला गया . चाहे - अनचाहे उपलब्धियों की झड़ी लग गयी . और वक्त का दौर ऐसा भी भारी पड़ा , जब सर्वोत्तम प्रयासों के पश्चात भी अधकचरे या फिर प्रतिकूल परिणाम प्रकट भये . और कभी - कभी तो जीवन में वह सब स्वतः घटित होता चला जाता है , जिसके विषय में कभी सोचा ही न गया हो . कोई तैयारी , कोई योजना ही न रही हो . योजनाबद्ध प्रयास के फलीभूत होने - - - न होने - - - कम या अधिक होने के लिए सूत्रधार तो कोई और ही है . शायद ईश्वर - - - या फिर भाग्य . जो कह लो .
तन - मन पर यथासंभव नियंत्रण आते ही , झट से कार खोलकर चंचल पट से बाहर निकला और ढोल की तरह बज रही दिल की थापों के बीच उसने बेसब्र निगाहों से धराशायी लड़की को भरपूर निहारा . यह देख जानकर कि लड़की लगभग सही सलामत है , उसने वैसे ही भरपूर चैन की सांस ली , जैसी कि कोई मुल्जिम अदालत से बा इज्जत बरी होने पर लेता है .
कार के आगे पड़ी मरने की असफल आकांक्षा रखने वाली लड़की उसकी तरफ ऐसी बेबस नजरों से निहार रही थी जिसमे जिन्दगी और मौत - - - दोनों के ही हाथों से फिसल जाने का दोहरा दर्द छलछला रहा था , उसकी डबडबायी आँखें और फड़फड़ाते होंठ मानो शिकायत कर रहे थे कि क्यों बचा लिया मुझे ! मुझे बचाकर ज़ुल्म किया तुमने .
चंचल ने उसकी केले के छिले ताने - सी स्निग्ध बांह को सहारा देकर उसे खड़ा कर दिया . देखा - - - कि सामान्य सांसारिक पुरुषों की भाँति ईश्वर ने भी उस आकर्षक युवती के प्रति ज़रुरत से कुछ ज्यादा ही नरमी बरती थी . क्योंकि चोट अधिक नहीं आई थी . कूदकर गिरने से कुछ खरोंचें भर आयीं थीं उसकी कमनीय काया पर .
" ए लड़की ! क्यों जान देना चाहती थी ? " चंचल स्वाभाविक क्रोध वश पूछ कर बड़बड़ाया -- " किस्मत थी , जो बच गयी - - - वर्ना तुम्हारी मौत का अनचाहा बोझ मुझ बेगुनाह को भी बेवजह जिन्दगी भर ढोना पड़ता . "
" मुझे मर जाने देते . मरने क्यों न दिया ! क्यों बचाया आपने ? " एक सांस में कहकर लड़की किसी असहाय बच्चे की भाँति सुबक - हिचक कर रोने लगी . उसकी आँखों से अनवरत उमड़ती गंगा - जमुना ने सैलाब का रूप ले लिया .
चंचल उसमे बिना बहे झुंझलाया -- " तुम्हे मर जाने देता और खुद जेल की चक्की पीसकर अपनी ज़िन्दगी को घुन लगा लेता ? आखिर मरना क्यों चाहती थी ? "
" क्योंकि मै जीना नहीं चाहती ."
"वो तो समझा - - - लेकिन भाग्य का लिखा तो कोई मिटा नहीं सकता . चॉक और डस्टर तो विधाता के हाथ है और शायद वो नहीं चाहता कि तुम अभी मरो . इसलिए तुम दैवयोग से बच गयी .
" मगर मै जीना नहीं चाहती . अब तक की ज़िन्दगी को प्याज की परतों की तरह खूब उधेड़ कर परखा - - - मगर सिवाय बदबू के कुछ हाथ नहीं आया . अब तो मेरे सारे सपने ही मर चुके हैं . जीने की चाहत ही ख़त्म हो गयी है . क्योंकि ये घिनौनी बदबूदार ज़िन्दगी मुझे चैन से जीने नहीं देती . पग - पग , पल - छिन दगा देती है . "वह रोते - रोते बोली और उसके दम तोड़ चुके सपने मानो सड़ - पिघल कर कतरा - कतरा उसकी आँखों से बहते रहे
अब लड़की के प्रति चंचल के मन - आँगन में दया उमड़ आयी . वैसे ये तो होना ही था . नारी के आंसुओं का गुनगुनापन तो पत्थर को भी पिघला कर मोम बना देता है . चंचल तो मात्र हाड़ - मांस का धड़कता भावुक पुतला था .
उसने अपनी उम्र से बड़ा होकर शिक्षकों की तरह समझाया -- " सुनो - - - सपनों के मर जाने से अधिक खतरनाक स्थिति और कुछ भी नहीं . सबसे अधिक विपन्न वो होते हैं , जिनके पास सपनों का अभाव है . सपने थमे तो विकास थमा . सपना ही तो मनुष्य और जानवर के बीच भेद करने वाली रेखा है . व्यवहारिक सपने ही तो तरक्की का राज हैं . इसीलिये , मेरी मानो तो सपनों को कभी मरने मत दो . और देखो- - - ज़िन्दगी अगर सरासर बेवफाई पर ही उतर आये तो इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम मौत से याराना गाँठ लो . तुम्हें मौत से लड़ना चाहिए . किसी उम्मीद के छोटे से कतरे को जीने का सहारा बना लेना चाहिए . और फिर - - - अगर मरना ही है तो हथियार डाल कर क्यों मरो ! लड़ते - जूझते , कुछ कर गुजर कर क्यों न मरो -- बहादुरों - सी यादगार मौत . खैर - - - अब मै तुम्हे मरने तो नहीं ही दूंगा . "
" देखिये - - - मुझ पर रहम समझ कर अन्जाने में ज़ुल्म न कीजिये . जिसने मरने की ही ठान ली , उसे भला कोई कब तक बचा सकता है ! मै हर हाल में मरना चाहती हूँ . कृपया अपनी कार तले रौंद कर मुझे इस ज़िन्दगी के नर्क से आजाद करने का उपकार कर दीजिये . इस सन्नाटे सुनसान में कोई भी यह दृश्य देख नहीं पायेगा . जमाने की निगाहों में आपके उजले दामन पर कोई दाग भी न आएगा और मुझे भी इस तिल - तिल मरती ज़िन्दगी के कष्ट से एकबारगी छुटकारा मिल जाएगा . "
" क्या खूब दर्शन समझा रही हो मुझे ! इस सुनसान में तुम्हारी निराशा - जनित इच्छा पूरी कर दूं तो जमाने की निगाहों से तो बचा रहूँगा , मगर खुद से खुद को कहाँ छिपाता फिरूंगा ! एक अपराध - बोध उम्र भर मेरा पीछा करता रहेगा . क्योंकि आदमी दुनिया से तो नज़र बचाकर भाग सकता है लेकिन स्वयं से भाग कर कहाँ जा सकता है ! अतीत के अंधेरों में जान - समझ कर किये गए गुपचुप पाप उम्र भर प्रज्ञापराधी का निरंतर पीछा करके उसे इस कदर झिंझोड़ा करते हैं कि इनको ढकने - छिपाने में अपनी समस्त ऊर्जा खपाता व्यक्ति वर्तमान को कभी ठीक से जी ही नहीं पाता . " चंचल उम्र से अधिक लम्बे बुरे तजुर्बे झेल चुकी लगती अभागी को समझाता रहा . फिर बोला -- " लगता है , लाचार हो - - - बेबस हो ! "
" हाँ - - - क्योंकि औरत हूँ . " वह रोते - रोते बोली .
" मगर मानो तो - - - अब तो तुम्हें एक नई ज़िन्दगी मिली है - - - अब क्यों रोती हो ? "
" रोना तो सृजन के साथ ही हर स्त्री का भाग्य है - - - और रोते - रोते अब तो जीवन में मेरी रूचि ही समाप्त हो चली है . "
"किन्तु हाथ पर हाथ धरे भाग्य को कोस - कोस कर अकारथ आंसू बहाते रहने से तो ज़िन्दगी पार न होगी . हाँ - - - एक बात यदि खूब ध्यान से समझ लो तो तुम्हारे आँसुओं का शायद कोई उपाय निकल आये . देखो - - - ज़िन्दगी योजनाबद्ध तरीके से गढ़ी मिली तीन घंटे की कोई रोचक रंगीन फिल्म नहीं . ये तो बिना आवेदन ही सुखद संयोग से हाथ लगा कोरा स्केच मात्र है . जिसमें परिस्थितियों से तालमेल बैठाते हुए बड़े जतन से खुद ही रंग भरते - बदलते रहना पड़ता है . इसके बावजूद - - - यदि किसी की शरारत या वातावरण की मार अगर मन पसन्द चटक रंगों को बदरंग भी कर दे तो उसे पुनः - सजाते - संवारते रहना पड़ता है . अनमोल ज़िन्दगी को निरंतर खूबसूरत बनाए रखने के लिए अनवरत कठोर प्रयासों की आवश्यकता पड़ती है . सारी बातों का सार - संक्षेप ये है कि ज़िन्दगी को बड़े जतन से खुद ही बुनना पड़ता है . जो मन - मेहनत नहीं लगाते , उन्हें सादी काम चलाऊ कंबली से ही सन्तोष करना पड़ता है . इसके विपरीत जो लोग एकाग्रता से बारम्बार सवोत्तम प्रयास करते हैं , वो अपनी ज़िन्दगी को खूबसूरत ईरानी कालीन सा बुन डालते हैं . इसलिए जब मनोदशा सामान्य हो जाए तो फुर्सत में मेरी बातों के अर्थ तलाशने की कोशिश करना . शायद काफी कुछ हाथ लग जाए . अभी तो चलो - - - आस पास के किसी दवाखाने में तुम्हारी मरहम - पट्टी करवा दूं . " अचानक कुछ सोचने के बाद चंचल ने मुस्कराते हुए उससे पूछा -- " लेकिन क्या मेरे साथ - - - एक अन्जान अकेले पुरुष के साथ - - - कार में बैठने में तुम्हे स्त्री सुलभ डर नहीं लगेगा ? "
चंचल के व्यंग को समझ कर - - - आंसू पोंछकर - - - उसने जवाब दिया -- " जिसे मौत को गले लगाने में भय नहीं लगा - - - वो भला एक आदमी से क्योंकर डरेगी ! और वो भी उस व्यक्ति से - - - जो उसका जीवन - रक्षक हो . वैसे भी मेरा जीवन जिस अवस्था पर आ पहुंचा है , वहां भय अथवा साहस , ख़ुशी या फिर गम - - - इन सबकी अनुभूतियाँ - - - इन सबके भेद इस समय समाप्त हो चले हैं ."
सच ही तो है - - - भय साहस , ख़ुशी गम - - - ये समस्त भाव व्यक्ति की मनोदशा और काल विशेष पर आश्रित हैं . कभी - कभी व्यक्ति विशेष की मनोदशा प्रयास वश या फिर परिस्थितियों वश स्थायी अथवा अस्थायी रूप में उस अवस्था को छू लेती है - - - जहाँ ख़ुशी या गम , भय या साहस - - - इन सबमें भेद करने की , इन्हें अनुभव करने की प्रवृत्ति शून्य हो जाती है . सभी कुछ समान और तटस्थ रूप से ग्राह्य हो जाता है .
लड़की कार में , ड्राइवइंग - सीट के बगल में बैठ गई . चंचल भी निर्धारित जगह पर पसर कर कार चलाने लगा . उसने कार यथासंभव अधिकतम गति पर झोंक दी . यह सोचकर कि लड़का यदि कार तेज चलाये , तो बगल विराजी लड़की या तो डरकर सहम जाती है - - - या फिर लड़के के ड्राइवइंग - कौशल पर मुग्ध हो जाती है - - - और प्रभाव तो दोनों ही स्थितियों में पड़ता है . वैसे भी लड़कियों पर प्रभाव गांठने का कोई भी अवसर हाथ से न फिसलने देना , लड़कों के जन्मजात स्वभाव में शामिल होता है .
चलती कार में चुप्पी ठहरी थी . मानो दोनों जन लखनवी अन्दाज ओढ़े पहले आप - पहले आप की उम्मीद में मौन साधे हुए थे . अचानक लड़की चंचल की दबी नज़रों के स्पर्श की सुरसुरी से सिकुड़ कर छुई मुई हो गई . शायद भगवान औरतों को एक छठी इन्द्रिय भी देता है - - - और इतनी संवेदनशील देता है कि आँखों की तो जाने दो , उनका शरीर भी पुरुषों के मनोभावों तक को बहुत सहजता से पकड़ लेता है . वह भी चंचल की निगाहों के शालीन स्पर्श की गुदगुदी अपने सम्पूर्ण शरीर में क्रमशः अनुभव कर रही थी . सचमुच - - - चंचल बीच - बीच में मौका तलाश कर कनखियों से लड़की की तरफ निहार कर पुरुष - स्वभाव का परिचय दे रहा था . उसकी चोर नज़र लड़की के रेशमी चेहरे से फिसलती हुई - - - यौवन के ढलान से अटकते - लुढ़कते उसके गोरे नाज़ुक चरण कमलों तक जा पहुंची . कुल मिलाकर उसने अपनी चोर नज़रों की पद - पट्टिकाओं पर चंचल मन को सवार कराकर लड़की के बर्फ - से चिकने बदन पर दूर - दूर चहुँओर जी भरकर मजेदार स्कीइंग करा डाली और बेमन से रुका तभी , जब आत्मा के ब्रेक ने उसे मजबूर कर दिया . इस बहाने पहली बार उसकी अनुभव हीन उत्सुक आँखों ने अपने इस विशिष्ट अन्दाज़ से लड़की के शरीर के चप्पे - चप्पे का स्वाद जी भरकर चखा - छका और उसके सम्पूर्ण सौन्दर्य को अपने भीतर तक अनुभव किया . अपने इस सुखद निरीक्षण के बीच उसने पाया कि लड़की की जुल्फ जन्नत की गलियों जैसी थीं . उसके दांत मोतियों और कान सीपियों जैसे थे . उसके होठ किसी खूबसूरत ग़ज़ल की दो पंक्तियों जैसे थे . शरीर गदराये यौवन के बोझ से झुका - झुका और रंग - - - हाय - - - मत पूछो - - - ऐसा लगता था , जैसे दूध से भरे कांच के बर्तन में चुटकी भर गुलाल गिर गया हो . काली साड़ी उसके गोरे बदन से इस तरह लिपटी थी , जैसे चमकते चाँद से बदली . पतली कमर उन्नत उरोजों का भार वहन करते - करते लचकी पड़ रही थी . आँखों की मदिरा छलकी पड़ रही थी . ऐसा मनभावन था उसका रूप . लगता था , जीवन्त हो उठी खजुराहो की कोई मूरत चल - भटक कर उसके बगल में आ बैठी हो , जिसके शरीर से महुआ की मादक महक आ रही थी . चंचल की तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि मात्र एक शरीर के अन्दर इतना सौन्दर्य समा कैसे गया ! प्रभु की लीला , प्रभु ही जाने .
उसने मौन तोड़ा -- " नाम क्या है तुम्हारा ? "
" पायल . " छोटा सा उत्तर दिया उसने - - - और उसकी वाणी कार में ऐसे छनकी , जैसे खेत में पकी खड़ी अरहर की फलियाँ पुरवा का झोंका पाकर पायल - सी बज उठी हों .
" देखो पायल - - - तुम मुझे अपना हितैषी समझो और सच - सच बताओ - - - तुम कौन हो और किन कारणों वश ज़िन्दगी की अनमोल धुन पर संगत बिठाने में असफल होकर ज़िन्दगी को ही ख़त्म करने पर तुली थी . " चंचल ने प्रश्न के साथ - साथ मुस्करा कर मीठा सा मजाक भी किया -- " कहीं किसी लड़के ने प्यार में बेवफाई तो नहीं की ? वैसे मै तो यही सुनता आया हूँ कि औरतें बेवफाई को अपना ही सुरक्षित अधिकार समझती हैं . "


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Last edited by Dr. Rakesh Srivastava; 05-02-2012 at 09:12 PM.
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

मगर पायल ने इस व्यंग को दिल पर न लेकर अपने अतीत पर से पर्दा उठाना शुरू कर दिया . वह बोली -- " कुछ समय पूर्व तक मेरा भी एक सुखी सम्पन्न परिवार था . परिवार में मैं , मेरे माता - पिता और पिता का दूर का लगा - छुआ एक अधेड़ उम्र का रिश्तेदार था . जिसका शेष परिवार दूर गाँव में रहता था . वो मेरे पिता के फल फूल रहे व्यवसाय में उनकी सहायता करता था और बदले में प्राप्त होने वाली धनराशि से अपने परिवार का भरण - पोषण करता था . मै उसे स्वाभाविक रूप से अंकल कहकर संबोधित करती थी . कुल मिलाकर हमारा जीवन खूब हंसी - ख़ुशी बीत रहा था - - - लेकिन शायद हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के प्रतिफल स्वरूप ईश्वर की आँख में हमारी ख़ुशी खटकने लगी और उसने हमारे खुशहाल परिवार पर अपने ज़ुल्म कि बिजली गिरा दी . अचानक एक दुर्घटना में मेरे माता - पिता मारे गए . अभी मै इस सदमे से उबर भी न पायी थी कि अनायास अपने संरक्षण में आयी मेरे पिता की दौलत ने अंकल की मति भ्रष्ट कर दी . उसकी छिपी हुई बुराइयां कछुए की गर्दन की तरह निकल कर सामने आ गयीं . उसने जुए , शराबखोरी और अय्याशी में मेरी सारी संपत्ति खानी - उड़ानी शुरू कर दी . साथ ही उसने मौके का फायदा उठाकर एक और काम बड़ी चतुराई से किया . वो था अपनी चार - चार सयानी लड़कियों की ताबड़तोड़ शादी करना . चार की चारों बहनें बदकिस्मती से बदसूरत थीं . इसीलिये उसको हर लड़की की शादी के वक्त एक मोटी रकम बदसूरत बेटी पैदा करने के जुर्म में बतौर हर्जाने के दहेज़ की शक्ल में अदा करनी पड़ती थी . उसकी समस्या ये भी थी कि एक लड़की हाथ पीले करके बंदरगाह से अपना लंगर छुड़ा भी न पाती थी कि दूसरी तैयार बैठी लड़की रवानगी की सीटी बजाने लगती थी . नतीजा ये निकला कि उनको फटाफट निपटाते - निपटाते उसने मुझे कंगाल कर दिया . उसके बाद मोटी रकम के लालच में उसने मुझे एक ऐसे शराबी रईस बूढ़े के साथ ब्याहना चाहा जो कि शरीर के मामले में गीले आटे जैसा ढीला और लुजलुजा हो चुका था . जिसके गले यदि बंध जाती तो निश्चित ही शादी निभाते उसका दम फूलने पर डर बना रहता कि कहीं उसी मेरी वक्त कलाइयाँ और मांग खाली न हो जायें . सो मैंने दृढ़ता से इनकार कर दिया . इसलिए निकम्मे हो चुके अंकल को जब धन - प्राप्ति का कोई दूसरा उपाय न सूझा तो उसकी शराबी नज़र मुझ पर अटक गई . उसने मुझे बहलाने - फुसलाने का प्रयास शुरू कर दिया . वह मुझसे वेश्यावृत्ति करवाकर - - - मेरी कमाई से खुद गुलछर्रे उड़ाना चाहता था . मेरे इन्कार करने पर उसने मुझे मारना - पीटना शुरू कर दिया . बदनामी के डर से - - - मै ये बातें किसी से बताने में भी झिझकती थी . किन्तु मै अपने फैसले पर डटी रही और मेरा शराबी अंकल अपनी जिद पर अड़ा रहा . आखिर एक दिन उसने मुझे बेचने का फैसला कर लिया . और जैसा कि प्रायः होता आया है कि पहली - पहली बार औरतों के ज़िन्दा गोश्त का मूल्य अधिक होता है - - - सो एक कामी सेठ करोड़ीमल ने मेरी एक रात कि कीमत बीस हज़ार रूपये लगा दी . और दस हजार रूपये मेरे शराबी अंकल को अग्रिम दे दिये . मेरे लाख रोने - चिल्लाने और मना करने के बावजूद मेरे अनोखे अंकल का दिल नहीं पसीजा - - - और उसने मुझे उस बदमाश सेठ के गंदे हाथों मैला होने के लिए सौंप दिया . जब वो कामान्ध सेठ अपनी कोठी पर मेरे साथ जबरदस्ती अपना मुंह काला करने की कोशिश कर रहा था तो अचानक मैंने मौका पाकर कमरे में रखा स्टूल उसके सर पर दे मारा . चोट खाकर वो बेहोश हो गया . और इस तरह मै आज़ाद होकर भाग निकली ." इतना कहकर वह एक पल को शांत हो गयी - - - मगर फिर कुछ याद आते ही पुनः बोली -- " ये देखो - - - ये - - -मेरे पर्स में वो दस हज़ार रूपये अब भी हैं , जो उसने मुझे बाद में देने के लिये - - - लड़की से औरत बनाने के लिये स्टूल पर रख छोड़े थे . "
पायल की छोटी सी जिंदगी की बड़ी - बड़ी मुसीबतें सुनकर चंचल को समझते देर न लगी कि इतने बड़े - बड़े हादसे झेल चुकने के पश्चात सामान्य व्यक्ति उस दोराहे पर पहुँच जाता है , जहां से एक रास्ता तो आक्रामक प्रतिशोध की ओर जाता है ओर दूसरा पलायन वादी आत्महत्या की तरफ . अब भावावेश में राह विशेष का चयन तो काफी कुछ भुक्तभोगी की तात्कालिक मनःस्थिति पर निर्भर करता है .
पायल के परिस्थितिजन्य आत्महत्या के फैसले के कारणों से दयाद्र हो उठे चंचल ने समझाया --" लेकिन तुम्हे वो रूपये अपने साथ नहीं लाने चाहिए थे . तुम्हे वो रूपये लेने का नैतिक अधिकार तब तक नहीं बनता था - - - जब तक कि स्वेच्छा से तुम सेठ को रुपयों की मनचाही कीमत अदा न कर देती . मुझे तो डर है कि बेवकूफी वश तुम अपने पर्स में रूपये नहीं बल्कि वो अनैतिक भ्रूण डालकर ले आई हो , जो भविष्य में किसी बड़ी समस्या की शक्ल भी ले सकता है . "
पायल अपनी गलती अनुभव करती हुई बोली -- " हाँ - - - शायद तुम ठीक ही कह रहे हो - - - लेकिन उस वक्त जल्दी - जल्दी में - - - बदहवासी की हालत में तत्काल जो सूझा , सो किया . पहले मैंने सोचा था कि रूपये लेकर कहीं दूर भाग जाऊंगी और शान्त जीवन व्यतीत करूंगी - - - और यही सोचकर मैंने रूपये उठाये भी थे - - - लेकिन बाद में विचार आया - - - जहाँ जाऊंगी- - - ऐसे कामी सेठ और शराबी अंकल मिलते ही रहेंगे . जबकि मै अकेली थी -- बिल्कुल अकेली . सच - - - उस समय मैंने समझ लिया था कि स्त्री कभी भी बालिग नहीं होती . बचपन में उसे बाप की अंगुली की , जवानी में पति के आसरे की और बुढ़ापे में लड़के के सहारे की जरूरत होती है . और मेरे पास - - - मेरे पास इनका तो क्या - - - किसी का भी सहारा न था . हाँ - - - दुश्मन जरूर थे . एक नहीं , कई दुश्मन -- मेरा अंकल , मेरा रूप , मेरा अकेलापन , मेरी जवानी . और यही सब - - - ."
" यही सब सोचकर तुमने आत्महत्या का नकारात्मक फैसला कर डाला . बिना लड़े ही हथियार डाल दिए . भावना के प्रवाह में बहकर , बिना तैरने की कोशिश के ही डूब मरने को राजी हो गयी . यह तो सरासर बेवकूफी थी . एक नादान निर्णय . " चंचल ने उसकी बात काट कर कहा -- " देखो - - - हरि हर हारे को हमेशा अपनी तरफ से एक मौका और देता है . अब जबकि ईश्वर ने तुम्हें मुझसे टकरा ही दिया है तो अगर चाहो तो मन मजबूत करके फ़िलहाल तुम मेरे यहाँ रह सकती हो -- यदि यकीन हो तो . इस वक्त इतना विश्वास तो मै तुम्हें दिला ही सकता हूँ कि दुनिया केवल वैसी ही नहीं है - - - जैसी संयोग वश अब तक तुम्हारी आँखों ने देखी है . "
चंचल के अन अपेक्षित प्रस्ताव ने पायल पर संजीवनी सा कार्य किया . वह एहसान भरी नज़रों से उसकी तरफ देखती रह गई . उसकी जबान कुछ बोल न पायी मगर आँखें जबान की भरपाई कर रही थीं और इस क्षण चंचल ने पायल की पुनर्ज्योति पायी झील सी गहरी आँखों में कल - कल करते झरनों को बहते देखा . कुलांचे मारते मस्त हिरणों को लपकते देखा . टिमटिमाते दियों को अचानक भड़कते देखा . गदराई चटक - रंग कलियों को दीवार से उतरती धूप की रफ़्तार से चटक कर फूल बनते देखा . बौराए आम के बगीचों को अमियाते और उन पर कोयलों को फुदक कर कूकते देखा . जीवन की बुलबुलों को मौजों के नग्में गाते देखा . उजाले पाख की पुरवाई रात में फुलयाई नीम की डोलती डाल पर दमकते चाँद को झूलते देखा . और - - - और मासूम बया को फटाफट खूबसूरत घोसला बुनते - बनाते देखा . उसे ऐसा लगा - - - उसने पायल की आँखों में कोई अछूती किताब शुरू से अन्त तक पढ़ ली हो -- पूरी की पूरी .
थोड़ी ही देर में एक बीमार सा दवाखाना दिखा . चंचल ने मजबूरन वहीँ पायल की मरहम - पट्टी करवा दी - - - फिर अपने घर ले जाकर , अपनी छोटी बहन गेसू और पिता प्रोफ़ेसर साहब से उसका परिचय करवाकर उसे फ़िलहाल घर में ही रहने की मनचाही अनुमति ले ली .


[2]
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( 2 )
सुबह के उजले पंछी ने अपने पंख पसार लिए थे और रात अपनी काली बाहें सिकोड़ चुकी थी . सूरज अपना सोना बिखेर रहा था . सुनहरी धूप खिड़की से छलांग लगाकर कमरे में आ रही थी और अपने साथ ईश्वर का ये शुभ सन्देश भी ला रही थी कि हर रात के बाद सवेरा होता ही है .
भोर की पवित्र बेला में बेला की मनमोहक महक हवा में तैर रही थी . प्रोफ़ेसर साहब कमरे से बाहर निकल कर लॉन में टहलने लगे . यह उनका प्रतिदिन का नियम था और साथ ही उनके अच्छे स्वास्थ्य का राज भी . लगभग पचपन वर्ष के युवा थे वो . क्योंकि कोई भी उन्हें सरसरी नज़र से देखकर पैंतालिस वर्ष से ऊपर का नहीं कह सकता था. कठोर परिश्रम में विश्वास करने वाले प्रोफ़ेसर साहब जेब के साथ ही स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भी काफी संपन्न थे .किसी भी कार्य को छोटा या बड़ा नहीं समझते थे - - - न ही उसे करने में कोई शर्म - संकोच करते थे . दुर्भाग्य के प्रकोप ने भरी जवानी में ही उन्हें विधुर बनाकर उनकी खुशियों पर डाका डालने का प्रयास तो किया था - - - मगर वो थे कि इससे थोड़ा ठिठकने के बाद जीवन को सम्पूर्णता के साथ जीने की कला में स्वयं को ऐसा पारन्गत बना लिया कि हँसते ही जा रहे थे . जब गेसू दो और चंचल पांच वर्ष के थे , उस वक्त उनकी माँ का आकस्मिक निधन हुआ था . इसके बाद सौतेली माँ के संभावित दुर्व्यवहार की आशंका वश उन्होंने दूसरा विवाह करने का जोखिम नहीं लिया - - - यह सोचकर कि आने वाली कहीं ममता की जगह बच्चों की जेबों में नफरत न डाल दे . और तब से लेकर अब तक उन्होंने अपने अरमानों को , कुदरती भूख को , शारीरिक मांगों को दबाये रखा और बच्चों के वास्ते बाप के साथ - साथ माँ भी बन गए . उन्हें संवारते - बनाते अपना ख़याल तक भूल गए . अब यही बच्चे उनके लिए ऊर्जा का वो सूर्य थे जिसकी परिक्रमा मात्र ही उनका जीवन - धर्म बन गया था . पोंगा पंथी पुरातन विचार उन्हें छू तक नहीं सके थे . संकीर्णताओं से उन्हें परहेज ही नहीं , बल्कि घृणा थी . जीवन के हर क्षेत्र में कुछ ख़ास होना उनके किये आम बात थी . नए पुराने की उत्तमताओं के समन्वय से जिस व्यक्तित्व का संश्लेषण हुआ था - - - उसकी संज्ञा थे प्रोफ़ेसर साहब . उर्दू जैसी मीठी ज़ुबान , हिंदी जैसा आम चेहरा , संस्कृत जैसे सात्विक विचार , पंजाबी जैसे फड़कते और अंग्रेजी जैसे बोल्ड व बेपरवाह अन्दाज़ थे उनके . सामजिक कुरीतियों की परवाह न करते हुए , उनकी धज्जियां उड़ाने वाले बेहद खुले दिमाग के और खूब मजाकिया स्वभाव के थे प्रोफ़ेसर साहब .
रोज सुबह के नियमानुसार जाग - उठ कर चंचल और गेसू कमरे से बाहर आये और उन्होंने अपने पिता प्रोफ़ेसर साहब के चरण स्पर्श कर उनमे प्रवाहित ऊर्जा - पुंज का कुछ अंश आशीर्वाद - स्वरूप स्वयं में उतारने का दैनिक प्रयास किया .
जब गेसू ने उनके पैर छुए तो अपनी आदत के अनुसार वातावरण को हास्यमय बनाने के उद्देश्य से उन्होंने चुटकी ली -- " जीती रहो बेटी - - - खुश रहो . तुम्हें राजा - सा दूल्हा और महलों - सा सुख मिले ."
" शर्मायी गेसू तुनक कर बोली -- " ये क्या - - - पिताजी आप भी - - - . "
"अच्छा बाबा , मुँह मत फुला . जा तुझे बन्दर - सा दूल्हा और झोपड़ी - सा सुख मिले . अब तो हुई खुश ? " प्रोफ़ेसर साहब उसकी बात काट कर , हंसकर बोले .
" जाइये हम आपसे नहीं बोलते . " गेसू ने बनावटी गुस्सा बिखेर कर कहा . वैसे तो वो अपने भावी दूल्हे की चर्चा से मन में एक मादक सी गुदगुदी अनुभव कर रही थी - - - लेकिन ऊपरी तौर पर गुस्सा तो प्रकट ही था - - - क्योंकि ऐसा तो सभी जवान लड़कियां करती हैं
बाप - बेटी में नोक - झोंक चल ही रही थी कि पायल भी आ गयी . सब लोग नाश्ते के लिए डाइनिंग - टेबल के इर्द - गिर्द बैठ गये . नौकरानी - - - सुन्दर व गुदाज जिस्म की चालीस वर्षीय रधिया नाश्ता ले आई . सभी लोग नाश्ता करने लगे .
तभी प्रोफ़ेसर साहब को अनुभव हुआ कि गेसू के चेहरे का प्रभा मण्डल कुछ फीका उतरा सा है . उनकी दुनिया देखी आँखों को गेसू के मन की बेचैनी भांपने में कोई कठिनाई न हुई . वैसे भी जो बाप अपने बच्चों के चेहरे के भाव देख कर उनके मन की थाह नहीं लगा लेता - - - समझो कि वो बच्चों के प्रति लापरवाह है .
" तुम कुछ उदास हो गेसू ? देख रहा हूँ - - - तुम्हारा चेहरा कुछ बुझा - बुझा सा है . " प्रोफ़ेसर साहब ने गेसू को कुरेदा .
गेसू ने बल पूर्वक मुस्करा कर बात को टालने का प्रयास किया -- " नहीं - - - ऐसी तो कोई बात नहीं . मेरे चेहरे पर रौशनी तो है - - - बस नींद पूरी न होने से - - - जरा सा वोल्टेज कम है "
चंचल और पायल उसके जवाब पर हँस दिए मगर ऐसी कई बरखा झेल चुके प्रोफ़ेसर साहब पूर्ववत गंभीर रहे .
उन्होंने शब्दों पर जोर देते हुए कहा -- " देखो बेटी - - - पैर चाहे कितने भी ऊंचे क्यों न हो जायें - - - पर रहेंगे कमर के नीचे ही .तुम अपने खोखले शब्दों पर मुस्कान की कलई चढ़ाकर मुझे फुसला नहीं सकती . सच - सच बताओ - - - बात क्या है ? "
अपने बहाने को रुई सा धुनकता देख , गेसू ने समर्पण कर कहा -- " जी - - - कल मै बैंक से साढ़े तीन हजार रूपये निकाल कर ला रही थी - - - रास्ते में पर्स कहीं गिर गया , इसी से मन परेशान था . "
" ओह - - - तो ये है तुम्हारी परेशानी का कारण ! भला इस बात से अब मन - मस्तिष्क में तनाव पैदा करने से क्या लाभ ? " जो खो गया - - - निश्चित ही वो तो अब मिलने से रहा . फिर हम - - - जो बची है - - - उस मानसिक शान्ति को क्यों खोयें ! "
" लेकिन पिताजी मुझे इस बात का बेहद दुःख है . "
" बेटी - - - जिस दुःख का कोई तात्कालिक उपाय न सूझे - - - उसका मजा लेना सीख लो तो जिन्दगी और भी खूबसूरत हो जायेगी . "
"दुखों का मजा ! भला ये कौन सी बात हुई ? "
" बेटी - - - यही तो जीने की कला है . इसे ऐसे समझो . दुःख असंतोष से उत्पन्न होता है - - - जबकि सुख संतोष से मिलता है . तुम्हें तो जीवन में बस ऐसा दृष्टिकोण विकसित करना होगा कि तात्कालिक असंतोष के कारणों के दूरगामी परिणामों की पर्तें उधेड़ कर जैसे - तैसे जबरन उनमें सन्तोष को तलाश लो . बस - - - सुख तो अपने आप हाथ आ जाएगा . "
" मै अब भी ठीक से नहीं समझी . "
" समझने की जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है तो भविष्य में सुखी सन्तुष्ट व्यक्तियों की जीवन - पद्धति पर निरंतर पैनी नजर रख कर उसका अनुकरण करने की अच्छी आदत डालो . सुखद परिणामों का स्वाद धीरे - धीरे सब समझा देगा . " प्रोफ़ेसर साहब ने समझाया और गेसू की पीठ थपथपाकर पुनः बोले -- " अच्छा चलो - - - अब सामान्य हो जाओ . यह सोचकर उदासी दूर भगाओ और तसल्ली पाओ कि लक्ष्मी चंचला है . वह किसी के पास अधिक दिनों कब ठहरी है . हो सकता है - - - तुमसे रूठ - छिटक कर वह किसी अन्य जरूरत मन्द के पास जाये और उसके बिगड़े काम बनाए . इस सूरत में भी तुम्हें उस अन्जाने की खूब दुआएं मिलेंगी - - - जो जीवन की अचल संपत्ति बन कर आड़े वक्त में जरूर तुम्हारे काम आएँगी . यही एक अब सर्वोत्तम सुखमय तरीका है तुम्हारे पास - - - मन को धीरज धराने का . "
इतना कहकर प्रोफ़ेसर साहब आँखों में सुरभीला स्नेहिल आकाश और होठों के कोर पर निश्छल मुस्कान लिए कमरे से बाहर निकल लिये . गेसू भी काफी कुछ हल्की होकर कमरे से बाहर हो ली . चंचल - पायल ही अब शेष बचे .
ऐसी अनुकूल तन्हाई में दो जवाँ दिल हों और वो गुटर गूं - गुटर गूं न करें - - - ऐसा कैसे संभव है !
" चंचल. " पायल ने राग छेड़ा .
"हूँ . " चंचल ने संगत दी .
" चंचल - - - सोचती हूँ - - - मुझ पर एहसान करके तुम अपने लिए शायद अच्छा नहीं कर रहे . "
" क्यों ? "
"क्योंकि एक जवान लड़का - - - एक जवान लड़की की मदद करे - - - और वो भी इतने बड़े पैमाने पर - - - अपने घर तक में रखने जैसी मदद करे - - - तो लोग शायद एक ही बात सोचेंगे - - - . "
" एय !" चंचल ने पायल की बात काटी .
" क्या ? " पायल नज़रें उठा कर बोली .
" कहीं तुम ही तो नहीं कुछ सोच रही , ऐसा - वैसा ? "
" कैसा ? " सिटपिटायी पायल की नज़रें झुक गयीं , चंचल की बात सुनकर .
चंचल हिम्मत जुटा कर बोला -- " पायल ! पता नहीं - - - दुनिया वाले सोचे या न सोचें - - - मैं तो इधर बीच कई दिनों से लगातार एक ही बात सोच रहा हूँ . जब से तुम मिली हो - - - मेरी साँसों में महकने लगी हो . लगता है , मै तुम्हारी जरूरत अनुभव करने लगा हूँ . अपनी जिंदगी को और बेहतर बनाने के लिए - - - तुम्हारी तमन्ना करने लगा हूँ . लगता है - - - तुमसे मिलने से पहले मै एक नीरस किताब था , जिसके कुछ ख़ास पन्ने फटकर कहीं बिखर - खो गए थे . तुम मिली , मानों वो पन्ने मिल गए . अब अगर ये पन्ने अधूरी किताब से चिपक जाएँ , तो किताब पूरी हो जाये . सच पायल - - - अगर साफ़ - साफ़ सुनना चाहो , तो मै यही कहूँगा कि तुम मुझे बेहद खूबसूरत लगने लगी हो . तुम वही हो , जो मेरे अचेतन मस्तिष्क में बसती थी . तुम मिल जाओ , तो मेरी ज़िन्दगी का नक्शा तितलियों के पंख - सा रंगीन हो जाए . एक वाक्य में - - - ज़िन्दगी के हसीं सफ़र में - - - मैं तुम्हें - - - बस तुम्हें ही हमसफ़र , हमदम और हमराज बनाना चाहता हूँ . बोलो - - - क्या मेरा साथ दोगी ? "
इतना कहकर चंचल ने भावावेश में पायल के हाथ पर हौले से अपना हाथ रख दिया . उसे लगा - - - जैसे उसने किसी मुलायम पंखों वाली चिड़िया पर हाथ रख दिया हो .
कहने को तो चंचल भावावेश में ये सब कुछ धाराप्रवाह कह गया था - - - मगर वह इस बीच नज़रें नीची ही किये था . सोचता था - - - क्या पता - - - पायल की क्या प्रतिक्रिया हो .
और तभी - - - हाँ , ठीक तभी चंचल के उस हाथ पर , जो पायल के हाथ के ऊपर था - - - दो - तीन गुनगुनी बूँदें टपकीं -- टुपुर - टुपुर - - - टप .
अचकचाए चंचल ने सकुचाई गर्दन ऊपर उठाकर देखा . देखा - - - पायल की गऊ - सी निर्मल आँखें रिस रहीं थीं
उसे रोता देखकर चंचल घबरा कर सिटपिटा गया . बोला -- " तुम बुरा मान गयी पायल ? "
" मै कौन होती हूँ बुरा मानने वाली ! सारे अधिकार तो तुमने छीन लिए हैं मुझसे . कर्तव्य भर ही अब शेष बचे हैं मेरे पास . "


इतना कहकर पायल और भी तेजी से फफक पड़ी और पागलों की तरह चंचल के हाथ को अपने सुर्ख नर्म - गर्म होटों से चूमने लगी . इधर से , उधर से , अगल से , बगल से .
अब चंचल की हलक में छलक कर अटक चुकी जान फिर से उसके दिल में लौट आयी तो उसने चैन की लम्बी सांस ली और खड़े होकर - - - पायल को अपनी ओर अधिकार पूर्वक खींचकर बलिष्ट बाहों के बंधन में भरपूर भींच लिया . उसे लगा जैसे कोई मुलायम सी गुनगुनाहट उसके सीने में दो तरफ़ा उतर जाने पर उतारू हो गयी है .
और उधर - - - पायल ने अनुभव किया कि उसकी नाज़ुक पसलियाँ कड़कडा कर कर टूट भी सकती हैं . उसके गले से एक मादक सिसकारी निकल पड़ी . फिर भी वो निर्विरोध खड़ी रही . क्योंकि उसे चंचल की बाहों में अपनी भटकती ज़िन्दगी के लिए उद्देश्य और रास्ता नज़र आने लगा . बेहतरीन मंजिल और सुरक्षित रास्ता . उसे लगा - - - उसकी अब तक की ज़िन्दगी , जो बदसूरत हकीकत थी , अब हसीं ख़्वाब बनने को है .
संयोगवश छज्जे पर खड़ी गेसू , ये दृश्य देखकर एक संतोष भरी मुस्कान बिखेर रही थी .

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( 3 )

एक बात तो है - - - कि जिस घर में डाइनिंग - टेबल पर या अन्यत्र यथा संभव एक साथ बैठ कर परिवार के सभी सदस्य नियमित रूप से नाश्ते तथा भोजन का आनन्द लेते हैं - - - उस सौभाग्यशाली परिवार के सदस्यों में संवाद की निरंतरता निश्चित ही बनी रहती है . वहां संवादहीनता नहीं पनपने पाती . यदि परिवार के किन्हीं दो सदस्यों में वैचारिक भिन्नतावश मनमुटाव प्रारंभ भी हो जाता है तो उसका त्वरित समाधान इस स्थान विशेष पर संवाद के जरिये स्वतः निकल आता है . यदि दो सदस्यों में किसी विषय विशेष को लेकर अनबन की कोई स्थिति उत्पन्न भी हो जाए तो उनके चेहरों पर छलक आये मनोभावों को पढ़कर घर के पारखी बुज़ुर्ग अपने तजुर्बे व कौशल से तत्काल ही मध्यस्थता कर कोई सर्वमान्य समाधान निकाल कर उनके मन - मस्तिष्क पर जमे एक दूसरे के प्रति मैल को धो देते हैं . इस प्रकार परिवार में क्रमशः संवाद हीनता , मन मुटाव तथा विलगाव की स्थिति यथा संभव टल जाती है - - - और परस्पर प्रेम भाव बना रहता है . यही एक बहुत महत्वपूर्ण लाभ है -- प्रतिदिन साथ बैठकर खाने - पीने का .
यह अच्छी आदत प्रोफ़ेसर साहब ने भी अपने परिवार में डाली थी . इसी आदत के अनुरूप - - - मेज के इर्द - गिर्द चंचल , गेसू और प्रोफ़ेसर साहब शाम के नाश्ते के इन्तज़ार में बैठे थे . जबकि पायल किसी आवश्यक कार्य वश कहीं बाहर गई हुई थी .
कमरे में लगी दूधिया विद्युत - ट्यूब मुस्कराती हुई सुखद रौशनी बिखेर रही थी . खिड़की पर लगे खूबसूरत रेशमी परदे हवा की छेड़खानी के चलते किसी हसीना की जुल्फों की तरह लहरा रहे थे . कमरे से बाहर - - - गोधूल - बेला में शाम और रात गलबहियां करके कल फिर मिलने का वादा कर रहे थे - - - कसमें खा रहे थे -- प्रेमी - प्रेमिका की भाँति . बाहर बगीचे में खिलखिलाते बेला की भीनी - भीनी ख़ुश्बू खिड़की फलांग कर कमरे में अनवरत रूप से दाखिल हो - होकर नाक के रस्ते सभी के मस्तिष्क में घुसकर मन को खुशहाल करने पर तुली हुई थी .
और तभी !
ठीक उसी समय - - - नौकरानी रधिया ने आकर सूचना दी कि कोई साहब गेसू से मिलना चाहते हैं .
" उन्हें सादर अन्दर बुला लो . " प्रोफ़ेसर साहब बोले .
रधिया बाहर चली गई . थोड़ी देर में एक नवयुवक कमरे में दाखिल हुआ . कसी लम्बी कद काठी वाले युवक के चेहरे से पौरुष छलछला रहा था . ऐसा सुता चेहरा था , जिसे लड़कियां कनखियों से देखना पसंद करती हैं .
सभी ने संस्कार वश थोड़ा सा खड़े होकर उस अपरचित के स्वागत की औपचारिकता निभायी .
दुआ - सलाम के बाद प्रोफ़ेसर साहब सामने की कुर्सी की ओर इशारा करके बोले -- " कृपया बैठें . "
" धन्यवाद . " कहकर युवक बैठ गया .
"माफ़ कीजिये ! मैंने आपको पहचाना नहीं ." गेसू ने कहा .
" एक प्याला चाय खर्चा कीजिये . अभी जान - पहचान हुई जाती है . " युवक ने हंसकर जवाब दिया .
प्रोफ़ेसर साहब ने मुस्कराकर चाय का एक प्याला युवक को देकर पूछा -- " फिर भी - - - आपकी तारीफ़ ? "
युवक भी मुस्कराकर बोला -- " सर जी ! तारीफ़ तो उस खुदा की है , जिसने मुझे लापरवाही में बनाया . वैसे बन्दे को गुलशन कहते हैं . गुलशन ' बावरा '- - - ."
" बावरा क्यों ? आप बावरे कैसे हो ? " गेसू ने बीच में ही रोककर मध्यम हंसी में मुलायम चुटकी ली .
ली गयी चुटकी क्योंकि किसी युवती की थी - - - इसलिए गुलशन ने दिल पर न लेकर , उसका मजा ही लिया और दो कदम आगे बढ़कर हाज़िर जवाबी दिखाई -- " वास्तव में - - - पहले तो मै था सादा - सूदा गुलशन - - - और चूंकि गुलशन में गुल खिलते - खिलते रह गया - - - इसलिए गुलशन बावरा हो गया . "
इतना कहकर गुलशन ने हंसकर गेसू से पूछा -- " अपने चेहरे - मोहरे का भी वर्णन करूँ क्या ? "
" हाँ -हाँ - - - क्यों नहीं - - - जरूर . " गेसू भोर के गुलाब की तरह मुस्कराकर चहकी .
" तो सुनिए ! " गुलशन लम्बी सांस भरकर कहने लगा --" मेरी कद काठी हिन्दुस्तानी और भाग्य बेमानी किस्म का है . चेहरा मर्दाना - -- - मगर मूंछें गुजरे बाप की याद दिलाती सफाचट हैं . औसत पतलून व बुश - शर्ट पहनता हूँ और जनता की भाषा में बोलता हूँ - - - लेकिन अंग्रेजी में सोचता हूँ . सोचता - बोलता ज्यादा - - - मगर करता कम हूँ . इसीलिए मेरा मन एकदम भारतीय बुद्धिजीवी सरीखा हो गया है . मेरी कल्पना पेशावरी घोड़े की तरह जमीनी सतह से थोडा ऊपर ही हवा में दौड़ती है . यानी मिजाज शायराना है . पर कुल मिलकर मै एक हिन्दुस्तानी किस्म का आदमी हूँ . मेरी आमदनी में किसी इनकम - टैक्स वाले ने कभी कोई दिलचस्पी नहीं ली - - - इसलिए कुल मिलाकर मै औसत हिन्दुस्तानी ही हूँ . "
इतना कहकर और हँसकर गुलशन ने एक बिस्किट उठाकर मुंह में कैद कर लिया .
सभी हंस पड़े उसकी बात पर . गेसू भी हंसी -- घुँघरू खनकने वाली हंसी .
" आप बहुत दिलचस्प आदमी हैं . " वह हँसते - हँसते बोली .
" कभी - कभी . " गुलशन ने गंभीर होकर कहा .
अबकी चंचल ने अपना मौन तोड़ा -- " क्या आप बताएँगे कि आपका हमारे यहाँ कैसे आना हुआ और हम आपके किस काम आ सकते हैं ? "
" अभी तो शायद किसी काम नहीं . जी - - - बात ये है - - - मुझे पिछले माह एक पर्स पड़ा मिला था - - - . "
पर्स की बात सुनकर सभी चौंक पड़े . सबके दिलों में हर्ष मिश्रित उत्सुकता कुलबुलाने लगी , आँखों में उम्मीद के दिए लपलपाने लगे और कान कुछ सुखद सुनने के लिए फड़फड़ाने लगे .
उनके मनोभावों को बांचकर , गुलशन बिना विलम्ब अपनी बात को जारी रखते हुए बोला -- " उस पर्स में गेसू जी की फोटो युक्त बैंक - पास - बुक थी , मय साढ़े तीन हज़ार रुपयों के . किन्तु मेरे लिए यह भी एक सुखद संयोग ही था कि उसी वक्त मुझे कुछ रुपयों की अत्यधिक आवश्यकता थी . मै तो धनाभाव में निराश ही हो चुका था . बेबसी का मोटा माड़ा मेरी आँखों पर छा चुका था - - - लेकिन पड़े मिले रूपये हाथ आते ही मैंने इसे ईश्वर का संकेत और मेहरबानी मान कर उसमे से जरूरत भर रूपये कार्य विशेष में खर्च कर दिए . खर्च करने से पूर्व मैंने पास - बुक का अध्ययन कर अनुमान लगा लिया था कि इन रुपयों के अभाव में गेसू जी के किसी कार्य में कोई विशेष व्यवधान नहीं पड़ेगा . और फिर - - - कुछ दिनों के अंतराल पर पर जब मैंने रूपये पुनः एकत्र कर लिए तो फ़ौरन ही इन्हें इनके असली हकदार तक पहुंचाने चला आया . हाँ - - - इस वापसी में मेरे कारण जो थोड़ा विलम्ब हुआ -- - - उसके लिए मै क्षमा चाहता हूँ . "
गुलशन ने अपने कंधे पर लटके कम्युनिस्टी थैले से पर्स निकाल कर मेज पर रख दिया और सचमुच हाथ जोड़ दिए .
" अरे - - - रे - - - ये तुम क्या कर रहे हो ! " चंचल व प्रोफ़ेसर साहब साथ - साथ बोल पड़े .
बाप और बेटे इस गला काट महगाई के जमाने में ईमानदारी की ऐसी जिन्दा मिसाल मशाल की तरह अपने सामने लपलपाती देख आश्चर्य चकित हो उठे . उनकी आँखें निहाल और सुधियाँ मालामाल हो गयीं . इस छोटे से पल उन्होंने उस दुर्लभ पल को भरपूर जिया - - - जब कुछ खोकर नहीं बल्कि कुछ पाकर भी व्यक्ति ठगा - सा रह जाता है . उन्हें लगा जैसे उन्होंने भेड़ को बकरी जनते हुए देखा हो . जैसे गूलर पर फूल उगते देखा हो . जैसे तपते विशाल रेगिस्तान के बीच कहीं कोई जल - स्रोत फूटते देखा हो . और गेसू - - - वो तो सम्मोहित सी , कभी पर्स तो कभी गुलशन को देख रही थी . और कभी - कभी तो जागती आँखों में तैरते सपनों में उसको अपने बगल में बिठा कर कुछ आंकलन सा कर रही थी .
गुलशन ने कहा -- " अच्छा - - - तो अब मुझे चलना चाहिए . "
" अभी नहीं जाने देंगे . तुम जैसे ईमानदार आदमी के साथ मै अपना अपना अधिक से अधिक समय बिताना पसन्द करूंगा . वास्तव में तुम ईमानदार और नेक आदमी हो - - - और अगर इसी तरह चलते रहे तो बहुत दूर तलक जाओगे . यह मेरी सोच भी है और कामना भी . न जाने आज सांझ - ढले मेरी किस्मत का कौन सा सितारा मुस्कराया है , जो तुम जैसे नेक इंसान से मुलाक़ात हुई . " प्रोफ़ेसर साहब के दिल की गहराइयों से आवाज आई .
" आपने रूपये नहीं गिने ! " अधिक प्रशंसा का स्वाद पाकर गुलशन की जबान कुछ फिसल गई .
" आप हमें शर्मिंदा कर रहे हैं " बाईस बसंतों से लदी - - - गदराई जवानी के खुमार से बोझल पलकों के भीतर कैद - - - गेसू की जादुई आँखों में मानो शिकायत उभर आई .
गेसू ! बाईस साल की उफनती जवानी . ऐसी - - - जैसे टेसू पर फूल गदरा आये हों -- मादक , रस भरे . भादों के जामुन की सबसे ज्यादा लदी लचलची डाल - सा उसका यौवन था . उसका भरा सानुपातिक मखमली शरीर एक खूबसूरत बगीचे की तरह खिला हुआ था . उसके होठ बड़े प्यारे थे . कितने रसीले - - - शहतूती होठ ! यदि उंगली रख कर दबा दें तो रस छलछला कर बाहर आ जाए . उसकी शरबती आवाज वातावरण को मीठा बनाने में माहिर थी . उसकी सम्मोहक नज़र किसी को भी उम्र कैद सुनाने का बूता रखती थी . उसकी मुस्कान ऐसी थी , जैसे सुबह के खिलते पवित्र कमल की सात्विक मुस्कान . चलते समय उसकी कमर ऐसे बलखाती थी - - - ऐसे लहराती थी , जैसे कटी हुई खूबसूरत पतंग . कुल मिलाकर वह बेहद खूबसूरत थी और हुस्न का ऐसा धधकता सूरज थी , जिसकी तरफ सूर्यमुखी के फूल की तरह सदा निहारते रहना युवा पुरुष अपना परम धर्म समझें . ऐसा लगता था - - - विधाता ने फुर्सत में उसे बड़े सधे हाथों से गढ़ा हो . तभी तो उसकी हर बात सधी हुई थी . उसका हर अंदाज़ सधा हुआ था . वह बड़े सधे हुए ढंग से चलती थी . सधे हुए तरीके से उठती - बैठती थी . और - - - और बातचीत का ढंग भी बेहद सधा हुआ था . उसके बात करने के अंदाज़ और शब्दों के चयन से ही प्रतीत होता था कि कोई बुद्धिजीवी महिला बात कर रही है .
क्योंकि वह खूबसूरत थी , इसलिए गुलशन ने उसे गौर से देखा . और फिर - - - खूबसूरत लड़कियों को ध्यान से कौन नहीं निहारता ! लड़का सोचता है - - - काश ये मेरी बीबी होती . बूढ़ा सोचता है - - - काश ये मेरी बहू होती . लड़की सोचती है - - - ये मेरी भाभी होती . तात्पर्य ये है कि सभी अपने - अपने ढंग से सोचते हैं कि खूबसूरती जितना अधिक संभव हो - - - किसी न किसी बहाने आँखों के सामने रहे . दिल - दिमाग को सुख पहुँचाये . और यही बात - - - बिल्कुल यही बात खूबसूरत लड़कों पर भी लागू होती है .
प्रोफ़ेसर साहब ने गुलशान का ध्यान भंग किया -- " घर कहाँ है तुम्हारा ? "
" कहीं नहीं . "
" क्या मतलब ? आखिर कहीं तो रहते होगे ? " प्रोफ़ेसर साहब ने चौंक कर पूछा
" हाँ - - - रहता तो हूँ - - - पर घर में नहीं - - - मकान में . और घर और मकान में बड़ा अन्तर होता है . घर उसे कहते हैं , जहां भरा पूरा परिवार हो . शान्ति और सौहाद्र का साम्राज्य हो . और मकान - - - मकान में इन सबका अभाव होता है ."
" ओ s s s ह - - - तो क्या तुम्हारा परिवार नहीं है ? " गेसू की जिज्ञासा पसीजी .
गुलशन की पीड़ा मुखरित हुई -- " परिवार ही क्या - - - मेरा अपना कोई नहीं - - - कोई भी नहीं . "
और उस क्षण - - - गेसू , चंचल और प्रोफ़ेसर साहब ने एक साथ गुलशन की उदास आँखों में टीस के बादलों को उमड़ते - घुमड़ते , गरजते - तरजते देखा . दर्द के दरिया की भंवर के बीच में उलझ कर सुख को डूबते - छटपटाते देखा . भरी बहार के आबाद गुलशन में मनहूस बदशक्ल उल्लुओं को डरावनी आवाजें निकालते देखा . खड़ी फसल को जलाभाव में दम तोड़ते मुरझाते देखा . और - - - और बहार की छाती पर सवार पतझड़ को क्रूरता पूर्वक हँसते - खिलखिलाते देखा .
" सुनो ! " प्रोफ़ेसर साहब ने टोंका .
" हूँ . " गुलशन चौंका .
" करते क्या हो ? "
" जूतों की घिसाई . "
" मतलब ? "
" बेकार हूँ - - - बेरोजगार . स्ट्रीट लाइट की रौशनी में पढ़कर एम . ए . किया - - - फिर भी . "
" ओह . " प्रोफ़ेसर साहब के मुंह से एक सर्द आह निकली . बेहद ईमानदार व्यक्ति की बेरोजगारी पर . उसकी बेबसी और परेशानी पर .
सच ही तो है ! इस दुनिया में प्रायः दो ही तरह के व्यक्ति फटेहाल और ठनठन गोपाल हैं -- एक बेअक्ल और दूसरे अति ईमानदार . आम तौर पर किताबों में मिलने वाली चीज - - - ईमानदारी अपने दिल में किन - किन दर्दों के समंदर समेटे रहती है - - - और उसे अपने किये की क्या - क्या सजा भुगतनी पड़ती है , ये जानने की फुर्सत इस तेज रफ़्तार जमाने की जेब में कहाँ है !
प्रोफ़ेसर साहब ने कुरेदा -- " खर्चा कैसे चलता है ? "
" कहानी - कविता लिखता और ट्यूशन पढ़ाता हूँ . उसी से होने वाली सीमित आय से पेट को बहलाने की कोशिश करता हूँ और नौकरी तलाशने का असीमित धर्म निभाता हूँ ."
" ओह - - - तो तुम लेखक हो ! "
" हाँ - -- - दुर्भाग्य से हिन्दुस्तानी लेखक हूँ ." गुलशन ने थका - हारा जवाब दिया .
" सुनो - - - एक बात कहूं ! "
" कहिये ."
" मेरा घर मेरी आवश्यकताओं से अधिक बड़ा है . यकीन मानो - - - यह घर ही है , मकान नहीं . और इसका अधिकाँश भाग खाली पड़ा रहता है . जबकि तुम अकेले रहते हो . क्या तुम मेरे यहाँ रहना पसन्द करोगे ? बल्कि मै तो ये कहूँगा कि तुम हमारे साथ रहो . "
" हमदर्दी के लिए शुक्रिया . आपने मेरे साथ अपनापन दिखाया - - - यही क्या कम एहसान है मुझ पर . "
" अरे नहीं ! इसमें एहसान की कौन सी बात है बेटे !! आदमी ही आदमी के काम आता है - - - जानवर तो नहीं !!! " इतना कहकर प्रोफ़ेसर साहब ने मुस्करा कर फिर दबाव बनाया -- " अब देखना ये है - - - कि तुम मुझे आदमी समझते हो या जानवर . यदि मै तुम्हे आदमी नज़र आता हूँ , तब तो तुम्हे मेरी बात माननी ही पड़ेगी . "

[4]
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Old 05-02-2012, 11:07 PM   #7
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अद्भुत कविवर ! आपका गद्यकार रूप फोरम पर देख कर अतीव आनंदानुभूति हुई ! उपन्यास पर प्रतिक्रिया तनिक और पढने के बाद व्यक्त करूंगा ! यह कृति फोरम पर प्रस्तुत करने के लिए आपका आभारी हूं !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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Old 06-02-2012, 07:07 PM   #8
ABHAY
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मित्र आपने जो लिखा है वो वाकई काविले तारीफ है
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Old 06-02-2012, 07:21 PM   #9
abhisays
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लाजवाब.. बहुत ही बढ़िया...
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Old 06-02-2012, 08:17 PM   #10
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

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Originally Posted by abhisays View Post
लाजवाब.. बहुत ही बढ़िया...
आदरणीय Abhisays ji जी ;
मुझे आपकी उस समय की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी ,
जब आप फुर्सत मिलने पर वास्तव में रचना को पूरा पढ़ लें .
धन्यवाद .
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