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Old 21-09-2013, 06:44 PM   #251
jai_bhardwaj
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तब जफर क्या थे। हिन्दुस्तान का एक बेबस राजा। शायर थे सो शायरी के शौकीन होने के बायस मुशायरा रखते थे। नाटक में दिखाया गया कि आज के मुशायरे का मंच संचालन मिर्जा नौशा यानि ग़ालिब करेंगे और दाग, बालमुकंद, मुंशी, मोमिन और इब्राहिम जौक आदि भी अपनी गज़ल सुनाएंगे। गालिब पर नाटक में समझ में न आने के काबिल शेर कहने का तंज कसा गया। दाग ने गालिब पर ये शेर दागा -

अपना कहा जो आप ही समझे तो क्या समझे
मज़ा तो तब है जब आप कहें और सब समझे।

चूंकि बादशाह जफर मंच संचालन नहीं कर रहे थे सो शमां अपनी जगह ही रोशन रही और बारी बारी से शायरों के पास नहीं लाई गई।

जैसा कि उम्मीद थी कि गालिब छा जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने हाजिरजवाबी मंच संचालक की भूमिका निभाई। मसलन जब एक शायर की बारी आती है तो गालिब उसके बारे में कहते हैं - साहब ब्रितानिया सरकार में अफसर हैं। ग्यारह सौ रूपए सालाना की तनख्वाह पाते हैं इतने की ही बाज़ार में मेरे नाम कर्ज हैं। वहां नौकरी और यहां शाइरी। सो साहब जादूबयानी करते हैं। मंच लूटी मोमिन ने।

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता।
हाले दिन उनको लिखूं क्योंकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता।

टूटे हाथ से जब मोमिन ये शेर पढ़ते हैं तो और भी शेर और भी मौजू हो उठता है। मोमिन की आवाज़ मधुर और धीमी रखी गई है। वहीं दाग सबसे बुलंद आवाज़ वाले थे। जौक अपने रूतबे के बायस बुलंद रहते थे।

जफर ने जो सुनाया वो तत्कालीन हिन्दुस्तान का हालाते हाज़रा था। उनके बुढ़ापे ने उनकी बादशाहत की बेबसी को और उभारा।

ऐसा नहीं था कि यह नाटक बहुत रोचक था। बल्कि नाटक अपने कहानी और शिल्प के लिहाज़ से कमज़ोर था। अव्वल जिन्हें उर्दू की थोड़ी भी जानकारी नहीं उनके लिए तो पूर्णतः नीरस था। कई लोग सिर्फ इसलिए बैठे रहे कि शायद सीन बदले और कोई चेंज आए। नाटक में मुशायरे के अलावा और कुछ नहीं था। जबकि होना ये चाहिए था मुशायरे में तब के हालात पर ज्यादा शेर होने चाहिए थे, मुशायरे से कुछ अलग भी होना चाहिए था। नाटक में वैसा कोई तनाव या उत्तेजना भी नहीं थी। बेहद बंधे दायरे में ये नाटक खेला गया। कहने को कहा जा सकता है कि एक रवायत थी जिसे निभाया जा रहा था। लेखक थोड़ी छूट लेते हुए इसे दिलचस्प बना सकता था जिससे नाटक यादगार हो सकती थी। यहां लेखक ये जवाब दे सकता है कि ऐतिहासिक घटनाओं और किरदारों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।

पूरे नाटक के दौरान एक बार भी पर्दा नहीं गिरा। एक ही सीन सिक्वेंस डेढ़ घंटे चलना। वहीं चेहरे मंच पर लगातार रहना, थकाता है।

एम सईद आलम बहुत प्रतिभाशाली हैं जिन्होंने ये नाटक निर्देशित किया। मंच सज्जा अच्छी थी लेकिन लाईटिंग और भी अच्छी लेकिन मेकअप कमाल था। ऐसी कि जिन किरदारों को अन्य नाटक में देखा था उसे अंत तक नहीं पहचान पाया। मसलन ग़ालिब - ये हरीश छाबड़ा थे।

हां सारे किरदारों के उर्दू उच्चारण दुरूस्त थे। मंच पर जब जफर की इंट्री हुई तो दर्शकों ने नाटक से अलग उनके सम्मान में ताली बजाकर उनका स्वागत किया।

अंत में जफर साहब की बात - शेर वो नहीं जिसे सुनकर वाह निकल जाए, शेर वो जिसे सुनकर आह निकल आए।
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Old 21-09-2013, 06:52 PM   #252
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सरकती जाए है रुख से नकाब, आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आबताब, आहिस्ता आहिस्ता

जवां होने लगे जब वो, तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख्ताई और शबाब, आहिस्ता आहिस्ता

शब्-ए-फुरकत का जागा हूँ, फरिश्तों अब तो सोने दो
कभी फुर्सत में कर लेना हिसाब, आहिस्ता आहिस्ता

सवाल-ए-वस्ल पर उन को, उदू का खौफ है इतना
दबे होंठों से देते हैं जवाब, आहिस्ता आहिस्ता

हमारे और तुम्हारे प्यार में, बस फर्क है इतना
इधर जो जल्दी जल्दी है, उधर आहिस्ता आहिस्ता

वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूं उनसे
हुजूर आहिस्ता आहिस्ता, जनाब आहिस्ता आहिस्ता

-अमीर मीनाई
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Old 21-09-2013, 06:59 PM   #253
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बन्दा नवाज़ियों पे खुदा-ए-करीम था
करता ना मैं गुनाह तो गुनाहे-अज़ीम था

बातें भी की खुदा ने दिखाया जमाल भी
वल्लाह क्या नसीब जनाबे कलीम था

दुनिया का हाल अहले अदम है ये मुख़्तसर
इक दो कदम का कूचा-ए-उम्मीद-ओ-बीम था

करता मैं दर्दमंद तबीबों से क्या रजू
जिसने दिया था दर्द बड़ा वो हकीम था

समां-ए-उफी क्या मैं कहूं मुख़्तसर है ये
बन्दा गुनाहगार था खालिक करीम था

जिस दिन से मैं चमन में हुआ ख्वाह-ए-गुल 'अमीर'
नाम-ए-सबा कहीं ना निशान-ए-नसीम था

-अमीर मीनाई
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Old 21-09-2013, 10:40 PM   #254
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Default Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत

'लाल किले का आखिरी मुशायरा' पर प्रस्तुत किया गया आलेख अपनी सरलता और ईमानदारी के आधार पर प्रभावित करता है.बहादुर शाह ज़फर के अश'आर जैसे लिखे गये हैं वैसे ही खूबसूरत लगते हैं क्योंकि यह कालान्तर-प्रभाव को दिखाते है.
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Old 28-10-2014, 10:43 PM   #255
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Default Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत

ग़ज़ल
सरवर


नज़र मिली, बज़्म-ए-शौक़ जागी, पयाम अन्दर पयाम निकला
मगर वो इक लम्हा-ए-गुरेज़ां, न सुब्ह आया, न शाम निकला

"
बड़े तकल्लुफ़ से आया साग़र, बड़े तजम्मुल से जाम निकला"
हमारा जौक़-ए-मय-ए-वफ़ा ही रह-ए-मुहब्बत में ख़ाम निकला

वफ़ा है क्या, दोस्ती कहाँ की, हमारी तक़दीर है तो यह है
किया जो साये पे अपने तकिया तो वो भी मेह्शर-ख़िराम निकला

मैं आब्ला-पा, दरीदा-दामां खड़ा था सेहराये जूस्तजू में
मगर दलील-ए-सफ़र ये मेरा खु़द-आगही का क़ियाम निकला

न आह-ए-लर्ज़ां, न अश्क-ए-हिरमां, बदन-दरीदा, न सर-ख़मीदा
तिरी गली से ज़रूर गुज़रा, मगर ब-सद-इहतराम निकला

इक एक हर्फ़-ए-उमीद-ओ-हसरत ग़ज़ल की सूरत में ढल गया है
मिरा सलीक़ा दम-ए-जुदाई खिलाफ़-ए-दस्तूर-ए-आम निकला

कभी यकीं पर गुमां का धोका, कभी गुमां पर यकीं की तुहमत
हमें खुश आयी ये सदा-लौही, हमारा हर तरह काम निकला

हज़ार सोचा ,हज़ार समझा, मगर ज़रा कुछ न काम आया
क़दम क़दम मंज़िल-ए-ख़िरद में, मिरा जुनूं से ही काम निकला

गुमां ये था बज़्म-ए-बेख़ुदी में, बहक न जाये कहीं तू "सरवर"
मगर तिरा नश्शा-ए-ख़ुदी तो हरीफ़-ए-मीना-ओ-जाम निकला

शब्दार्थ:

लम्हा-ए-गुरेज़ां = (आप के साथ) बिताए हुए पल / तजम्मुल = शानो-शौकत से / ख़ाम =दोष, ग़लती /
तकिया = भरोसा / महशर ख़िराम =क़यामत की चलन / दरीदा दामां =फटा-चिथड़ा दामन /
सहराये जुस्तजू = तलाश का रेगिस्तान / आह-ए-लर्ज़ां =काँपती हुई आवाज़ / अश्क-ए-हिर्मां =नाउम्मीदी की आँसू /
सर-ख़मीदा =झुका हुआ सर,नत-मस्तक / सादा-लौही =कोरी स्लेट/ कोरा कागज़ / ख़िरद =अक़्ल /
बा-सद-ऐहतिराम = सैकड़ों बार इस्तिक़्बाल करते हुए / हरीफ़ =विरोधी


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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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