15-06-2012, 12:43 PM | #1 |
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चीलें :: भीष्म साहनी
कब्रगाह के इर्द-गिर्द दूर तक फैले पार्क में हल्की हल्की धुंध फैली है। वायुमण्डल में अनिश्चय सा डोल रहा है। पुरानी कब्रगाह के खंडहर जगह-जगह बिखरे पडे़ हैं। इस धुंधलके में उसका गोल गुंबद और भी ज्यादा वृहदाकार नजर आता है। यह मकबरा किसका है, मैं जानते हुए भी बार-बार भूल जाता हूँ। वातावरण में फैली धुंध के बावजूद, इस गुम्बद का साया घास के पूरे मैदान को ढके हुए है जहाँ मैं बैठा हूँ जिससे वायुमण्डल में सूनापन और भी ज्यादा बढ ग़या है, और मैं और भी ज्यादा अकेला महसूस करने लगा हूँ। |
15-06-2012, 12:43 PM | #2 |
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Re: चीलें :: भीष्म साहनी
चील मुनारे पर से उड़ कर फिर से आकाश में मंडराने लगी है, फिर से न जाने किस शिकार पर निकली है। अपनी चोंच नीची किए, अपनी पैनी आँखें धरती पर लगाए, फिर से चक्कर काटने लगी है, मुझे लगने लगा है जैसे उसके डैने लम्बे होते जा रहे हैं और उसका आकार किसी भयावह जंतु के आकार की भांति फूलता जा रहा है। न जाने वह अपना निशाना बांधती हुई कब उतरे, कहाँ उतरे। उसे देखते हुए मैं त्रस्त सा महसूस करने लगा हूँ।
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15-06-2012, 12:43 PM | #3 |
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Re: चीलें :: भीष्म साहनी
किसी जानकार ने एक बार मुझसे कहा था कि हम आकाश में मंडराती चीलों को तो देख सकते हैं पर इन्हीं की भांति वायुमण्डल में मंडराती उन अदृश्य 'चीलों' को नहीं देख सकते जो वैसे ही नीचे उतर कर झपट्टा मारती हैं और एक ही झपट्टे में इन्सान को लहु-लुहान करके या तो वहीं फेंक जाती हैं, या उसके जीवन की दिशा मोड़ देती हैं। उसने यह भी कहा था कि जहाँ चील की आँखें अपने लक्ष्य को देख कर वार करती हैं, वहाँ वे अदृश्य चीलें अंधी होती हैं, और अंधाधुंध हमला करती हैं। उन्हें झपट्टा मारते हम देख नहीं पाते और हमें लगने लगता है कि जो कुछ भी हुआ है, उसमें हम स्वयं कहीं दोषी रहे होंगे। हम जो हर घटना को कारण की कसौटी पर परखते रहे हैं, हम समझने लगते हैं कि अपने सर्वनाश में हम स्वयं कहीं जिम्मेदार रहे होंगे। उसकी बातें सुनते हुए मैं और भी ज्यादा विचलित महसूस करने लगा था।
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15-06-2012, 12:43 PM | #4 |
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Re: चीलें :: भीष्म साहनी
उसने कहा था, 'जिस दिन मेरी पत्नी का देहान्त हुआ, मैं अपने मित्रों के साथ, बगल वाले कमरे में बैठा बतिया रहा था। मैं समझे बैठा था कि वह अंदर सो रही है। मैं एक बार उसे बुलाने भी गया था कि आओ, बाहर आकर हमारे पास बैठो। मुझे क्या मालूम था कि मुझसे पहले ही कोई अदृश्य जंतु अन्दर घुस आया है और उसने मेरी पत्नी को अपनी जकड़ में ले रखा है। हम सारा वक्त इन अदृश्य जंतुओं में घिरे रहते है।'
अरे, यह क्या! शोभा? शोभा पार्क में आई है! हाँ, हाँ, शोभा ही तो है। झाड़ियों के बीचों-बीच वह धीरे-धीरे एक ओर बढ़ती आ रही है। वह कब यहाँ आई है और किस ओर से इसका मुझे पता ही नहीं चला। मेरे अन्दर ज्वार सा उठा। मैं बहुत दिन बाद उसे देख रहा था। |
15-06-2012, 12:44 PM | #5 |
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Re: चीलें :: भीष्म साहनी
शोभा दुबली हो गई है, तनिक झुक कर चलने लगी है, पर उसकी चाल में अभी भी पहले सी कमनीयता है, वही धीमी चाल, वही बांकापन, जिसमें उसके समूचे व्यक्तित्व की छवि झलकती है। धीरे-धीरे चलती हुई वह घास का मैदान लांघ रही है। आज भी बालों में लाल रंग का फूल ढंके हुए है।
शोभा, अब भी तुम्हारे होंठों पर वही स्निग्ध सी मुस्कान खेल रही होगी जिसे देखते मैं थकता नहीं था, होंठों के कोनों में दबी-सिमटी मुस्कान। ऐसी मुस्कान तो तभी होंठों पर खेल सकती है जब तुम्हारे मन में किन्हीं अलौकिक भावनाओं के फूल खिल रहे हों। |
15-06-2012, 12:44 PM | #6 |
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Re: चीलें :: भीष्म साहनी
मन चाहा, भाग कर तुम्हारे पास पहुँच जाऊँ और पूछूं, शोभा, अब तुम कैसी हो?
बीते दिन क्यों कभी लौट कर नहीं आते? पूरा कालखण्ड न भी आए, एक दिन ही आ जाए, एक घड़ी ही, जब मैं तुम्हें अपने निकट पा सकूँ, तुम्हारे समूचे व्यक्तित्व की महक से सराबोर हो सकूँ। मैं उठ खड़ा हुआ और उसकी ओर जाने लगा। मैं झाड़ियों, पेड़ों के बीच छिप कर आगे बढूंगा ताकि उसकी नजर मुझ पर न पडे़। मुझे डर था कि यदि उसने मुझे देख लिया तो वह जैसे-तैसे कदम बढ़ाती, लम्बे-लम्बे डग भरती पार्क से बाहर निकल जाएगी। |
15-06-2012, 12:44 PM | #7 |
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Re: चीलें :: भीष्म साहनी
जीवन की यह विडम्बना ही है कि जहाँ स्त्री से बढ़ कर कोई जीव कोमल नहीं होता, वहाँ स्त्री से बढ़कर कोई जीव निष्ठुर भी नहीं होता। मैं कभी-कभी हमारे सम्बन्धों को लेकर क्षुब्ध भी हो उठता हूँ। कई बार तुम्हारी ओर से मेरे आत्म-सम्मान को धक्का लग चुका है।
हमारे विवाह के कुछ ही समय बाद तुम मुझे इस बात का अहसास कराने लगी थी यह विवाह तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हुआ है और तुम्हारी ओर से हमारे आपसी सम्बन्धों में एक प्रकार का ठण्डापन आने लगा था। पर मैं उन दिनों तुम पर निछावर था, मतवाला बना घूमता था। हमारे बीच किसी बात को लेकर मनमुटाव हो जाता, और तुम रूठ जाती, तो मैं तुम्हें मनाने की भरसक चेष्ठा किया करता, तुम्हें हँसाने की। अपने दोनों कान पकड़ लेता, 'कहो तो दण्डवत लेटकर जमीन पर नाक से लकीरें भी खींच दूँ, जीभ निकाल कर बार-बार सिर हिलाऊं?' और तुम, पहले तो मुँह फुलाए मेरी ओर देखती रहती, फिर सहसा खिलखिला कर हँसने लगती, बिल्कुल बच्चों की तरह जैसे तुम हँसा करती थी और कहती, 'चलो, माफ कर दिया।' |
15-06-2012, 12:44 PM | #8 |
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Re: चीलें :: भीष्म साहनी
और मैं तुम्हें बाहों में भर लेता था। मैं तुम्हारी टुनटुनाती आवाज सुनते नहीं थकता था, मेरी आँखें तुम्हारे चेहरे पर तुम्हारी खिली पेशानी पर लगी रहती और मैं तुम्हारे मन के भाव पढ़ता रहता।
स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में कुछ भी तो स्पष्ट नहीं होता, कुछ भी तो तर्क-संगत नहीं होता। भावनाओं के संसार के अपने नियम हैं, या शायद कोई भी नियम नहीं। हमारे बीच सम्बन्धों की खाई चौड़ी होती गई, फैलती गई। तुम अक्सर कहने लगी थी, 'मुझे इस शादी में क्या मिला?' और मैं जवाब में तुनक कर कहता, 'मैंने कौन से ऐसे अपराध किए हैं कि तुम सारा वक्त मुँह फुलाए रहो और मैं सारा वक्त तुम्हारी दिलजोई करता रहूँ? अगर एक साथ रहना तुम्हें फल नहीं रहा था तो पहले ही मुझे छोड़ जाती। तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ कर चली गई? तब न तो हर आये दिन तुम्हें उलाहनें देने पड़ते और न ही मुझे सुनने पड़ते। अगर गृहस्थी में तुम मेरे साथ घिसटती रही हो, तो इसका दोषी मैं नहीं हूँ, स्वयं तुम हो। तुम्हारी बेरूखी मुझे सालती रहती है, फिर भी अपनी जगह अपने को पीड़ित दुखियारी समझती रहती हो।' |
15-06-2012, 12:44 PM | #9 |
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Re: चीलें :: भीष्म साहनी
मन हुआ, मैं उसके पीछे न जाऊँ। लौट आऊँ, और बेंच पर बैठ कर अपने मन को शांत करूँ। कैसी मेरी मन:स्थिति बन गई है। अपने को कोसता हूँ तो भी व्याकुल, और जो तुम्हें कोसता हूँ तो भी व्याकुल। मेरा सांस फूल रहा था, फिर भी मैं तुम्हारी ओर देखता खड़ा रहा।
सारा वक्त तुम्हारा मुँह ताकते रहना, सारा वक्त लीपा-पोती करते रहना, अपने को हर बात के लिए दोषी ठहराते रहना, मेरी बहुत बड़ी भूल थी। |
15-06-2012, 12:45 PM | #10 |
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Re: चीलें :: भीष्म साहनी
पटरी पर से उतर जाने के बाद हमारा गृहस्थ जीवन घिसटने लगा था। पर जहाँ शिकवे-शिकायत, खीझ, खिंचाव, असहिष्णुता, नुकीले कंकड़-पत्थरों की तरह हमारी भावनाओं को छीलने-काटने लगे थे, वहीं कभी-कभी विवाहित जीवन के आरम्भिक दिनों जैसी सहज-सद्भावना भी हर-हराते सागर के बीच किसी झिलमिलाते द्वीप की भांति हमारे जीवन में सुख के कुछ क्षण भी भर देती।
पर कुल मिलाकर हमारे आपसी सम्बन्धों में ठण्डापन आ गया था। तुम्हारी मुस्कान अपना जादू खो बैठी थी, तुम्हारी खुली पेशानी कभी-कभी संकरी लगने लगी थी, और जिस तरह बात सुनते हुए तुम सामने की ओर देखती रहती, लगता तुम्हारे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा है। नाक-नक्श वही थे, अदाएँ भी वही थीं, पर उनका जादू गायब हो गया था। जब शोभा आँखें मिचमिचाती है- मैं मन ही मन कहता- तू बड़ी मूर्ख लगती है। |
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