30-04-2012, 05:22 PM | #11 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
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30-04-2012, 05:22 PM | #12 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।
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30-04-2012, 05:22 PM | #13 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
इतने में "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ‘’तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"
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30-04-2012, 05:23 PM | #14 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"
छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई। काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई। कई साल बीत गए।
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30-04-2012, 05:23 PM | #15 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।
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30-04-2012, 05:23 PM | #16 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
मैंने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?"
"कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ," उसने बताया। मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।"
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30-04-2012, 05:24 PM | #17 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?"
शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।"
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30-04-2012, 05:24 PM | #18 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।
मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “'यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।“
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30-04-2012, 05:24 PM | #19 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, 'आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।' फिर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।
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30-04-2012, 05:25 PM | #20 |
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Re: काबुलीवाला - रवीन्द्रनाथ टैगोर
उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।
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