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Old 22-05-2014, 09:28 PM   #11
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Default Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश

कुएँ पर पीपल की कई पुरानी पत्तियाँ बिखरी थीं। रक्खा उन पत्तियों को उठा-उठाकर अपने हाथों में मसलता रहा। जब लच्छे ने चिलम के नीचे कपड़ा लगाकर चिलम उसके हाथ में दी, तो उसने कश खींचते हुए पूछा, “और तो किसी से गनी की बात नहीं हुई?”

नहीं।

ले,” और उसने खाँसते हुए चिलम लच्छे के हाथ में दे दी। मनोरी गनी की बाँह पकड़े मलबे की तरफ़ से आ रहा था। लच्छा उकड़ूँ होकर चिलम के लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा। उसकी आँखें आधा क्षण रक्खे के चेहरे पर टिकतीं और आधा क्षण गनी की तरफ़ लगी रहतीं।

मनोरी गनी की बाँह थामे उससे एक क़दम आगे चल रहा थाजैसे उसकी कोशिश हो कि गनी कुएँ के पास से बिना रक्खे को देखे ही निकल जाए। मगर रक्खा जिस तरह बिखरकर बैठा था, उससे गनी ने उसे दूर से ही देख लिया। कुएँ के पास पहुँचते न पहुँचते उसकी दोनों बाँहें फैल गयीं और उसने कहा, “रक्खे पहलवान!

रक्खे ने गरदन उठाकर और आँखें ज़रा छोटी करके उसे देखा। उसके गले में अस्पष्ट-सी घरघराहट हुई, पर वह बोला नहीं।

रक्खे पहलवान, मुझे पहचाना नहीं?” गनी ने बाँहें नीची करके कहा, “मैं गनी हूँ, अब्दुल गनी, चिराग़दीन का बाप!

पहलवान ने ऊपर से नीचे तक उसका जायज़ा लिया। अब्दुल गनी की आँखों में उसे देखकर एक चमक-सी आ गयी थी। सफ़ेद दाढ़ी के नीचे उसके चेहरे की झुर्रियाँ भी कुछ फैल गयी थीं। रक्खे का निचला होंठ फडक़ा। फिर उसकी छाती से भारी-सा स्वर निकला, “सुना, गनिया!

गनी की बाँहें फिर फैलने को हुईं, पर पहलवान पर कोई प्रतिक्रिया न देखकर उसी तरह रह गयीं। वह पीपल का सहारा लेकर कुएँ की सिल पर बैठ गया।
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Old 22-05-2014, 09:29 PM   #12
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Default Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश

ऊपर खिड़कियों में चेहमेगोइयाँ तेज़ हो गयीं कि अब दोनों आमने-सामने आ गये हैं, तो बात ज़रूर खुलेगी...फिर हो सकता है दोनों में गाली-गलौज़ भी हो।...अब रक्खा गनी को हाथ नहीं लगा सकता। अब वे दिन नहीं रहे।...बड़ा मलबे का मालिक बनता था!...असल में मलबा न इसका है, न गनी का। मलबा तो सरकार की मलकियत है! मरदूद किसी को वहाँ गाय का खूँटा तक नहीं लगाने देता!...मनोरी भी डरपोक है। इसने गनी को बता क्यों नहीं दिया कि रक्खे ने ही चिराग़ और उसके बीवी-बच्चों को मारा है!...रक्खा आदमी नहीं साँड है! दिन-भर साँड की तरह गली में घूमता है!...गनी बेचारा कितना दुबला हो गया है! दाढ़ी के सारे बाल सफ़ेद हो गये हैं!...

गनी ने कुएँ की सिल पर बैठकर कहा, “देख रक्खे पहलान, क्या से क्या हो गया है! भरा-पूरा घर छोडक़र गया था और आज यहाँ यह मिट्*टी देखने आया हूँ! बसे घर की आज यही निशानी रह गयी है! तू सच पूछे, तो मेरा यह मिट्*टी भी छोडक़र जाने को मन नहीं करता!और उसकी आँखें फिर छलछला आयीं।

पहलवान ने अपनी टाँगें समेट लीं और अंगोछा कुएँ की मुँडेर से उठाकर कन्धे पर डाल लिया। लच्छे ने चिलम उसकी तरफ़ बढ़ा दी। वह कश खींचने लगा।
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Old 22-05-2014, 09:31 PM   #13
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Default Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश

तू बता, रक्खे, यह सब हुआ किस तरह?” गनी किसी तरह अपने आँसू रोककर बोला, “तुम लोग उसके पास थे। सब में भाई-भाई की-सी मुहब्बत थी। अगर वह चाहता, तो तुममें से किसी के घर में नहीं छिप सकता था? उसमें इतनी भी समझदारी नहीं थी?”

ऐसे ही है,” रक्खे को स्वयं लगा कि उसकी आवाज़ में एक अस्वाभाविक-सी गूँज है। उसके होंठ गाढ़े लार से चिपक गये थे। मूँछों के नीचे से पसीना उसके होंठ पर आ रहा था। उसे माथे पर किसी चीज़ का दबाव महसूस हो रहा था और उसकी रीढ़ की हड्डी सहारा चाह रही थी।

पाकिस्तान में तुम लोगों के क्या हाल हैं?” उसने पूछा। उसके गले की नसों में एक तनाव आ गया था। उसने अंगोछे से बगलों का पसीना पोंछा और गले का झाग मुँह में खींचकर गली में थूक दिया।

क्या हाल बताऊँ, रक्खे,” गनी दोनों हाथों से छड़ी पर बोझ डालकर झुकता हुआ बोला, “मेरा हाल तो मेरा ख़ुदा ही जानता है। चिराग़ वहाँ साथ होता, तो और बात थी।...मैंने उसे कितना समझाया था कि मेरे साथ चला चल। पर वह ज़िद पर अड़ा रहा कि नया मकान छोडक़र नहीं जाऊँगायह अपनी गली है, यहाँ कोई ख़तरा नहीं है। भोले कबूतर ने यह नहीं सोचा कि गली में ख़तरा न हो, पर बाहर से तो ख़तरा आ सकता है! मकान की रखवाली के लिए चारों ने अपनी जान दे दी!...रक्खे, उसे तेरा बहुत भरोसा था। कहता था कि रक्खे के रहते मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मगर जब जान पर बन आयी, तो रक्खे के रोके भी न रुकी।
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Old 22-05-2014, 09:32 PM   #14
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Default Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश

रक्खे ने सीधा होने की चेष्टा की क्योंकि उसकी रीढ़ की हड्डी बहुत दर्द कर रही थी। अपनी कमर और जाँघों के जोड़ पर उसे सख़्त दबाव महसूस हो रहा था। पेट की अंतडिय़ों के पास से जैसे कोई चीज़ उसकी साँस को रोक रही थी। उसका सारा जिस्म पसीने से भीग गया था और उसके तलुओं में चुनचुनाहट हो रही थी। बीच-बीच में नीली फुलझडिय़ाँ-सी ऊपर से उतरती और तैरती हुई उसकी आँखों के सामने से निकल जातीं। उसे अपनी ज़बान और होंठों के बीच एक फ़ासला-सा महसूस हो रहा था। उसने अंगोछे से होंठों के कोनों को साफ़ किया। साथ ही उसके मुँह से निकला, “हे प्रभु, तू ही है, तू ही है, तू! ही है!

गनी ने देखा कि पहलवान के होंठ सूख रहे हैं और उसकी आँखों के गिर्द दायरे गहरे हो गये हैं। वह उसके कन्धे पर हाथ रखकर बोला, “जो होना था, हो गया रक्खिआ! उसे अब कोई लौटा थोड़े ही सकता है! खुदा नेक की नेकी बनाये रखे और बद की बदी माफ़ करे! मैंने आकर तुम लोगों को देख लिया, सो समझूँगा कि चिराग को देख लिया। अल्लाह तुमहें सेहतमन्द रखे!और वह छड़ी के सहारे उठ खड़ा हुआ। चलते हुए उसने कहा, “अच्छा रक्खे, पहलवान!

रक्खे के गले से मद्धिम-सी आवाज़ निकली। अंगोछा लिये हुए उसके दोनों हाथ जुड़ गये। गनी हसरत-भरी नज़र से आसपास देखता हुआ धीरे-धीरे गली से बाहर चला गया।
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Default Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश

ऊपर खिड़कियों में थोड़ी देर चेहमेगोइयाँ चलती रहींकि मनोरी ने गली से बाहर निकलकर ज़रूर गनी को सब कुछ बता दिया होगा कि गनी के सामने रक्खे का तालू कैसे खुश्क हो गया था!...रक्खा अब किस मुँह से लोगों को...मलबे पर गाय बाँधने से रोकेगा? बेचारी जुबैदा! कितनी अच्छी थी वह! रक्खे मरदूद का घर...न घाट, इसे किसी की माँ-बहन का लिहाज़ था?

थोड़ी देर में स्त्रियाँ घरों से गली में उतर आयीं। बच्चे गली में गुल्ली-डंडा खेलने लगे। दो बारह-तेरह साल की लड़कियाँ किसी बात पर एक-दूसरी से गुत्थम-गुत्था हो गयीं।

रक्खा गहरी शाम तक कुएँ पर बैठ खंखारता और चिलम फूँकता रहा। कई लोगों ने वहाँ गुज़रते हुए उससे पूछा, “रक्खे शाह, सुना है आज गनी पाकिस्तान से आया था?”

हाँ, आया था,” रक्खे ने हर बार एक ही उत्तर दिया।

फिर?”

फिर कुछ नहीं। चला गया।

रात होने पर रक्खा रोज़ की तरह गली के बाहर बायीं तरफ़ की दुकान के त$ख्ते पर आ बैठा। रोज़ वह रास्ते से गुज़रने वाले परिचित लोगों को आवाज़ दे-देकर पास बुला लेता था और उन्हें सट्*टे के गुर और सेहत के नुस्खे बताता रहता था। मगर उस दिन वह वहाँ बैठा लच्छे को अपनी वैष्नो देवी की उस यात्रा का वर्णन सुनाता रहा जो उसने पन्द्रह साल पहले की थी। लच्छे को भेजकर वह गली में आया, तो मलबे के पास लोकू पंडित की भैंस को देखकर वह आदत के मुताबिक उसे धक्के दे-देकर हटाने लगा, “तत-तत-तत...तत-तत...!!
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भैंस को हटाकर वह सुस्ताने के लिए मलबे के चौखट पर बैठ गया। गली उस समय सुनसान थी। कमेटी की बत्ती न होने से वहाँ शाम से ही अँधेरा हो जाता था। मलबे के नीचे नाली का पानी हल्की आवाज़ करता बह रहा था। रात की ख़ामोशी को काटती हुई कई तरह की हल्की-हल्की आवाज़ें मलबे की मिट्*टी में से सुनाई दे रही थीं...च्यु-च्यु-च्यु...चिक्*-चिक्*-चिक्*...किर्*र्*र्*र्*-र्*र्*र्*र्*-रीरीरीरी-चिर्*र्*र्*र्*...। एक भटका हुआ कौआ न जाने कहाँ से उडक़र उस चौखट पर आ बैठा। इससे लकड़ी के कई रेशे इधर-उधर छितरा गये। कौए के वहाँ बैठते न बैठते मलबे के एक कोने में लेटा हुआ कुत्ता गुर्राकर उठा और ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगावऊ-अऊ-वउ! कौआ कुछ देर सहमा-सा चौखट पर बैठा रहा, फिर पंख फडफ़ड़ाता कुएँ के पीपल पर चला गया। कौए के उड़ जाने पर कुत्ता और नीचे उतर आया और पहलवान की तरफ़ मुँह करके भौंकने लगा। पहलवान उसे हटाने के लिए भारी आवाज़ में बोला, “दुर्* दुर्* दुर्*...दुरे!मगर कुत्ता और पास आकर भौंकने लगावऊ-अउ-वउ-वउ-वउ-वउ...।

पहलवान ने एक ढेला उठाकर कुत्ते की तरफ़ फेंका। कुत्ता थोड़ा पीछे हट गया, पर उसका भौंकना बन्द नहीं हुआ। पहलवान कुत्ते को माँ की गाली देकर वहाँ से उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे जाकर कुएँ की सिल पर लेट गया। उसके वहाँ से हटते ही कुत्ता गली में उतर आया और कुएँ की तरफ़ मुँह करके भौंकने लगा। काफ़ी देर भौंकने के बाद जब उसे गली में कोई प्राणी चलता-फिरता नज़र नहीं आया, तो वह एक बार कान झटककर मलबे पर लौट गया और वहाँ कोने में बैठकर गुर्राने लगा।

** इति **
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