08-07-2017, 11:55 AM | #1 |
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साथिया
ख़याल थे विशाल समंदर की गहराइयों की तरह ऐसा लगा कि पहुँच गए हम अगले जनम तक और लम्बी गुफ्तगू करते रहे हम आपसे लगाव में जैसे लहरें बातें करते आईं हैं किनारों से आज तक दिवा स्वप्न था बैठे थे पास पास और मुंदी (बंद) आँखोंसे सपने संजोने लग गए हम जनम जनम के साथ के साथ न छूटेगा अपना और हम रहेंगे बन के आपके झकझोर दी किसी आहट ने सपनो की वो दुनिया टूटा सपना, जगे अचानक और बोल उठा दिले नादां घबरा ना इस जन्म की गर्म हवा के थपेड़ो से क्यूंकि ये कब के जा चुके होंगे तब तक कुदरत की बनाई इस जन्नत में निस्तब्ध शांति की गोद में निश्छल मन संग हम साथ रहेंगे जनमो जनम तक थके हारे मन को दी शांति की कुछ सांसे इस स्वप्न ने काश मिल जाये अगला जन्म हम साथ पायें आपका सदा एक हो कर हम रहें- क़यामत से क़यामत तकसाथिया |
08-07-2017, 07:50 PM | #2 | |
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Re: साथिया
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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12-07-2017, 12:55 PM | #3 |
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Re: साथिया
बहुत बहुत धन्यवाद भाई ,... कविता को पसंद करके उसपर आपके प्रसंशात्मक कमैंट्स के लिए। ..
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