22-05-2014, 12:20 AM | #241 |
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Re: इधर-उधर से
इतिहास हमें यह नहीं बता सकेगा कि उन युवक छात्रों में से कितने तैर कर नदी के किनारे तक पहुँच सके और कितनों ने अपने जीवन की पूर्ण आहुति दे दी. किन्तु मानव मात्र का ज्ञानार्जन हेतु तथा ज्ञान की वाहक बहुमूल्य पुस्तकों के प्रति जो श्रद्धा का भाव उस समय से लेकर आज तक देखने को मिलता है, वह कभी कम नहीं हुआ. इसे अलौकिक ही कहा जायेगा.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
10-06-2014, 08:25 AM | #242 |
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Re: इधर-उधर से
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10-06-2014, 04:47 PM | #243 |
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Re: इधर-उधर से
वह जन मारे नहीं मरेगा
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10-06-2014, 05:39 PM | #244 |
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Re: इधर-उधर से
मुंशी जी की बराबरी आज कोंई नही कर सकता हें, ऐसे ज्ञान पिपासुओ की वजह से ही ज्ञानगंगा आज भी अविरत बह रही हें, हम हमेशा परमात्मा पे ही दोष लगाते हें की आपने हमे कुछ नही दिया, परन्तु परमात्मा ने हमे इतना कुछ दिया की उसका मोल इसी जन्म में तो क्या अरबो जन्म में भी नही चूका सकते हें, .....
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13-06-2014, 10:53 PM | #245 |
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Re: इधर-उधर से
मनोज वाजपेयी के पुराने ब्लॉग से
फिल्म एसिड फैक्ट्री का प्रमोशन करते वक़्त मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं अपने मुँह ही मियाँ मिट्ठू हो रहा हूँ। और शायद यह कहें कि हर फिल्म के प्रमोशन के वक़्त ही ऐसा लगता है। ये प्रमोशन का सबसे वीभत्स अनुभव होता है, जब आप ख़ुद ही फिल्म की तारीफ़ कर रहे होते हैं, और ख़ुद ही भूमिका के बारे में बातें कर रहे होते हैं। ये एक ऐसा पहलू है प्रचार-प्रसार का, जो मुझे रास आता नहीं है। लेकिन, ज़माना ऐसा बदला है कि जिन फिल्मों का प्रचार-प्रसार हुआ नहीं, जिन फिल्मों की तारीफ़ उनके अपने अभिनेताओं ने की नहीं, वो भी प्रदर्शन के पहले, तो दर्शक उन फिल्मों को देखने ही नहीं गए। तो ठीक है। अगर दर्शकों के फिल्म देखने की शर्त यही है तो यही सही। आशा करता हूँ कि इस ब्लॉग से जुड़े सारे मेरे दोस्त मेरी फिल्मों से संतुष्ट होंगे। आपकी प्रतिक्रियाओं के लिए धन्यवाद। एसिड फैक्ट्री के रिलीज़ के बाद एक बार फिर आपसे प्रतिक्रियाओं को लेकर बात करुंगा।
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14-06-2014, 08:15 AM | #246 |
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Re: इधर-उधर से
क्रिकेटर से पाकिस्तान के राजनेता बने इमरान खान की किताब "पाकिस्तान: ए पर्सनल हिस्ट्री" जो उनकी आत्मकथा भी कही जा सकती है, के कुछ मनोरंजक अंश नीचे दिए जा रहे हैं:
> ऑक्सफर्ड में मेरा सबसे अच्छा मित्र एक भारतीय विक्रम मेहता था। मैं, बेनजीर भुट्टो और विक्रम अच्छे दोस्त बन गए थे। इसकी वजह एक जैसी पृष्ठभूमि और एक जैसे सब्जेक्ट्स: पॉलिटिक्स और इकॉनमिक्स थे। विक्रम और मैं हर संडे लेडी मारग्रेट हॉल जाया करते थे, जहां ऑक्सफर्ड यूनियन के प्रेजिडेंट का पद पाने की कोशिश कर रही बेनजीर दिन भर चीज और स्नैक्स खिलाया करती थीं। > अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले से जनरल जिया हल उक के इस्लामीकरण कार्यक्रम को मजबूती मिली। जनरल जिया शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के अहम सहयोगी बन गए। शायद यहीं से उस कहावत की शुरुआत हुई कि पाकिस्तान की अगुवाई के लिए अल्लाह, आर्मी और अमेरिका की मदद की जरूरत होगी। > मेरी मां को भी वन्य जीवन और पर्वतों से बहुत प्यार था। वह मुझे अपने बचपन की कहानियां सुनाया करती थीं। कुछ शिमला की पहाडि़यों के बारे में होती थीं। वह अपनी छुट्टियां माता-पिता के साथ डलहौजी में बिताया करती थीं। मुझे डरावनी कहानियां काफी पसंद थीं।
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17-06-2014, 08:53 AM | #247 |
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Re: इधर-उधर से
^ डॉ. राही मासूम रज़ा कुछ यादें डॉ. राही मासूम रज़ा हर आदमी के पास लिखने के लिए एक जीवनी होती है, पर हर आदमी वह जीवनी लिख नहीं पाता... हर आदमी लिखना चाहता भी नहीं क्योंकि कुछ यादें इतनी निजी होती हैं कि उनमें किसी को शरीक करने को जी नहीं चाहता। मेरे पास ऐसी यादें ज्यादा हैं। इसलिए मैं कभी अपनी जीवनी नहीं लिखूंगा परंतु मेरी झोली में भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनसे मैं लोगों को मिलाना चाहता हू क्योंकि उन लोगों को जानने से जिंदगी भरी-भरी दिखाई देने लगती है। मैं तो बंबई महानगर में जब अपने आप से ऊबने लगता हूँ,उन लोगों में से किसी एक या दो को समय की गर्द झाड़ कर पास बिठा लेता हू और थोड़ी देर के बाद अपने जीवन-संघर्ष के लिए ताजा दम हो जाता हू। दस साल से बंबई में अपनी यादों के सहारे जी रहा हू। बंबई ने आज तक मुझे कोई ऐसा क्षण नहीं दिया, एक क्षण के सिवा, जिसे यादों की दुनिया में जगह मिले। यह क्षण है मेरी बेटी, मरियम की पैदाइश का क्षण।
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17-06-2014, 08:55 AM | #248 |
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Re: इधर-उधर से
यहाँ कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी। कृशन चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गये होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता। शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था। उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की। इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की। इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिये और उस काम की मजदूरी दी। पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हूँ।
मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर होली फ़ैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर (पत्नी) और मरियम (बेटी) को वहां से लाना था। सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपये थे। तब कमलेश्वर ने 'सारिका', भारती ने 'धर्मयुग' से मुझे पैसे ऐडवांस दिलवाये और कृशन चंदर जी ने अपनी एक फ़िल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिये और मरियम घर आ गयी। आज सोचता हू कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे। कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। कलकत्ते से ओ० पी० टांटिया और राजस्थान से मेरी एक मुंहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेंहदी रजा और दोस्त कुंवरपाल सिंह ने मदद की। कर्ज़ उतर जाता है। एहसान नहीं उतरता और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आती पर उन्हें याद करो तो आँखें नम हो जाती हैं।
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23-07-2014, 11:31 PM | #249 |
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Re: इधर-उधर से
आधे घंटे का एकांत चिंतन प्रतिदिन
हम में से ऐसे कई लोग हैं, जो अकेलेपन से घबराते हैं. हम हमेशा चाहते हैं कि कोई न कोई हमारे पास हो, जिससे हम बातें कर सकें. यदि मजबूरीवश हमें घर में अकेला रहना पड़े, तो हम टीवी, गानों, किताबों, इंटरनेट, अपने पालतू का सहारा लेते हैं.इस तरह हम सिर्फ अपने दिमाग में तरह-तरह के विचारों को भरना चाहते हैं, ताकि हमारा ध्यान अपनी समस्याओं, चिंताओं, चुनौतियों, बोरियत से हट जायें. लेकिन यदि हम सफल लोगों की दिनचर्या देखें, तो हमें पता चलेगा कि वे सभी तमाम जिम्मेवारियों, लोगों से मीटिंग्स, इंटरव्यूज, काम के बावजूद कुछ घंटे अपने चिंतन के लिए अवश्य निकालते हैं. इस तरह वे खुद के बारे में सोचते हैं. वे अपनी समस्याओं के हल खोजते हैं, आगे की प्लानिंग करते हैं, निर्णय लेते है कि क्या सही है, क्या गलत.अमेरिका में एक प्रोफेशनल डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत 13 विद्यार्थियों को दो सप्ताह तक हर दिन एक घंटे तक एकांत में रहने के लिए कहा गया. उनसे कहा गया कि वे सारी बाधाओं से दूर, बिल्कुल एकांत में किसी भी घटना के बारे में रचनात्मक रूप से सोचें. यकीन मानिए, दो सप्ताह बाद उन विद्यार्थियों के व्यवहार में अंतर आ चुका था. वे आत्मविश्वास से भरे थे. उन्होंने अपनी कई समस्याओं का हल खोज निकाला था. उन्होंने कई बड़े ऐसे निर्णय लिये, जो 100 प्रतिशत सही थे, जिसके लिए वे काफी लंबे समय से परेशान थे.मेरे एक मित्र ने अपना एक अनुभव सुनाया. उसने बताया कि कुछ दिनों पहले ही उसका एक सहकर्मी से बहुत बड़ा झगड़ा हो गया. उसने आक्रोश में आकर इस्तीफा टाइप किया और बॉस को मेल कर दिया. बॉस ने उसे केबिन में बुलाया और कहा कि इस बात पर आराम से सोचो. इस घटनाक्रम पर शांत दिमाग से एकांत में बैठ कर चिंतन करो और दो दिन बाद अपना निर्णय लो.दोस्त ने ऐसा ही किया. उसने सुबह के शांत माहौल को चुना और कॉफी पीते हुए उस झगड़े पर सोचा. कई घंटे बीतने के बाद उसे अहसास हुआ कि गलती उसकी ही थी. उसके गुस्से ने बात को बिगाड़ दिया. उसे इस्तीफा नहीं देना चाहिए था. उसे तो सहकर्मी से माफी मांगनी चाहिए थी. वह दूसरे दिन ही ऑफिस गया और उसने उस साथी को सॉरी कहा. बात पते की हर दिन कम-से-कम तीस मिनट पूरी तरह एकांत में जरूर रहें. इससे आपके जीवन में, सोचने के तरीके में बहुत अंतर आयेगा.आप एकांत में किसी समस्या या विषय पर निरपेक्ष ढंग से सोचें और इससे आपको सही जवाब मिल जायेगा. यह खुद को जानने का अचूक तरीका है.
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24-07-2014, 11:10 PM | #250 |
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Re: इधर-उधर से
बारह हजार वर्ष पहले के ग्रामोफोन रिकॉर्ड !!!
(ओशो) 1937 में तिब्बत और चीन के बीच बोकाना पर्वत की एक गुफा में सातसौ सोलह पत्थर के रिकार्ड मिले थे— पत्थर के। आकार में वे रिकार्ड है भगवान महावीर से दस हजार साल पुराने यानी आज से कोई साढ़े बारह हजार साल पुराने। बड़े आश्चर्य के है, क्योंकि वे रिकार्ड ठीक वैसे ही है जैसे ग्रामोफोन का रिकार्ड होता है। ठीक उसके बीच में एक छेद है, और पत्थर पर ग्रूव्ज़ है जैसे कि ग्रामोफोन के रिकार्ड पर होते है।अबतक राज नहीं खोला जा सका है कि वे किस यंत्र पर बजाये जा सकेंगे। लेकिन एक बात तो हो गई है— रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डा. सर्जीएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित कर दिया है कि वे है तो रिकार्ड ही। किस यंत्र पर और किस सुई के माध्यम से वे पुनरुज्जीवित हो सकेंगे, यह अभी तय नहीं हो सका। अगर एकाध पत्थर का टुकड़ा होता तो सांयोगिक भी हो सकता है। सात सौ सोलह है। सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हे। सब पर ग्रूव्ज़ है और उनकी पूरी तरह सफाई धूल-ध्वांस जब अलग कर दी गयी और जब विद्युत् यंत्रों से उनकी परीक्षा की गई तब बड़ी हैरानी हुई, उनसे प्रति पल विद्युत् की किरणें विकिरणित हो रही है। लेकिन क्या आदमी के आज से बाहर हजार साल पहले ऐसी कोई व्यवस्था थी कि वह पत्थर में कुछ रिकार्ड कर सके? यदि ऐसा सिद्ध हो जाता है तब तो हमें अपना सारा इतिहास दूसरे ढंग से लिखना पड़ेगा।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 24-07-2014 at 11:18 PM. |
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