14-12-2012, 12:43 AM | #41 |
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Re: ब्लॉग वाणी
-गिरिजेश राव वृद्ध युगल एक कमरे में लेटे हैं। वृद्ध कहता है कि अकेले कमरे में उसे कउवावन लगने लगा है। जाने इस शब्द का अर्थ क्या है लेकिन इतना पता है कि यह निश्चित रूप से एकान्त के भय और ऊब से आगे की बात है। वृद्धा जन्मजात खर्राटेबाज है शायद और इस आयु में नींद वैसे ही कच्ची हो जाती है। चुनांचे वृद्ध ठीक उस समय पलंग पर आ विराजता है जब चटकते हाड़ लिए उसकी संगिनी सोने आती है ताकि जब तक नासिका गर्जन प्रारम्भ हो वह भी सो जाय। दोनो जागते हुए सोते हैं लेकिन पहली नींद बिन विघ्न सम्पन्न हो जाय तो अच्छा रहता है। जिस दिन ऐसा होना शुरू हुआ उस दिन सूर्य और चन्द्र्र विशाखा में, शुक्र मूल में और बृहस्पति स्वाती नक्षत्र में थे। बाकी ग्रहों की याद नहीं। अपने पोते के जन्म समय को वृद्ध ने इसके लिए उचित समझा। उसे विश्वास था कि डांट नहीं पड़ेगी और नमक मिर्च मसाले में पुत कर यह बात पतोहुओं तक नहीं पहुंचेगी। दिन-दिनांक वृद्ध को याद नहीं। उसका बेटा एक दिन पहले पोते के जन्मदिन की याद दिलाता है कि पहला हैप्पी बड्डे सन्देश आप का होना चाहिए। वृद्ध यह सोच हैरान होता है कि बगल में सोती पत्नी में एक खास छांव भी है जिससे इतने दिन वह वंचित रहा। वह पानी पीता है और जग का ढक्कन बन्द करते अन्धेरे में लाल चमकती टीवी स्विच की स्टैन्डबाई एलईडी को देख सोचता है, वे दोनों भी अब उसी मोड में हैं। बाल बच्चे आते हैं तो आॅन कर देते हैं। एक ही सीरियल में जाने कितने चैनल खुल जाते हैं। बताने और बात करने की उमंग में दोनों अक्सर उलझ जाते हैं और सुनने वाली बहुएं और बेटे भी असमंजस में पड़े रहते हैं कि सुनें तो किसकी सुनें। बाद में वृद्ध उनके घबराए और भ्रमित सी मुख भंगिमाओं की सोच मुस्कुराता रहता है । छोटकी एचआर अधिकारी है, वृद्धा के आगे उसकी सारी पॉलिश उतर जाती है और बड़की? दोनों के लिए सुशील बहू बनने के चक्कर में गड़बड़ा जाती है। सबसे अच्छा बड़का है। स्टैंड पर टेबल फैन की तरह घूमता दोनों की बारी बारी सुनता है। छोटका अभी बच्चा है। हूं-हां करता रहता है। वे लोग उनकी बातों में अपने हिस्से का सच झूठ ढूंढ़ते रहते हैं। वृद्ध सोचता है कि वे दोनों वाकई इतिहास के सच जैसे हैं जिसमें सब अपने अपने झूठ ढूंढ़ते हैं। यही बात उसे कचोटती है। वह जानता है कि हज़ारों वर्ष पहले से ऐसा होता चला आ रहा है और कचोट भी उतनी ही पुरानी है फिर भी हैरानी की बात यह है कि इस पर हैरानी हुए बिना नहीं रहती। वृद्ध फिर से जीने लगा है और यह सोच थोड़ा सहम भी जाता है कि मृत्यु के समय बिताया गया जीवन क्रमश: सामने दिखने लगता है। उसे हैरानी भी होती है कि वृद्धा को ऐसा कुछ नहीं होता-वोता। टिकठी बांधते उसकी आंखें सूखी हैं। वह सोच रहा है कि क्या अब वह अकेले सो पाएगा? खर्राटे, छांव, उस पर विराजते कउवे और इतिहास सब समाप्त नहीं हो जाएंगे? कफन की आखिरी गांठ बांधते वह बुदबुदाया है-प्रिया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और मुस्कुराने लगा है। उसने बड़के से कहा है, जीवन ही सत्य है। तुम्हारी मां मरी नहीं, दूसरे कमरे में अलग सोने चली गयी है। अगले महीने जब छोटकी की संतान होगी तो मैं भी उस कमरे में चला जाऊंगा। उठाओ अब। रोते नहीं।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
02-01-2013, 11:50 PM | #42 |
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Re: ब्लॉग वाणी
शायद हम भर सकते हैं ये दरार
-पल्लवी सक्सेना पाकिस्तान को लेकर आज हर हिन्दुस्तानी के दिलो दिमाग में एक अलग तरह की छवि बनी हुई है जिसे शायद हर कोई बुरी नजर से ही देखता है और अब तो दुनिया के सबसे बड़े देश की नजर में भी पाकिस्तान ही सबसे बुरा है क्यूंकि वहां आतंकवादियों को पनाह दी जाती है। जमाने भर के आंतकवादियों की मूल जड़ पाकिस्तान में ही पाई जाती है लेकिन इन सब बातों के बावजूद भी क्या वाकई हर पाकिस्तानी बुरा होता है? कम से कम यहां आने के बाद तो मैं इस बात को नहीं मानती। हां, यूं तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच आई दूरियां कभी मिट नहीं सकती। यह एक ऐसी दरार है जो कभी भर नहीं सकती। मगर तब भी हिंदुस्तान से बाहर रहने पर पता चलता है कि यह दरार शायद उतनी बड़ी या गहरी भी नहीं कि भरी ना जा सके। एक पाकिस्तानी महिला से मिलने के बाद मुझे जो अनुभव हुआ है उसे आप सबके साथ साझा करने की कोशिश कर रही हूं। जब मैं भोपाल में रहती थी तो केवल उस देश के बारे में किताबों और फिल्मों में ही देखा सुना और पढ़ा था। कभी किसी से मुलाकात नहीं हुई थी इसलिए एक अलग ही छवि थी मेरे मन में उन्हें लेकर। लेकिन जब यहां रहकर उनसे मुलाकात हुई तो मुझे बड़ा सुखद अनुभव हुआ और लगा कितना गलत सोचती थी मैं। मुझे क्लीनिक जाना था अपना रजिस्ट्रेशन करवाने ताकि जब जरूरत पड़े तो आसानी से एपोइंटमेंट मिल सके। उसी सिलसिले में मेरी मुलाकात हुई डॉ.फातिमा से जिनकी उम्र महज 21-22 साल की होगी। वैसे एक डॉ. का तो पेशा ही ऐसा होता है कि उसे हर किसी व्यक्ति से बड़े ही नर्म दिली से पेश आना होता है मगर फिर भी उन मोहतरमा का स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे महसूस हो रहा था जैसे मैं बरसों बाद अपने कॉलेज की किसी दोस्त से मिल रही हूं। मुझे ऐसा नहीं लगा कि वह एक डॉ.हैं और मैं उसके पास साधारण जांच के लिए आई हूं या वह किसी ऐसे देश से ताल्लुुक रखती है जिस देश से मेरे देश के लगभग ज्यादातर लोग केवल नाम से ही नफरत किया करते हैं। लेकिन उसका अपनापन देखकर मुझे लगा कि यहां भी तो हम-आप जैसे इंसान ही रहते हैं। इनकी रगों में भी तो कहीं न कहीं हिंदुस्तान का ही खून बहता है फिर क्यूं हम लोग बेवजह वहां की आम जनता से भी इतनी नफरत करते हैं। जिन्होंने हमारा कभी कुछ नहीं बिगाड़ा लेकिन उनका कुसूर केवल इतना है कि वह पाकिस्तान में रहते हैं और वहां की आवाम का हिस्सा है। यह तो भला कोई कारण ना हुआ किसी इंसान से नफरत करने का तब यह अहसास होता है कि वाकई गेहूं के साथ घुन पिसना किसे कहते हैं या एक मछली सारे तालाब को कैसे गंदा साबित करवा देती है। इस सबके चलते कम से कम एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती है कि अलग-अलग देशों से आए लोग यहां एक परिवार की तरह काम करते हैं। यहां हिंदुस्तान-पाकिस्तान का भेद-भाव देखने को नहीं मिलेगा आपको। खैर,अंत में तो मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि एक मछली के गंदा होने की वजह से से सारे तालाब को गंदा ना समझें। हालांकि यहां एक और कहावत भी लागू होती है कि हर चमकती चीज सोना नहीं होती। बस वो अंग्रेजी की कहावत के अनुसार ‘आइस ब्रेक’ करने की जरूरत है। कुल मिलाकर उस डॉ. से मिलकर तो मुझे यही अनुभव हुआ। इस विषय में आपका क्या ख्याल है ?
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04-01-2013, 09:27 PM | #43 |
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Re: ब्लॉग वाणी
कहां चले जाते हैं खोए हुए लोग
-पूजा उपाध्याय बहुत साल पहले दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम आता था। मैं उसे देख कर हमेशा बहुत उदास हो जाती थी। सोचती थी कि ये दुनिया कितनी बड़ी है कि इतने सारे लोग खो जाते हैं और किसी का पता भी नहीं मिलता। मर जाने से ज्यादा बुरा है खो जाना। मर जाने में एक स्थायित्व है। लोग रो-पीट कर समझा लेते हैं। कैसी भी परिस्थिति में जी लेते हैं लेकिन खोए हुए लोग अपने पीछे एक इंतजार छोड़ जाते हैं। फिर कोई उस मोड़ से आगे नहीं बढ़ता जहां उसका हाथ छूटा था। सब कुछ लौट-लौट कर वहीं आता है। मुझे एक जमाने में खो जाने का मन करता था। लुका-छिपी खेलते हुए मैं अक्सर सोचती थी कि अगर ऐसा हुआ कि मैं खो जाऊं और कभी न मिलूं तो? मैं टीवी में खोए हुए लोगों को बहुत गौर से देखती थी और सोचती थी अगर कोई मिलेगा तो मैं पक्का उसे इस एड्रेस पर पहुंचा दूंगी। जब से पोलैंड से लौटी हूं एक अजीब चीज होती है। अखबार में अक्सर मरे लोगों की तस्वीरें छपती हैं। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ऐसा क्यूं करते हैं। मैं उन तस्वीरों को देखती हूं तो अजीब सा महसूस होता है जैसे कि मैं उनको दूर से जानती हूं। जैसे मरने के बाद वो मेरी दुनिया का हिस्सा बन गए हैं। उनकी कोई कहानी होती है जो उन्हें कहनी होती है। वो मुझसे कहना चाहते हैं। मैं पेपर पलट कर रख देती हूं और कैल्विन और होब्स में खो जाती हूं। एक शैतान बच्चा और एक स्टफ टाइगर। इससे ज्यादा कॉम्प्लिकेशन हैंडल नहीं कर सकती हूं। एक अखबार में बैंगलोर फिल्म फेस्टिवल के बारे में छपा है। बुकिंग कराई। आफिस के और भी लोगों की बुकिंग कराई। पांच सौ रुपए का डेलिगेट पास है। इसमें कोई डेढ़ सौ फिल्में दिखा रहे हैं। मन कर रहा था कि हफ्ते भर की छुट्टी लेकर सारी फिल्में देख आऊं लेकिन गड़बड़ है कि जोर्ज भी जा रहा है। हमने कहा तो बोला, छुट्टी मैं लेकर जाऊंगा। तुम लोग यहां काम सम्हालो। असल में होगा ये कि वीकेंड पर जो फिल्में हैं वो तो देख लेंगे,एक छुट्टी वाले दिन भी तीन-चार फिल्में देखी जा सकती हैं। रात के शायद कोई शो देख पाऊं। डिपेंड करता है कि जिस हॉल में लगी होगी वो घर से कितनी दूर है। एक दोस्त है निशांत वो भी जा रहा है। अभी कुणाल की बुकिंग नहीं कराई है। उसके घर आने पर करेंगे। टोटल में बहुत से लोग हैं तो अकेले देखने का टेंशन नहीं है। नेहा आज दिन भर आफिस से बाहर रही है तो उसकी टिकट भी नहीं हुई है। लौट के आती है तो उसको पकड़ते हैं। मिस करती हूं उसको। बड़े दिन बाद किसी से थोड़ी दोस्ती हुई है। मुझसे छह साल छोटी। पर हां,अच्छा लगता है कि कोई लड़की दोस्त है। गॉसिप करने के लिए, शोपिंग के लिए। सिंपल होने का मन करता है। लगता है कि मन इतने सारे पैरलल ट्रैक्स पर एक साथ सोच नहीं पाता तो अच्छा होता न। इतनी उलझन नहीं होती। मुझे समझ नहीं आता कि खुद के साथ तालमेल बिठाने के लिए कितनी जिंदगी चाहिए। अब भी मैं खुद को समझ क्यूं नहीं पाती जबकि बहुत सी चीजें बार-बार घटती हैं। मैं फिर वहीं कैसे चोट खाती हूं। दो कमरों का घर है, साढ़े चाल साल होने को आए मुझे। अब तक दीवारें कहां है पता क्यूं नहीं है। अब भी टकरा जाती हूं। कितने नीले निशान होते हैं। अचानक मन बहुत उदास हो आया है। सोचती हूं तो पाती हूं कि अचानक नहीं है। एक जिंदगी किसी और जिंदगी की रिपीट तो नहीं हो सकती।
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04-01-2013, 09:48 PM | #44 |
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Re: ब्लॉग वाणी
तभी जानेंगे बच्चे अपनी विरासत को
-विष्णु बैरागी निजी स्कूलों की कुछ बातें बहुत ही बुरी लगती है। एक बात तो मुझे बहुत ही बुरी लगती है कि प्रोजेक्ट के नाम पर पालकों पर भारी आर्थिक बोझ डालना। ये प्रोजेक्ट ऐसे उलझे और खर्चीले होते हैं कि उससे कुछ सीखने के बजाय उस प्रोजेक्ट को कैसे भी पूरा करके उससे मुक्ति पाना बच्चे और उसके माता-पिता का लक्ष्य बन जाता है। इस सन्दर्भ में मैं एक अच्छे व सुखद अनुभव से गुजरा। मैं कवि चांदनीवाला के यहां बैठा था। उनका फोन घनघनाया। उनकी बातों से लगा कि कोई मिलना चाहता है। उसे बोले ,अभी एक मेहमान बैठे हैं। आधे घण्टे बाद फोन करके आ जाना। सामने वाले को दिया गया उनका यह उत्तर मेरे लिए साफ सन्देश था किन्तु हमारी बात में आधा घण्टा कब निकल गया, मालूम ही नहीं हुआ। फोन फिर घनानाया। बोले,हां आ जाओ। सुनकर मैं उठने को हुआ तो मुझे रोकते हुए बोल, रुकिए। आप एक अच्छे प्रसंग का आनन्द लेकर जाइए। पांच मिनिट भी नहीं हुए कि सात बच्चियों के साथ एक सज्जन प्रकट हुए। मालूम हुआ कि वे सातों बच्चियां निजी स्कूल की आठवीं कक्षा की छात्रा हैं और चांदनीवाला का साक्षात्कार लेने आई हैं। इतनी छोटी बच्चियां और सबको एक साथ चांदनीवाला का साक्षात्कार लेना है। खुद चांदनीवाला को बात समझ नहीं आई। बच्चियों ने बताया कि उनकी कक्षा के बच्चों को नगर के कवियों से साक्षात्कार का प्रोजेक्ट दिया गया है। इस क्रम में वे प्रो.रतन चौहान और मालवी लोक कवि पीरुलाल बादल के साक्षात्कार ले चुकी हैं। प्रो.चौहान ने ही चांदनीवाला का पता, फोन नम्बर बच्चियों को दिया था। जानकर हम दोनों को ताज्जुब भी हुआ और अच्छा भी लगा। बच्चियां प्रश्न लिख कर लाई थीं किन्तु दो बच्चियों ने प्रश्नों में से प्रश्न निकाल लिए। यह देखकर हम दोनों को और अच्छा लगा। लिख कर लाए सवालों के बीच ही विधा का अर्थ क्या होता है, तुकान्त-अतुकान्त कविता क्या होती है, दोनों में क्या अन्तर है, गेय-अगेय का अर्थ और अन्तर क्या होता है जैसी कुछ महत्वपूर्ण बातें भी सामने आईं। चांदनीवाला ने अपनी एक सस्ंकृत कविता का पाठ किया। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर बच्चियों द्वारा पूछे गए सवालों से मुझे भी कई जानकारियां पहली बार मिलीं। बच्चियों ने जब उनसे उनकी मां का नाम पूछा तो चांदनीवाला भावुक हो गए। विचलित स्वरों में बोले - किसी ने पहली बार मुझसे मेरी मां का नाम पूछा। जाने से पहले चांदनीवाला ने बच्चियों से आग्रह कर उनके साथ फोटो खिंचवाया। बच्चियों ने उनके आटोग्राफ लिए। बच्चियों के जाने के बाद हम दोनों निजी स्कूलों के चाल-चलन में आए इस अनपेक्षित किन्तु सुखद बदलाव पर चर्चा करते रहे। यह सचमुच में शिक्षा तो थी ही अपने नगर के साहित्यकारों से मिलने का, उनसे बात करने का एक सुन्दर और दूरगामी प्रभाव वाला अवसर भी इन बच्चियों को उपलब्ध कराया गया था। ऐसे उपक्रम बच्चों को अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत और परम्पराओं से परिचित कराने का श्रेष्ठ माध्यम होते हैं। यह ऐसा प्रोजेक्ट था जिसमें बच्चों के माता-पिता पर एक पाई का आर्थिक वजन नहीं पड़ा। इसके विपरीत बच्चे सचमुच में सम्पन्न और समृद्ध हुए। चांदनीवाला और मैंने ईश्वर से प्रार्थना की। निजी स्कूल वालों को ऐसी ही बुद्धि देना ताकि बच्चे अपनी विरासत को जान सकें, समझ सकें।
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08-01-2013, 12:01 AM | #45 |
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Re: ब्लॉग वाणी
नारी अस्मिता की पहचान बन गई वो
-खुशदीप सहगल बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी...। कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की ये पंक्तियां आज के हालात में फिर याद आ रही हैं। नारी शक्ति की पहचान वीरांगना रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने अपनी महिला सेनापति झलकारी बाई के साथ फिरंगी सेना का मुकाबला करते हुए युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया था लेकिन अंग्रेजों की दासता नहीं मंजूर की थी। ये सब आजादी से 90 साल पहले हुआ था। आजादी के 65 साल बाद एक और वीरांगना शहीद हुई है। 23 साल की इस बिटिया ने अपनी अस्मिता बचाने के लिए छह नर-पिशाचो से तब तक संघर्ष किया जब तक उसमें होश रहा। इस बिटिया की शहादत से पूरी दुनिया में आज लोग उद्वेलित हैं। ये बिटिया नारी अस्मिता की सबसे बड़ी पहचान बन गई है । जिस बिटिया को हम जीते-जी सुरक्षा नहीं दे सके उसे मरने के बाद भी क्यों हमेशा के लिए गुमनामी के साये में रखना चाहते हैं? उसे क्यों आज के युग की रानी लक्ष्मीबाई नहीं माना जा सकता? क्यों नहीं उस माता-पिता को सैल्यूट किया जा सकता जिन्होंने ऐसी बहादुर बेटी को जन्म दिया? लड़की की पहचान छुपाने का तर्क तब तक तो समझ आता है जब तक वो जीवित थी। अब वो अमर हो चुकी है। जो नुकसान होना था, हो चुका। दुनिया का बड़े से बड़ा सुरक्षा का तामझाम भी उसको दोबारा जीवित नहीं कर सकता। ये भरपाई अगर हो सकती है तो सिर्फ इसी बात से कि अब और किसी बिटिया को ऐसे हालात से न गुजरना पड़े। ये जिम्मेदारी जितनी सरकार और पुलिस की है, उतनी ही पूरे समाज की है। वो समाज जो मेरे और आप से बना है। एक केंद्रीय मंत्री ने ट्विटर पर एक सवाल रखा कि इस बिटिया की पहचान छुपाए रखने से कौन से हित की रक्षा होगी? मंत्री ने ये भी कहा कि अगर बिटिया के माता-पिता को ऐतराज ना हो तो नए कानून का नाम भी उसी के ऊपर रखा जाए। मंत्री के इस बयान पर हर तरह की प्रतिक्रिया सामने आई। जहां तक देश के कानून की बात है तो वह यही कहता है कि दुष्कर्म पीड़ित की पहचान नहीं खोली जा सकती। कहीं भी उसके नाम का उल्लेख नहीं किया जा सकता। ऐसा करना आईपीसी की 228-ए के तहत अपराध है लेकिन कानून की दुहाई देकर हमेशा एक ही लकीर को पीटते रहना क्या उचित है? इस बिटिया की शहादत के बाद जो हालात हैं वो रेयरेस्ट आफ रेयर हैं। इसलिए अब फैसले भी रेयरेस्ट आॅफ रेयर ही लेने चाहिए। इस बिटिया के चेहरे की इतनी सशक्त पहचान बन जानी चाहिए कि फिर कोई दुराचारी ऐसा कुछ करने की जुर्रत ना कर सके। उस दुराचारी को फौरन याद आ जाना चाहिए कि देश ने एकजुट होकर कैसा गुस्सा व्यक्त किया था और उसका क्या हश्र होगा। वैसे भी हम समाज की सोच को बदलने की बात करते हैं। पीड़ित या उसके परिवार के लिए हम फिर क्यों इस नजरिये को नहीं बदल सकते। पहचान छुपाने के तर्क के पीछे क्या यही सोच तो नहीं है कि पीड़ित या उसका परिवार हमेशा नजरें नीचे रखकर जीने को मजबूर रहे? नजरें तो उस समाज की नीचे होनी चाहिए जो एक बिटिया को हवस के भेड़ियों से बचा नहीं सका। क्यों नहीं इस परिवार को ऐसा अभूतपूर्व सम्मान दिया जाता कि हमेशा के लिए मिसाल बन जाए। मेरे लिए तो ये बिटिया आज के दौर की रानी लक्ष्मीबाई ही है।
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08-01-2013, 09:11 PM | #46 | |
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Re: ब्लॉग वाणी
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अलैक जी, ऊपर लिखी गई एक एक कहानी, संस्मरण, खबर अथवा समीक्षा या इसे जो भी नाम दें सभी प्रसंग व घटनाएं रोंगटे खड़े करने वाले शब्द हैं. यह सभी अपने अपने तरीके से हमें आत्म निरीक्षण के लिए प्रेरित करते हैं. इन सशक्त ब्लोग्स के लिए मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ. धन्यवाद. |
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13-01-2013, 12:30 AM | #47 | |
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13-01-2013, 12:48 AM | #48 |
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Re: ब्लॉग वाणी
साइकिल से नर्मदा परिक्रमा की तैयारी
-अनूप शुक्ल नया साल आए डेढ़ हफ्ता हो गया। हम सोच रहे थे कि कुछ हैप्पी न्यू ईयर टाइप लिखकर नये साल का फीता काटें लेकिन सब आइडिया लोग छुट्टी पर निकल गया लगता है। जो दिखे भी वो बोले ,साहब जाड़ा बहुत है। अभी जमें हैं। डिस्टर्ब न करिये। उत्तर भारत में जाड़ा बहुत पड़ रहा है। सैकड़ों जाने जाड़े से जा चुकी हैं। लोग बेचारे कुछ कर नहीं पा रहे हैं। किसी टीवी पर इस बारे में कोई बहस दिखी नहीं। लोग अभी लक्ष्मण रेखा, भारत और इंडिया में बिजी हैं। जबलपुर में मौसम स्विटजरलैंड हो रहा है। खूब सर्दी, खूब धूप। स्वेटर, कोट तो साथ हैं ही। जाड़े का लुत्फ उठाया जा रहा है। रोज गिरते तापमान के रिकार्ड आंकड़े आते हैं अखबार में। हमें वो सब एक गिनती की तरह लगते हैं। यही अगर पहनने को गरम कपड़े, ओढ़ने को कम्बल-रजाई न होते तो बिलबिलाते घूमते। मौसम जो स्विटजरलैंड हो रहा है वो साइबेरिया हो जाता। दुआ करते कि ये जाड़ा टले जल्दी। बवाल है। कल कुछ तूफानी करते हैं सोचते हुए साइकिल चलाने निकल गए। शुरु के पंद्रह-बीस पैडल तो खुशी-खुशी मारे। फिर मामला फंसने लगा। समतल सड़क पर चलाने में लग रहा था कि एवरेस्ट पर साइकिलिंग कर रहे हैं। मन किया कि रुक जाएं। लेकिन फिर सोचा रुकेंगे तो लगेगा कि थक गए। स्टेमिना गड़बड़ है। फिर सोचा कि कोई जरूरी फोन कर लिया जाए रुककर। लेकिन कोई जरूरी काम याद ही नहीं आया। सब मौज ले रहे थे हमसे। हमारे पसीना आ गया। हम सोचे कि अब तो रुकना ही पड़ेगा लगता है। लेकिन तब तक आगे खुशनुमा लम्बी ढलान मिल गयी। हम खुश हो गए। वो ढाल हमें ऐसे लगी जैसी किसी आपदा में फंसे को राहत सामग्री लगती होगी। ढ़ाल में साइकिल चलाते हुए सोचा कोई गाना गुनगुनाया जाए। लेकिन जब तक गाना याद आता तब तक ढ़लान खतम हो गई। हम फिर से पैडल मारने में जुट गए। आगे फिर अपने एक मित्र से मिलने चले गए। साइकिल से आने की बात को ऐसे बताया गया जैसे हम कोई किला फतह करके आए हों। हांफते हुए चार किलोमीटर की साइकिलिंग ने ही हमारे मन में इत्ता आत्मविश्वास भर दिया कि हम प्लान बना लिए कि तीन महीने बाद साइकिल से नर्मदा परिक्रमा करेंगे। करें भले न लेकिन घोषणा करने में क्या जाता है? दोस्त के यहां से निकले तो देखा सड़क पर बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। बिना गद्दी की बच्चा साइकिल को उल्टाये हुए धरे अपना विकेट बनाए थे। हमने उनका फोटो खींचा तो बच्चा बोला हमको भी साइकिल चलाने दो। हमने दे दी। फिर दूसरा भी बोला हम भी चलाएंगे। हमने उसको भी चलाने को दे दी। एक ने कहा हमारी बॉलिंग करते हुये फोटो खैंचिये। हमने खैंच ली। वे फिर से क्रिकेट खेलने में जुट गए। गिन के देखा तो तीन किलोमीटर बारह मिनट में नापे। मतलब चलते रहे तो पन्द्र्ह किलोमीटर प्रति घंटा। मतलब दिन में सौ किलोमीटर चलने के लिए सात घंटे पैडल मारना होगा। इस स्पीड से अगर चले और हर दिन सौ किलोमीटर चले तो नर्मदा उद्गम से विसर्जन तक पहुंचने में सोलह-सत्रह दिन लग जाएंगे। कुल मिलाकर एक दिन में दस किलोमीटर चलने में हाल-बेहाल हो लिए तो पंद्र्रह-सोलह सौ किलोमीटर में कौन हाल होगा। लेकिन वो हाल तो जब होगा तब होगा अभी तो नया साल शुरू हुआ है इसलिए मुबारक हो आपको।
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16-01-2013, 03:04 AM | #49 |
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Re: ब्लॉग वाणी
अपराधी मनोवृति को काबू में रखता है डर
-शिखा वार्ष्णेय हम बचपन से सुनते आए हैं - डर के आगे जीत है, जो डर गया समझो मर गया वगैरह-वगैरह। परन्तु सचाई एक यह भी है कि कुछ भी हो व्यवस्था और सुकून बनाए रखने के लिए डर बेहद जरूरी है। घर हो या समाज जब तक डर नहीं होता कोई भी व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं चल सकती। घर में बच्चे को माता-पिता का डर न हो तो वह होश संभालते ही चोर बन जाए। स्कूल में अध्यापकों का डर न हो तो अनपढ़-गंवार रह जाए, धर्म-समाज का डर न हो तो न परिवार बचें न सभ्यता। और अगर कानून का डर न हो तो जो होता है वह आजकल हम देख ही रहे हैं। यानि इतनी अव्यवस्था और अपराध हो जाएं की जीना मुश्किल हो जाए। पता नहीं हमारे समाज में कानून या सजा का कभी डर था या नहीं परन्तु पिछले कुछ समय की घटनाओं को देखकर तो लगने लगा है कि हमारे भारतीय समाज में न तो कानून रह गया है न ही कानून के रखवालों का कोई भय। यही कारण है कि घिनोने से घिनोने अपराध बढ़ते जा रहे हैं और उनका कोई भी समाधान सामने दिखाई नहीं पड़ता। पिछले दिनों बर्बरता की परकाष्ठा पर हुए दामिनी केस ने सबके दिलों को हिला कर रख दिया। अरसे बाद जनता जागी। उसे अहसास हुआ कि अब व्यवस्था पर भरोसा रख बैठे रहने से कुछ नहीं होगा और शुरू हुआ आन्दोलन। परन्तु जैसे समाज दो भागों में बंट चुका है। एक वो जो इंसान हैं, जिनके दिलों में धड़कन है, संवेदना है, जो परेशान हैं व्यवस्था से, उसके कार्यकलापों से और उसे बदलना चाहते हैं पर मजबूर हैं। कुछ नहीं कर पाते। दूसरे वह जो हैं तो व्यवस्था के संरक्षक पर जैसे साथ अपराधियों के हैं। उन पर किसी भी बात का कोई असर नहीं होता। इतने हो-हल्ले के बाद भी लगातार ऐसे ही घिनोने,हैवानियत भरे और गंभीर अपराधों की खबरें आती रहती हैं। जैसे अपराधी एलान कर देना चाहते हैं कि लो कर लो, क्या कर लोगे? समाज से कानून और सजा का डर बिल्कुल खत्म हो चुका है। अपराधी खुले सांडों की तरह घूमते रहते हैं और अपराध चरम पर हैं। आखिर इस अव्यवस्था की वजह क्या है? जबाब बहुत से हो सकते हैं। तर्क-कुतर्क भी अनगिनत किए जा रहे हैं परन्तु मूल में जो बात है वह यही कि हममें से हर कोई सिर्फ अपने काम को छोड़कर बाकि हर एक के काम में टांग अड़ाता नजर आता है। एक केस को लेकर जागृति होती है तो आवाजें आने लगती हैं कि इस पर हल्ला क्यों? उस पर क्यों नहीं किया था। गोया कि अगर पिछले अपराधों पर गलती की गई तो आगे भी नहीं सुधारी जानी चाहिए। उसको छोड़ा तो इसे भी छोड़ो। हम खुद अपने गिरेवान में झांकने की बजाय बाकी सब पर बड़े आराम से उंगली उठा देते हैं। कितना सुगम होता यदि हर कोई सिर्फ अपना काम ईमानदारी से करता और दूसरे को उसका करने देता। हमारे समाज में भी डर तो है पर शायद गलत जगह और सही लोगों के लिए है। हालांकि ऐसा नहीं है कि बाहरी देशों में कोई अपराध ही नहीं होते परन्तु वहां हर नागरिक जानता है कि कानून के खिलाफ कुछ भी किया तो उसे बख्शा नहीं जाएगा। यही डर अपराधी मनोवृति को काबू में रखता है। नागरिकों को कानून पर और उसके रखवालों पर विश्वास रहता है और उसे अपनी सुरक्षा के मूल अधिकार लेने के लिए अपने काम छोड़कर सड़कों पर आन्दोलन के लिए नहीं उतरना पड़ता।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
24-01-2013, 01:42 PM | #50 |
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Re: ब्लॉग वाणी
सुनसान रास्ते तो नहीं हैं आपके शहर में ?
-नीलिमा अगर आप स्त्री हैं तो अंधेरे, सुनसान रास्तों पर अकेले न जाएं। आप दुष्कर्म, हत्या, लूटपाट का शिकार हो सकतीं हैं। जाहिर है हममें से कोई भी कामकाजी या घरेलू स्त्री अपनी किसी छोटी सी जिद, जरूरी काम या आपात से आपात स्थिति में भी रात में घर से बाहर अकेले नहीं निकलना चाहेगी। न ही दिन के उजाले में सुनसान सड़कों से गुजरना चाहेंगी। स्त्री के लिए बदलता समाज और बदलते समाज में सशक्त होती स्त्री पुरुष से बराबरी पर दिखाई देती है पर वास्तव में यह ऐसा सामाजिक मिथक हैं जिसका चेहरा यथार्थ से काफी मिलता जुलता है। यदि आज कोई स्त्री या लड़की इस सबसे बड़ी सामाजिक मिथकीय संरचना को जानना चाहे तब भी वह क्या रात के बारह-एक बजे अपने घर की चाहरदीवारी को लांघकर सड़क पर निकल सकती है। समाज में अपनी बराबरी को जानने के लिए कोई भी स्त्री दामिनी या निर्भया का सा हश्र नहीं चाहेगी। दिल्ली की सड़कों पर रात में इंडिया गेट के आगे से अगुवा कर दुष्कर्म का शिकार बनाई गई लड़की, दिल्ली के साउथ कैंपस में रात में भरी रिंग रोड पर चाय की दुकान के आगे से अगुवा कर सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हुई छात्रा जैसी अनेक घटनाएं हैं जिनसे बार बार असुरक्षित स्त्री समाज की विडंबना उभर कर आती है। एक बड़े अखबार के मुख्य पन्ने पर स्त्रियों के लिए खतरनाक दिल्ली के दस स्ट्रेचिज की पहचान की गई है। आप अगर स्त्री हैं तो आप इनमें और भी कई ऐसे रास्ते जोड़ सकती हैं जहां आपने खुद को असुरक्षित महसूस किया हो। आप वहां से न गुजþरें क्योंकि इन रास्तों से गुजरती स्त्री एक आसान शिकार हो सकती है यह सब अपराधियों को पता है। वे यह भी जानते हैं कि वहां आपको बचाने वाला कोई मर्द भी नहीं होगा न ही आपकी चीख-पुकार किसी के कानों तक पहुंच पाएगी। यूं तो कई बार अपने घर के आगे टहलती लड़कियों को अगुवा कर दुष्कर्म की घटनाए भी होती रहतीं हैं और अपने घर में भी वे अपराध का शिकार बनाई जा सकती हैं परंतु घर के बाहर कामकाज के लिए रोजाना निकलने वाली स्त्री जिस असुरक्षा और रिस्क के साए तहत काम करती है वह मेरी दृष्टि में स्त्री का प्रतिक्षण का मानसिक शोषण है। कामकाज के लिए बराबरी की स्पर्धा सहती स्त्री के मन में प्रतिक्षण बसा यह डर कि उसे कहां-कहां से कब-कब नहीं गुजरना उसकी कार्य क्षमता को बाधित करता है। किसी सभ्य समाज में पुलिस द्वारा कामकाजी स्त्रियों की अपने आफिस तक की यात्रा के सम्बंध में निकाले गए हिदायत वाले विज्ञापन हों या अखबारों में असुरक्षित जगहों की पहचान की कवायद हो, सबसे यही सिद्ध होता है कि और कुछ तो बदल नहीं सकता इसलिए आप यदि अपराधों का शिकार होने से बचना चाहती हैं तो कई सारी सावधानियों से काम लें। शायद आप बच जाएं। मेरी बड़ी तमन्ना रही है बचपन से कि किसी सड़क किनारे की चाय वाली गुमटी के बाहर अकेले ही ढली शाम तक बैठकर चाय पी जाए पर एक चाय और उस सुकून का रिस्क मैं कभी ले नहीं पाई। और अब तो यही शुक्र मनाती हूं कि मैं किसी ऐसी जगह काम नहीं करती जहां से आधी रात को काम से लौटना होता। आप भी सुकून मनाइए कि आपकी पत्नी, बेटी और बहन दिन में ही अपने काम काज से घर लौट आती हैं और सुनसान रास्तों से उनको गुजरना नहीं होता।
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