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Old 24-11-2012, 09:39 AM   #1
anjaan
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टुनटुन (उमा देवी) की कहानी

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Old 24-11-2012, 09:40 AM   #2
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आज मैं लेकर आया हूँ हिंदी फ़िल्मों की जानीमानी हास्य अभिनेत्री टुनटुन जिन्होंने फिल्म जगत में उमा देवी के नाम से एक गायिका के रूप में प्रवेश लिया था. जी हाँ इन्हीं टुनटुन का असली नाम उमा देवी खत्री था. उनका जन्म उत्तर प्रदेश के एक दूरदराज़ गाँव में हुआ था और बचपन में ही अपने माता-पिता दोनों को खो चुकी थीं. रेडियो पर गाने सुन सुन कर उन्हें गायिका बनने की चाहत मुम्बई ले आई उस समय उनकी आयु मात्र १३ साल थी.इस कहानी को लगभग सभी जानते हैं.

उनकी आवाज़ में एक कशिश थी बहुत मीठी आवाज़ की मल्लिका थीं वे. वह नौशाद साहब के लिए ही गाना चाहती थीं और उनकी यह तमन्ना १९४७ की फिल्म दर्द में पूरी हुई.यह उनका सब से अधिक लोकप्रिय गीत रहा.उनको इस क्षेत्र में वो मुकाम नहीं मिल सका जिसकी वे हक़दार थीं.उन्हीं के मुंह भोले भाई संगीतकार नौशाद साहब ने उन्हें फिल्मों में अभिनय की सलाह दी और उन्होंने बतौर हास्य अभिनेत्री फिल्म बाबुल में काम किया और उसके बाद हास्य अभिनेत्री के तौर पर सफलता के नए मुकाम हासिल किये.

उमा देवी का नया नाम टुनटुन बेहद लोकप्रिय हुआ. उनके पति मोहन की मृत्यु १९९२ में हुई और २००३ में उनका निधन हुआ था.उनकी दो पुत्रियाँ और एक पुत्र है.वे अँधेरी ,मुम्बई में रहती थीं.

Last edited by anjaan; 24-11-2012 at 09:43 AM.
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Old 24-11-2012, 09:41 AM   #3
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टुनटुन का गाया हुआ यह दर्द फिल्म का गीत आज भी लोग याद करते हैं।



अफ़साना लिख रही हूँ दिल-ए-बेक़रार का
आँखोँ में रंग भर के तेरे इंतज़ार का
अफ़साना लिख रही हूँ

जब तू नहीं तो कुछ भी नहीं है बहार में
जी चाहता है मूँह भी न देखूँ बहार का
आँखोँ में रन्ग भर के तेरे इंतज़ार का
अफ़साना लिख रही हूँ

हासिल हैं यूँ तो मुझको ज़माने की दौलतें

लेकिन नसीब लाई हूँ इक सोग़वार का
आँखोँ में रंग भर के तेरे इंतज़ार का
अफ़साना लिख रही हूँ
आजा कि अब तो आँख में आँसू भी आ गये

साग़र छलक उठा मेरे सब्र-ओ-क़रार का
आँखोँ में रंग भर के तेरे इंतज़ार का
फ़साना लिख रही हूँ
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Old 24-11-2012, 09:45 AM   #4
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Now I am going to post...

उमा देवी (टुनटुन) की कहानी उनकी ज़ुबानी Written by shishir krishna sharma

साभार : शिशिर कृष्ण शर्मा


उमा देवी (टुनटुन) की कहानी उनकी ज़ुबानी Written by shishir krishna sharma


हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में पहला कदम उन्होंने एक गायिका के रूप में रखा था. उनके पहले ही गीत ने क़ामयाबी की तमाम बुलन्दियां पार कीं. लेकिन बामुश्क़िल 40-45 गीत गाने के बाद घरेलू वजहों से उन्हें फिल्मोद्योग से अलग हो जाना पड़ा. फिर कुछ ही समय बाद पैसे की मजबूरी उन्हें वापस इस चमक-दमक भरी दुनिया में खींच लाई. लेकिन तब तक प्लेबैक के क्षेत्र का दृश्य इतना बदल चुका था कि उन्हें बतौर गायिका काम मिलना आसान नहीं रह गया था. मजबूरन उन्हें पैसा कमाने के लिए कैमरे के सामने आना पड़ा. ये था नियति का खेल !



अभिनेत्री टुनटुन बनकर उन्होंने जो लोकप्रियता हासिल की वैसी लोकप्रियता गायिका उमादेवी के रूप में उन्हें शायद ही मिल पाती. पचास और साठ के दशक की हिन्दी फिल्मों के दर्शक गवाह हैं इस बात के कि टुनटुन वो एकमात्र महिला कॉमेडियन थीं जिनके परदे पर आने मात्र से सिनेमाहॉल में ठहाके गूंजने लगते थे. उनकी लोकप्रियता का आलम कुछ ऐसा था कि उस दौर में वो हर दूसरी-तीसरी फिल्म में नज़र आती थीं, भले ही उनकी भूमिका नगण्य सी और एक-दो दृश्यों की ही क्यों न हो.

अक्सर कहा जाता है कि कोई ज़रूरी नहीं कि एक अभिनेता की परदे पर नज़र आने वाली छवि उसकी असल ज़िंदगी से मेल खाए. काफी हद तक ये बात सच भी है. लेकिन टुनटुन इसकी अपवाद थीं. वो असल ज़िन्दगी में भी उतनी ही मस्तमौला और हंसने-हंसाने वाली महिला थीं जितनी कि फिल्म के परदे पर नज़र आती थीं. लेकिन ये उनके व्यक्तित्व का सिर्फ एक पहलू था.
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Old 24-11-2012, 09:48 AM   #5
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सुनहरी दौर के, समय के साथ गुमनामी में खो चुके मशहूर लोगों के बारे में जानने की उत्सुकता तो मन में हमेशा से थी ही, अब मेरे पास एक मक़सद भी था सो मैं जुट पड़ा उन खोए हुए कलाकारों की तलाश में. श्यामा, शशिकला, शारदा, महिपाल, जॉय मुकर्जी, राजेन्द्रनाथ, अनिता गुहा, दुलारी, पूर्णिमा, सुधा मल्होत्रा...ऐसे नामों की सूची अंतहीन थी.

वयोवृद्ध अभिनेता चन्द्रशेखरजी और ‘सिने एण्ड टी.वी.आर्टिस्ट एसोसिएशन’ के ऑफिस में कार्यरत अनिल गणपत गायकवाड़ और सुखदेव बापू जाधव ने इस मुहिम में मेरी भरपूर मदद की. जहां एक ओर चन्द्रशेखरजी ने ऐसे कई भूले-बिसरे कलाकारों के नाम मुझे सुझाए, वहीं अनिल और सुखदेव एसोसिएशन के रेकॉर्ड में से ढूंढकर लगातार मुझे उनके पते और फोन नम्बर देते रहे. टुनटुन उन कलाकारों में से थीं जिनके मौजूदा हालात जानने के लिए मैं

हमेशा से बेताब था. उनका इण्टरव्यू मैं ‘सहारा समय’ के प्रकाशन की शुरुआत में ही कर चुका होता अगर मेरे पास उनका सही पता होता.
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Old 24-11-2012, 09:48 AM   #6
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एसोसिएशन के रजिस्टर में दर्ज उनके पते पर मैं अंधेरी (पश्चिम) स्थित यारी रोड के इलाक़े में पहुंचा तो पता चला वो तो साल भर पहले ही अपना फ्लैट बेचकर जा चुकी थीं. कहां गयीं, ये किसी को नहीं पता था.

सिने एण्ड टी.वी.आर्टिस्ट एसोसिएशन से भी उन्होंने लम्बे समय से सम्पर्क नहीं किया था. क़रीब चार-पांच महिने बाद अचानक अनिल ने मुझे फोन किया. बेहद उत्साहित स्वर में अनिल ने बताया कि अभी- अभी टुनटुनजी का फोन आया था,

अब वो बान्द्रा-विलेज में अपनी छोटी बेटी के साथ रहती हैं और उन्होंने जल्द ही होने जा रही एसोसिएशन की सालाना जनरल बॉडी मीटिंग में हिस्सा लेने का वादा किया है. मैं तय समय पर उस मीटिंग में पहुंचा. टुनटुन को बेहद सम्मान के साथ मंच पर बैठाया गया था. दुबली-पतली वृद्धा को सामने देखते ही उनकी वो छवि भरभराकर ढह पड़ी जिसे मैं अभी तक सिनेमा के परदे पर देखता आया था. मंच पर मौजूद दिलीप साहब, चन्द्रशेखरजी, धर्मेन्द्र, अमरीश पुरी और दारासिंह जैसे वरिष्ठ कलाकारों को उनके साथ बेहद अदब से पेश आते देखा.
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Old 24-11-2012, 09:50 AM   #7
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इतनी उम्र हो जाने के बावजूद टुनटुन की चुहलबाज़ी, गर्मजोशी और चुटीली बातों में कोई कमी नहीं आई थी. मौक़ा देखकर मैं उनसे मिला और अपना परिचय देते हुए उनका इण्टरव्यू करने की इच्छा ज़ाहिर की तो तुरंत जवाब मिला, ‘ओए शर्मे-बेशर्मे, तू आजा कभी भी. लेकिन पहले फोन ज़रूर कर लियो’. जब कभी कहीं उनका ज़िक्र होता है तो उनके कहे ये शब्द हूबहू आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं. तय समय के अनुसार 27 अक्टूबर 2003 की शाम ठीक 6 बजे मैं अपने फोटोग्राफर साथी अनिल मुरारका के साथ टुनटुन के बान्द्रा पश्चिम स्थित घर पर पहुंचा. मस्तमौला स्वभाव्, चुटीली बातें, बात-बात पर हंसना-हंसाना भले ही उनके व्यक्तित्व का जगज़ाहिर पहलू था लेकिन वास्तव में उसके पीछे अथाह दर्द छुपा हुआ था. ज़िन्दगी में उन्होंने शायद ही कभी कोई सुख देखा हो.

उनका ये एक रेकॉर्डेड इण्टरव्यू था जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है.

लीजिए पेश है टुनटुन की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी -
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Old 24-11-2012, 09:50 AM   #8
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‘मुझे याद नहीं कि मेरे माता-पिता कौन थे और कैसे दिखते थे. मैं दो-ढाई बरस की रही होंगी जब वो ग़ुज़रे थे. घर में मुझसे आठ-नौ साल बड़ा एक भाई था जिसका नाम हरि था. मुझे बस इतना याद था कि हम लोग अलीपुर नाम के गांव में रहते थे. गांव के बीच में एक तालाब था जिसमें बत्तखें तैरती रहती थीं. मेरा भाई गांव की रामलीला में भाग लेता था. एक रोज़ मैं किसी घर की छत पर बैठी रामलीला देख रही थी कि मुझे नींद आ गयी और मैं लुढ़ककर नीचे गिर पड़ी. भाई मेरा इतना ख्याल रखता था कि वो रामलीला के बीच में ही मंच छोड़कर मुझे उठाने के लिए दौड़ पड़ा था. उस वक़्त मैं तीन-चार बरस की और भाई बारह-तेरह बरस का रहा होगा. लेकिन एक रोज़ भाई भी ग़ुज़र गया और दो वक़्त की रोटी के एवज़ में रिश्तेदारों के लिए चौबीस घण्टे की नौकरानी छोड़ गया. अब रिश्तेदारी- बिरादरी में जहां कहीं भी शादी-ब्याह-जीना-मरना हो काम के लिए मुझे भेजा जाने लगा. मेरा अन्दाज़ है कि अलीपुर शायद दिल्ली के आसपास था क्योंकि अक्सर घरेलू काम के सिलसिले में मुझे दिल्ली के दरियागंज इलाक़े में किसी रिश्तेदार के घर आते-जाते रहना पड़ता था.
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Old 24-11-2012, 09:51 AM   #9
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उसी दौरान एक रोज़ पड़ोसियों से पता चला था कि अलीपुर में हमारी काफी ज़मीनें थीं जिन्हें हड़पने के लिए पहले मेरे माता-पिता और फिर भाई का क़त्ल कर दिया गया था. गाने का शौक़ मुझे बचपन से था लेकिन गुनगुनाते हुए भी डर लगता था क्योंकि उन लोगों में से अगर कोई गाते हुए सुन लेता था तो मार पड़ती थी. उन्हीं दिनों दिल्ली में मेरी मुलाक़ात एक्साईज़ विभाग में इंस्पेक्टर अख्तर अब्बास काज़ी से हुई. उन्होंने मुझे सहारा दिया तो मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा.


लेकिन तभी मुल्क़ का बंटवारा हुआ और काज़ी साहब लाहौर चले गए. इधर हालात से तंग आकर फिल्मों में गाने का ख्वाब लिए मैं एक रोज़ चुपचाप मुम्बई भाग आयी. दिल्ली में किसी ने निर्देशक नितिन बोस के असिस्टेण्ट जव्वाद हुसैन का पता दिया था सो उनसे आकर मिली और उन्होंने मुझे अपने यहां पनाह दे दी. उस वक़्त मेरी उम्र चौदह बरस की थी. उधर काज़ी साहब का मन लाहौर में नहीं लगा इसलिए मौक़ा पाते ही वो भी मुम्बई चले आए और फिर हमने शादी कर ली. ये सन 1947 का मैं काम की तलाश में थी. कारदार उन दिनों फिल्म ‘दर्द’ बना रहे थे.
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Old 24-11-2012, 09:52 AM   #10
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एक रोज़ उनके स्टूडियो में पहुंची और बेरोकटोक उनके कमरे में घुसकर बेझिझक उन्हीं से पूछ बैठी, कारदार कहां मिलेंगे, मुझे गाना गाना है. दरअसल मैं न तो कारदार को पहचानती थी और न ही फिल्मी तौर-तरीक़ों से वाक़िफ थी. शायद मेरा यही बेतक़ल्लुफी भरा अंदाज़ कारदार को पसन्द आया जो बिना नानुकुर किए उन्होंने नौशाद साहब के असिस्टेण्ट ग़ुलाम मोहम्मद को बुलाया और मेरा टेस्ट लेने को कहा. ग़ुलाम मोहम्मद ढोलक लेकर बैठे तो मैंने उनसे ठीक से बजाने को कहा. मेरे बेलाग तरीकों से वो भी हक्के-बक्के थे.

बहरहाल मैंने फिल्म ‘ज़ीनत’ का नूरजहां का गाया गीत ‘आंधियां ग़म की यूं चलीं’ गाकर सुनाया जो सबको इतना पसन्द आया कि मुझे पांच सौ रुपए महिने की नौकरी पर रख लिया गया.
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