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Old 24-10-2013, 11:59 PM   #1
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Lightbulb दिलचस्प बॉलीवुड

यहाँ आपको मिलेगी हमारे बॉलीवुड से संबंधित दिलचस्प जानकारियां|

पहली प्रविष्टि में पेश है नायक ओर नायिकाओं के वास्तविक नाम,
यानी फिल्मों में आने से पहले क्या थे ओर अब क्या हैं
?

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मूल नाम <---->वर्तमान नाम
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राजीव भाटिया - अक्षय कुमार
विशाल देवगन - अजय देवगन
अजय सिंह देओल - सन्नी देओल
विजय सिंह देओल - बॉबी देओल
जय किशन श्राफ - जेकी श्राफ
रवि कपूर - जितेन्द्र
जतिन खन्ना - राजेश खन्ना
रणवीर राज कपूर - राज कपूर
चन्द्र शेखर कपूर - शेखर कपूर
सुनील कपूर - शक्ति कपूर
अन्नू कपूर - अनिल कपूर
हरिकृष्ण गोस्वामी - मनोज कुमार
आभास कुमार गांगुली - किशोर कुमार
हरिहर जरीवाला - संजीव कुमार
युसूफ खान - दिलीप कुमार
हामिद खान - अजित
धरमदेव आनंद - देव आनंद
विश्वनाथ पाटेकर - नाना पाटेकर
फातिमा रशीद - नर्गिस
फरहत इजिक्ल - नदिरा
बादशाहजहां - शकीला
कृष्णा सरीन - बीना रॉय
मोना सिंह - कल्पना कार्तिक
खुर्शीद - श्यामा
सरोज शिलोत्री - शोभना समर्थ
हरकिर्तन कौर - गीता बाली
माहजबीं - मीना कुमारी
मुमताज जहाँ बेगम - मधुबाला
इंदिरा मुखर्जी - मौसमी चटर्जी
भानुरेखा गणेशन - रेखा
पदमावती - ममता कुलकर्णी
रीतू चौधरी - महिमा चौधरी
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ज्ञान का घमंड सबसे बड़ी अज्ञानता है, एंव अपनी अज्ञानता की सीमा को जानना ही सच्चा ज्ञान है।
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Last edited by Teach Guru; 25-10-2013 at 12:02 AM.
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Old 25-10-2013, 12:00 AM   #2
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Default Re: दिलचस्प बॉलीवुड

_-_-_ बॉलीवुड परदे पर रची मेहंदी _-_-_

यहाँ उन उन फिल्म ओर गानों का जिक्र करूँगा जो मेहंदी से संबधित थे |

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मेहँदी शीर्षक पर आधारित फिल्म -:

मेहंदी - 1947
मेहंदी - 1958
मेहंदी - 1983
मेहंदी - 1998
मेहंदी लगी मेरे हाथ - 1962
मेहंदी रंग लाएगी - 1980
मेहंदी बन गयी खून - 1990
महबूब की मेहंदी - 1971
हीना - 1991
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मेहंदी से संबधित गाने -:

मेहंदी रंग तो लायी - मेहंदी 1958
मेहंदी लगी मेरे हाथ - मेहंदी लगी मेरे हाथ 1962
महबूब की मेहंदी हाथों में - महबूब की मेहंदी 1971
मेहंदी रंग लाएगी - मेहंदी रंग लाएगी 1980
मेरे अंगना मेहंदी का - मेहंदी 1983
मेहंदी कहती है ये बात - फांसी के बाद 1984
लगी रे मेहंदी सज गयी - मक्कार 1986
मेहंदी लगा के रखना - दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे 1995
मेहंदी बुलाए आ जा - मेहंदी 1998
दुल्हन कोई जब रचाती है मेहंदी - मेहंदी 1998
मेहंदी रंग लाएगी - चल मेरे भाई 2000
मेहंदी है रचने वाली - जुबैदा 2000
मेहंदी मेहंदी - चौरी चौरी चुपके चुपके 2001
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Old 25-10-2013, 12:02 AM   #3
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Default Re: दिलचस्प बॉलीवुड

क्या आप जानते हैं ?
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* निर्माता-निर्देशक महबूब खान की सन 1957 में बनी फिल्म 'मदर इण्डिया' केवल एक वोट कम मिलने के कारण 'ऑस्कर' अवार्ड से वंचित रह गयी|

* सन 1952 में बनी निर्माता-निर्देशक महबूब खान की फिल्म 'आन' भारत की पहली टेक्नीकलर फिल्म थी| इस फिल्म के एक गीत में संगीतकार नौशाद ने 100 संगीतज्ञों का इस्तेमाल किया, जो पहले किसी फिल्म के लिय नहीं हुआ था|

* सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पहला 'फिल्म फेयर अवार्ड' फिल्म 'परीणिता' के लिए मीना कुमारी को मिला था, 1953 में बनी इस फिल्म के निर्देशक बिमल रॉय थे|

* मधुबाला की आख़िरी फिल्म 'ज्वाला' थी, जो उसकी मृत्यु के दो साल सन 1971 में रिलीज हुयी थी|

* देव आनद निर्मित एवं अभिनीत फिल्म 'गाइड' हिंदी-अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में एक साथ बनी थी, इस फिल्म को कुल सात फिल्म फेयर पुरुस्कार प्राप्त हुए थे तथा विश्व प्रसिद्ध ऑस्कर पुरुस्कार के लिए भी 'गाइड' का नामांकन हुआ था|

* वर्ष 1932 में प्रदर्शित फिल्म 'इन्द्रसभा' में सर्वाधिक 71 गीत थे|

* भारतीय मूक फीचर फिल्मों का निर्माण 'राजा हरिश्चन्द्र '1913 से प्रारम्भ हुआ था, वर्ष 1934 तक निर्मित मूक फिल्मों की कुल संख्या 1250 है|


* भारत में सस्पेंस फिल्मों का दौर 'निशीर डाक' [बांग्ला फिल्म] से हुआ था, लोकप्रिय प्रथम सस्पेंस हिंदी फिल्म फिल्म रही -: 'महल'

* भारतीय फिल्मों में महिला कव्वाली की शुरुआत वर्ष 1945 में निर्मित 'जीनत' फिल्म से हुयी थी, कव्वाली के बोल थे -: आंहे न भरी शिकवे ना किये|

* अभिनेता अमिताभ बच्चन की प्रथम सुपरहिट फिल्म 'जंजीर' में उनका नाम विजय था ओर यह नाम उन्हें इतना रास आया की अब तक लगभग 17 फिल्मों में वह 'विजय' नाम से परदे पर आ चुकें है|

* वी शांताराम की 'झनक-झनक पायल बजे' पहली फिल्म थी, जिसे भारत में कर से मुक्त किया गया था|

* सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पहला 'राष्ट्रिय' अवार्ड कल्याणजी-आनंदजी को फिल्म 'सरस्वती-चन्द्र' के लिए मिला था|

* फिल्म 'जुगनू' के एक गीत में मो. रफ़ी ने दिलीप कुमार के साथ अभिनय भी क्या था, जिसके बोल थे -: याद दिलाने को इक इश्क की दुनियां छोड़ गए....
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Old 25-10-2013, 12:02 AM   #4
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गुलाब से करती थीं मधुबाला मोहब्बत का इजहार
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बेमिसाल हुस्न की मलिका मधुबाला दिलबरों को लाल गुलाब और प्रेमपत्र देकर अपनी मोहब्बत का इजहार किया करती थीं। मधुबाला के प्रेमियों में उनके बचपन के दोस्त लतीफ, निर्माता-निर्देशक केदार शर्मा और कमाल अमरोही, अभिनेता प्रेमनाथ, अशोक कुमार तथा दिलीप कुमार, पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो और गायक अभिनेता किशोर कुमार के नामों का शुमार था, जिन्हें लाल गुलाब देकर ही उन्होंने अपने प्यार का इजहार किया था।

मधुबाला से जुड़ा एक और रोचक वाकया है कि उनके बारे में एक नजूमी भविष्यवक्ता कश्मीर वाले बाबा ने भविष्यवाणी की थी कि मुमताज मधुबाला के बचपन का नाम का भविष्य चमकदार होगा। बड़ी होकर वह बहुत नाम कमाएगी तथा बहुत पैसा और शोहरत पाएगी, लेकिन उसे जिंदगी में खुशी नहीं मिलेगी। उसका दिल बार-बार टूटेगा और कम उम्र में ही उसका इंतकाल हो जाएगा। नजूमी की एक-एक बात सच साबित हुई। बॉलीवुड की फिल्मी दुनिया से ऐसे ही कई और दिलचस्प वाकये जुडे़ हुए हैं। मौलिक और बेहद कठिन संगीत रचनाओं के लिए मशहूर संगीतकार सज्जाद हुसैन को अपनी प्रतिभा पर बेहद नाज था। संगीत के स्तर से किसी तरह का समझौता नहीं करने के कारण अक्सर निर्माता-निर्देशक, कलाकार या गायक में से किसी न किसी से इस हद तक उनकी अनबन हो जाती थी कि फिर उनके एक साथ काम करने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती थी। अपने रचनाकर्म में पूर्णता लाने के इसी जुनून के कारण सज्जाद ने संगदिल फिल्म के एक गीत ये हवा ये रात ये चांदनी.. के 17 रीटेक लिए थे और फिर भी वह संतुष्ट नहीं हुए थे।

सज्जाद मानते थे कि फिल्म इंडस्ट्री में दो ही व्यक्ति ऐसे हैं, जो उनकी संगीत रचनाओं के साथ कुछ हद तक इंसाफ कर सकते हैं नूरजहां और लता मंगेशकर। वह तलत महमूद को गलत महमूद और किशोर कुमार को शोर कुमार कहा करते थे। लता मंगेशकर ने माना है कि उनकी बनाई धुन पर गीत गाना चुनौती होता था। एक बार उनकी एक बेहद मुश्किल संगीत रचना पर गायन की कोशिश करते देखकर उन्होंने लता मंगेशकर से व्यंग्य में कहा था यह मियां नौशाद की संगीत रचना नहीं है, आपको मेहनत करनी पडे़गी। एक दिलचस्प वाकया सदाबहार अभिनेता एवं निर्माता-निर्देशक देवानन्द और गुरुदत्त के बीच हुआ था। 1945 में पुणे में प्रभात फिल्म कंपनी के लिए काम करते समय दोनों कलाकार एक ही धोबी को अपने कपडे़ दिया करते थे। किस्सा यूं हुआ कि एक दिन देवानन्द की कमीज बदल गई। उस दौरान वह फिल्म हम एक हैं की शूटिंग कर रहे थे। सेट पर उन्होंने देखा कि फिल्म के हमउम्र कोरियोग्राफर गुरुदत्त उनकी कमीज पहने हुए हैं जब उन्होंने इस बारे में गुरुदत्त से पूछा तो उन्होंने कहा कि यह उनकी कमीज नहीं है। चूंकि उनके पास दूसरी कमीज नहीं है, इसलिए वह इसे पहने हुए हैं। इसके बाद देवानन्द और गुरुदत्त के बीच गहरी दोस्ती हो गई और उन्होंने वादा किया कि यदि वे कभी फिल्म निर्माता बनते हैं तो एक-दूसरे को अपनी फिल्मों में नायक और निर्देशक के रूप में मौका देंगे। देवानन्द ने बाजी फिल्म में गुरुदत्त को निर्देशक बनाकर अपना वादा पूरा किया, लेकिन गुरुदत्त कुछ समय तक अपना वादा पूरा नहीं कर पाए तो देवानन्द के शिकायत करने पर उन्होंने सीआअीडी फिल्म में उन्हें नायक बनाकर अपना वादा पूरा कर दिया।

संगीतकार नौशाद नई-नई तरकीबों से फिल्मों में संगीत देने के लिए मशहूर थे। उस जमाने में जब साउंड प्रूफ रिकार्डिग रूम नहीं हुआ करते थे। उन्होंने अपनी फिल्म रतन के लिए एक देसी, लेकिन कारगर तरीके का इस्तेमाल किया था। गीतों में ध्वनि प्रभाव लाने के लिए उन्होंने माइक्रोफोन को मिट्टी से बनी टाइल वाले शौचालय में रखवा दिया, ताकि आवाज के उससे टकराकर लौटने पर अपेक्षित परिणाम मिल सके। इसी तरह नौशाद ने मुगले आजम फिल्म के गीत प्यार किया तो डरना क्या.. के एक हिस्से को अपेक्षित ध्वनि प्रभाव लाने के लिए लता मंगेशकर से चमकदार टाइलों वाले बाथरूम में गवाकर उसकी रिकार्डिग की। नौशाद से जुड़ा एक रोचक वाकया यह है कि उनकी शादी के समय बाजे वाले फिल्म रतन के उनके सुपरहिट गीतों की धुनें बजा रहे थे, लेकिन संगीत के प्रति अपने परिवार के तंग नजरिए के कारण वह गीतों के धुनें बनाने वाले संगीतकार की आलोचना कर रहे अपने पिता और ससुर को उस समय यह बताने की हिम्मत नहीं जुटा सके कि इन गीतों की धुनों के रचयिता वही हैं।

निर्माता अशोक कुमार की महल फिल्म के निर्माण के दौरान भी कई रोचक वाकये हुए थे। संगीतकार खेमचंद प्रकाश इस फिल्म के लिए गायन के क्षेत्र में उभर रही एक दुबली-पतली लडकी लता मंगेशकर से गाने गवाना चाहते थे, लेकिन अशोक कुमार के बहनाई शशधर मुखर्जी को इस पर एतराज था। उनका कहना था कि लता की आवाज बेहद पतली और तीखी है, लेकिन अशोक कुमार संगीतकार की पसंद के हामी बन गए और उसके बाद तो लता मंगेशकर ने जो मुकाम हासिल किया उस तक सदियों में ही शायद कोई पहुंच पाएगा। इस फिल्म के बेहद मकबूल गीत आएगा आने वाला..से जुड़ी रोचक बात यह है कि अशोक कुमार और फिल्म के निर्देशक चाहते थे कि लता इस गीत को इस तरह गाएं मानो फिल्म की नायिका कहीं दूर से करीब आती जा रही हो। स्टूडियो काफी बड़ा था। लता को उसके एक कोने में खड़ा कर दिया गया और उनसे कहा गया कि वह गाना गाते हुए धीरे-धीरे माइक्रोफोन तक आएं, जो स्टूडियो के बीच में रखा गया था। चूंकि उस समय डबिंग और संपादन के लिए उपकरण नहीं थे, इसलिए गाने को एक बार में ही पूरा करना था जो बेहद मुश्किल काम था। गाने की रिकार्डिग करने में पूरा दिन लग गया, लेकिन लता मंगेशकर ने इस चुनौती को पूरा करके ही दम लिया।

लता मंगेशकर बताती हैं कि एक बार वह सख्त बीमार पड़ गई थीं और डाक्टरों ने कह दिया था कि वह अब कभी गाने नहीं गा पाएंगी लेकिन उन्होंने हेमन्त कुमार के संगीत निर्देशन में फिल्म बीस साल बाद के लिए कहीं दीप जले कहीं दिल.. गीत गाकर डाक्टरों की बात को झुठलाने के साथ ही अपने उन आलोचकों का मुंह भी बंद कर दिया, जो तरह-त्रह की अटकलें लगा रहे थे। लता मंगेशकर से जुड़ा एक और रोचक प्रसंग है कि कई साल पहले रेलगाड़ी में सफर के दौरान अभिनय सम्राट् दिलीप कुमार ने उनसे मुलाकात होने पर छूटते ही कहा था क्या तुम वही मराठी गायिका हो, जो उर्दू के शब्दों का सही ढंग से उच्चारण नहीं कर पाती हो। इसके बाद तो उन्होंने उर्दू के तलफ्फुज के लिए इतनी मेहनत की और गीतों में इतने सही ढंग से उनका उच्चारण किया कि उर्दूदां लोगों को भी रश्क होने लगे। फिल्म विधा के हर फन में माहिर किशोर कुमार के बारे में कई दिलचस्प बातें हैं। उनमें से एक यह है कि जब वह तीन साल के थे तो उन्हें बुरी तरह चोट लग गई थी और वह कई दिनों तक बिना रुके दर्द से चिल्लाते रहे थे। बडे़ भाई अशोक कुमार ने कई मौकों पर मजाक में कहा था कि शायद यही कारण रहा कि किशोर की आवाज इतनी सुरीली बन गई।

जानी वाकर के फिल्मों में आने की घटना भी बड़ी रोचक है। वह अपने बडे़ परिवार का गुजारा चलाने के लिए मुंबई में बस कंडक्टरी करते थे और इस दौरान अपने अभिनय से यात्रियों का मनोरंजन किया करते थे। उस वक्त बाजी फिल्म के लिए संवाद लिख रहे अभिनेता बलराज साहनी संयोग से उसी बस में चढे़, जिसमें जानी वाकर अपनी कला से यात्रियों का मनोरंजन कर रहे थे। बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने जानी वाकर को फिल्मों में काम करने का सुझाव दिया और इसके लिए योजना भी बनाई कि वह बाजी फिल्म का निर्देशन कर रहे गुरुदत्त के पास जाएं और शराबी का अभिनय करते हुए वहां उधम मचाएं। इसके बाद राज खोल दिया जाएगा। जानी वाकर ने ऐसा ही किया। गुरुदत्त को लगा कि कोई शराबी उनके कमरे में घुसा है। उन्होंने गेटकीपरों से उसे तुरंत बाहर निकालने को कहा। तभी बलराज साहनी ने पीछे से आकर उन्हें बताया कि यह व्यक्ति शराबी नहीं है, शराबी का अभिनय कर रहा है। गुरुदत्त जानी वाकर के अभिनय से बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी फिल्म में शराबी के अभिनय के लिए उन्हें तुरंत चुन लिया।

अपनी बुलंद आवाज के लिए मशहूर निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी की फिल्मों से जुड़ा एक बेहद रोचक वाकया है। तत्कालीन बंबई के मिनर्वा थियेटर में उनकी फिल्म शीश महल दिखाई जा रही थी। इस दौरान मोदी स्वयं थियेटर में मौजूद थे। उन्होंने देखा कि पहली पंक्ति में एक व्यक्ति आंखें बंद किए बैठा है। इससे मोदी बेहद नाराज हुए और एक कर्मचारी को कहा कि वह दर्शक को उसका पैसा वापस करके थियेटर से बाहर निकाल दे। कुछ देर बाद कर्मचारी ने लौटने पर बताया कि वह व्यक्ति अंधा है और सिर्फ सोहराब मोदी की आवाज सुनने के लिए थियेटर में आया था। भावप्रवण अभिनेत्री नूतन के बारे में भी एक दिलचस्प किस्सा है। उनकी फिल्म नगीना (1951) को ए सर्टिफिकेट मिला था। उस समय नूतन की उम्र लगभग पंद्रह साल की थी। चूंकि फिल्म बालिगों के लिए थी इसलिए जिस सिनेमा हाल में उनकी फिल्म प्रदर्शित की जा रही थी उसके चौकीदार ने उन्हें फिल्म देखने के लिए हाल में घुसने नहीं दिया। सीधे-सरल शब्दों में भावों को सहज अभिव्यक्ति देने की कला में माहिर शैलेन्द्र अपने गीतों के मुखडे़ सिगरेट की डिबिया पर लिखकर संगीतकारों को दिया करते थे। उस जमाने में संगीतकारों की गीतकारों से ज्यादा अहमियत हुआ करती थी और वही अपनी धुनों के लिए निर्माताओं से गीतकारों के नामों की सिफारिश किया करते थे। संगीतकार शंकर-जयकिशन ने शैलेन्द्र से वायदा किया था कि वह निर्माताओं से उनके नाम की सिफारिश करेंगे, लेकिन जब उन्होंने अपना वादा नहीं निभाया तो शैलेन्द्र ने एक पर्ची पर पंक्तियां लिखकर भेजीं छोटी सी ये दुनिया.., पहचाने रास्ते हैं.., तुम कहीं तो मिलोगे.., कभी तो मिलोगे फिर पूछेंगे हाल . इन पंक्तियों को पढ़कर शंकर-जयकिशन को अपनी भूल का अहसास हो गया। बाद में उन्होंने इस मुखडे़ पर बने गीत की संगीत रचना की, जो बेहद लोकप्रिय हुआ। खल-पात्रों से दर्शकों के दिलों में दहशत पैदा कर देने वाले अभिनेता प्राण अपने काम के प्रति बेहद समर्पित व्यक्ति थे और जिस फिल्म में वह अभिनय करते थे, उससे पूरी तरह जुड़ जाते थे। अभिनेता मनोज कुमार ने उनके बारे में एक वाकया बताया कि उपकार फिल्म की शूटिंग के दौरान उन्होंने देखा कि प्राण बेहद उदास और थके-थके से लग रहे हैं। जब उन्होंने इसकी वजह पूछी तो प्राण की आंखों में आंसू भर आए। उन्होंने बताया कि उनकी बहन का पिछली रात निधन हो गया है, लेकिन वह इसलिए कलकत्ता नहीं गए कि उनके नहीं रहने से दो निर्माताओं को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
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बॉलीवुड का प्रथम देवदास

हिन्दी फिल्मों के शुरूआती दौर में केएल सहगल को निस्संदेह एक सुपर स्टार का दर्जा हासिल था क्योंकि उन्होंने अपनी गायन की विशिष्ट शैली के कारण न केवल लोगों को झूमने पर मजबूर कर दिया बल्कि गायकों की भावी पीढ़ी के लिए पेरणा बन गए। कुंदन लाल सहगल के गायन की शैली की कुछ समय तक प्रसिद्ध पार्श्व गायक मुकेश और किशोर कुमार ने भी नकल की थी।

फिल्मी गानों के अलावा सहगल ने ख्याल ठुमरी गजल गीत और भजन भी गाये। लेकिन दिलचस्प तथ्य है कि उन्होंने शास्त्रीय संगीत का विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था। सहगल ने वैसे तो बचपन से ही गाना शुरू कर दिया था लेकिन जब 13 वर्ष की उम्र में उनकी आवाज फटने लगी तो उन्हें इस बात का बेहद सदमा लगा। अपनी बदली हुई आवाज से वह इतना निराश हो गए कि उन्होंने कई महीनों तक नहीं गाया। बाद में उन्हें एक संत ने गायन नहीं छोड़ने को कहा।

इसके बाद सहगल ने तीन साल तक गायन का अभ्यास किया। शुरू में सहगल ने अपने दौर के लोकप्रिय शास्त्रीय संगीतकार फैयाज खान पंकज मलिक और पहाड़ी सान्याल से भी कुछ मदद ली। लेकिन उन्होंने गायन में रियाज के दौरान अपनी विशिष्ट शैली विकसित करने पर जोर दिया और बाद में यही उनकी पहचान बनी।

सहगल के लिए 1935 का वर्ष विशेष महत्व रखता है क्योंकि इसी साल शरद चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित फिल्म देवदास प्रदर्शित हुई। इस फिल्म का मुख्य पात्र और उस किरदार को निभा रहे सहगल की निजी जिंदगी दोनों में एक समानता थी कि दोनों काफी अधिक शराब पीते थे। देवदास फिल्म के गाने 'बालम आये बसो और दुख के अब दिन' बेहद लोकप्रिय हुए। देवदास के बाद सहगल ने भक्त सूरदास तानसेन कुरूक्षेत्र उमर खैयाम तदबीर जैसी कई सफल फिल्मों में काम किया जिनमें अभिनय भी शामिल है।

उनके बेहद लोकप्रिय गानों में दिया जलाओ जगमग जगमग दिले बेकरार झूम गम दिये मुस्तकिल और जब दिल ही टूट गया शामिल हैं। उस समय अभिनेताओं को अपने गीत स्वयं ही गाने होते थे। सफलता के साथ साथ सहगल की शराब पीने की आदत भी बढ़ती गयी। महज 42 साल की उम्र में इस महान कलाकार ने सदा के लिए आंखें मूंद ली। उन्होंने हिन्दी बांग्ला और तमिल फिल्मों के लिए काम किया तथा हिन्दी पंजाबी उर्दू फारसी बांग्ला सहित कई भाषाओं में गाने गाये। सहगल के इन गानों के कारण जनमानस में उनकी स्मृतियां सदा जीवित रहेंगी।
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कुछ बातें धर्मेंद्र के बारे में

रोल चाहे फिल्म सत्यकाम के सीधे सादे ईमानदार हीरो का हो, फिल्म शोले के एक्शन हीरो का हो या फिल्म चुपके चुपके के कॉमेडियन हीरो का, सभी को सफलता पूर्वक निभा कर दिखा देने वाले धर्मेंद्र सिंह देओल अभिनय प्रतिभा के धनी कलाकार हैं| सन् 1960 में फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे से अभिनय की शुरुवात करने के बाद पूरे तीन दशकों तक धर्मेंद्र चलचित्र जगत में छाये रहे| केवल मेट्रिक तक ही शिक्षा प्राप्त की थी उन्होंने| स्कूल के समय से ही फिल्मों का इतना चाव था कि दिल्लगी (1949) फिल्म को 40 से भी अधिक बार देखा था उन्होंने| अक्सर क्लास में पहुँचने के बजाय सिनेमा हॉल में पहुँच जाया करते थे| फिल्मों में प्रवेश के पहले रेलवे में क्लर्क थे, लगभग सवा सौ रुपये तनख्वाह थी| 19 साल की उम्र में ही शादी भी हो चुकी थी उनकी प्रकाश कौर के साथ और अभिलाषा थी बड़ा अफसर बनने की|

फिल्मफेयर के एक प्रतियोगिता के दौरान अर्जुन हिंगोरानी को पसंद आ गये धर्मेंद्र और हिंगोरानी जी ने अपनी फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे के लिये उन्हें हीरो की भूमिका के लिये अनुबंधित कर लिया 51 रुपये साइनिंग एमाउंट देकर| पहली फिल्म में नायिका कुमकुम थीं| कुछ विशेष पहचान नहीं बन पाई थी पहली फिल्म से इसलिये अगले कुछ साल संघर्ष के बीते| संघर्ष के दिनों में जुहू में एक छोटे से कमरे में रहते थे| लोगों ने जाना उन्हें फिल्म अनपढ़ (1962), बंदिनी (1963) तथा सूरत और सीरत (1963) से पर स्टार बने ओ.पी. रल्हन की फिल्म फूल और पत्थर (1966) से| 200 से भी अधिक फिल्मों में काम किया है धर्मेंद्र ने, कुछ अविस्मरणीय फिल्में हैं अनुपमा, मँझली दीदी, सत्यकाम, शोले, चुपके चुपके आदि|

अपने स्टंट दृश्य बिना डुप्लीकेट की सहायता के स्वयं ही करते थे| चिनप्पा देवर की फिल्म मां में एक चीते के साथ सही में फाइट किया था धर्मेंद्र ने|
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मुंबई के शुरुआती दिन डराते थे : जयंत देशमुख



हिन्दी सिनेमा के चुनिंदा कला निर्देशकों में एक हैं-जयंत देशमुख। रायपुर के मूल निवासी जयंत बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। वह अभिनेता भी हैं, चित्रकार भी और सबसे अहम कला निर्देशक। मक़बूल,आंखें,राजनी ति और आरक्षण समेत 50 से ज्यादा फिल्मों में कला निर्देशक रह चुके जयंत देशमुख का मानना है कि नए लोगों को सिनेमा की इस विधा में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। करियर, मुंबई तक के सफर और पत्रकारिता से जुड़े तमाम मसलों पर पीयूष पांडे ने उनसे खास बात की।

सवाल-आप रायपुर के रहने वाले हैं। करियर की शुरुआत आपने पत्रकारिता से की तो फिल्मी दुनिया में कैसे पहुंच गए?
जवाब-मैंने रायपुर के दुर्गा कॉलेज से पढ़ाई की। बीए किया और फिर पत्रकारिता में डिग्री ली। फिर ‘युगधर्म’ अख़बार में काम किया। वहां एक कॉलम भी लिखता था उभरते कलाकारों पर। देशबंधु अखबार में डिजाइनिंग का काम किया। उस दौरान ऑफसेट प्रिटिंग नयी नयी शुरु हुई थी। पे-ले आउट डिजाइन करने का काम था। पत्रकारिता के विद्यार्थियों को ले-आउट डिजाइनिंग वगैरह पढ़ाता भी था। रायपुर में एक परिचित थे अशोक मिश्रा, जिन्होंने बाद में श्याम बेनेगल की कई फिल्में लिखीं। उनका थिएटर ग्रुप था-रचना। रचना के साथ थिएटर का काम शुरु हुआ। हमारे एक और मित्र हैं-राजकमल नायक। हम दोनों ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली में एडमिशन की कोशिश की। वहां वी कारंत डायरेक्टर थे। उन्होंने कहा कि भोपाल में भारत भवन बन रहा है और हम चाहते हैं कि मध्य प्रदेश के लोग वहां एडमिशन लें। फिर हम लोग भारत भवन चले गए। 1982 से 91 तक वहीं प्रोफेशनल एक्टिंग की।

सवाल-आप कलाकार थे तो कला निर्देशक कैसे बन गए?
जवाब-दरअसल, चित्रकारी का शौक बचपन से है। रचना ग्रुप में थिएटर करते हुए बैकड्रॉप बनाने का काम शुरु हुआ। श्रीकांत वर्मा की एक कविता की थी हम लोगों ने। तो थिएटर के दौरान यह काम शुरु हो गया। हमारे एक मित्र हैं तिग्मांशु धूलिया। उस वक्त शेखर कपूर फिल्म बना रहे थे बैंडिट क्वीन। तिंगमांशु ने पूछा कि फिल्म में काम करोगे। तो फिर मैं बतौर क्रॉप मास्टर काम किया और लौट आया भोपाल। फिर मेरे दोस्त हैं राजा बुंदेला। उनके अलावा श्वेता मुखर्जी..असीम तिवारी। ये लोग भोपाल आए नाटक के लिए। एक नाटक के बाद राजा बुंदेला ने कहा कि अब तुम मुंबई चलो। मैंने कहा कि मैं वहां नहीं रह पाऊंगा तो उन्होंने कहा कि चलो देखते हैं। उन लोगों ने एक ग्रुप बनाया था-प्रयास। तो फिर मैं उनके साथ मुंबई चला गया। वीरेन्द्र सक्सेना के साथ मुंबई में रहता था। प्रयास एक प्रोडक्शन हाऊस था, जिसके जरिए टेलीविजन का काम मिलना शुरु हुआ। एक के बाद दूसरा फिर तीसरा। इस बीच मैंने जगमोहन मूंदड़ा की एक फिल्म की बवंडर बतौर आर्ट डायरेक्टर। लेकिन, बड़ा ब्रेक मिला आंखें से। निर्माता दोरंग जोशी थे और निर्देशक विपुल शाह। विपुल की यह पहली फिल्म थी। मेरी पहली बड़ी कमर्शियल फिल्म थे। सिनेमेटोग्राफर थे अशोक मेहता। उन्होंने कहा, थिएटर का लड़का है..पता नहीं कर पाएगा या नहीं। मैंने कहा कि एक सैट बनवाकर देखो....। अच्छा लगे तो काम देना वरना मत देना। दोरंग ने हिम्मत दिखायी और एक सैट बनवाया। उन्हें काम पसंद आ गया। फिर तो बैंक बनायी, ट्रेनिंग सेंटर बनाया, अंधों का घर बनाया..। आंखें के बाद इंडस्ट्री में एक पहचान बनी। फिर तेरे नाम में काम पसंद किया गया। फिल्मों में पहचान बनती गई और काम मिलता गया। इसी दौरान टेलीविजन में भव्यता बढ़ रही थी। मैंने एक सीरियल घर की लक्ष्मी बेटियां के लिए सैट बनाया। इसने सीरियलों में सैट का परिदृश्य बदल दिया। धारावाहिकों में अलग किस्म की भव्यता दिखने लगी। फिर बिदाई और ये रिश्ता क्या कहलाता है, जैसे सीरियल किए। हाल में प्रकाश झा की आरक्षण का भी सैट मैंने बनाया।

सवाल-मुंबई में शुरुआती दिनों को कैसे याद करते हैं?
जवाब-सच कहूं तो बहुत डर लगता था। सोचता था कि कुछ हो पाएगा या नहीं। आर्ट डायरेक्शन या प्रोडक्शन डिजाइन के बारे में कोई कोर्स नहीं किया था। ड्राइंग पेटिंग करता था, लेकिन कंस्ट्रक्शन के बारे में ज्यादा कुछ नहीं मालूम था। लेकिन,मेरी किस्मत अच्छी थी। थिएटर के किए काम की बदौलत शुरुआत में काम मिला और फिर काम मिलता रहा तो मैं सीखता गया। फिल्मी दुनिया कमर्शियल दुनिया है। जोखिम बहुत है। आपको काम दिया गया और आप ठीक से नहीं कर पाए तो बहुत नुकसान होता है। फिर, कला निर्देशक की चुनौती यह है कि हर सैट दूसरे से अलग होता है। उसकी छटा अलग होती है। राजनीति का सैट आरक्षण से अलग है। मक़बूल में मैंने बिलकुल अलग काम किया। अमिताभ बच्चन और संजय दत्त की दीवार में मुंबई में ही पाकिस्तान बनाना था। लेकिन काम मिलने से विश्वास बढ़ता चला गया।

सवाल-आप रायपुर के हैं। अपेक्षाकृत छोटे शहर और हिन्दी भाषी होने के बाद मुंबई की अंग्रेजीदा इंडस्ट्री में सामंजस्य बैठाना कितना मुश्किल रहा या कहूं कि किस तरह का अनुभव रहा।
जवाब-सच कहूं तो बहुत डर लगता था। मैं आज भी धाराप्रवाह अंग्रेजी नहीं बोल सकता। लेकिन, अब काम बोलता है इसलिए भाषा कोई मायने नहीं रखती। मैं छोटे से स्कूल में पढ़ा था। मुंबई पहुंचा तो लगा कि कैसे अपनी बात इन लोगों को समझा पाऊंगा। लेकिन, कुछ काम करने के बाद लोगों की नजर मेरे काम पर जाने लगी। मैं अब टेलीविजन के अंग्रेजी बोलने वाले लोगों को भी हिन्दी में ही समझाता हूं। वे अंग्रेजी बोलते हैं पर मैं जवाब हिन्दी में देता हूं। मुझे लगता है कि मैं हिन्दी में ही बेहतर तरीके से खुद को अभिव्यक्त कर सकता हूं।

सवाल-अच्छा सरल शब्दों में बताइए कि ये आर्ट डायरेक्शन और प्रोडक्शन डिजाइन एक ही चीज है या अलग अलग है।
जवाब-दोनों एक ही हैं। अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में कैटेगरी बन गई हैं। दरअसल, प्रोडक्शन डिजाइन को थोड़ा विस्तृत मान सकते हैं,जहां पूरे इनवॉयरमेंट सैट करना होता है। फिल्म की कहानी और मूड के हिसाब से कैसा माहौल या इनवॉयरमेंट तैयार करना है-ये देखना होता है। इसमें मैं कॉस्ट्यूम डिजाइनर को निर्देश दे सकता हूं कि बैकग्राउंड ऐसा होगा तो ड्रेस उसके मुताबिक होनी चाहिए। मेकअप मैन को बोल सकता है। कैमरामैन को बता सकता हूं ताकि वो लाइटिंग उसी हिसाब से करे। पर्दे पर एक टोन सैट होती है। मसलन बैंडिट क्वीन का टोन अलग था और आरक्षण का अलग। अशोक मेहता ने समझाया था कि बैंडिट क्वीन में ग्रीन कलर का इस्तेमाल नहीं करना। बीहड़ मटमैला,खुरदुरा होता है। और आर्ट डायरेक्टर काम सैट डिजाइन करना और बनाना है। कहानी के हिसाब से सैट बनाना हो या वास्तविक लोकेशन को फिल्म के हिसाब से तैयार करना हो। कुछ लोग समझते हैं कि वास्तविक लोकेशन है तो फिर क्या दिक्कत। लेकिन ऐसा होता नहीं है। फिल्म के मुताबिक उस लोकेशन को भी तैयार करना होता है। आज कोई भी फिल्म आर्ट डायरेक्शन के बिना संभव नहीं।

सवाल-शुरुआती दौर और अब के आर्ट डायरेक्शन में कितना बदलाव आया है।
जवाब-बहुत ज्यादा। एक तो हम अंतरराष्ट्रीय सिनेमा देख रहे हैं अब। टीवी का फलक बड़ाह आ है। कंटेंट के साथ बाकी बातों पर भी ज्यादा ध्यान देना पड़ रहा है क्योंकि यह विजुअल मीडियम है। दूसरा इंटरनेट ने चीजें बदल दी हैं। पहले हम एक सैट बनाने से पहले कई दिन रिसर्च करते थे। मान लीजिए कि एक बैडरुम भी डिजाइन करना है तो सोचते थे कि रंग कैसा होगा..बैड कैसे रखा जाएगा वगैरह वगैरह। लेकिन अब एक क्लिक के साथ सैकड़ों बैड़रूम के डिजाइन सामने आ जाते हैं। तो हमारा काम चुनना रह जाता है बस। आज अगर 1857 के वक्त का कोई सैट बनाना है तो भी नेट पर बहुत जानकारियां मिल जाएंगी। मैं दो दिन में सैट का डिजाइन बनाकर दे दूंगा। पहले यह संभव नहीं था। आज आर्ट डायरेक्शन के कोर्स हो रहे हैं। मैं भी जाता हूं पुणे इंस्टीट्यूट में पढ़ाने। पहले शूटिंग के वक्त कैमरामैन ही देख पाता था कि सीन पर्दे पर कैसा दिख रहा है। अब मॉनीटर पर बाकी लोग भी देख पाते हैं तो उसी के हिसाब से तैयारियां कर लेते हैं। दरअसल, अब बड़ा काम यह होता है कि बजट में सैट बनाकर दे दिया जाए।

सवाल-तो क्या रचनात्मकता प्रभावित हुई है?
जवाब-बिलकुल हुई है। पहले बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। अब मेहनत इस काम के लिए ज्यादा करनी पड़ती है कि तमाम उपलब्ध डिजाइन में कौन सा चुनना है और उनमें क्या फेरबदल करना है। कैसे इसे बजट में बनाना है।

सवाल-कुछ लोगों की जिज्ञासा है कि आखिर फिल्म पूरी होने के बाद महंगे सैट का होता क्या है। क्या इन्हें तोड़ दिया जाता है।
जवाब-तोड़ भी दिया जाता है या उसके हिस्सों को दोबारा इस्तेमाल भी कर लिया जाता है। अब एक फिल्म में जो सैट दिखा दिया, बिलकुल उसी तरह का सैट दूसरी फिल्म में नहीं दिखाया जा सकता। आखिर, कहानी अलग है, लोकेशन अलग है। लेकिन, सैट के निर्माण में लगी कई चीजें दोबारा इस्तेमाल में आ जाती हैं।

सवाल-बतौर कला निर्देशक आप अपनी किस फिल्म को श्रेष्ठ मानते हैं?
जवाब-मुझे सब फिल्में करने में आनंद आया। और मैंने पूरी मेहनत से काम किया। सैट छोटा हो या बड़ा-मैंने पूरी शिद्दत से बनाया। फिर भी नाम लेना हो तो तेरे नाम, दीवार, आंखें और आरक्षण जैसी फिल्मों का नाम ले सकता हूं। अच्छी बात यह रही है कि मैंने अलग अलग तरह की फिल्में की..। मसलन मक़बूल बिलकुल अलग फिल्म थी तो दीवार बिलकुल अलग।

सवाल-आपकी शुरुआत पत्रकारिता से हुई तो क्या अब भी लिखना होता है कुछ।
जवाब-नहीं। काम की व्यस्तता बहुत है।

सवाल-आने वाली फिल्में कौन सी हैं।
जवाब-एक फिल्म है गली गली में चोर है। दूसरी विक्रम भट्ट की है, जिसमें करिश्मा कपूर हैं। एक फिल्म ड्राइडे है, जिसमें कादर खान, जॉनी लीवर और राजपाल यादव साथ आ रहे हैं।

सवाल-आपको थिएटर का, आर्ट डायरेक्शन का इतना अनुभव है तो कभी फिल्म निर्देशन का नहीं सोचा।
जवाब-सोचता हूं। लेकिन, अभी उसमें थोड़ा वक्त लगेगा।

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हिन्दी सिनेमा के चुनिंदा कला निर्देशकों में एक हैं-जयंत देशमुख। रायपुर के मूल निवासी जयंत बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। वह अभिनेता भी हैं, चित्रकार भी और सबसे अहम कला निर्देशक। मक़बूल,आंखें,राजनी ति और आरक्षण समेत 50 से ज्यादा फिल्मों में कला निर्देशक रह चुके जयंत देशमुख का मानना है कि नए लोगों को सिनेमा की इस विधा में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। करियर, मुंबई तक के सफर और पत्रकारिता से जुड़े तमाम मसलों पर पीयूष पांडे ने उनसे खास बात की।

सवाल-आप रायपुर के रहने वाले हैं। करियर की शुरुआत आपने पत्रकारिता से की तो फिल्मी दुनिया में कैसे पहुंच गए?
जवाब-मैंने रायपुर के दुर्गा कॉलेज से पढ़ाई की। बीए किया और फिर पत्रकारिता में डिग्री ली। फिर ‘युगधर्म’ अख़बार में काम किया। वहां एक कॉलम भी लिखता था उभरते कलाकारों पर। देशबंधु अखबार में डिजाइनिंग का काम किया। उस दौरान ऑफसेट प्रिटिंग नयी नयी शुरु हुई थी। पे-ले आउट डिजाइन करने का काम था। पत्रकारिता के विद्यार्थियों को ले-आउट डिजाइनिंग वगैरह पढ़ाता भी था। रायपुर में एक परिचित थे अशोक मिश्रा, जिन्होंने बाद में श्याम बेनेगल की कई फिल्में लिखीं। उनका थिएटर ग्रुप था-रचना। रचना के साथ थिएटर का काम शुरु हुआ। हमारे एक और मित्र हैं-राजकमल नायक। हम दोनों ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली में एडमिशन की कोशिश की। वहां वी कारंत डायरेक्टर थे। उन्होंने कहा कि भोपाल में भारत भवन बन रहा है और हम चाहते हैं कि मध्य प्रदेश के लोग वहां एडमिशन लें। फिर हम लोग भारत भवन चले गए। 1982 से 91 तक वहीं प्रोफेशनल एक्टिंग की।

सवाल-आप कलाकार थे तो कला निर्देशक कैसे बन गए?
जवाब-दरअसल, चित्रकारी का शौक बचपन से है। रचना ग्रुप में थिएटर करते हुए बैकड्रॉप बनाने का काम शुरु हुआ। श्रीकांत वर्मा की एक कविता की थी हम लोगों ने। तो थिएटर के दौरान यह काम शुरु हो गया। हमारे एक मित्र हैं तिग्मांशु धूलिया। उस वक्त शेखर कपूर फिल्म बना रहे थे बैंडिट क्वीन। तिंगमांशु ने पूछा कि फिल्म में काम करोगे। तो फिर मैं बतौर क्रॉप मास्टर काम किया और लौट आया भोपाल। फिर मेरे दोस्त हैं राजा बुंदेला। उनके अलावा श्वेता मुखर्जी..असीम तिवारी। ये लोग भोपाल आए नाटक के लिए। एक नाटक के बाद राजा बुंदेला ने कहा कि अब तुम मुंबई चलो। मैंने कहा कि मैं वहां नहीं रह पाऊंगा तो उन्होंने कहा कि चलो देखते हैं। उन लोगों ने एक ग्रुप बनाया था-प्रयास। तो फिर मैं उनके साथ मुंबई चला गया। वीरेन्द्र सक्सेना के साथ मुंबई में रहता था। प्रयास एक प्रोडक्शन हाऊस था, जिसके जरिए टेलीविजन का काम मिलना शुरु हुआ। एक के बाद दूसरा फिर तीसरा। इस बीच मैंने जगमोहन मूंदड़ा की एक फिल्म की बवंडर बतौर आर्ट डायरेक्टर। लेकिन, बड़ा ब्रेक मिला आंखें से। निर्माता दोरंग जोशी थे और निर्देशक विपुल शाह। विपुल की यह पहली फिल्म थी। मेरी पहली बड़ी कमर्शियल फिल्म थे। सिनेमेटोग्राफर थे अशोक मेहता। उन्होंने कहा, थिएटर का लड़का है..पता नहीं कर पाएगा या नहीं। मैंने कहा कि एक सैट बनवाकर देखो....। अच्छा लगे तो काम देना वरना मत देना। दोरंग ने हिम्मत दिखायी और एक सैट बनवाया। उन्हें काम पसंद आ गया। फिर तो बैंक बनायी, ट्रेनिंग सेंटर बनाया, अंधों का घर बनाया..। आंखें के बाद इंडस्ट्री में एक पहचान बनी। फिर तेरे नाम में काम पसंद किया गया। फिल्मों में पहचान बनती गई और काम मिलता गया। इसी दौरान टेलीविजन में भव्यता बढ़ रही थी। मैंने एक सीरियल घर की लक्ष्मी बेटियां के लिए सैट बनाया। इसने सीरियलों में सैट का परिदृश्य बदल दिया। धारावाहिकों में अलग किस्म की भव्यता दिखने लगी। फिर बिदाई और ये रिश्ता क्या कहलाता है, जैसे सीरियल किए। हाल में प्रकाश झा की आरक्षण का भी सैट मैंने बनाया।

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सवाल-आप रायपुर के हैं। अपेक्षाकृत छोटे शहर और हिन्दी भाषी होने के बाद मुंबई की अंग्रेजीदा इंडस्ट्री में सामंजस्य बैठाना कितना मुश्किल रहा या कहूं कि किस तरह का अनुभव रहा।
जवाब-सच कहूं तो बहुत डर लगता था। मैं आज भी धाराप्रवाह अंग्रेजी नहीं बोल सकता। लेकिन, अब काम बोलता है इसलिए भाषा कोई मायने नहीं रखती। मैं छोटे से स्कूल में पढ़ा था। मुंबई पहुंचा तो लगा कि कैसे अपनी बात इन लोगों को समझा पाऊंगा। लेकिन, कुछ काम करने के बाद लोगों की नजर मेरे काम पर जाने लगी। मैं अब टेलीविजन के अंग्रेजी बोलने वाले लोगों को भी हिन्दी में ही समझाता हूं। वे अंग्रेजी बोलते हैं पर मैं जवाब हिन्दी में देता हूं। मुझे लगता है कि मैं हिन्दी में ही बेहतर तरीके से खुद को अभिव्यक्त कर सकता हूं।

सवाल-अच्छा सरल शब्दों में बताइए कि ये आर्ट डायरेक्शन और प्रोडक्शन डिजाइन एक ही चीज है या अलग अलग है।
जवाब-दोनों एक ही हैं। अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में कैटेगरी बन गई हैं। दरअसल, प्रोडक्शन डिजाइन को थोड़ा विस्तृत मान सकते हैं,जहां पूरे इनवॉयरमेंट सैट करना होता है। फिल्म की कहानी और मूड के हिसाब से कैसा माहौल या इनवॉयरमेंट तैयार करना है-ये देखना होता है। इसमें मैं कॉस्ट्यूम डिजाइनर को निर्देश दे सकता हूं कि बैकग्राउंड ऐसा होगा तो ड्रेस उसके मुताबिक होनी चाहिए। मेकअप मैन को बोल सकता है। कैमरामैन को बता सकता हूं ताकि वो लाइटिंग उसी हिसाब से करे। पर्दे पर एक टोन सैट होती है। मसलन बैंडिट क्वीन का टोन अलग था और आरक्षण का अलग। अशोक मेहता ने समझाया था कि बैंडिट क्वीन में ग्रीन कलर का इस्तेमाल नहीं करना। बीहड़ मटमैला,खुरदुरा होता है। और आर्ट डायरेक्टर काम सैट डिजाइन करना और बनाना है। कहानी के हिसाब से सैट बनाना हो या वास्तविक लोकेशन को फिल्म के हिसाब से तैयार करना हो। कुछ लोग समझते हैं कि वास्तविक लोकेशन है तो फिर क्या दिक्कत। लेकिन ऐसा होता नहीं है। फिल्म के मुताबिक उस लोकेशन को भी तैयार करना होता है। आज कोई भी फिल्म आर्ट डायरेक्शन के बिना संभव नहीं।

सवाल-शुरुआती दौर और अब के आर्ट डायरेक्शन में कितना बदलाव आया है।
जवाब-बहुत ज्यादा। एक तो हम अंतरराष्ट्रीय सिनेमा देख रहे हैं अब। टीवी का फलक बड़ाह आ है। कंटेंट के साथ बाकी बातों पर भी ज्यादा ध्यान देना पड़ रहा है क्योंकि यह विजुअल मीडियम है। दूसरा इंटरनेट ने चीजें बदल दी हैं। पहले हम एक सैट बनाने से पहले कई दिन रिसर्च करते थे। मान लीजिए कि एक बैडरुम भी डिजाइन करना है तो सोचते थे कि रंग कैसा होगा..बैड कैसे रखा जाएगा वगैरह वगैरह। लेकिन अब एक क्लिक के साथ सैकड़ों बैड़रूम के डिजाइन सामने आ जाते हैं। तो हमारा काम चुनना रह जाता है बस। आज अगर 1857 के वक्त का कोई सैट बनाना है तो भी नेट पर बहुत जानकारियां मिल जाएंगी। मैं दो दिन में सैट का डिजाइन बनाकर दे दूंगा। पहले यह संभव नहीं था। आज आर्ट डायरेक्शन के कोर्स हो रहे हैं। मैं भी जाता हूं पुणे इंस्टीट्यूट में पढ़ाने। पहले शूटिंग के वक्त कैमरामैन ही देख पाता था कि सीन पर्दे पर कैसा दिख रहा है। अब मॉनीटर पर बाकी लोग भी देख पाते हैं तो उसी के हिसाब से तैयारियां कर लेते हैं। दरअसल, अब बड़ा काम यह होता है कि बजट में सैट बनाकर दे दिया जाए।

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जवाब-बिलकुल हुई है। पहले बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। अब मेहनत इस काम के लिए ज्यादा करनी पड़ती है कि तमाम उपलब्ध डिजाइन में कौन सा चुनना है और उनमें क्या फेरबदल करना है। कैसे इसे बजट में बनाना है।

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जवाब-तोड़ भी दिया जाता है या उसके हिस्सों को दोबारा इस्तेमाल भी कर लिया जाता है। अब एक फिल्म में जो सैट दिखा दिया, बिलकुल उसी तरह का सैट दूसरी फिल्म में नहीं दिखाया जा सकता। आखिर, कहानी अलग है, लोकेशन अलग है। लेकिन, सैट के निर्माण में लगी कई चीजें दोबारा इस्तेमाल में आ जाती हैं।

सवाल-बतौर कला निर्देशक आप अपनी किस फिल्म को श्रेष्ठ मानते हैं?
जवाब-मुझे सब फिल्में करने में आनंद आया। और मैंने पूरी मेहनत से काम किया। सैट छोटा हो या बड़ा-मैंने पूरी शिद्दत से बनाया। फिर भी नाम लेना हो तो तेरे नाम, दीवार, आंखें और आरक्षण जैसी फिल्मों का नाम ले सकता हूं। अच्छी बात यह रही है कि मैंने अलग अलग तरह की फिल्में की..। मसलन मक़बूल बिलकुल अलग फिल्म थी तो दीवार बिलकुल अलग।

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सवाल-आने वाली फिल्में कौन सी हैं।
जवाब-एक फिल्म है गली गली में चोर है। दूसरी विक्रम भट्ट की है, जिसमें करिश्मा कपूर हैं। एक फिल्म ड्राइडे है, जिसमें कादर खान, जॉनी लीवर और राजपाल यादव साथ आ रहे हैं।

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हुस्न और अभिनय का मेल : सायरा बानो



बॉलिवुड में ऐसे कई सितारे हैं जो बेशक बॉक्स-ऑफिस के लिहाज से औसत हों पर जब बात दर्शकों के बीच पैठ जमाने की हो तो वह सबसे आगे होते हैं. ऐसी ही एक अदाकारा हैं सायरा बानो. अपने समय की सबसे खूबसूरत अभिनेत्रियों में से एक सायरा बानो को लोग उनकी अदाकारी कम और उनकी खूबसूरती के लिए ज्यादा पहचानते हैं.




सायरा बानो का जन्म 23 अगस्त, 1944 को हुआ था. उनकी मां अभिनेत्री नसीम बानो अपने समय की मशहूर अभिनेत्री रही हैं. उनका अधिकतर बचपन लंदन में बीता जहां से पढ़ाई खत्म करके वह भारत लौट आईं. स्कूल से ही उन्हें अभिनय से लगाव था और स्कूल में भी उन्हें अभिनय के लिए कई पदक मिले थे.
17 साल की उम्र में ही सायरा बानो ने बॉलिवुड में अपने कॅरियर की शुरुआत कर दी. 1961 में वह शम्मी कपूर के साथ फिल्म ‘जंगली’ में पहली बार पर्दे पर नजर आईं. फिल्म बहुत हिट रही और इसने सायरा बानो को भी बॉलिवुड में अच्छी शुरुआत दी. इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फिल्मफेयर अवार्ड के लिए नामांकित किया गया. इसके बाद सायरा बानो ने कई हिट फिल्मों में काम किया. 60 और 70 के दशक में सायरा बानो एक सफल अभिनेत्री की तरह बॉलिवुड में जगह बना चुकी थीं.
लेकिन साल 1968 की फिल्म ‘पड़ोसन’ ने उन्हें दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया. इस एक फिल्म ने उनके कॅरियर के लिए टर्निग-प्वॉइंट का काम किया. इसके बाद उन्होंने ‘गोपी’, ‘सगीना’, ‘बैराग’ जैसी हिट फिल्मों में दिलीप कुमार के साथ काम किया. ‘शागिर्द’, ‘दीवाना’, ‘चैताली’ (Chaitali) जैसी फिल्मों में सायरा बानो का अभिनय बहुत अच्छा रहा.
बॉलिवुड में जब भी प्रेम कहानियों और रोमांटिक जोड़ियों की बात आती है तो सायरा बानो और दिलीप-कुमार का जिक्र जरूर होता है. दोनों की मुलाकात, प्यार और फिर शादी की कहानी बिलकुल फिल्मी लगते हैं. सायरा बानो ने 1966 में 22 साल की उम्र में दिलीप कुमार से शादी की थी और उस समय दिलीप कुमार खुद 44 साल के थे. उम्र का यह फासला कभी भी इन दोनो के प्यार के मध्य नहीं आया.
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निरुपा राय : फिल्मी पर्दे की माँ

मां दुनिया की सबसे अनमोल धरोहर है| मां जहां भी होती है खुशियों से हमारी झोली भर ही देती है| जब जीवन के हर क्षेत्र में मां का स्थान इतना अहम है तो भला हमारा हिन्दी सिनेमा इससे कैसे वंचित रह सकता था| हिन्दी सिनेमा में भी ऐसी कई अभिनेत्रियां हैं जिन्होंने मां के किरदार को सिनेमा में अहम बनाया है| “मेरे पास पास मां है” जैसे डायलॉग ऐसे ही हिन्दी सिनेमा के सबसे हिट डायलॉग नहीं बने हैं| हिन्दी सिनेमा में जब भी मां के किरदार को सशक्त करने की बात आती है तो सबसे पहला नाम निरुपा रॉय का आता है जिन्होंने अपनी बेमिसाल अदायगी से मां के किरदार को हिन्दी सिनेमा में टॉप पर पहुंचाया|

आज निरुपा रॉय तो हमारे पास नहीं हैं लेकिन उनकी यादें और फिल्में आज भी फिल्मों के रूप में जिंदा हैं| आज उनकी जयंती है तो चलिए जानते हैं उनसे जुड़ी कुछ विशेष बातें|


निरुपा रॉय का जन्म 4 जनवरी, 1931 को गुजरात के बलसाड में एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ था| उनके बचपन का नाम कोकिला बेन था| निरुपा रॉय ने चौथी तक शिक्षा प्राप्त की| वह एक बेहद निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार से थीं| 15 साल की उम्र में ही निरुपा रॉय की शादी कमल राय से हो गई जो एक सरकारी कर्मचारी थे|


फिल्मों में उनकी एंट्री बड़े ही निराले ढंग से हुई| दरअसल गुजराती अखबार के एक विज्ञापन की वजह से उन्हें फिल्मों में आने का मौका मिला| विज्ञापन अभिनेत्रियों की खोज के लिए था| उन्होंने विज्ञापन का जवाब दिया और गुजराती फिल्म “रनकदेवी” के लिए उन्हें चुन लिया गया| यह फिल्म साल 1946 में रिलीज हुई| इसी साल उन्होंने हिन्दी फिल्म “अमर राज” भी की| 1953 में उनकी हिट फिल्म “दो बीघा जमीन” आई| इस फिल्म ने उन्हें हिन्दी सिनेमा की हिट हिरोइन के रूप में पहचान दी|


हालांकि 1940 और 1950 के दशक में उन्होंने कई धार्मिक फिल्में कीं जिसकी वजह से लोग उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते थे| फिल्मी पर्दे पर देवी मां का किरदार निभाने के कारण असल जिंदगी में भी उन्हें पर्दे के किरदार से जोड़ कर देखते थे| इसके बाद निरुपा रॉय अधिकतर अभिनेताओं की मां के रोल में नजर आने लगीं और यहीं से उनकी एक विशेष छवि बनी|


निरुपा राय ने भी मां की भूमिका को निभाकर एक अलग अध्याय रचा| वे अमिताभ बच्चन के साथ अधिक फिल्में करने की वजह से उनकी मां के रूप में आज भी याद की जाती हैं| “दीवार” में उनकी भूमिका वाकई गजब थी| मां बेटे की यह जोड़ी इसके बाद जब भी पर्दे पर आई लोगों ने उन्हें खूब प्यार दिया| रोटी, अनजाना, खून पसीना, सुहाग, इंकलाब, मुकद्दर का सिकंदर, मर्द आदि में उनकी भूमिका दमदार थी| बॉलीवुड में फिल्मी मां का किरदार निभाती निरुपा को असल जिंदगी में भी सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने मां का दर्जा दे रखा था| वे हर सुख-दुख में अमिताभ निरुपा रॉय का साथ देते नजर आए| निरुपा रॉय को आज भी हिन्दी सिनेमा की बेहतरीन अदाकारा माना जाता है|


निरुपा रॉय को मिले पुरस्कार

निरुपा रॉय को तीन बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया| सबसे पहले उन्हें 1956 की फिल्म “मुनीम जी” के लिए यह पुरस्कार दिया गया जिसमें निरुपा रॉय देवानंद की मां की भूमिका में थीं| इसके बाद उन्हें साल 1962 की फिल्म “छाया” के लिए यह पुरस्कार दिया गया था| इसके बाद उन्हें फिल्म “शहनाई” के लिए साल 1965 में पुरस्कृत किया गया था|


हिन्दी सिनेमा में मां के किरदार को जीवंत करने वाली इस महान अभिनेत्री की 13 अक्टूबर, 2004 को मौत हो गई| उन्हें आज भी बॉलिवुड की सबसे सर्वश्रेष्ठ मां माना जाता है|
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ज्ञान का घमंड सबसे बड़ी अज्ञानता है, एंव अपनी अज्ञानता की सीमा को जानना ही सच्चा ज्ञान है।
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