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Old 27-02-2011, 10:24 PM   #11
Bond007
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पिथौरागढ़

यहां के निकट एक गांव में मछली एवं घोंघो के जीवाश्म पाये गये हैं जिससे इंगित होता है कि पिथौरागढ़ का क्षेत्र हिमालय के निर्माण से पहले एक विशाल झील रहा होगा। हाल-फिलहाल तक पिथौरागढ़ में खास वंश का शासन रहा है, जिन्हें यहां के किले या कोटों के निर्माण का श्रेय जाता है।

पिथौरागढ़ के आसपास्द चार कोटें हैं जो भाटकोट, डूंगरकोट, उदयकोट तथा ऊंचाकोट हैं। खास वंश के बाद यहां कचूडी वंश (पाल-मल्लासारी वंश) का शासन हुआ तथा इस वंश का राजा अशोक मल्ला, बलबन का समकालीन था। इसी अवधि में राजा पिथौरा द्वारा पिथौरागढ़ स्थापित किया गया तथा इसी के नाम पर पिथौरागढ़ नाम भी पड़ा। इस वंश के तीन राजाओं ने पिथौरागढ़ से ही शासन किया तथा निकट के गांव खङकोट में उनके द्वारा निर्मित ईंटो के किले को वर्ष १५६० में पिथौरागढ़ के तत्कालीन जिलाधीश ने ध्वस्त कर दिया। वर्ष १६२२ से आगे पिथौरागढ़ पर चंद वंश का आधिपत्य रहा।

पिथौरागढ़ के इतिहास का एक अन्य विवादास्पद वर्णन है। एटकिंस के अनुसार, चंद वंश के एक सामंत पीरू गोसाई ने पिथौरागढ़ की स्थापना की।

ऐसा लगता है कि चंद वंश के राजा भारती चंद के शासनकाल (वर्ष १४३७ से १४५०) में उसके पुत्र रत्न चंद ने नेपाल के राजा दोती को परास्त कर सौर घाटी पर अधिकार कर लिया एवं वर्ष १४४९ में इसे कुमाऊँ या कुर्मांचल में मिला लिया। उसी के शासनकाल में पीरू या पृथ्वी गोसांई ने पिथौरागढ़ नाम से यहां एक किला बनाया। किले के नाम पर ही बाद में इसका नाम पिथौरागढ़ हुआ।

चंदों ने अधिकांश कुमाऊँ पर अपना अधिकार विस्तृत कर लिया जहां उन्होंने वर्ष १७९० तक शासन किया। उन्होंने कई कबीलों को परास्त किया तथा पड़ोसी राजाओं से युद्ध भी किया ताकि उनकी स्थिति सुदृढ़ हो जाय। वर्ष १७९० में, गोरखियाली कहे जाने वाले गोरखों ने कुमाऊँ पर अधिकार जमाकर चंद वंश का शासन समाप्त कर दिया।

वर्ष १८१५ में गोरखा शासकों के शोषण का अंत हो गया जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें परास्त कर कुमाऊँ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। एटकिंस के अनुसार, वर्ष १८८१ में पिथौरागढ़ की कुल जनसंख्या ५५२ थी। अंग्रेज़ों के समय में यहां एक सैनिक छावनी, एक चर्च तथा एक मिशन स्कूल था। इस क्षेत्र में क्रिश्चियन मिशनरी बहुत सक्रिय थे। वर्ष १९६० तक अंग्रजों की प्रधानता सहित पिथौरागढ़, अल्मोड़ा जिले का एक तहसील था जिसके बाद यह एक जिला बना। वर्ष १९९७ में पिथौरागढ़ के कुछ भागों को काटकर एक नया जिला चंपावत बनाया गया तथा इसकी सीमा को पुनर्निर्धारित कर दिया गया। वर्ष २००० में पिथौरागढ़ नये राज्य उत्तराखण्ड का एक भाग बन गया।
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गढ़वाल का इतिहास

टिहरी गढ़वाल

टिहरी और गढ़वाल दो अलग नामों को मिलाकर इस जिले का नाम रखा गया है। जहाँ टिहरी बना है शब्*द ‘त्रिहरी’ से, जिसका अर्थ है एक ऐसा स्*थान जो तीन प्रकार के पाप (जो जन्*मते है मनसा, वचना, कर्मा से) धो देता है वहीं दूसरा शब्*द बना है ‘गढ़’ से, जिसका मतलब होता है किला।

सन्* ८८८ से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा राज्*य करते थे जिन्*हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था। ऐसा कहा जाता है कि मालवा के राजकुमार कनकपाल एक बार बद्रीनाथ जी (जो वर्तमान चमोली जिले में है) के दर्शन को गये जहाँ वो पराक्रमी राजा भानु प्रताप से मिले। राजा भानु प्रताप उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से करवा दिया साथ ही अपना राज्*य भी उन्*हें दे दिया। धीरे-धीरे कनकपाल और उनकी आने वाली पीढ़ियाँ एक-एक कर सारे गढ़ जीत कर अपना राज्*य बड़ाती गयीं। इस प्रकार सन्* १८०३ तक सारा (९१८ वर्षों में) गढ़वाल क्षेत्र इनके अधिकार में आ गया। उन्*ही वर्षों में गोरखाओं के असफल हमले (लंगूर गढ़ी को अधिकार में लेने का प्रयास) भी होते रहे, लेकिन सन्* १८०३ में आखिर देहरादून की एक लड़ाई में गोरखाओं की विजय हुई जिसमें राजा प्रद्वमुन शाह मारे गये। लेकिन उनके शाहजादे (सुदर्शन शाह) जो उस समय छोटे थे वफादारों के हाथों बचा लिये गये।

धीरे-धीरे गोरखाओं का प्रभुत्*व बढ़ता गया और इन्*होनें लगभग १२ वर्षों तक राज किया। इनका राज्*य कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर गोरखाओं को महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्*ट इंडिया कम्*पनी की मदद से गोरखाओं से अपना राज्*य पुनः छीन लिया।

ईस्*ट इण्डिया कंपनी ने फिर कुमाऊँ, देहरादून और पूर्व गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया और पश्*चिम गढ़वाल राजा सुदर्शन शाह को दे दिया जिसे तब टेहरी रियासत के नाम से जाना गया। राजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी या टेहरी नगर को बनाया, बाद में उनके उत्तराधिकारी प्रताप शाह, कीर्ति शाह और नरेन्*द्र शाह ने इस राज्*य की राजधानी क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेन्*द्र नगर स्*थापित की। इन तीनों ने १८१५ से सन्* १९४९ तक राज किया। तब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यहाँ के लोगों ने भी बहुत बढ़चढ़ कर भाग लिया। स्वतन्त्रता के बाद, लोगों के मन में भी राजाओं के शासन से मुक्*त होने की इच्*छा बलवती होने लगी। महाराजा के लिये भी अब राज करना कठिन होने लगा था।

और फिर अंत में ६० वें राजा मानवेन्*द्र शाह ने भारत के साथ एक हो जाना स्वीकर कर लिया। इस प्रकार सन्* १९४९ में टिहरी राज्*य को उत्तर प्रदेश में मिलाकर इसी नाम का एक जिला बना दिया गया। बाद में २४ फ़रवरी १९६० में उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी एक तहसील को अलग कर उत्तरकाशी नाम का एक ओर जिला बना दिया।
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स्कन्द पुराण में हिमालय को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त किया गया है:-

खण्डाः पञ्च हिमालयस्य कथिताः नैपालकूमाँचंलौ।
केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः॥

अर्थात हिमालय क्षेत्र में नेपाल, कुर्मांचल (कुमाऊँ) , केदारखण्ड (गढ़वाल), जालन्धर (हिमाचल प्रदेश), और सुरम्य कश्मीर पाँच खण्ड है।
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पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी (बद्रीनाथ से ऊपर) बताई जाती है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि-मुनि तप व साधना करते थे। अंग्रेज़ इतिहासकारों के अनुसार हुण, सकास, नाग, खश आदि जातियाँ भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है। इस क्षेत्र को देव-भूमि व तपोभूमि माना गया है।

मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊँ नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन १७९० तक रहा। सन १७९० में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कुमाऊँ राज्य को अपने आधीन कर लिया। गोरखाओं का कुमाऊँ पर सन १७९० से १८१५ तक शासन रहा। सन १८१५ में अंग्रेंजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापस चली गई किन्तु अंग्रेजों ने कुमाऊँ का शासन चन्द राजाओं को न देकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन कर दिया। इस प्रकार कुमाऊँ पर अंग्रेजो का शासन १८१५ से आरम्भ हुआ।
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ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढ़ों (किले) में विभक्त था। इन गढ़ों के अलग-अलग राजा थे जिनका अपना-अपना आधिपत्य क्षेत्र था। इतिहासकारों के अनुसार पँवार वंश के राजा ने इन गढ़ों को अपने अधीनकर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढ़वाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन १८०३ में नेपाल की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर अपने अधीन कर लिया। यह आक्रमण लोकजन में गोरखाली के नाम से प्रसिद्ध है। महाराजा गढ़वाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रेजो से सहायता मांगी। अंग्रेज़ सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन १८१५ में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया। किन्तु गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रेजों ने सम्पूर्ण गढ़वाल राज्य राजा गढ़वाल को न सौंप कर अलकनन्दा-मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में सम्मिलित कर गढ़वाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग वापस किया। गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने २८ दिसंबर १८१५ को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और भिलंगना नदियों के संगम पर छोटा सा गाँव था, अपनी राजधानी स्थापित की। कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्रनगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की। सन १८१५ से देहरादून व पौड़ी गढ़वाल (वर्तमान चमोली जिला और रुद्रप्रयाग जिले का अगस्त्यमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजो के अधीन व टिहरी गढ़वाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।
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भारतीय गणतन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त १९४९ में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (उ.प्र.) का एक जिला घोषित किया गया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन १९६० में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ का गठन किया गया। एक नए राज्य के रुप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, २०००) उत्तराखण्ड की स्थापना ९ नवंबर २००० को हुई। इसलिए इस दिन को उत्तराखण्ड में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।

सन १९६९ तक देहरादून को छोड़कर उत्तराखण्ड के सभी जिले कुमाऊँ मण्डल के अधीन थे। सन १९६९ में गढ़वाल मण्डल की स्थापना की गई जिसका मुख्यालय पौड़ी बनाया गया। सन १९७५ में देहरादून जिले को जो मेरठ प्रमण्डल में सम्मिलित था, गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित कर लिया गया। इससे गढवाल मण्डल में जिलों की संख्या पाँच हो गई। कुमाऊँ मण्डल में नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, तीन जिले सम्मिलित थे। सन १९९४ में उधमसिंह नगर और सन १९९७ में रुद्रप्रयाग , चम्पावत व बागेश्वर जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डलों में छः-छः जिले सम्मिलित थे। उत्तराखण्ड राज्य में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किये जाने के पश्चात गढ़वाल मण्डल में सात और कुमाऊँ मण्डल में छः जिले सम्मिलित हैं। १ जनवरी २००७ से राज्य का नाम "उत्तराञ्चल" से बदलकर "उत्तराखण्ड" कर दिया गया है।
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उत्तराखण्ड का भूगोल


उत्तराखण्ड भौगोलिक रूप से भारत के उत्तर में ३०० २०' उत्तरी अक्षांश ७८० ०४' पूर्वी रेखांश से लेकर ३०० ३३' उत्तरी अक्षांश ७८० ०६' पूर्वी रेखांश पर है।[१] इसके पूर्व में नेपाल और उत्तर में तिब्बत(चीन) है। देश के भीतर उत्तर प्रदेश दक्षिण में और हिमाचल प्रदेश उत्तर पश्चिम में इसके पड़ोसी हैं। उत्तराखण्ड के दो मण्डल हैं: कुमाऊँ और गढ़वाल।
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भौगोलिक रूपरेखा

उत्तराखण्ड के प्राकृतिक भू-भाग, धरातलीय ऊँचाई, वर्षा की मात्रा में भिन्नता होने के कारण उत्तराखण्ड के क्षेत्रीय भाषा मानवीय क्रिया-कलापों में विभिन्नता होना स्वाभाविक है। इसीलिए इस प्रदेश को विभिन्न भू-भागों में बाँटा गया है। ये भू-भाग है:
(क) बृहत्तर हिमालय क्षेत्र
(ख) मध्य हिमालय
(ग) दून या शिवालिक
(घ) तराई व भाभर क्षेत्र
(च) हरिद्वार का मैदानी भूभाग
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बृहत्तर हिमालय क्षेत्र

बृहत्तर हिमालय का भूभाग हिमाच्छादित रहता है। यहाँ नन्दा देवी सर्वोच्च शिखर है जिसकी ऊँचाई ७,८१७ मीटर है। इसके अतिरिक्त कामेत, गंगोत्री, चौखम्बा, बन्दरपूँछ, केदारनाथ, बद्रीनाथ, त्रिशूल बद्रीनाथ शिखर है जो ६,००० मीटर से ऊँचे है। फूलों की घाटी तथा कुछ छोटे-छोटे घास के मैदान जिन्हें बुग्याल के नाम से जानते हैं, भी इसमें सम्मिलित हैं। इस भू-भाग में केदारनाथ, गंगोत्री आदि प्रमुख हिमनद है जैसे कि गंगोत्री हिमनद, यमनोत्री हिमनद, जो गंगा-यमुना आदि नदियों के उद्गम स्थल है। यह भू-भाग अधिकतर ग्रेनाइट, नीस व शिष्ट शैलों से आवृत है।
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मध्य हिमालय

बृहत्तर हिमालय के दक्षिण में मध्य-हिमालय भूभाग फैला हुआ है जो ७५ कि.मी. चौड़ा है। इस भूभाग में गढ़वाल के अन्तर्गत टिहरी गढ़वाल तथा कुमाऊँ के अन्तर्गत अल्मोड़ा और नैनीताल का उत्तरी भाग भी सम्मिलित है जो कि ३,००० से ५,००० मी. तक के भूभाग में फैले हुए है।
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