28-10-2010, 10:22 PM | #1 |
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प्रसिद्ध हिन्दी कविताएं
इंसाफ की डगर प्रदीप इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के दुनिया के रंज सहना और कुछ न मुँह से कहना सच्चाइयों के बल पे आगे को बढ़ते रहना रख दोगे एक दिन तुम संसार को बदल के इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के अपने हों या पराए सबके लिये हो न्याय देखो कदम तुम्हारा हरगिज़ न डगमगाए रस्ते बड़े कठिन हैं चलना सम्भल-सम्भल के इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के इन्सानियत के सर पर इज़्ज़त का ताज रखना तन मन भी भेंट देकर भारत की लाज रखना जीवन नया मिलेगा अंतिम चिता में जल के, इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के |
28-10-2010, 10:23 PM | #2 |
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जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला!!
हरिवंशराय बच्चन जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में, हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा, आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा? फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में, क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी, जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा, जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी, जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला, जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था, मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी, जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी, उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी, जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा, उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे, क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है, यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी; अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया, वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको, जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया, यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली, जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला। जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ, है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है, कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे, प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है, मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का। पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा - नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले, अनवरत समय की चक्की चलती जाती है, मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं, कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है, ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के इस एक और पहलू से होकर निकल चला। जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। |
28-10-2010, 10:25 PM | #3 |
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सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
- राम प्रसाद बिस्मिल सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है । करता नहीं क्यों दुसरा कुछ बातचीत, देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफिल मैं है । रहबर राहे मौहब्बत रह न जाना राह में लज्जत-ऐ-सेहरा नवर्दी दूरिये-मंजिल में है । यों खड़ा मौकतल में कातिल कह रहा है बार-बार क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है । ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफिल में है । वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां, हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है । खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उम्मींद, आशिकों का जमघट आज कूंचे-ऐ-कातिल में है । सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है । __ रहबर - Guide लज्जत - tasteful नवर्दी - Battle मौकतल - Place Where Executions Take Place, Place of Killing मिल्लत - Nation, faith |
28-10-2010, 10:26 PM | #4 |
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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद - रामधारी सिंह दिनकर
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव है । उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है । जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते । और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का आज उठता और कल फिर फूट जाता है । किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है । मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली, देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू? स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी, आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू? मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते, आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ । और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की, इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ । मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी कल्पना की जीभ में भी धार होती है । वाण ही होते विचारों के नहीं केवल, स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है। स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे । रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को, स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे। |
28-10-2010, 10:27 PM | #5 |
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नर हो न निराश करो मन को
- मैथिलीशरण गुप्त नर हो न निराश करो मन को कुछ काम करो कुछ काम करो जग में रहके निज नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो न निराश करो मन को । संभलो कि सुयोग न जाए चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलम्बन को नर हो न निराश करो मन को । जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो उठके अमरत्व विधान करो दवरूप रहो भव कानन को नर हो न निराश करो मन को । निज गौरव का नित ज्ञान रहे हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे सब जाय अभी पर मान रहे मरणोत्तर गुंजित गान रहे कुछ हो न तजो निज साधन को नर हो न निराश करो मन को । |
28-10-2010, 10:29 PM | #6 |
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मित्र राजू जी, आपको देख कर स्वर्गीय राजकपूर साहब की यादें ताजा हो गईं.
मित्र, आपके इस सूत्र में यदि मैं अपनी और से कुछ तुच्छ सा योगदान कर पाऊं तो यह मेरी खुशकिस्मती होगी. प्रस्तुत है 'उमाशंकर यादव' जी की एक कविता... भारत-महिमा (1) कृष्ण के सनेह वाली मीराबाई भारत में, सीता, सावित्री, अनुसुइया सी कहानी है। मेरे घर लक्ष्मी हैं, दुर्गा भवानी जैसी, तेरे यहाँ क्लिंटन की, मोनिका निशानी है॥ तू तो मदमस्त होके इतरा रहा है देख, अब्दुल कलाम जैसा विश्व में न शानी है। धिक्-धिक् क्लिंटन हैं मोनिका चरित्र तेरे, भारत विवेकानन्द जागती जवानी है॥ (2) भारती चरित्र है, पवित्रता के द्वारा पला, गंगा की धवल धार चरण पखारती। कश्मीर से कुमारी कन्या का स्नेह यहाँ मातु वैष्णों की विश्व ने उतारी आरती॥ विन्ध्यवासिनी के सिंह की दहाड़ भारत में, गौरी और काली मातु असुर संहारती। यहीं है अमरनाथ, बद्रीनाथ धाम यहीं, जहाँ हिमवारि शिवलिंग को संवारती॥ (3) यहीं के है आजाद, अशफाक भगत सिंह, शास्त्री सुभाष जैसी, भारत की शान हैं। अब्दुल हमीद जैसे टैंक भेदी भारत में, सत्य औ अहिंसा वाले गाँधी उपमान हैं॥ सूर जैसे शौर्यवाले चन्द्र जैसे तुलसी हैं, श्याम के अनन्य भक्त कवि रसखान हैं। अपने कबीर औ रहीम यहीं विद्यमान, भारत में भूषण, निराला जैसा ज्ञान है॥ (4) अपनी पुनीत बाल्मीकि की तपस्थली ही भारत का आज इतिहास बतला गई। जानकी पियारी, जानकी को त्याग राम यहीं, लवकुश भक्ति, पितृशक्ति को झुका गई॥ वट तरु, छांह, कुण्ड, जानकी समाई मातु, आज यह भूमि धन्य, धन्य कहला गई। आज हूँ दरस रमणीक दिव्य दृष्यमान, रघुकुल-रीति, जय-गान, गान गा गई॥
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अच्छा वक्ता बनना है तो अच्छे श्रोता बनो, अच्छा लेखक बनना है तो अच्छे पाठक बनो, अच्छा गुरू बनना है तो अच्छे शिष्य बनो, अच्छा राजा बनना है तो अच्छा नागरिक बनो |
28-10-2010, 10:29 PM | #7 |
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है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
- हरिवंश राय बच्चन कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है |
28-10-2010, 10:31 PM | #8 |
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हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले - मिर्जा गालिब
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले -- चश्म-ऐ-तर - wet eyes खुल्द - Paradise कूचे - street कामत - stature दराजी - length तुर्रा - ornamental tassel worn in the turban पेच-ओ-खम - curls in the hair मनसूब - association बादा-आशामी - having to do with drinks तव्वको - expectation खस्तगी - injury खस्ता - broken/sick/injured तेग - sword सितम - cruelity क़ाबे - House Of Allah In Mecca वाइज़ - preacher |
28-10-2010, 10:32 PM | #9 |
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त्याग
एक बार जापान देश में, था पड़ गया अकाल। हुई दुर्दशा, लोग हों गए धन के बिना बेहाल॥ एक कृषक था वहाँ उस समय जिसके विमल विचार। सदा सोचता जो परहित हित, ऐसा चतुर उदार॥ उसने किया विचार हो गयी, नष्ट सभी हैं चीज़। फसल उगाने समय यहाँ से, सब पायेंगे बीज॥ उसके घर में रखा हुआ था, इक बोरा भर धान। सोचा इसे बचाना इस दम है, है कर्तव्य महान॥ ठान लिया इस बोरे का अब, नही करूँ स्पर्श। और सभी के संग भूखा रहता, मर जाने में है हर्ष॥ इस प्रकार से भूखा रहता, कुछ भी छुआ ना धान। भूखा रहा बिना कुछ खाए, छोड़ा अपना प्रान॥ एक दिवस देखा सब ही ने, पर हित का अनुराग। बोरे पर सिर टिका पड़ा था, कितना अद्भुत त्याग॥ - ओम प्रकाश 'जयन्त
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28-10-2010, 10:32 PM | #10 |
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यह दिया बुझे नहीं
- गोपाल सिंह नेपाली यह दिया बुझे नहीं घोर अंधकार हो चल रही बयार हो आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है। शक्ति का दिया हुआ शक्ति को दिया हुआ भक्ति से दिया हुआ यह स्वतंत्रता–दिया रूक रही न नाव हो जोर का बहाव हो आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है। यह अतीत कल्पना यह विनीत प्रार्थना यह पुनीत भावना यह अनंत साधना शांति हो, अशांति हो युद्ध, संधि, क्रांति हो तीर पर¸ कछार पर¸ यह दिया बुझे नहीं देश पर, समाज पर, ज्योति का वितान है। तीन–चार फूल है आस–पास धूल है बांस है –बबूल है घास के दुकूल है वायु भी हिलोर दे फूंक दे, चकोर दे कब्र पर मजार पर, यह दिया बुझे नहीं यह किसी शहीद का पुण्य–प्राण दान है। झूम–झूम बदलियाँ चूम–चूम बिजलियाँ आंधिया उठा रहीं हलचलें मचा रहीं लड़ रहा स्वदेश हो यातना विशेष हो क्षुद्र जीत–हार पर, यह दिया बुझे नहीं यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है। |
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