12-04-2011, 08:37 AM | #1 |
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ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
निधन: 30 जनवरी 1968 उपनाम एक भारतीय आत्मा जन्म स्थान: ग्राम बबई, जिला होशंगाबाद, मध्य प्रदेश, भारत कुछ प्रमुख कृतियाँ : किरीटनी, हिम तरंगिनी, युग चारण, साहित्य देवता विविध: काव्य संग्रह "हिम तरंगिनी" के लिये 1955 का साहित्य अकादमी पुरस्कार। जीवनी: माखनलाल चतुर्वेदी / परिचय
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12-04-2011, 08:43 AM | #2 |
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Re: ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ, चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ चाह नहीं, देवों के शिर पर, चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ! मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।
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12-04-2011, 08:44 AM | #3 |
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Re: ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं। चरण-ध्वनि पास-दूर कहीं नहीं साधें आराधनीय रही नहीं उठने,उठ पड़ने की बात रही साँसों से गीत बे-अनुपात रही बागों में पंखनियाँ झूल रहीं कुछ अपना, कुछ सपना भूल रहीं फूल-फूल धूल लिये मुँह बाँधे किसको अनुहार रही चुप साधे दौड़ के विहार उठो अमित रंग तू ही `श्रीरंग' कि मत कर विलम्ब बँधी-सी पलकें मुँह खोल उठीं कितना रोका कि मौन बोल उठीं आहों का रथ माना भारी है चाहों में क्षुद्रता कुँआरी है आओ तुम अभिनव उल्लास भरे नेह भरे, ज्वार भरे, प्यास भरे अंजलि के फूल गिरे जाते हैं आये आवेश फिरे जाते हैं।।
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12-04-2011, 08:48 AM | #4 |
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Re: ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
छोड़ चले, ले तेरी कुटिया,
यह लुटिया-डोरी ले अपनी, फिर वह पापड़ नहीं बेलने; फिर वह माल पडे न जपनी। यह जागृति तेरी तू ले-ले, मुझको मेरा दे-दे सपना, तेरे शीतल सिंहासन से सुखकर सौ युग ज्वाला तपना। सूली का पथ ही सीखा हूँ, सुविधा सदा बचाता आया, मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ, जीवन-ज्वाल जलाता आया। एक फूँक, मेरा अभिमत है, फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल, मैं तो हूँ बलि-धारा-पन्थी, फेंक चुका कब का गंगाजल। इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे, इस उतार से जा न सकोगे, तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो, जीवन-पथ अपना न सकोगे। श्वेत केश?- भाई होने को- हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी, आया था इस घर एकाकी, जाने दो मुझको एकाकी। अपना कृपा-दान एकत्रित कर लो, उससे जी बहला लें, युग की होली माँग रही है, लाओ उसमें आग लगा दें। मत बोलो वे रस की बातें, रस उसका जिसकी तस्र्णाई, रस उसका जिसने सिर सौंपा, आगी लगा भभूत रमायी। जिस रस में कीड़े पड़ते हों, उस रस पर विष हँस-हँस डालो; आओ गले लगो, ऐ साजन! रेतो तीर, कमान सँभालो। हाय, राष्ट्र-मन्दिर में जाकर, तुमने पत्थर का प्रभू खोजा! लगे माँगने जाकर रक्षा और स्वर्ण-रूपे का बोझा? मैं यह चला पत्थरों पर चढ़, मेरा दिलबर वहीं मिलेगा, फूँक जला दें सोना-चाँदी, तभी क्रान्ति का समुन खिलेगा। चट्टानें चिंघाड़े हँस-हँस, सागर गरजे मस्ताना-सा, प्रलय राग अपना भी उसमें, गूँथ चलें ताना-बाना-सा, बहुत हुई यह आँख-मिचौनी, तुम्हें मुबारक यह वैतरनी, मैं साँसों के डाँड उठाकर, पार चला, लेकर युग-तरनी। मेरी आँखे, मातृ-भूमि से नक्षत्रों तक, खीचें रेखा, मेरी पलक-पलक पर गिरता जग के उथल-पुथल का लेखा ! मैं पहला पत्थर मन्दिर का, अनजाना पथ जान रहा हूँ, गूड़ँ नींव में, अपने कन्धों पर मन्दिर अनुमान रहा हूँ। मरण और सपनों में होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी, किसकी यह मरजी-नामरजी, किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी? अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र ! यह मेरी बोली यह `सुधार' `समझौतों' बाली मुझको भाती नहीं ठठोली। मैं न सहूँगा-मुकुट और सिंहासन ने वह मूछ मरोरी, जाने दे, सिर, लेकर मुझको ले सँभाल यह लोटा-डोरी !
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12-04-2011, 08:58 AM | #5 |
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Re: ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
आज नयन के बँगले में
संकेत पाहुने आये री सखि! जी से उठे कसक पर बैठे और बेसुधी- के बन घूमें युगल-पलक ले चितवन मीठी, पथ-पद-चिह्न चूम, पथ भूले! दीठ डोरियों पर माधव को बार-बार मनुहार थकी मैं पुतली पर बढ़ता-सा यौवन ज्वार लुटा न निहार सकी मैं ! दोनों कारागृह पुतली के सावन की झर लाये री सखि! आज नयन के बँगले में संकेत पाहुने आये री सखि !
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12-04-2011, 09:02 AM | #6 |
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Re: ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
इस तरह ढक्कन लगाया रात ने
इस तरफ़ या उस तरफ़ कोई न झाँके। बुझ गया सूर्य बुझ गया चाँद, तस्र् ओट लिये गगन भागता है तारों की मोट लिये! आगे-पीछे,ऊपर-नीचे अग-जग में तुम हुए अकेले छोड़ चली पहचान, पुष्पझर रहे गंधवाही अलबेले। ये प्रकाश के मरण-चिन्ह तारे इनमें कितना यौवन है? गिरि-कंदर पर, उजड़े घर पर घूम रहे नि:शंक मगन हैं। घूम रही एकाकिनि वसुधा जग पर एकाकी तम छाया कलियाँ किन्तु निहाल हो उठीं तू उनमें चुप-चुप भर आया मुँह धो-धोकर दूब बुलाती चरणों में छूना उकसाती साँस मनोहर आती-जाती मधु-संदेशे भर-भर लाती।
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12-04-2011, 09:05 AM | #7 |
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Re: ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
उठ महान ! तूने अपना स्वर
यों क्यों बेंच दिया? प्रज्ञा दिग्वसना, कि प्राण् का पट क्यों खेंच दिया? वे गाये, अनगाये स्वर सब वे आये, बन आये वर सब जीत-जीत कर, हार गये से प्रलय बुद्धिबल के वे घर सब! तुम बोले, युग बोला अहरह गंगा थकी नहीं प्रिय बह-बह इस घुमाव पर, उस बनाव पर कैसे क्षण थक गये, असह-सह! पानी बरसा बाग ऊग आये अनमोले रंग-रँगी पंखुड़ियों ने अन्तर तर खोले; पर बरसा पानी ही था वह रक्त न निकला! सिर दे पाता, क्या कोई अनुरक्त न निकला? प्रज्ञा दिग्वसना? कि प्राण का पट क्यों खेंच दिया! उठ महान् तूने अपना स्वर यों क्यों बेंच दिया!
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12-04-2011, 09:12 AM | #8 |
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Re: ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
क्यों मुझे तुम खींच लाये?
एक गो-पद था, भला था, कब किसी के काम का था? क्षुद्ध तरलाई गरीबिन अरे कहाँ उलीच लाये? एक पौधा था, पहाड़ी पत्थरों में खेलता था, जिये कैसे, जब उखाड़ा गो अमृत से सींच लाये! एक पत्थर बेगढ़-सा पड़ा था जग-ओट लेकर, उसे और नगण्य दिखलाने, नगर-रव बीच लाये? एक वन्ध्या गाय थी हो मस्त बन में घूमती थी, उसे प्रिय! किस स्वाद से सिंगार वध-गृह बीच लाये? एक बनमानुष, बनों में, कन्दरों में, जी रहा था; उसे बलि करने कहाँ तुम, ऐ उदार दधीच लाये? जहाँ कोमलतर, मधुरतम वस्तुएँ जी से सजायीं, इस अमर सौन्दर्य में, क्यों कर उठा यह कीच लाये? चढ़ चुकी है, दूसरे ही देवता पर, युगों पहले, वही बलि निज-देव पर देने दृगों को मींच लाये? क्यों मुझे तुम खींच लाये?
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12-04-2011, 10:37 AM | #9 | |
Diligent Member
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Re: ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
Quote:
मेरी पाठ्यपुस्तक में यह कविता पुष्प की अभिलाषा के नाम से छपी थी/ ये उन कविताओं में से थी जो मुझे जल्दी याद हो गयी थी/ औए बड़ी बात यह थी की यह छोटी भी थी/ हा हा हा हा धन्यवाद सिकंदर भाई पुरानी याद ताज़ा करने के लिए/
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12-04-2011, 12:59 PM | #10 |
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Re: ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ
जी हा ये पुष्प की अभिलाषा के नाम से ही थी हमारे टाइम में आज कल हे या नही पता नही !
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