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Old 11-02-2012, 10:18 PM   #11
sombirnaamdev
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ऐसी ही पशोपेश में दूसरे बच्चे भी थे. बच्चों को असमंजस में देखकर इस पुस्तकालय को लाने वाले स्थानीय एनजीओ बाल भवन के अध्यक्ष और सिटीजन फाउंडेशन के सचिव गणेश रेड्डी ने उनके कान में कुछ कहा और फिर ये बच्चे कूद-फांदकर तालियां बजाने लगे. यह पूछने पर कि उन्होंने बच्चों से क्या कहा, रेड्डी बताते हैं, ''मैंने उन्हें सिर्फ इतना बताया कि यह बच्चों की चलती-फिरती लाइब्रेरी है. इसमें उनके पढ़ने के लिए किताबें हैं. कार्टून फिल्म देखने के लिए प्रोजेक्टर है. सबसे बड़ी बात यह कि यह लाइब्रेरी उनके मोहल्ले और इलाके में नियमित रूप से दस्तक देगी.''
हालांकि देश के कई अन्य हिस्सों में मोबाइल लाइब्रेरी प्रचलन में है. जैसे कोलकाता के बच्चों की बोई गाड़ी, जिससे बच्चे हर हफ्ते साइकिल पर पुस्तकें रखकर ग्रामीण इलाकों के बच्चों के बीच पहुंचते हैं. पंजाब में ही अप्रवासी भारतीय जसवंत सिंह ने 2005 में चार गांव के लोगों, खासकर बच्चों के लिए मोबाइल लाइब्रेरी शुरू की थी. लेकिन झारखंड के लिए यह बिल्कुल ही नया प्रयोग है.
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Old 21-03-2012, 11:24 PM   #12
sombirnaamdev
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Default Re: किताबें कुछ कहती है

बीसवें अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में इस बार अंग्रेजी के मुकाबले हिन्दी किताबों के स्टॉल्स पर ज्यादा भीड़ दिखी और यह भी खबर है कि बिक्री हिन्दी की किताबों की ज्यादा हुई। इधर हिन्दी के पाठकों का स्वरूप भी बदला है। अब हिन्दी के पाठक सिर्फ हिन्दी साहित्य से जुड़े लोग नहीं हैं, बल्कि नौजवान ‘प्रोफेशनल्स’ भी हिन्दी पढ़ने में रुचि लेने लगे हैं। इस बदलाव पर नजर डाल रहे हैं प्रभात रंजन
दिल्ली में चल रहे 20 वें अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले के बारे में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में यह खबर छपी है कि इस दफा हिंदी के पुस्तकों के खरीदार पहले से अधिक आ रहे हैं। उस समाचार में एक और महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया गया है कि अब हिंदी में पाठक-समाज का विस्तार हो रहा है। पहले हिंदी साहित्य के पाठक आमतौर पर वही माने जाते थे, जिनका हिंदी पढ़ने-पढ़ाने से किसी तरह का नाता होता था, लेकिन अब ‘प्रोफेशनल्स’ की रुचि भी हिंदी साहित्य की तरफ हुई है। हिंदी पट्टी में जो नया युवा वर्ग तैयार हो रहा है, वह मल्टीनेशनल्स में काम करता है, जिसकी क्रय क्षमता अच्छी है। लेख में इस ओर भी ध्यान दिलाया गया है कि अब हिंदी में पुस्तकों का प्रकाशन पहले से अधिक आकर्षक ढंग से होने लगा है। विषय-वैविध्य भले न हुआ हो, लेकिन बात यह है कि लोग अपनी बोली में ‘अपना साहित्य’ पढ़ना चाहते हैं। पिछले 20 वर्षों से मेले में जा रहे इतिहासकार व अंग्रेजी के कला-समीक्षक पाथरे दत्ता ने इस पुस्तक मेले के बारे में यह टिप्पणी की कि इस बार अंग्रेजी प्रकाशकों के हॉल्स में उतनी भीड़ नहीं दिखी, जितनी हिंदी के हॉल्स में। कुल मिला कर, हिंदी पुस्तकों का बाजार बढ़ रहा है, व्यापार बढ़ रहा है। जब से हिंदी में हार्पर कॉलिंस तथा पेंगुइन जैसे कॉरपोरेट प्रकाशकों ने पांव पसारे हैं, मार्केटिंग के नए-नए नुस्खे हिंदी किताबों के बाजार को बढ़ाने के लिए आजमाए जाने लगे हैं। एक नुस्खा अनुवादों को लेकर आजमाया जा रहा है। अभी हाल में पेंगुइन ने नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक वी. एस. नायपॉल की अनेक प्रसिद्ध पुस्तकों के हिंदी अनुवाद प्रकाशित किए हैं, जिनमें ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिश्वास’, ‘हाफ ए लाइफ’, ‘मिलियन म्यूटिनीज नाऊ’ जैसी प्रसिद्ध पुस्तकें शामिल हैं। पुस्तकें हिंदी में छपी हैं, लेकिन उनके शीर्षक वही रहने दिए गए हैं, जो अंग्रेजी में हैं। यह अटपटा जरूर लग सकता है, लेकिन यह मार्केटिंग की सोची-समङी रणनीति है। हिंदी का आम पाठक भी अंग्रेजी के प्रसिद्ध पुस्तकों के नाम जानता है। हिंदी मीडिया के माध्यम भी अंग्रेजी के लेखकों, उनकी पुस्तकों के बारे में छापते हैं। हिंदी के अखबार, पत्रिकाएं अपने पन्नों पर अंग्रेजी के बेस्टसेलर्स की सूची छापते हैं। मसलन, उनके लिए भी हिंदी के किसी लेखक से बड़ा ‘स्टार राइटर’ चेतन भगत ही है। इसके कारण होता यह है कि हिंदी के किस लेखक को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला या ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला, हिंदी पट्टी के पाठक ठीक से नहीं जान पाते, लेकिन उनको यह पता रहता है कि किस भारतीय या भारतीय मूल के लेखक को नोबेल पुरस्कार मिला या बुकर मिला है, कौन-सी किताबें अंग्रेजी में चर्चित हुईं। कहने का मतलब है कि अंग्रेजी की चर्चित पुस्तकों का एक बना-बनाया बाजार हिंदी में रहता है, अनुवादों के माध्यम से जिनकी पूर्ति होती है। पुस्तक मेले में भी अनूदित पुस्तकों को लेकर रुझान अधिक रहा। चाहे वह वी. एस. नायपॉल की पुस्तकें हों या अंग्रेजी में दस लाख की तादाद में बिकने वाली युवा लेखक रविंदर सिंह की पुस्तक ‘आई टू हैड ए लव स्टोरी’ का हिंदी अनुवाद- ‘एक प्रेम कहानी मेरी भी’। अंग्रेजी की पुस्तकों का मूल नाम से प्रकाशन कोई नया फॉमरूला नहीं है। पहले भी बुकर पुरस्कार मिलने के बाद अरविन्द अडिगा के उपन्यास ‘व्हाइट टाइगर’ का हिंदी अनुवाद एक प्रसिद्ध प्रकाशक ने उसी नाम से छापा था। पेंगुइन ने भी मुंबई के अपराध-जीवन पर लिखे गए विक्रम चंद्रा के उपन्यास ‘द सेक्रेड गेम्स’ का हिंदी अनुवाद मूल नाम से ही प्रकाशित किया था, क्योंकि मोटी एडवांस राशि मिलने के कारण उस पुस्तक की प्रकाशन के पूर्व चर्चा हुई थी। यह अलग बात है कि हिंदी में वह पुस्तक नहीं चली, क्योंकि अंग्रेजी में भी उसकी उत्साहवर्धक समीक्षाएं प्रकाशित नहीं हुई थीं। लब्बोलुबाव यह कि अंग्रेजी में चर्चित-अचर्चित होना हिंदी के पुस्तक-बाजार को प्रभावित करता है। हाल में हिंदी में अनूदित पुस्तकों का वितान भी इसी कारण बदला है। हिंदी के जो परम्परागत तथाकथित ‘बड़े’ प्रकाशक हैं, वे अधिकतर उन पुस्तकों के हिंदी अनुवाद छापते रहे हैं, जो कुछ क्लासिक का दर्जा रखती हों। लेकिन अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों की आमद तथा हिंदी के कुछ प्रकाशकों की पहल के कारण अब हिंदी में यह संभव हो पाया है कि अंग्रेजी में हाल में चर्चित हुई किताबों का हिंदी में प्रकाशन संभव हो सके। यह पहले संभव नहीं था कि एप्पल के संस्थापक कंप्यूटरविद् स्टीव जॉब्स की जीवनी अंग्रेजी में छपने के महज एक महीने के भीतर हिंदी में छप कर आ जाए। कारण यह था कि उस पुस्तक में स्टीव जॉब्स के भारत से आध्यात्मिक लगाव के बारे में विस्तार से लिखा गया है या स्पैनिश भाषा के लेखक मारियो वर्गास लोसा को नोबेल पुरस्कार मिलने के एक महीने के भीतर उनके उपन्यास का हिंदी अनुवाद छप कर आ जाए। हिंदी भाषी इलाके का पाठक विश्व भाषाओं में चर्चित पुस्तकों को पढ़ना चाहता है, लेकिन अपनी भाषा में। अनुवाद का बाजार बढ़ रहा है। नहीं तो जो प्रकाशक मौलिक पुस्तकों के लेखकों को ठीक से रायल्टी नहीं देता, वही प्रकाशक अनुवादकों को सम्मानजनक मानदेय कैसे देता है? यह अलग बात है कि हिंदी पुस्तकों के इस बढ़ते बाजार का फायदा लेखकों तक नहीं पहुंच पा रहा है। हिंदी के अधिकांश प्रकाशक पुस्तकों की बिक्री के ठीक-ठीक आंकड़े नहीं देते। वे अधिकतर सरकारी खरीद पर ही निर्भर बने रहना चाहते हैं। पुस्तक मेलों में बिक्री को लेकर एक हिंदी प्रकाशक ने टिप्पणी की थी कि यह हिंदी के प्रकाशकों के लिए कम्बल ओढ़ कर घी पीने का अवसर होता है। अधिकांश हिंदी प्रकाशक मेलों में पुस्तकों की नगद बिक्री ही करते हैं। खरीदार पाठकों के लिए क्रेडिट कार्ड जैसी सामान्य सुविधा भी कितने प्रकाशकों के पास होती है? पुस्तक बाजारों की बिक्री हिंदी प्रकाशकों के लिए दिखाने का नहीं, छुपाने का अवसर होता है। किताबों की लोकप्रियता, उनकी बिक्री के सही आंकड़े सामने नहीं आ पाते। प्रकाशक इस भ्रम को बनाये रखना चाहते हैं कि हिंदी की किताबें नहीं बिकतीं, कि वे हिंदी में प्रकाशन का व्यवसाय चला कर अपनी राष्ट्रभाषा की बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं, इसलिए सरकार को अधिक से अधिक हिंदी पुस्तकें खरीद कर उनकी मदद करते रहना चाहिए। मेलों-आयोजनों में हिंदी किताबों के प्रति इस बढ़ती रुचि में बड़ी भूमिका, भले ही खामोश तौर पर, मीडिया के नए माध्यमों ब्लॉग, फेसबुक आदि की भी है। मीडिया के इन नए माध्यमों ने हिंदी का एक नया लेखक-वर्ग तैयार किया है, जिसकी वजह से हिंदी का एक नया पाठक वर्ग बन रहा है, जो हिंदी की किताबें खरीद रहा है, पढ़ रहा है। यह वर्ग वह है, जो अंग्रेजी की पुस्तकों के विषय में अच्छी जानकारी रखता है और जैसे ही उस भाषा की किसी चर्चित पुस्तक को हिंदी में देखता है, खरीद लेता है या खरीदने के बारे में सोचता है। यह लेखकों-पाठकों का वह वर्ग है, जो हिंदी की पुस्तकों की अधिक कीमत का रोना नहीं रोता। हिंदी में पुस्तकें पढ़ना, उनके बारे में ब्लॉग, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के माध्यमों पर उनके बारे में चर्चा करने में वे किसी तरह की शर्म महसूस नहीं करता। दुनिया भर में फैला यह ऐसा समुदाय है, जो अपनी भाषा के माध्यम से अपनी जड़ों से जुड़ना चाहता है। भले हिंदी में बाजारवाद का सबसे अधिक विरोध हो रहा हो, लेकिन हिंदी का बाजार बड़ा होता जा रहा है। यह कयास लगाये जाने लगे हैं कि पहले भारत के अंग्रेजी साहित्य का विश्व स्तर पर बाजार बना, देर-सवेर हिंदी पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवादों का बाजार भी बनेगा। यह माना जाने लगा है कि अगर भारतीय समाज को सही ढंग से समझना है तो उसमें हिंदी साहित्य ही सबसे मददगार साबित होगा। पता नहीं, फिलहाल तो हिन्दुस्तान में हिंदी का ‘स्पेस’ बढ़ रहा है, जिसमें कोई संदेह नहीं की अनूदित पुस्तकों की बड़ी भूमिका है।
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