04-02-2013, 05:35 AM | #1 |
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मेघदूत
संस्कृत क्लासिक
मेघदूत -कालिदास
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
04-02-2013, 05:36 AM | #2 |
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Re: मेघदूत
पूर्वमेघ
कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत: शापेनास्तग्ड:मितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तु:। यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।। कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि वर्ष-भर पत्नी का भारी विरह सहो। इससे उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के आश्रमों में बस्ती बनाई जहाँ घने छायादार पेड़ थे और जहाँ सीता जी के स्नानों द्वारा पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे।
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04-02-2013, 05:38 AM | #3 |
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Re: मेघदूत
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तस्मिन्नद्रो कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्त प्रकोष्ठ: आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानु वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।। स्त्री के विछोह में कामी यक्ष ने उस पर्वत पर कई मास बिता दिए। उसकी कलाई सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी दीखने लगी। आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा तो ऐसा जान पड़ा जैसे ढूसा मारने में मगन कोई हाथी हो।
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04-02-2013, 05:40 AM | #4 |
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Re: मेघदूत
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तस्य स्थित्वा कथमपि पुर: कौतुकाधानहेतो- रन्तर्वाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ। मेघालोके भवति सुखिनो∙प्यन्यथावृत्ति चेत: कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे।। यक्षपति का वह अनुचर कामोत्कंठा जगानेवाले मेघ के सामने किसी तरह ठहरकर, आँसुओं को भीतर ही रोके हुए देर तक सोचता रहा। मेघ को देखकर प्रिय के पास में सुखी जन का चित्त भी और तरह का हो जाता है, कंठालिंगन के लिए भटकते हुए विरही जन का तो कहना ही क्या?
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04-02-2013, 05:41 AM | #5 |
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Re: मेघदूत
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प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन्प्रवृत्तिम्। स प्रत्यग्रै: कुटजकुसुमै: कल्पितार्घाय तस्मै प्रीत: प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार।। जब सावन पास आ गया, तब निज प्रिया के प्राणों को सहारा देने की इच्छा से उसने मेघ द्वारा अपना कुशल-सन्देश भेजना चाहा। फिर, टटके खिले कुटज के फूलों का अर्घ्य देकर उसने गदगद हो प्रीति-भरे वचनों से उसका स्वागत किया।
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04-02-2013, 05:43 AM | #6 |
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Re: मेघदूत
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धूमज्योति: सलिलमरुतां संनिपात: क्व मेघ: संदेशार्था: क्व पटुकरणै: प्राणिभि: प्रापणीया:। इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन्गुह्यकस्तं ययाचे कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनुषु।। धुएँ, पानी, धूप और हवा का जमघट बादल कहाँ? कहाँ सन्देश की वे बातें जिन्हें चोखी इन्द्रियोंवाले प्राणी ही पहुँचा पाते हैं? उत्कंठावश इस पर ध्यान न देते हुए यक्ष ने मेघ से ही याचना की। जो काम के सताए हुए हैं, वे जैसे चेतन के समीप वैसे ही अचेतन के समीप भी, स्वभाव से दीन हो जाते हैं।
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04-02-2013, 05:32 PM | #7 |
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Re: मेघदूत
Dark Saint Alaick
एक अच्छे सूत्र के लिए आपको साधुवाद
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
04-02-2013, 07:43 PM | #8 |
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Re: मेघदूत
अलैक जी, इस सौन्दर्यबोधक ग्रन्थ की हिंदी अनुकृति के लिए हार्दिक आभार।
एक उत्कंठा: कई स्थानों पर यह लिखा हुआ मिलता है कि कवि कालिदास ने इस ग्रन्थ के प्रथम श्लोक के पहले शब्द "आषाढस्य प्रथम दिवसे ....." लिखे थे। क्या ये शब्द आप द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ की इस प्रस्तावना के बाद आयेंगे?
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
27-03-2013, 12:17 AM | #9 |
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Re: मेघदूत
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जातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोन:। तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशादूरबन्धुर्गतो हं याण्चा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।। पुष्कर और आवर्तक नामवाले मेघों के लोक-प्रसिद्ध वंश में तुम जनमे हो। तुम्हें मैं इन्द्र का कामरूपी मुख्य अधिकारी जानता हूँ। विधिवश, अपनी प्रिय से दूर पड़ा हुआ मैं इसी कारण तुम्हारे पास याचक बना हूँ। गुणीजन से याचना करना अच्छा है, चाहे वह निष्फल ही रहे। अधम से माँगना अच्छा नहीं, चाहे सफल भी हो।
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27-03-2013, 12:18 AM | #10 |
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Re: मेघदूत
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संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद! प्रियाया: संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य। गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतह्मर्म्या ।। जो सन्तप्त हैं, है मेघ! तुम उनके रक्षक हो। इसलिए कुबेर के क्रोधवश विरही बने हुए मेरे सन्देश को प्रिया के पास पहुँचाओ। यक्षपतियों की अलका नामक प्रसिद्ध पुरी में तुम्हें जाना है, जहाँ बाहरी उद्यान में बैठे हुए शिव के मस्तक से छिटकती हुई चाँदनी उसके भवनों को धवलित करती है।
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