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Old 14-12-2010, 06:59 AM   #1
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मुल्ला नसरुद्दीन

वतन को लौटता मुल्ला नसरुद्दीन
मध्यपूर्व के मुस्लिम देशों में 13वीं शताब्दी में हुए मुल्ला नसरुद्दीन, अपने समय का सर्वाधिक बुद्धिमान और खुशमिज़ाज व्यक्ति था।

तरह-तरह की तिकड़मबाजियों से वह धन जमा करता और उसे गरीबों, जरूरतमंदों में बांट देता। इसलिए समाज के गरीब और बेसहारा लोगों के बीच वह काफी लोकप्रिय था।
लोगों में उसकी लोकप्रियता से बादशाह और सरदार उससे चिढ़ते थे। वे उसे सदा सजा देने की ताक में रहते, पर हर बार अपनी चालाकियों से वह बच निकलता।

शासकों की नजर से बचने के लिए वह सदा एक शहर से दूसरे शहर वेश बदल कर घूमता रहता। रास्ते में आने वाली मुश्किलों से घबराने की बजाय वह उसका जम कर मजे लेता। उसकी कहानियां अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की जैसे मध्यपूर्व के देशों में काफी प्रचलित हैं।


वतन को लौटता मुल्ला नसरुद्दीन...


शाम के सूरज की किरणें बुखारा शरीफ के अमीर के महल के कंगूरों और मस्जिदों की मीनारों को चूमकर अलविदा कह रही थीं। रात के कदमों की धीमी आवाज दूर से आती सुनाई देने लगी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ऊंटों के विशाल कारवाँ के पीछे-पीछे अपने सुख-दुख के एकमात्र साथी गधे की लगाम पकड़े पैदल आ रहा था।

उसने हसरत-भरी निगाह बुखारा शहर की विशाल चारदीवारी पर डाली, उसने उस खूबसूरत मकान को देखा, जिसमें उसने होश की आँखें खोली थीं, जिसके आँगन में खेल-कूदकर बड़ा हुआ था। किंतु एक दिन अपनी सच्चाई, न्यायप्रियता, गरीबों तथा पीड़ितों के प्रति उमड़ती बेपनाह मुहब्बत और हमदर्दी के कारण उसे अमीर के शिकारी कुत्तों जैसे खूँखार सिपाहियों की नजरें बचाकर भाग जाना पड़ा था।

जिस दिन से उसने बुखारा छोड़ा था, न जाने वह कहाँ-कहाँ भटकता फिर रहा था- बगदाद, इस्तम्बूल, तेहरान, बख्शी सराय, तिफ़िलस, दमिश्क, तरबेज और अखमेज और इन शहरों के अलावा और भी दूसरे शहरों तथा इलाकों में। कभी उसने अपनी रातें चरवाहों के छोटे से अलाव के सहारे-ऊँघते हुए गुजा़रीं थीं और कभी किसी सराय में, जहाँ दिन भर के थके-हारे ऊँट सारे रात धुँधलके में बैठे, अपने गले में बँधी घंटियों की रुनझुन के बीच जुगाली करने, अपने बदन को खुजाने, अपनी थकान मिटाने की कोशिश किया करते थे।

कभी धुएँ और कालिख से भरे कहवाख़ानों में, कभी भिश्तियों, खच्चर और गधे वाले ग़रीब मजदूरों और फकीरों के बीच, जो अधनंगे बदन और अधभरे पेट लिए नई सुबह के आने की उम्मीद से सारी रात सोते-जागते गुजा़रा देते थे और पौ फटते ही जिनकी आवाज़ों से शहर की गलियाँ और बाजा़र फिर से गूँजने लगते थे।

नसरुद्दीन की बहुत-सी रातें ईरानी रईसों के शानदार हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर भी गुज़री थीं उनकी वासना की प्यासी बेगमें किसी भी मर्द की बाहों में रात गुज़ारने के लिए बेबसी से हरम के जालीदार झरोखों में खड़ी किसी अजनबी की तलाश करती रहती थीं।
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Old 14-12-2010, 07:00 AM   #2
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:2
एक शानदार रात की याद

(आपने इससे पहले पढ़ा: सरदारों-अमीरों की नजरों से बचता हुआ, मुल्ला दर-दर भटक रहा था। उन कठिन दिनों में भी मुल्ला मौज-मस्ती करने का मौका छोड़ता नहीं था। उन्हीं मौकों में से वह याद करता है वह खूबसूरत रात, जो उसने अपने एक दुश्मन अमीर(सरदार) के घर पर बिताई थी....)


पिछली रात भी उसने एक अमीर के हरम में ही बिताई थी। अमीर अपने सिपाहियों के साथ दुनिया के सबसे बड़े आवारा, बदनाम और बागी मुल्ला नसरुद्दीन की तलाश में सरायों और कहवाख़ानों की खाक छानता फिर रहा था ताकि उसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दे और बादशाह से इनाम और पद प्राप्त कर सके।

जालीदार ख़ूबसूरत झरोखों से आकाश के पूर्वी छोर पर सुबह की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सुबह की सूचना देनेवाली हवा धीरे-धीरे ओस से भीगे पेड़-पौधों को सुलाने लगी थी। महल की खिड़िकयों पर चहचहाती हुई चिड़ियाँ चोंच से अपने पंखों को सँवारने लगी थीं। आँखों की नींद का खुमार लिए अलसायी हुई बेगम का मुँह चूमते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, “वक्त़ हो गया, अब मुझे जाना चाहिए।”


‘अभी रुको।’ अपनी मरमरी बाहें उसकी गर्दन में डालकर बेगम ने आग्रह किया। ‘नहीं दिलरूबा, मुझे अब जाने दो। अलविदा’!
क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो? सुनो, आज रात को जैसे ही अँधेरा फैलने लगेगा, मैं बूढ़ी नौकरानी को भेंज दूंगी ’



‘नहीं, मेरी मलिका। मुझे अपने रास्ते जाने दो। देर हो रही है।’ नसरुद्दीन ने उसकी कमलनाल जैसी बाहों को अपने गले में से निकालते हुए कहा, एक ही मकान में दो रातें बिताना कैसा होता है, मैं एक अरसे से भूल चुका हूँ। बस मुझे भूल मत जाना। कभी-कभी याद कर लिया करना ”

‘लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो? क्या किसी दूसरे शहर में कोई जरूरी काम है?’

‘पता नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरी मलिका, सुबह का उजाला फैल चुका है। शहर के फाटक खुल चुके हैं। कारवाँ अपने सफ़र पर रवाना हो रहे हैं। उनके ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की आवाज तुम्हें सुनाई दे रही है ना? घंटियों की आवाज़ों को सुनते ही जैसे मेरे पैरों में पंख लग गए हैं। अब नहीं रुक सकता। ’

‘तो फिर!’ अपनी लंबी-लंबी पलकों में आँसू छिपाने की कोशिश करते हुए बेगम ने नाराज़गी के साथ कहा, ‘लेकिन जाने से पहले अपना नाम तो बताते जाओ।’

‘मेरा नाम?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उसकी आँसू भरी नजरों में नजरें डालते हुए कहा, ‘सुनो, तुमने यह रात मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बिताई थी। मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ। अमन में खलल डालने वाला, बगावत और झगड़े फैलाने वाला-मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ, जिसका सिर काटकर लाने वाले को भारी इनाम देने की घोषणा की गई है। मेरा जी चाहा था कि इतनी बड़ी क़ीमत पर मैं खुद ही अपना सिर इनके हवाले कर दूँ। ’

मुल्ला नसरुद्दीन की इस बात को सुनते ही बेगम खिल-खिलाकर हंस पड़ी।


‘तुम हंस रही हो मेरी नन्हीं बुलबुल?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने दर्द-भरी आवाज़ में कहा, ‘लाओ, आख़िरी बार अपने इन गुलाबी होठों को चूम लेने दो। जी तो चाहता था कि तुम्हें अपनी कोई निशानी देता जाऊँ-कोई जेवर। लेकिन ज़ेवर मेरे पास है नहीं। निशानी के रूप में पत्थर का यह सफेद टुकड़ा दे रहा हूँ। इसे सँभालकर रखना और इसे देखकर मुझे याद कर लिया करना।’

इसके बाद मुल्ला ने अपनी फटी खलअत पहन ली, जो अलाव की चिंगारियों से कई जगह से जल चुकी थी। उसने एक बार फिर बेगम का चुंबन लिया और चुपचाप दरवाज़े से निकल आया दरवाज़े पर महल के ख़जाने का रखवाला, आलसी और मूर्ख खोजा लंबा पग्गड़ बाँधे, सामने से ऊपर की ओर मुड़ी जूतियाँ पहने खर्राटे भर रहा था। सामने ही ग़लीचों और दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया लगाए पहरेदार सोए पड़े थे।
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Old 14-12-2010, 07:02 AM   #3
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:3
फिर शुरू हुआ सफर

मुल्ला नसरुद्दीन बिना कोई आवाज किए अमीर के महल से बाहर निकल आया। हमेशा की तरह सकुशल। फिर वह सिपाहियों की नज़रों में छूमंतर हो गया। एक बार फिर उसके गधे की तेज टापों से सड़क गूँजने लगी थी। धूल उड़ने लगी थी और नीले आकाश पर सूरज चमकने लगा था। मुल्ला नसरुद्दीन बिना पलकें झपकाए उनकी ओर देखता रहा।

.एक बार भी पीछे मुड़कर देखे बिना, अतीत की यादों की किसी भी कसक के बिना और भविष्य में आनेवाले संकटों में निडर वह अपने गधे पर सवार हो आगे बढ़ता चला जाता। लेकिन अभी-अभी वह जिस कस्बे को छोड़कर आया है, वह उसे कभी भूल नहीं पाएगा।

उसका नाम सुनते ही अमीर और मुल्ला क्रोध से लाल-पीले होने लगते थे। भिश्ती, ठठेरे, जुलाहे, गाड़ीवान, जीनसाज़ रात को कहवाखा़नों में इकट्ठे होकर उसकी वीरता की कहानियाँ सुना-सुनाकर अपना मनोरंजन करते; और वे कहानियाँ कभी भी समाप्त न होतीं। उसकी प्रसिद्धि और ज्यादा दूर तक फैल जाती।

अमीर के हरम में अलसायी हुई बेगम बार-बार सफे़द पत्थर के उस टुकड़े को देखती और जैसे ही उसके कानों में पति के क़दमों की आवाज़ टकराती, वह उस सीप को पिटारी में छिपा देती।


जिरहबख्त़र की खिलअत को उतारता, हाँफता-काँपता मोटा अमीर कहता, "ओह, इस कमबख्त आवारा मुल्ला नसरुद्दीन ने हम सबकी नाकों में दम कर रखा है। पूरे देश को उजाड़कर गड़बड़ फैला दी है। आज मुझे अपने पुराने मित्र खुरासान के सबसे बड़े अधिकारी का पत्र मिला था। तुम समझती हो ना? उसने लिखा है कि जैसे ही यह आवारा उसके शहर में पहुँचा अचानक लुहारों ने टैक्स देना बंद कर दिया और सरायवालों ने बिना कीमत लिए सिपाहियों को खाना खिलाने से इंकार कर दिया। और सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वह चोर, वह बदमाश हाकिम के हरम में घुसने की गुस्ताखी कर बैठा। उसने हाकिम की सबसे अधिक चहेती बेगम को फुसला लिया। विश्वास करो, दुनिया ने ऐसा बदमाश आज तक नहीं देखा। मुझे इस बात का अफसोस है कि उस दो कौड़ी के आदमी ने मेरे हरम में घुसने की आज तक कोशिश नहीं की। अगर मेरे हरम में घुस आता तो उसका सिर बाज़ार के चौराहे पर सूली पर लटका दिखाई देता। "
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Old 14-12-2010, 07:04 AM   #4
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:4
इसके पहले आपने पढ़ा
मुल्ला को सबसे प्यारा था अपना वतन बुखारा। और आज वह बुखारा की सरहद पर अपनी रात बिताने की तैयारी कर रहा था।


अपना शहर बुखारा छोड़ने के बाद के वर्षों में मुल्ला अनेक नगरों में घूम आया था। वह जहाँ भी जाता था, अपनी एक-न-एक ऐसी याद छोड़ जाता था, जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता था। और अब वह अपने वतन, अपने शहर बुखारा लौट रहा था। पवित्र बुखारा-जहाँ वह अपना नाम बदलकर कुछ दिन इधर-उधर भटकने से छुट्टी पाकर आराम करना चाहता था।


वह व्यापारियों के एक काफि़ले के पीछे-पीछे चल पड़ा था। उसने बुखारा की सरहद पार कर ली। आठवें दिन गर्द की धुंध में उसे इस बड़े और मशहूर नगर की ऊँची-ऊँची मीनारें दिखाई दीं।


प्यास और गर्मी से निढाल ऊँट वालों ने फटे गलों से आवाजें लगाईं। ऊँट और भी तेजी से आगे बढ़ने लगे। सूरज डूब रहा था। फाटक बंद होने से पहले बुखारा में दाखिल होने के लिए तेज़ी जरूरी थी। मुल्ला नसरुद्दीन कारवाँ में सबसे पीछे था- धूल के मोटे और भारी बादलों में लिपटा हुआ। यह धूल उसके अपने वतन की धूल थी- पवित्र धूल, जिसकी खुशबू उसे दूर देशों की मिट्टी की खुशबू से कहीं अधिक अच्छी लग रही थी।
छींकता, खाँसता वह अपने गधे से कहता चला जा रहा था- ‘अच्छा ले, हम लोग पहुँच ही गए। आखि़र अपने वतन में पहुँच ही गए। खुदा ने चाहा तो खुशियाँ और सफलताएँ यहाँ इंतजार कर रही होंगी’।

जब कारवाँ शहर के परकोटे तक पहुँचा तो पहरेदार फाटक बंद कर चुके थे।


‘खुदा के लिए हमारा इंतजार करो।’ कारवाँ का सरदार सोने का सिक्का दिखाते हुए दूर से चिल्लाया।

लेकिन तब तक फाटक बंद हो गए। साँकलें लग गईं। परकोटे के ऊपर बनी बुर्जियों में लगी तोपों के पास पहरेदार आकर खड़े हो गए। तेज हवा चलने लगी। धुंध भरे आकाश पर फैली गुलाबी रोशनी रात के धुँधलकों में दबकर गायब हो गई। दूज का नाजुक चाँद आकाश से झाँकने लगा। रात के फैलते झुटपुटे की खामोशी में अनगिनत मस्जिदों की मीनारों से अजान देने वालों की ऊँची आवाजें तैरती हुई आने लगीं. वे मुसलमानों को शाम की नमाज के लिए बुला रहे थे।

जैसी ही व्यापारी और ऊँटवाले नमाज के लिए सजदे में झुके, मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक ओर खिसक गया।

इन व्यापारियों के पास कुछ है, जिसके लिए खुदा को धन्यवाद दें। शाम का खाना ये लोग खा चुके हैं। थोड़ी देर बाद रात का खाना खाएँगे। ऐ मेरे वफ़ादार गधे, हम दोनों भूखे हैं। अगर अल्लाह यह चाहता है कि हम उसे धन्यवाद दें तो मेरे लिए पुलाव की एक प्लेट और तेरे एक गट्ठर तिपतिया घास भेज दे। हमें न तो शाम का खाना मिला है और न रात का खाना मिलने की कोई उम्मीद दिखाई दे रही है।
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Old 14-12-2010, 07:07 AM   #5
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान-5
इसके पहले आपने पढ़ा
(बुखारा की सरहद पर पहुंचते-पहुंचते शहर का दरवाजा बंद हो जाता है, सभी सरहद पर ही रात बिताने की तैयारी करते हैं....)

मुल्ला नसरुद्दीन ने गधे को सड़क के किनारे एक पेड़ से बाँध दिया और पास ही एक पत्थर का तकिया लगाकर नंगी जमीन पर लेट गया। ऊपर आकाश में सितारों का चमकता हुआ जाल फैला हुआ था। सितारों के हर झुंड को वह पहचानता था।

इन दस सालों में उसने न जाने कितनी बार इसी प्रकार आकाश को देखा था। रात के दुआ के पवित्र घंटे उसे संसार के सबसे बड़े दौलतमंद से भी बड़ा दौलतमंद बना देते थे।

धनसंपन्न लोग भले ही सोने के थाल में भोजन करें, लेकिन वे अपनी रातें छत के नीचे बिताने के लिए मजबूर होते हैं और नीले आकाश पर जगमगाते तारों और कुहरे भरी रात के सन्नाटे में संसार के सौंदर्य को देखने से वंचित रह जाते हैं।

इस बीच शहर के उस परकोटे के पीछे, जिस पर तोपें लगी थीं, सराय और कहवाखानों में बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल चुकी थी। कसाईखाने की ओर ले जानेवाली भेड़ों ने दर्दभरी आवाज़ में मिमियाना शुरू कर दिया था।

अनुभवी मुल्ला नसरुद्दीन ने रात-भर आराम करने के लिए हवा के रुख के विपरीत स्थान खोजा था ताकि खाने की ललचाने वाली महक रात में उसे परेशान न करे और वह निश्चिंतता से सोता रहे। उसे बुखारा के रिवाजों की पूरी-पूरी जानकारी थी। इसलिए उसने शहर के फाटक पर टैक्स चुकाने के लिए अपनी रकम का अंतिम भाग बचा रखा था।


बहुत देर तक वह करवटें बदलता रहा, लेकिन नींद नहीं आई। नींद न आने का कारण भूख नहीं थी, वे कड़वे विचार थे, जो उसे सता रहे थे।
छोटी-सी काली दाढ़ी वाले इस चालाक और खुशमिज़ाज आदमी को अपने वतन से सबसे अधिक प्यार था। फटा पैबंद लगा कोट, तेल से भरा कुलाह और फटे जूते पहने वह बुखारा से जितना अधिक दूर होता, उसकी याद उसे उतनी ही अधिक सताया करती थी।

परदेस में उसे बुखारा की उन तंग गलियों की याद आती, जो इतनी पतली थीं कि अराबा (एक प्रकार की गाड़ी भी) दोनों और बनी कच्ची दीवारों को रगड़कर ही निकल पाती थी। उसे ऊँची-ऊँची मीनारों की याद आती, जिसके रोग़नदार ईंटों वाले गुंबदों पर सूरज निकलते और डूबते समय लाल रोशनी ठिठककर रुक जाती थी।

उन पुराने और पवित्र वृक्षों की याद आती, जिनकी डालियों पर सारस के काले और भारी घोंसले झूलते रहते थे। नहरों के किनारे के कहवाखाने, जिन पर चिनार के पेड़ों की छाया थी, नानबाइयों की भट्टी जैसी तपती दुकानों से निकलता हुआ धुआँ और खाने की खुशबू तथा बाजारों के तरह-तरह के शोर-गुल याद आते। अपने वतन की पहाड़ियाँ याद आतीं। झरने याद आते। खेत, चरागाह, गाँव और रेगिस्तान याद आते।
बगदाद या दमिश्क में वह अपने देशवासियों को उनकी पोशाक और कुलाह देखकर पहचान लेता था। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगता था और गला भर आता था। जाने के समय की तुलना में वापस आते समय से अपना देश और अधिक दुखी दिखाई दिया।

पुराने अमीर की मौत बहुत पहले हो चुकी थी। नए अमीर ने पिछले आठ वर्षों में बुखारा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ने टूटे हुए पुल, नहरों के धूप से चटकते सूख तले, गेहूँ और जौ के धूप जले ऊबड़-खाबड़ खेत देखे।
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ये खेत घास और कँटीली झाड़ियों के कारण बर्बाद हो रहे थे। बिना पानी के बाग मुरझा रहे थे। किसानों के पास न तो मवेशी थे और न रोटी। सड़कों पर कतार बाँधे फ़कीर उन लोगों से भीख माँगा करते थे, जो खुद भूख थे।

नए अमीर ने हर गाँव में सिपाहियों की टुकड़ियाँ भेज रखी थीं और गाँववालों को हुक्म दे रखा था कि उन सिपाहियों के खाने-पीने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होगी। उसने बहुत-सी मस्जिदों की नींव डाली और फिर गाँववालों से कहा कि वे उन्हें पूरा करें। नया अमीर बहुत ही धार्मिक था। बुखारा के पास ही शेख़ बहाउद्दीन का पवित्र मजार था।

नया अमीर साल में दो बार वहाँ जियारत करने जरूर जाता था। पहले से लगे हुए चार टैक्सों में उसने तीन नए टैक्स और बढ़ा दिए थे। व्यापार पर टैक्स बढ़ा दिया था। का़नूनी टैक्सों में भी वृद्धि कर दी थी। इस तरह उसने ढेर सारी नापाक दौलत जमा कर ली थी। दस्तकारियाँ ख़त्म होती जा रही थीं। व्यापार घटता चला जा रहा था।

मुल्ला नसरुद्दीन की वापसी के समय उसके वतन में बेहद उदासी छाई हुई थी।
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बूढ़े ने खाँसते हुए कहना शुरू किया,‘यह घटना पुराने अमीर के ज़माने की है। मुल्ला नसरुद्दीन के बुखारा से निकल जाने के लगभग अठारह महीने के बाद बाजा़रों में अफवाह फैली कि वह ग़ैर-क़ानूनी ढंग से चोरी-छिपे फिर बुखारा में लौट आया है और अमीर का मजा़क़ उड़ाने वाले गीत लिख रहा है। यह अफ़वाह अमीर के महल तक भी पहुँच गई। सिपाहियों ने मुल्ला नसरुद्दीन को बहुत खोजा, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। अमीर ने उसके पिता, दोनों भाइयों, चाचा और दूर तक के रिश्तेदारों और दोस्तों की गिरफ्*तारी का हुक्म दे दिया। साथ ही यह भी हुक्म दे दिया कि उन लोगों को तब तक यातानाएँ दी जाएँ जब तक कि वे नसरुद्दीन का पता न बता दें। अल्लाह का शुक्र है कि उसने उन लोगों को खामोश रहने और यातनाओं को सहने की ताक़त दे दी। लेकिन उसका पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद उन यातनाओं को सहन नहीं कर पाया। वह बीमार पड़ गया और कुछ दिनों बाद मर गया। उसके रिश्तेदारों और दोस्त अमीर के गुस्से से बचने के लिए बुखारा छोड़कर भाग गए। किसी को पता नहीं कि वे कहाँ हैं?....

‘लेकिन उन पर जोर-जुल्म क्यों किए गए?’मुल्ला नसरुद्दीन ने ऊँची आवाज़ में पूछा। उसकी आँखों में आँसू बह रहे थे। लेकिन बूढ़े ने उन्हें नहीं देखा।

‘उन्हें क्यों सताया गया? मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मुल्ला नसरुद्दीन उस समय बुखारा में नहीं था।’‘यह कौन कह सकता है?’ बूढ़े ने कहा, ‘मुल्ला नसरुद्दीन की जब जहाँ मर्जी होती है, पहुँच जाता है। हमारा बेमिसाल मुल्ला नसरुद्दीन हर जगह है, और कहीं भी नहीं है।’ यह कहकर बूढ़ा खाँसते हुए आगे बढ़ गया। नसरुद्दीन ने अपने दोनों हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और गधे की ओर बढ़ने लगा। उसने अपनी बाँहें गधे की गर्दन में डाल दीं और बोला, ‘ऐ मेरे अच्छे और सच्चे दोस्त, तू देख रहा है मेरे प्यारे लोगों में से तेरे सिवा और कोई नहीं बचा। अब तू ही मेरी आवारागर्दी में मेरा एकमात्र साथी है।’गधा जैसे अपने मालिक का दुख समझ रहा था। वह बिल्कुल चुपचाप खड़ा रहा।

घंटे भर बाद मुल्ला नसरुद्दीन अपने दुख पर काबू पा चुका था। उसके आँसू सूख चुके थे।

‘कोई बात नहीं,’गधे की पीठ पर धौल लगाते हुए वह चिल्लाया,‘कोई चिंता नहीं। बुखारा के लोग मुझे अब भी याद करते हैं। किसी-न-किसी तरह हम कुछ दोस्तों को खोज ही लेंगे और अमीर के बारे में ऐसा गीत बनाएँगे-ऐसा गीत बनाएँगे कि वह गुस्से से अपने तख्त़ पर ही फट जाएगा और उसकी गंदी आँतें महल की दीवारों पर जा गिरेंगी। चल मेरे वफ़ादार गधे!आगे बढ़।
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 9
मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर

(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला अपने शहर में)

बुखारा में मुल्ला नसरुद्दीन को न तो अपने रिश्तेदार मिले और न पुराने दोस्त। उसे अपने पिता का मकान भी नहीं मिला।.....मुल्ला नसरुद्दीन कुछ देर तक नीची निगाह किए चुपचाप खड़ा रहा। पूरे बदन को कँपा देने वाली खाँसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा।...मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे रोककर कहा, ‘अस्सलाम वालेकुम बुजुर्गवार, क्या आप बता सकते हैं कि इस जमी़न पर किसका मकान था?’ ‘यहाँ जीनसाज़ शेर मुहम्मद का मकान था।’ बूढ़े ने उत्तर दिया......‘मुल्ला नसरुद्दीन के बुखारा से निकल जाने के लगभग अठारह महीने के बाद बाजा़रों में अफवाह फैली कि वह ग़ैर-क़ानूनी ढंग से चोरी-छिपे फिर बुखारा में लौट आया है और अमीर का मजा़क़ उड़ाने वाले गीत लिख रहा है।....अमीर ने उसके पिता, दोनों भाइयों, चाचा और दूर तक के रिश्तेदारों और दोस्तों की गिरफ्*तारी का हुक्म दे दिया। लेकिन उसका पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद उन यातनाओं को सहन नहीं कर पाया। वह बीमार पड़ गया और कुछ दिनों बाद मर गया।......

.....मुल्ला यह सुनकर रोता है और फिर आगे बढ़ जाता है।)

उसके आगे..

मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर

तीसरे पहर का सन्नाटा चारों और फैला हुआ था। धूल से भरी सड़क के दोनों और के मकानों की कच्ची दीवारों और बाड़ों से अलसायी-सी गर्मी उठ रही थी। पोंछने से पहले ही पसीना मुल्ला नसरुद्दीन के चेहरे पर फैल जाता था।

बुखारा की चिरपरिचित सड़कों, मस्जिदों की मीनरों और कहवाखानों को उसने बड़े प्यार से पहचाना। पिछले दस वर्षों में बुखारा में रत्ती भर भी फर्क नहीं आया था। रँगे हुए नाख़ूनवाले हाथों से बुर्क़ा उठाए एक औरत बड़े सजीले ढंग से झुककर गहरे रंग के पानी में पतली-सी सुराही डुबो रही थी।

मुल्ला के सामने सवाल यह था कि खाना कहाँ से और कैसे मिले? उसने पिछले दिन से तीसरे बार पटका अपने पेट पर कसकर, बाँध लिया था। ‘कोई-न-कोई उपाय तो करना ही पड़ेगा मेरे वफादार गधे।‘ उसने कहा, ‘हम यहीं रुककर कोई उपाय सोचते हैं। सौभाग्य से यहाँ एक कहवाखाना भी है।‘

लगाम ढीली करके उसने गधे को एक खूँटे के आसपास पड़े तिपतिया घास के टुकड़ों को चरने के लिए छोड़ दिया और अपनी खिलअत का दामन सिकोड़कर एक नहर के किनारे बैठ गया।

अपने विचारों में डूबा मुल्ला नसुरुद्दीन सोच रहा था- ‘बुखारा क्यों आया? खाना खरीदने के लिए मुझे आधे तंके का सिक्का भी कहाँ से मिलेगा? क्या मैं भूखा ही रहूँगा? उस कमबख्त़ टैक्स वसूल करने वाले अफसर ने मेरी सारी रक़म साफ़ कर दी। डाकुओं के बारे में मुझसे बात करना कितनी बड़ी गुस्ताखी थी।’
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तभी उसे वह टैक्स अफसर दिखाई दे गया, जो उसकी बर्बादी का कारण था। वह घोड़े पर सवार कहवाखाने की ओर आ रहा था। दो सिपाही उसके अरबी घोड़े की लगाम थामे आगे-आगे चल रहे थे। उसके पास कत्थई-भूरे रंग का बहुत ही खूबसूरत घोड़ा था। उसकी गहरे रंग की आँखों में बहुत ही शानदार चमक थी। गर्दन सुराहीदार थी।

सिपाहियों ने बड़े अदब से अपने मालिक को उतरने में मदद दी। वह घोड़े से उतरकर कहवाखाने में चला गया। कहवाखाने का मालिक उसे देखते ही घबरा उठा। फिर स्वागत करते हुए उसे रेशमी गद्दों की ओर ले गया।

उसके बैठ जाने के बाद मालिक ने बेहतरीन कहवे का एक बढ़िया प्याला बनाया और चीनी कारीगिरी के एक नाजुक गिलास में डालकर अपने मेहमान को दे दिया। ‘जरा देखो तो, मेरी कमाई पर इसकी कितनी शानदार खा़तिरदारी हो रही है! मुल्ला नसरुद्दीन सोच रहा था।

टैक्स अफ़सर ने डटकर कहवा पिया और वहीं गद्दों पर लुढ़क कर सो गया। उसके ख़र्राटों से कहवाख़ाना भर गया। अफसर की नींद में खलल न पड़े, इस डर से कहवाखाने में बैठ फुस-फुसाकर बातें करने लगे। दोनों सिपाही उसके दोनों और बैठ गए और पत्तियों के चौरों में मक्खियाँ उड़ाने लगे।

कुछ देर बाद, जब उन्हें विश्वास हो गया कि उनका मालिक गहरी नींद में सो गया है तो उन्होंने आँखों से इशारा किया। उठकर घोड़े की लगाम खोल दी और उसके सामने घास का एक गट्ठर डाल दिया। वे नारियल का हुक्का लेकर कहवाख़ाने के अँधेरे हिस्से की ओर चले गए। थोड़ी देर बाद मुल्ला नसरुद्दीन की नाक के नथुनों से गाँजे की मीठी-मीठी गंध टकराई। सिपाही गाँजा पीकर मदहोश हो चुके थे।
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 10
(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर)

अपने विचारों में डूबा मुल्ला नसुरुद्दीन सोच रहा था- ‘बुखारा क्यों आया? खाना खरीदने के लिए मुझे आधे तंके का सिक्का भी कहाँ से मिलेगा? उस कमबख्त़ टैक्स वसूल करने वाले अफसर ने मेरी सारी रक़म साफ़ कर दी। डाकुओं के बारे में मुझसे बात करना कितनी बड़ी गुस्ताखी थी।’
तभी उसे वह टैक्स अफसर दिखाई दे गया, जो उसकी बर्बादी का कारण था। वह घोड़े पर सवार कहवाखाने की ओर आ रहा था। दो सिपाही उसके अरबी घोड़े की लगाम थामे आगे-आगे चल रहे थे। उसके पास कत्थई-भूरे रंग का बहुत ही खूबसूरत घोड़ा था। उसकी गहरे रंग की आँखों में बहुत ही शानदार चमक थी।.....मुल्ला उसे देखकर फिर अपनी भूख मिटाने की सोचता है)

उसके आगे

मुल्ला ने बेचा टैक्स अफसर का घोड़ा

…..सुबह शहर के फाटक की घटनाओं की याद आते ही वह भयभीत होकर सोचने लगा कि कहीं ये सिपाही उसे पहचान न लें। उसने वहाँ से जाने का इरादा किया, लेकिन भूख से उसका बुरा हाल था। वह मन-ही-मन कहने लगा, ऐ तकदीर लिखने वाले मुल्ला नसुरुद्दीन की मदद करे। किसी तरह आधा तंका दिलवा दे, ताकि वह अपने पेट की आग बुझा सके।

तभी किसी ने उसे पुकारा, ‘अरे तुम हाँ, हाँ तुम ही जो वहाँ बैठे हो।’

मुल्ला नसरुद्दीन ने पलटकर देखा। सड़क पर एक सजी हुई गाड़ी खड़ी थी। बड़ा-सा साफ़ा बाँधे और क़ीमतों खिलअत पहने एक आदमी गाड़ी के पर्दों से बाहर झाँक रहा था।

इससे पहले कि वह अजनबी कुछ कहता, मुल्ला नसरुद्दीन समझ गया कि खुदा ने उसकी दुआ सुन ली है और हमेशा की तरह उसे मुसीबत में देखकर उस पर करम की नजर की है।

अजनबी ने खूबसूरत अरबी घोड़े को देखते हुए उसकी प्रशंसा करते हुए अकड़कर कहा, ‘मुझे यह घोड़ा पसंद है। बोल, क्या यह घोड़ा बिकाऊ है?’मुल्ला नसरुद्दीन ने बात बनाते हुए कहा, ‘दुनिया में कोई भी ऐसा घोड़ा नहीं, जिसे बेचा न जा सके।’

मुल्ला नसररुद्दीन तुरंत भाँप गया था कि यह रईस क्या कहना चाहता है। वह इससे आगे की बात भी समझ चुका था। अब वह खुदा से यही दुआ कर रहा था कि कोई बेवकूफ़ मक्खी टैक्स अफसर की गर्दन या नाक पर कूदकर उसे जगा न दे। सिपाहियों की उसे अधिक चिंता नहीं थी। कहवाख़ाने के अँधेरे हिस्से से आने वाले गहरे अँधेरे से स्पष्ट था कि वे दोनों नशे में धुत पड़े होंगे।

अजनबी रईस ने बुजुर्गों जैसे गंभीर लहजे में कहा, ‘तुम्हें यह पता होना चाहिए कि इस फटी खिलअत को पहनकर ऐसे शानदार घोड़े पर सवार होना तुम्हें शोभा नहीं देता। यह बात तुम्हारे लिए खतरनाक भी साबित हो सकती है, क्योंकि हर कोई यह सोचेगा कि इस भिखमंगे को इतना शानदार घोड़ा कहाँ से मिला? यह भी हो सकता है कि तुम्हें जेल में डाल दिया जाए’।
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