14-12-2010, 09:38 AM | #16 |
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Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
मुल्ला नसरुद्दीन-15
(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला ने खेला जुआं) … मुल्ला नसरुद्दीन ने अपना बटुआ निकाला। जरूरत के लिए पच्चीस तंके छोड़कर बाक़ी निकाल लिए। ताँबे के थाल में चाँदी के सिक्के खनखनाकर गिरे और चमकने लगे। ऊँचे दाँवों का खेल शुरू हो गया। .....उसके आगे ) मुल्ला नसरुद्दीन के ख्याली पुलाव अक्लमंदी से भरे इस उसूल को याद करके कि उन लोगों से दूर रहना चाहिए, जो यह जानते हैं कि तुम्हारा रुपया कहाँ रखा है, मुल्ला नसरुद्दीन उस कहवाख़ाने पर नहीं रुका और फौरन बाजार की ओर बढ़ गया। बीच-बीच में वह मुड़कर यह देखता जाता था कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा है, क्योंकि जुआरियों और कहवाख़ाने के मालिक के चेहरों पर उन्हें सज्जनता दिखाई नहीं दी थी। अब वह तीन-तीन कारख़ाने ख़रीद सकता था। उसने यही निश्चय कर लिया। मैं चार दुकानें ख़रीदूँगा। एक कुम्हारा की, एक जीनसाज़, की, एक दर्जी को और एक मोची की। हर दुकान में दो-दो कारीगर रखूँगा। मेरा काम केवल रुपया वसूल करना होगा। दो साल में मैं रईस बन जाऊँगा। ऐसा मकान ख़रीदूँगा, जिसके बाग़ में फव्वारे होंगे। हर जगह सोने के पिंजरे लटकाऊँगा। उनमें गाने वाली चिड़ियाँ रहा करेंगी और दो-शायद तीन बीवियाँ भी रखूँगा। मेरी हर बीवी के तीन-तीन बेटे होंगे। ऐसे ही सुनहरे विचारों की नदी में डूबता-उतराता वह गधे पर बैठा चला जा रहा था। अचानक गधे ने लगाम ढोली पाकर मालिक के विचारों में खोये रहने का लाभ उठाया। जैसे ही वह छोटे से पुल के पास पहुँचा, अन्य गधों की तरह सीधे पुल पर चलने की अपेक्षा उसने एक ओर को थोड़ा-सा दौड़कर खाई में पार छलाँग लगा दी। और जब मेरे बेटे बड़े हो जाएँगे तो मैं उन्हें एक साथ बुलाकर उनसे कहूँगा-मुल्ला नसरुद्दीन के विचार दौड़ रहे थे कि अचानक वह सोचने लगा- मैं हवा में क्यों उड़ रहा हूँ। क्या अल्लाह ने मुझ फ़रिश्ता बनाकर मेरे पंख लगा दिए हैं? दूसरे ही पल उसे इतने तारे दिखाई दिए कि वह समझ गया कि उसके एक भी पंख नहीं है। गुलेल के ढेले की तरह वह जी़न से लगभग दस हाथ उछला और सड़क पर जा गिरा। जब वह कराहते हुए उठा तो दोस्ताना ढंग से कान खड़े किए उसका गधा उसके पास आ खड़ा हुआ। उसके चेहरे पर भोलापन था। लगता था जैसे वह फिर से जी़न पर बैठने की दावत दे रहा हो। क्रोध से काँपती आवाज़ में मुल्ला नसरुद्दीन चिल्लाया, ‘अरे तू, तुझे मेरे ही नहीं, मेरे बाप-दादा के भी गुनाहों की सजा के बदले भेजा गया है। इस्लामी इन्साफ़ के अनुसार किसी भी इन्सान को केवल अपने गुनाहों के लिए इतनी सख्त़ सज़ा नहीं मिल सकती। अबे झींगुर और लकड़बग्घे की औलाद।’ लेकिन एक अधटूटी दीवार के साये में कुछ दूर बैठे लोगों की भीड़ को देखकर वह एकदम चुप हो गया। गालियाँ उसके होंठों में ही रह गईं। उसे ख़याल आया कि जो आदमी ऐसे मजा़किया और बेइज्ज़ती की हालत में जमीन पर जा पड़ा हो और लोग उसे देख रहे हों, उसे खुद हँसना चाहिए। वह उन आदमियों की ओर आँख मारकर अपने सफ़ेद दाँत दिखाते हुए हँसने लगा- ‘वाह, मैंने कितनी बढ़िया उड़ान भरी!’ उसने हँसी की आवाज़ में जोर से कहा, ‘बताओ न, मैंने कितनी कलाबाज़ियाँ खाई?’ मुझे खुद तक को गिनने का वक्त़ मिला नहीं। अरे शैतान-! हँसते हुए उसने गधे को थपथपाया। हालांकि जी चाह रहा था कि उसकी डटकर मरम्मत करे। लेकिन हँसते हुए कहने लगा, ‘यह जानवर ही ऐसा है, इसे ऐसी ही शरारतें सूझती रहती हैं। मेरी नज़रें दूसरी और घूमी नहीं कि इसे कोई-न-कोई शरारत सूझी।’ |
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