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Old 22-08-2013, 02:42 PM   #1
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Default हमारे तीर्थस्थान

हमारे तीर्थस्थान
बदरीनाथ


बदरीनाथ
आलेख: श्री विष्णु प्रभाकर

गांव की चौपाल पर सब लोग बैठ गये तो रामनाथ ने बदरीनाथ की तीरथ-यात्रा की कहानी शुरू की:

वहां जाने के लिए तीन ओर से रास्ता है। रानीखेत से, कोटद्वार होकर पौड़ी (गढ़वाल) से ओर हरिद्वार होकर देवप्रयाग से। ये तीनों रास्ते रूद्वप्रयाग में मिल जाते है। रूद्रप्रयाग में मन्दाकिनी और अलकनन्दा का संगम है। जहां दो नदियां मिलती है, उस जगह को प्रयाग कहते है। बदरी-केदार की राह में कई प्रयाग आते है। रूद्रप्रयाग से जो लोग केदारनाथ जाना चाहतें है, वे उधर चले जाते है।

कभी हरिद्वार से इस यात्रा में महीनों लग जाते थे, लेकिन अब तो सड़क बन जाने के कारण यात्री मोटर-लारियों से ठेठ बदरीनाथ पहुंच जाते है। हफ्ते-भर से कम में ही यात्रा हो जाती है। पर हम लोग जब गये थे तब बात और ही थी। रास्ते में हमें भेंड़-बकरियों पर नमक लादे भोठ लोग मिले। ये तिब्बत और भारत के बीच तिजारत करते है।

रूद्रप्रयाग से नौ मील पर पीपल कोठी आती। पीपल कोटी में जानवरों की खालें, दवाइयां और कस्तूरी अच्छी मिलती है। बस की सड़क बनने से पहले रास्तें में चट्टियां थीं।

"
चट्टियां! ये क्या होती थी?" चौधरी ने पूछा।

रास्तें में ठहरने के लिए जो पड़ाव बने थे, उन्हीं को चट्टी कहते थे। कहीं कच्चे मकान, कहीं पक्के। सब चट्टियों पर खाने-पीने का सामान मिलता था। बरतन भी मिल जाते थे। दूध, दही, मावा, पेड़े सब-कुछ मिलता था, जूते-कपड़े तक। जगह-जगह काली कमली वाले बाबा ने धर्मशालाएं बनवा दी थी। दवाइयां भी मिलती थीं। डाकखाने भी थे।


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Old 22-08-2013, 02:47 PM   #2
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Default Re: हमारे तीर्थस्थान

बदरीनाथ





आगे रास्तें में गरूड़-गंगा आकर अलकनन्दा में मिलती है। यहां गरूडजी का मन्दिर है। कहते है, लौटती बार तो गरूड़-गंगा में नहाकर पत्थर का एक टुकड़ा पूजा करने के लिए घर ले जाता है, उसे सांपों का डर नहीं रहता। यहां से पाताल गंगा की चढ़ाई शुरू होती है। सारे रास्ते में चीड़ और देवदार के पेड़ है। उन्हें देखकर मन खिल उठता है। पातालगंगा सचमुच पाताल में है। नीचे देखों तो डर लगता है। पानी मटमैला। कम है, पर बहाव बड़ा तेज है। किनारे का पहाड़ हमेशा टूटता रहता है। दो मील तक ऐसा ही रास्ता चला गया है। पातालगंगा पर नीचे उतरे, फिर ऊपर चढ़े। गुलाबकोटी पहुंचे। कहते है, सतयुग में यहीं पर पार्वती ने तप किया था। वे शिवजी से विवाह करना चाहती थीं। इसके लिए सालों पत्ते खाके रहीं। इसीसे आज इस वन का नाम 'पैखण्ड' यानी 'पर्ण खण्ड़ है। वहां जाने वाले सब लोग उस पुरानी कहानी को याद करते है और फिर 'जोषीमठ' पहुंच जाते है। जोषीमठ एक विशेष नगर है। सारे गढ़वाल में शायद यहीं पर फल होते है। फूलों को तो पूछों मत। जोषीमठ का नाम स्वामी शंकराचार्य के साथ ही जुड़ा हुआ है। यह शंकराचार्य दो हजार साल पहले हुए है। जब हिन्दू धर्म मिट रहा था तब ये हुए। कुल बत्तीस साल जीवित रहें। इस छोटी सी उमर में वे इतने काम कर गये कि अचरज होता है। बड़े-बड़े पोथे लिखे। सारे देश में धर्म का प्रचार किया। फिर देश के चारों कोनो पर चार मठ बनाये। पूरब में पुरी, पश्चिम में द्वारिका, दक्खिन में श्रृंगेरी और उत्तर में जोशीमठ। इन चारों मठों के गुरू शंकराचार्य कहलाते है। यही शंकराचार्य थे, जिन्होनें बदरीनाथ का मन्दिर फिर से बनवाया था।
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Old 22-08-2013, 02:51 PM   #3
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बदरीनाथ


सर्दी के दिनों में जब बदरीनाथ बरफ से ढक जाता है तो वहां के रावल मूर्ति यहीं आकर रहते है। बदरीनाथ के मन्दिर में जो मालाएं काम आती है, वे यहीं से जाती है। यहां के मन्दिर में पैसा नहीं चढ़ाया जाता। किसी बुरी बात को छोड़ने की कसम खाई जाती है। यहां पर कीमू (शहतूत) का एक पेड़ है। कहते है, इसके नीचे बैठकर स्वामीजी ने पुस्तकें लिखी थीं। नीचे नगर में कई मन्दिर है। उनमें से एक में नृसिंह भगवान की मूर्ति है। काले पत्थर की उस सुन्दर मूर्ति का बांया हाथ बड़ा पतला है। पूछने पर पता लगा कि वह हाथ बराबर पतला होता जा रहा है। जब वह गिर जायगा तब यहां से कोई आगे न बढ़ सकेगा। सब रास्ते टूट जायंगें।

यहां से आगें बढ़े तो जैसे पाताल में उतरते चले गये। दो मील की खड़ी उतराई है। पर बीच-बीच में मिलने वाले सुन्दर झरने सब थकान दूर कर देते है। नीचे विष्णु प्रयाग है, जहां विष्णु गंगा और धौली गंगा का मिलन होता है।

इन नदियों का पुल लोहे का बना हुआ है। इस तरह रास्ते की शोभा देखते-देखते पाण्डुकेश्वर पहुंच गये।

पाण्डुकेश्वर के पास फूलों की घाटी है, जिसे देखने दुनिया भर के लोग आते है। यहीं पर लोकपाल है, जहां सिक्खों के गुरू गोविंदसिंह ने अपने पिछले जन्म में तप किया था। कहते है, पाण्डुकेश्वर को पाण्डवों के पिता पाण्डु ने बसाया था। पांडव यहीं पैदा हुए थे। स्वर्ग भी यहीं होकर गये थे। वह वे यहां कई बार आये थे। शिवजी महाराज से धनुष लेने अर्जुन यहीं से गये थे। भीम कमल लेने यही के वनों में आये थे। नदी के बांय किनारे के पहाड़ को 'पाण्डु चौकी कहते है। इसकी चोटी पर चौपड़ बनी हुई है। यहां बैठकर उन लोगों ने आखिरी बार चौपड़ खेली थीं कहते है, यहां का 'योगबदरी का मन्दिर' उन लोगों ने ही बनवाया था। आगे का पहाड़ कहीं काला, कहीं नीला, कहीं कच्चा है। बीच में कहीं निरी मिट्टी, कहीं जमा हुआ बरफ। यहां भोल-पत्र बहुत है। जब कागज नहीं थे तब भोज-पत्र पर किताबें लिखी जाती थीं। यहां गंगा कई बार पार करनी पड़ती है।"

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Old 22-08-2013, 02:53 PM   #4
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Default Re: हमारे तीर्थस्थान

रास्तें बहुत से मन्दिर और तीर्थ है। यहां हनुमान चट्टी में हनुमान मन्दिर है। यहां पांडवो को हनुमान मिले थे। चढ़ते-चढ़ते कंचनगंगा को पार करके 'कुवेर शिला' आई। आंख उठाकर जो देखा, सामने विशालपुरी थी, जिसके लिए धर्मशास्त्र में लिखा है कि तीनों लोंको में बहुत से तीर्थ है, पर बदरी के समान न था, न होगा।

विशालपुरी अलकनन्दा के दाहिने किनारे पर बसी हुई है। छोटा-सा बाजार है। धर्मधालाएं है। घर है। थाना-डाकघर सबकुछ है। नारायण पर्वत के चरणो में बदरीनाथ का मन्दिर है, जिसके सुनहरे कलश पर सूरज की किरणें पड़ रही थीं। बरफ से ढके हुए आकाश को छूने वाले पहाड़ों के बीच वह छोटी नगरी बड़ी अच्छी लगती थी।

"
क्योंजी, बदरीनाथ कितना ऊंचा होगा?" किसी ने पूछा।

१०४८० फुट, यानी कोई दो मील। एक समय था जब पथ और भी बीहड़ थे। तुमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश का नाम बदरी विशाल के मन्दिर का कलश तो सुना होगा।

गोपाल पंड़ित एकदम बोले, क्या बात करते हो, रामनाथ! भारत में रहनेवाले ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नहीं जानेगा! ब्रह्मा ठहरे दुनिया को बनाने वाले, विष्णु उसे पालते है और जब दुनिया का काम पूरा हो जाता है तो महेश उसे निपटा देते है।"

ठीक कहा, 'पंड़ितजी! ब्रह्माजी के बेटे थे। उनमें से एक का नाम था दक्ष। दक्ष की सोलह बेटियां थी। उनमें से तेरह का विवाह धर्मराज से हुआ था। उनमें एक का नाम था श्रीमूर्ति। उनके दो बेटे थे, नर और नारायण। दोनों बहुत ही भले, एक-दूसरे से कभी अलग नहीं होते थे। नर छोटे थे। वे एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। अपनी मां को भी बहुत प्यार करते थे। एक बार दोनों ने अपनी मां की बड़ी सेवा की। मॉँ खुशी से फूल उठी। बोली, "मेरे प्यारे बेटा, मैं तुमसे बहुत खुश हूं। बोलो, क्या चाहते हो? जो मांगोगे वही दूंगी।"

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Old 22-08-2013, 02:55 PM   #5
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Default Re: हमारे तीर्थस्थान

दोनों ने कहा, "मां, हम वन में जाकर तप करना चाहतें है। आप अगर सचमुच कुछ देना चाहती हो, तो यह वर दो कि हम सदा तप करते रहे।"

बेटों की बात सुनकर मां को बहुत दुख हुआ। अब उसके बेटे उससे बिछुड़ जायंगें। पर वे वचन दे चुकी थीं। उनको रोक नहीं सकती थीं। इसलिए वर देना पड़ा। वर पाकर दोनों भाई तप करने चले गये। वे सारे देश के वनों में घूमने लगे। घूमते-घूमते हिमालय पहाड़ के वनों में पहुंचे।

इसी वन में अलकनन्दा के दोनों किनारों पर दों पहाड़ हैं। दाहिनी ओर वालेपहाड़ पर नारायण तप करने लगे। बाई और वाले पर नर। आज भी इन दोनों पहाड़ों के यही नाम है। यहां बैठकर दोनों ने भारी तप किया, इतना कि देवलोक का राजा डर गया। उसने उनके तप को भंग करने की बड़ी कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। तब उसे याद आया कि नर-नारायण साधारण मुनि नहीं है, भगवान का अवतार है। कहते है, कलियुग के आने तक वे वहीं तप करते रहें। आखिर कलियुग के आने का समय हुआ। तब वे अर्जुन और कृष्ण का अवतार लेने के लिए बदरी-वन से चले। उस समय भगवान ने दूसरे मुनियों से कहा, "मैं अब इस रूप में यहां नहीं रहूंगा। नारद शिला के नीचे मेरी एक मूर्ति है, उसे निकाल लो और यहां एक मन्दिर बनाओं आज से उसी की पूजा करना।

गोपाल पंड़ित बोले, "तो यह है बदरीनाथ के मन्दिर की कहानी।"


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Old 22-08-2013, 03:05 PM   #6
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Default Re: हमारे तीर्थस्थान

"जी हां, यह कहानी पुराणों में आती है। यह कथा सच हो या झूठ, इससे एक बात साफ हो जाती है, यानी यह मन्दिर बहुत पुराना है। लिखा हैं मुनियों ने मूर्ति को निकाला। वह सांवली है। उसमें भगवान बदरीनारायण पद्मासन लगाये तप कर रहे है। आज भी मन्दिर में यही मूर्ति है। इसको रेशमी कपड़े और हीरे-जड़े गहने पहनाये जाते है। मन्दिर बहुत सुन्दर है। पैड़ियां चढ़कर जो दरवाजा आता है, उसमें बहुत बढ़ियरा जालियां बनी है। ऊपर तीन सुनहरे कलश है। अन्दर चारो ओर गरुड़, हनुमान, लक्ष्मी और घण्टाकर्ण आदि की मूर्तिया है। फिर भीतर का दरवाजा है। अन्दर मूर्ति वाले कमरे का दरवाजा चांदी का बना है। उनके पास गणेश, कुबेर, लक्ष्मी, नर-नारायण उद्वव, नारद और गरूड की मूर्तिया है। यहां बराबर मंत्रों का पाठ, घंटों का शोर और भजनों की आवाज गूंजती रहती है। अखंड़ ज्योति भी जलती रहती है और चढावा! चढ़ावे की बात मत पूछो। अटका आदि बहुत से चढ़ावे है। वैसे अब सब सरकार के हाथ में है। यहां के सभी पुजारी, जो 'रावल' कहलाते है, दक्षिण के है। इससे पता लगता है कि भारत के रहनेवाले सब एक है। वहां सात कुण्ड है। पांच शिलाएं है। ब्रह्म कपाली है। अनेक धाराएं है। बहुत सी गंगाएं है। जो मुनि, ऋषि या अवतार यहां रहते थे या आये थे, उनकी याद में यहां कुछ-न-कुछ बना है। जैसे नर-नारायण यहां से न लौटे तो उनके माता-पिता भी यहीं आ बसे।

नारद ने भगवान की बहुत सेवा की थी। उनके नाम पर शिला और कुण्ड़ दोनों है। प्रह्राद की कहानी तो आप लोग ही है। उनके पिता को मारकर जब नृसिंह भगवान क्रोध से भरे फिर रहे थे तब यहीं आकर उनका आवेश शान्त हुआ था। नृसिंह-शिला भी वहां मौजूद है। ब्रह्म-कपाली पर पिण्डदान किया जाता है। दो मील आगे भारत का आखिरी गांव माना जाता है। ढाई मील पर माता मूर्ति की मढ़ी है। पांच मील पर वसुधारा है। वसुधारा दो सौ फुट से गिरने वाला झरना है। आगे शतपथ, स्वर्ग-द्वार और अलकापुरी है। फिर तिब्बत का देश है। उस वन में तीर्थ-ही-तीर्थ है। सारी भूमि तपोभूमि है। वहां पर गरम पानी का भी एक झरना है। इतना गरम पानी हैकि एकाएक पैर दो तो जल जाय। ठीक अलकनन्दा के किनारे है। अलकनन्दा में हाथ दो तो गल जाय, झरने में दो तो जल जाय।

उस पुरी में हम तीन दिन ठहरें। फिर आराम से पौड़ी, पौड़ी से कोट-द्वार आ गये। कोटद्वार से रेल मिली और दिल्ली पहुंच गए।


(इति)
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Old 22-08-2013, 03:26 PM   #7
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जगन्नाथ पुरी


जगन्नाथ पुरी
आलेख: श्री यशपाल जैन

बाबा के साथ सुबोध हावड़ा स्टेशन से जगन्नाथपुरी के लिए रवाना हुआ। वहां से पुरी को सीधी रेल जाती है। गाड़ी में बड़ी भीड़ थी। बाबा ने देखा कि जानेवालों में देश के सभी भागों के लोग है तो उन्हें बड़ा अचरज हुआ। उन्होने सुबोध से कहा, 'बेटा, सबके अलग-अलग धरम होते है, अलग-अलग देवी-देवता होते है, फिर यह क्या बात है कि इतने धर्मो के लोग एक ही तीरथ करने जा रहे है?"

सुबोध ने कहा, "बाबा, हमारे तीरथों की यही तो महिमा है। वे दूरी नहीं जानते, न धरमों का फरक मानते है। फिर पुरी तो हमारे चार धामों में से एक है। पुराने लोग बड़े होशियार थे। वे चाहते थे कि हमारे देश का हर आदमी अपने देश को देखें, देश के लोगों को देखें, उन्हें जाने और प्यार करें। सो उन्होनें तीरथ बनायें। वे जानते थे कि हमारे देश में धरमवाले लोग है। तीरथ के नाम पर कहीं से कहीं पहुंच जायंगें। लोग सारे देश में घूम ले, इसलिए उन्होंने चार छोरों पर बड़े तीरथ बनाये। उत्तर में बदरीनाथ (ज्योतिपीठ) दक्षिण में रामेश्वर (श्रृंगेरी पीठ) पश्चिम में द्वारका और पूरब में जगन्नाथ पुरी (गोवर्धन पीठ)"


बातचीत करते रात हो गई तो लोग ऊंघने लगे और इधर-उधर सिर टिकाकर सो गये। घने अंधेरे को चीरती, शोर मचाती, रेल आगे बढ़ती रही।

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जगन्नाथ पुरी



बड़े तड़के लोगों की आंख खुली तो देखते क्या है कि रेल किसी लम्बे पुल पर से गुजर रही है। सुबोध ने कहा, "उड़ीसा की सबसे बड़ी नदी महानदी का पुल हम पार कर रहे है।" नदी का पाट काफी चौड़ा था और उसकी धारा बड़ी तेज थी।

आगे गाडी किसी बड़े स्टेशन पर रूकी तो सुबोध ने कहा, "यह कटक है। पहले उड़ीसा की राजधानी यही थी। अब भुवनेश्वर है।"

बाबा बोले, "भुवनेश्वर भी तो बड़ा तीरथ है?"

सुबोध ने कहा, "हां, बाबा, वहां तो मंदिरों की भरमार है। इसीसे लोग उसे 'मंदिरों की नगरी' कहते है। वहां का सबसे बड़ा मंदिर लिंगराज का है।"


किसी ने पूछा, "अब पुरी कितनी दूर रह गई है।"

सूबोध ने कहा, " यहां से खुरदा रोड़ स्टेशन है 29 मील। वहां से पुरी 28 मील रह जाती है। कोई 57 मील समझों। यहां से पुरी की बसें भी जाती है। हमारे पास रेल का टिकट न होता तो बस से चलते। सड़क के रास्ते पुरी कुल 53 मील है।"

दोपहर की गाड़ी पुरी स्टेशन पर पहुंची। स्टेशन से शहर मील-भर है। सुबोध और बाबा ने एक तांगा किया और उसमें बैठकर बस्ती में गये। उन्होंनें पता लगा लिया था कि बस्ती में दूधवालों की धरमशाला खुली और साफ-सुथरी है। सीधे वहीं गयें। भीड़ काफी थी, फिर भी उन्हें एक कमरा मिल गया।

कमरे में सामान जमाकर बाबा और पोते समुद्र में स्नान करने चले। बाजार में घूमते, बड़े मन्दिरो को दूर से देखते, मील भर का रास्ता तय करके वे समुद्र पर पहुंचे। किसी ने बताया, इस स्थान को 'स्वर्गद्वार' कहते हैं।
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Old 22-08-2013, 03:34 PM   #9
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जगन्नाथ पुरी



बालू का किनारा दूर-दूर तक फैला था और किनारे-किनारे छोटी-बडी बहुत सी इमारतें बनी थीं। वहींके एक आदमी ने कहा, "यह नगर दो भागों में बंटा हुआ है। एक तो शहर की बस्ती है, जिसके उत्तर में माटिया नदी बहती है, पश्चिम में परगना चौबीस कूद है, पूरब में परगना है और दक्खिन मे यह समुद्र है। दूसरा भाग जिस पर हम खड़े है, बालूखण्ड़ कहलाता है। यह पूरब में चक्रतीरथ से शुरू होकर पश्चिम में यहां स्वर्गद्वार तक फैला हुआ है। यहां की अच्छी आबोहवा के कारण बहुत-से लोगों ने समुद्र के किनारे-किनारे अपने मकान बनवा लिए है। राजभवन भी इसी भाग में बना हुआ है।"

दोनों ने स्नान किया। फिर धरमशाला में लौटने पर वे अपने भीगे कपड़े सूखने डाल रहे थे कि एक पंडा आकर उनके पीछे पड गया। बोला, "मैं आपको यहां के सब मन्दिर दिखा दूंगा और पूजा करा दूंगा।"

थोड़ी देर बाद वे लोग सबसे जगन्नाथजी का मन्दिर देखने चले। पंडे ने कहा, "बाबाली, जिनके मन्दिर में हम जा रहे है। इनकी कहानी आपने सुनी है? किसी जमाने में यहां पुरी में जंगल ही जंगल था। बीच में नीलाचल नाम का एक पहाड़ था। उसके ऊवपर कल्पद्रुम था। उसके पश्चिम में रोहिणी कुंड था, जिसके किनारे विष्णु की मूरत थी। वह नीले रंग की थी। इससे उसे नील-माधव कहते थे। एक बार सूर्यवंशी राजा इंद्रद्युम्न को उस मूरत की खबर मिली। यह राजा मालव प्रदेश के अवंती नामक नगर में राज्य करते थे। राजा ने उस मूरत की खोज में चारों और ब्रह्मण भेजे; लेकिन दैवयोग से किसी को भी उसका पता न लगा। उनमें एक ब्रह्मण था विद्यापति। वह पूरब को गया और तीन महीने तक बराबर चलता रहा। चलते-चलते वह शबरो के देश में पहुचा। शबर वहां के मूल निवासी थे। भील समझो। वहां वह विश्व बसु नाम के एक भील के घर में ठहरा।"

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जगन्नाथ पुरी



"वह भील रोज जंगल में जाया करता था और कुछ फूल और फल इकट्ठे करके चुपचाप कहीं चढ़ा आता था। एक दिन की बात कि उसकी लड़की ने कहा, अपने मेहमान को भी साथ ले आओ। विश्व बासु ने इनकार कर दिया, लेकिन जब लड़की बहुत पीधे पड़ी तो वह इस शर्त पर राजी हो गया कि ब्रह्मण की आंखों पर पट्टी बांधकर ले जायगा, जिससे वह वहां पहुंचकर भगवान के दर्शन तो कर ले, लेकिन उसे यह पता न लगे कि किस रास्ते आया है।

"
पर ब्राह्मण बड़ा चतुर था। उसने एक थैली में अपने साथ सरसों ले ली और रास्ते का निशान करने के लिए उसे बिखेरता गया। नीलाचल पर पहुंचकर भील तो फल-फूल इकट्ठे करने चला गया, ब्राह्मण ने नील-माधव के दर्शन किये। उसी समय उसने देखा कि एक कौवा पेड़ पर से गिरा और सीधा स्वर्ग को चला गया ब्राह्मण के मन में आया कि वह ऐसी ही गति प्राप्त करे। यह सोचे जैसे ही उसने पेड़ पर चढ़ने की कोशिश की कि आकाशवाणी हुई, ओ ब्राह्मण तू यह क्या कर रहा है? अपने काम को भूल गया! जा, पहले अपने राजा को खबर दे कि तूने मूरती का पता लगा लिया है।

"
इसी बीच भील फल-फूल देकर लौट आया। पर जब उसने उन्हें चढ़ाया तो रोज की भॉँति भगवान ने उन्हें ग्रहण नहीं किया। भील बड़ी हैरानी में पड़ा। वह क्या करे! उसी समय उसने एक आवाज सुनी, मैं तुम्हारे फल फूल खाते-खाते तंग आ गया हूं। मुझे पके हुए चावल और मिठाई खिलाओं। आगे से अब मैं तुम्हें नील-माधव के रूप में नहीं, बल्कि जगन्नाथ के रूप में दिखाई दूंगा।

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