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Old 10-12-2010, 08:13 AM   #31
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Default Re: तेनाली राम की कहानियॉ

फिर उसने अपने दोनों हाथों की तर्जनी उँगलियों से एक गॉठ बनाई। तत्पश्चात एक मुट्ठी मिट्टी उठाकर अपने मुँह में डालने का अभिनय किया।

इसके पश्चात उसने उत्तर भारत के योद्धा से इन हाव-भावों को पहचानने के लिए कहा। परन्तु वह योद्धा कुछ समझ नहीं पाया, इसलिए उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। वह विजयनगर से चला गया और जाते-जाते अपने सभी पदक व पुरस्कार तेनाली राम को दे गया।

विजयनगर के राजा व प्रजा परिस्थिति के बदलते ही अचम्भित से हो गए। सभी योद्धा बिना युध्द किए ही जीतने से प्रसन्न थे। राजा ने तेनाली राम को बुलाकर पूछा, “तेनाली, उन हाव-भावों से तुमने क्या चमत्कार किया?”

तेनाली राम बोला, “महाराज, इसमें कोई चमत्कार नहीं था। यह मेरी योद्धा को मूर्ख बनाने की योजना थी। मेरे हाव-भावों के अनुसार वह योद्धा उसी प्रकार शक्तिशाली था, जिस प्रकार किसी का दायॉ हाथ शक्तिशाली होता है और मैं उसके सामने बाएँ हाथ की तरह निर्बल था। यदि दाएँ हाथ के समान शक्तिशाली योद्धा बाएँ हाथ के समान निर्बल योद्धा को युद्ध के लिए ललकारेगा, तो निर्बल योद्धा तो बादाम की तरह कुचल दिया जाएगा। सो यदि मैं युद्ध हारता, तो दक्षिण दिशा में बैठी मेरी पत्नी को अपमान रुपी धूल खानी पडती। मेरे हाव-भावों का केवल यही अर्थ था, जिसे वह समझ नहीं पाया।”

तेनाली का यह जवाब सुनकर राजा व सभी एकत्रित लोग ठहाका लगाकर हँस पडे।

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Old 10-12-2010, 08:14 AM   #32
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Default Re: तेनाली राम की कहानियॉ

तेनाली का पुत्र

राजा कॄष्णदेव राय के महल में एक विशाल उधान था। वहॉ विभिन्न प्रकार के सुन्दर-सुन्दर फूल लगे थे। एक बार एक विदेशी ने उन्हें एक पौधा उपहार में दिया, जिस पर गुलाब उगते थे। बगीचे के सभी पौधों में राजा को वह पौधा अत्यन्त प्रिय था। एक दिन राजा ने देखा कि पौधे पर गुलाब की संख्या कम हो रही है। उन्हें लगा कि हो न हो, अवश्य ही कोई गुलाबों की चोरी कर रहा है। उन्होंने पहरेदारों को सतर्क रहने तथा गुलाबों के चोर को पकडने का आदेश दिया।

अगले दिन पहरेदारों ने चोर को रंगे हाथ पकड लिया। वह और कोई नहीं, तेनाली का पुत्र था। उस समय के नियमानुसार किसी भी चोर को जब पकडा जाता था तो उसे विजयनगर की सडकों पर घुमाया जाता था। अन्य लोगों की तरह तेनाली राम ने भी सुना कि उसके पुत्र को गुलाब चुराते हुए पकडा गया है। जब तेनाली राम का पुत्र सिपाहियों के साथ घर के पास से गुजर रहा था, तो उसकी पत्नी तेनाली से बोली, “अपने पुत्र की रक्षा के लिए आप कुछ क्यों नहीं करते?”

इस पर तेनाली राम अपने पुत्र को सुनाते हुए जोर से बोला, “मैं क्या कर सकता हूँ? हॉ यदि वह अपनी तीखी जुबान का प्रयोग करे, तो हो सकता है कि स्वयं को बचा सके।”

तेनाली राम के पुत्र ने जब यह सुना तो वह कुछ समझ नहीं पाया। वह सोचने लगा कि पिताजी की इस बात का आखिर क्या अर्थ हो सकता है? पिताजी ने जरुर उसे ही सुनाने के लिए यह बात इतनी जोर से बोला है। मगर तीखी जुबान के प्रयोग करने का क्या मतलब हो सकता है? यदि वह इसका अर्थ समझ जाए तो वह बच सकता है।
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Old 10-12-2010, 08:16 AM   #33
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Default Re: तेनाली राम की कहानियॉ

कुछ क्षण पश्चात उसे समझ में आ गया कि पिता के कहने का क्या अर्थ है? अपनी तीखी जुबान को प्रयोग करने का अर्थ था कि वह मीठे गुलाबों को किसी को दिखने से पहले ही खा ले। अब क्या था, वह धीरे-धीरे गुलाब के फूलों को खाने लगा। इस प्रकार महल में पहुँचने से पहले ही वह सारे गुलाब खा गया और सिपाहियों ने उस पर कोई ध्यान भी नहीं दिया।

दरबार में पहुंचकर सिपाहियों ने तेनाली राम के पुत्र को राजा के सामने प्रस्तुत किया और कहा, महाराज ! इस लडके को हमने गुलाब चुराते हुए रंगे हाथों पकडा।”

“अरे! इतना छोटा बालक और चोर।” राजा ने आश्चर्य से पूछा।

इस पर तेनाली राम का पुत्र बोला, ” महाराज, मैं तो केवल बगीचे से जा रहा था परन्तु आपको प्रसन्न करने के लिए इन्होंने मुझे पकड लिया। मुझे लगता है कि वास्तव में, ये स्वयं ही गुलाब चुराते होगें। मैंने कोई गुलाब नहीं चुराया। क्या आपको मेरे पास कोई गुलाब दिखाई दे रहा है? यदि मैं रंगे हाथो पकडा गया हूँ, तो मेरे हाथो में गुलाब होने चाहिए थे।”

गुलाबों का न पाकर पहरेदार अच्म्भित हो गए। राजा उन पर क्रोधित होकर बोले, “तुम एक सीधे-सादे बालक को चोर कैसे कह सकते हो? इसे चोर सिद्ध करने के लिए तुम्हारे पास कोई सबूत भी नहीं है। जाओ और भविष्य में बिना सबूत के किसी पर अपराधी होने का आरोप मत लगाना।”

इस प्रकार तेनाली राम का पुत तेनाली की बुद्धिमता से स्वतन्त्र हो गया।

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Old 10-12-2010, 08:17 AM   #34
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तेनाली का प्रयोग

तेनाली की बुध्दिमानी व चतुराई के कारण सभी उसे बहुत प्यार करते थे। परन्तु राजगुरु उससे ईर्ष्या करते थे। राजगुरु के साथ कुछ चापलूस दरबारी भी थे, जो उनके विचारों से सहमत थे। एक दिन सभी ने मिलकर तेनाली को अपमानित करने के लिए एक योजना बनाई। अगले दिन दरबार में राजगुरु राजा कॄष्णदेव राय से बोले, “महाराज, मैंने सुना है कि तेनाली ने पारस पत्थर ब्नाने की विधा सीखी है। पारस पत्थर जादुई पत्थर है, जिससे लोहा भी सोना बन जाता है।”

“यदि ऐसा है, तो राजा होने के नाते वह पत्थर प्रजा की भलाई के लिए मेरे पास होना चाहिए। इस विषय में मैं तेनाली से बात करुँगा।”

“परन्तु महाराज!आप उससे यह मत कहना कि यह सूचना मैंने आपको दी है।” राजगुरु ने राजा से प्रार्थना करते हुए कहा।

उस दिन तेनाली के दरबार में आने पर राजा ने उससे कहा, “तेनाली, मैंने सुना है कि तुम्हारे पास पारस है। तुमने लोहे को सोने में बदलकर बहुत धन इकट्ठा कर लिया है।”

तेनाली बुद्धिमान तो था ही सो वह तुरन्त समझ गया कि किसी ने राजा को उसके विरुद्ध झूठी कहानी सुनाकर उसे फंसाने की कोशिश की है। इसलिए वह राजा को प्रसन्न करते हुए बोला, “जी महाराज, यह सत्य है। मैंने ऐसी कला सीख ली है और इससे काफी सोना भी बनाया है।”
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Old 10-12-2010, 08:18 AM   #35
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“तब तुम अपनी कला का प्रदर्शन अभी इसी समय दरबार में करो।’

“महाराज!मैं अभी ऐसा नहीं कर सकता। इसके लिए मुझे कुछ समय लगेगा। कल सुबह मैं आपको लोहे को सोने में परिवर्तित करने की कला दिखाऊँगा।”

राजगुरु व उसके साथी समझ गए कि तेनाली अब फँस गया है, लेकिन वे यह जानने को उत्सुक थे कि तेनाली राम इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए क्या करता है?

अगले दिन तेनाली गली के एक कुत्ते के साथ दरबार में आया। उस कुत्ते की पूँछ को उसने एक नली में डाला हुआ था। उसे इस प्रकार दरबार में आता देख हर व्यक्ति हँस रहा था, परन्तु यह देखकर राजा क्रोधित हो गए और बोले, “तेनाली, तुमने एक गली के कुत्ते को राजदरबार मे लाने की हिम्मत कैसे की?”

“महाराज, पहले आप मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए। क्या आप जानते हैं कि कुत्ते की पूँछ को कितने भी वर्षों तक एक सीधी नली में रखें, तब भी वह सीधी नही होती। वह अपनी कुटिल प्रकॄति को कभी नहीं छोड सकती?”
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Old 10-12-2010, 08:18 AM   #36
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“हॉ मैं इसके बारे मैं जानता हूँ।” राजा ने उत्तर दिया।

“महाराज, यहॉ मैं इसी बात को तो सिद्ध करना चाहता हूँ।” तेनाली राम बोला।

“अरे तेनाली, मूर्खों के समान बात मत करो। कुत्ते की पूँछ कभी सीधी हुई है जो तुम मुझसे पूँछ रहे हो। बल्कि तुम जानते हो कि तुम इस कुत्ते की पूँछ को सीधा नहीं कर सकते हो, क्योंकि यह उसकी प्रकॄति है।”

“ठीक यही तो मैं आपको दिखाना चाहता हूँ और सिद्ध करना चाहता हूँ कि जब एक कुत्ते की पूँछ अपनी प्रकॄति के विरुद्ध सीधी नहीं हो सकती, तो फिर लोहा अपनी प्रकॄती को छोडकर सोना कैसे बन सकता है?”

राजा कॄष्णदेव राय को तुरंत अपनी गलती का एहसास हो गया। वह समझ गए कि उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे राजगुरु की झुठी बातों पर आँख बंद करके विश्वास कर लिया। उन्होंने राजगुरु से तो कुछ नहीं कहा, परन्तु तेनाली को उसकी चतुराई के लिए पुरस्कॄत किया। राजगुरु व उनके साथी दरबारियों ने शर्म से झुका लिया क्योंकि उन लोगों के लिए यही अपमान व दण्ड था । इसके बाद तेनाली राम के खिलाफ कुछ भी कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी ।

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Old 10-12-2010, 08:20 AM   #37
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तेनाली की कला

विजयनगर के राजा अपने महल में चित्रकारी करवाना चाहते थे। इस काम के लिए उन्होंने एक चित्रकार को नियुक्त किया। चित्रों को जिसने देखा सबने बहुत सराहा पर तेनालीराम को कुछ शंका थी। एक चित्र की पॄष्ठभूमि में प्राकॄतिक दॄश्य था। उसके सामने खडे होकर उसने भोलेपन से पूछा, “इसका दूसरा पक्ष कहां हैं? इसके दूसरे अंग कहां हैं?” राजा ने हंसकर जवाब दिया, “तुम इतना भी नहीं जानते कि उनकी कल्पना करनी होती हैं।” तेनालीराम ने मुंह बिदकाते हुए कहा, “तो चित्र ऐसे बनते हैं! ठीक हैं, मैं समझ गया।”

कुछ महीने बाद तेनालीराम ने राजा से कहा, “कई महीनों से मैं दिन-रात चित्रकला सीख रहा हूं। आपकी आज्ञा हो तो मैं राज महल की दीवारों पर कुछ चित्र बनाना चाहता हूं।”

राजा ने कहा, “वाह! यह तो बहुत अच्छी बात हैं। ऐसा करो, जिन भित्तिचित्रों के रंग उड गए हैं उनको मिटाकर नए चित्र बना दो।”

तेनालीराम ने पुराने चित्रों पर सफेदी पोती और उनकी जगह अपने अए चित्र बना दिए। उसने एक पांव यहां बनाया, एक आंख वहां बनाई और एक अंगुली कहीं और। शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों के चित्रों से उसने दीवारों को भर दिया। चित्रकारी के बाद राजा को उसकी कला देखने के लिए निमंत्रित किया। महल की दीवारों पर असंबद्ध अंगो के चित्र देख राजा को बहुत निराशा हुई। राजा ने पूछा, “यह तुमने क्या किया? तस्वीरें कहां हैं?”

तेनालीराम ने कहा, “चित्रों में बाकी चीजों की कल्पना करनी पडती हैं। आपने मेरा सबसे अच्छा चित्र तो अभी देखा ही नहीं।” यह कहकर वह राजा को एक खाली दीवार के पास ले गया जिस पर कुछेक हरी-पीली लकीरें बनी थी।

“यह क्या हैं?” राजा ने चिढकर पूछा।

“यह घास खाती गाय का चित्र हैं।” “लेकिन गाय कहां हैं?” राजा ने पूछा। “गाय घास खाकर अपने बाडे में चली गई।” ये कल्पना कर लीजिए हो गया न चित्र पूरा। राजा उसकी बात सुनकर समझ गया कि आज तेनालीराम ने उस दिन की बात का जवाब दिया हैं।

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Old 10-12-2010, 08:42 AM   #38
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तेनालीराम और उपहार

विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक दिन पड़ोसी देश का दूत आया। यह राजा कृष्णदेव राय के लिए अनेक उपहार भी लाया था। विजयनगर के राजदरबारियों ने दूत का खूब स्वागत-सत्कार किया। तीसरे दिन जब दूत अपने देश जाने लगा तो राजा कृष्णदेव राय ने भी अपने पड़ोसी देश के राजा के लिए कुछ बहुमूल्य उपहार दिए।

राजा कृष्णदेव राय उस दूत को भी उपहार देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने दूत से कहा-‘हम तुम्हें भी कुछ उपहार देना चाहते हैं। सोना-चाँदी, हीरे,रत्न, जो भी तुम्हारी इच्छा हो, माँग लो।’ ‘महाराज, मुझे यह सब कुछ नहीं चाहिए। यदि देना चाहते हैं तो कुछ और दीजिए।’ दूत बोला। ‘महाराज, मुझे ऐसा उपहार दीजिए, जो सुख में दुख, में सदा मेरे साथ रहे और जिसे मुझसे कोई छीन न पाए।’ यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय चकरा गए।

उन्होंने उत्सुक नजरों से दरबारियों की ओर देखा। सबके चेहरों पर परेशानी के भाव दिखाई दे रहे थे। किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कौन-सा उपहार हो सकता है। तभी राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम की याद आई। वह दरबार में ही मौजूद था। राजा ने तेनालीराम को संबोधित करते हुए पूछा-‘क्या तुम ला सकते हो ऐसा उपहार जैसा दूत ने माँगा है?’ ‘अवश्य महाराज, दोपहर को जब यह महाशय यहाँ से प्रस्थान करेंगे, वह उपहार इनके साथ ही होगा।’ नियत समय पर दूत अपने देश को जाने के लिए तैयार हुआ। सारे उपहार उसके रथ में रखवा दिए गए।

जब राजा कृष्णदेव राय उसे विदा करने लगे तो दूत बोला-‘महाराज, मुझे वह उपहार तो मिला ही नहीं, जिसका आपने मुझसे वायदा किया था।’ राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा और बोले-‘तेनालीराम, तुम लाए नहीं वह उपहार?’ इस पर तेनालीराम हँसकर बोला, ‘महाराज, वह उपहार तो इस समय भी इनके साथ ही है। लेकिन यह उसे देख नहीं पा रहे हैं। इनसे कहिए कि जरा पीछे पलटकर देखें।’

दूत ने पीछे मुड़कर देखा, मगर उसे कुछ भी नजर न आया। वह बोला-‘कहाँ है वह उपहार? मुझे तो नहीं दिखाई दे रहा।’ तेनालीराम मुस्कुराए और बोले-‘जरा ध्यान से देखिए दूत महाशय, वह उपहार आपके पीछे ही है-आपका साया अर्थात आपकी परछाई। सुख में, दुख में, जीवन-भर यह आपके साथ रहेगा और इसे कोई भी आपसे नहीं छीन सकेगा।’ यह बात सुनते ही राजा कृष्णदेव राय की हँसी छूट गई। दूत भी मुस्कुरा पड़ा और बोला-‘महाराज, मैंने तेनालीराम की बुद्धिमता की काफी तारीफ सुनी थीं, आज प्रमाण भी मिल गया।’ तेनालीराम मुस्कराकर रह गया।
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तेनालीराम और कंजूस सेठ

राजा कृष्णदेव राय के राज्य में एक कंजूस सेठ रहता था। उसके पास धन की कोई कमी न थी, पर एक पैसा भी जेब से निकालते समय उसकी नानी मर जाती थी। एक बार उसके कुछ मित्रों ने हँसी-हँसी में एक कलाकार से अपना चित्र बनवाने के लिए उसे राजी कर लिया, उसके सामने वह मान तो गया, पर जब चित्रकार उसका चित्र बनाकर लाया, तो सेठ की हिम्मत न पड़ी कि चित्र के मूल्य के रूप में चित्रकार को सौ स्वर्णमुद्राएँ दे दे।

यों वह सेठ भी एक तरह का कलाकार ही था। चित्रकार को आया देखकर सेठ अंदर गया और कुछ ही क्षणों में अपना चेहरा बदलकर बाहर आया। उसने चित्रकार से कहा, ‘तुम्हारा चित्र जरा भी ठीक नहीं बन पड़ा। तुम्हीं बताओ, क्या यह चेहरा मेरे चेहरे से जरा भी मिलता है?’ चित्रकार ने देखा, सचमुच चित्र सेठ के चेहरे से जरा भी नहीं मिलता था।

तभी सेठ बोला, ‘जब तुम ऐसा चित्र बनाकर लाओगे, जो ठीक मेरी शक्ल से मिलेगा, तभी मैं उसे खरीदूँगा।’ दूसरे दिन चित्रकार एक और चित्र बनाकर लाया, जो हूबहू सेठ के उस चेहरे से मिलता था, जो सेठ ने पहले दिन बना रखा था। इस बार फिर सेठ ने अपना चेहरा बदल लिया और चित्रकार के चित्र में कमी निकालने लगा। चित्रकार बड़ा लज्जित हुआ। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस तरह की गलती उसके चित्र में क्यों होती है?

अगले दिन वह फिर एक नया चित्र बनाकर ले गया, पर उसके साथ फिर वही हुआ। अब तक उसकी समझ में सेठ की चाल आ चुकी थी। वह जानता था कि यह मक्खीचूस सेठ असल में पैसे नहीं देना चाहता, पर चित्रकार अपनी कई दिनों की मेहनत भी बेकार नहीं जाने देना चाहता था। बहुत सोच-विचारकर चित्रकार तेनालीराम के पास पहुँचा और अपनी समस्या उनसे कह सुनाई। कुछ समय सोचने के बाद तेनालीराम ने कहा-‘कल तुम उसके पास एक शीशा लेकर जाओ और कहो कि आपकी बिलकुल असली तस्वीर लेकर आया हूँ। अच्छी तरह मिलाकर देख लीजिए। कहीं कोई अंतर आपको नहीं मिलेगा। बस, फिर अपना काम हुआ ही समझो।’ अगले दिन चित्रकार ने ऐसा ही किया।

वह शीशा लेकर सेठ के यहाँ पहुँचा और उसके सामने रख दिया। ‘लीजिए, सेठ जी, आपका बिलकुल सही चित्र। गलती की इसमें जरा भी गुंजाइश नहीं है।’ चित्रकार ने अपनी मुस्कराहट पर काबू पाते हुए कहा। ‘लेकिन यह तो शीशा है।’सेठ ने झुँझलाते हुए कहा। ‘आपकी असली सूरत शीशे के अलावा बना भी कौन सकता है? जल्दी से मेरे चित्रों का मूल्य एक हजार स्वर्णमुद्राएँ निकालिए।’ चित्रकार बोला। सेठ समझ गया कि यह सब तेनालीराम की सूझबूझ का परिणाम है। उसने तुरंत एक हजार स्वर्णमुद्राएँ चित्रकार को दे दीं। तेनालीराम ने जब यह घटना महाराज कृष्णदेव राय को बताई तो वह खूब हँसे।
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तेनालीराम और चोटी का किस्सा

एक दिन बातों-बातों में राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से पूछा, ‘अच्छा, यह बताओ कि किस प्रकार के लोग सबसे अधिक मूर्ख होते हैं और किस प्रकार के सबसे अधिक सयाने?’तेनालीराम ने तुरंत उत्तर दिया, ‘महाराज! ब्राह्मण सबसे अधिक मूर्ख और व्यापारी सबसे अधिक सयाने होते हैं।’ ‘ऐसा कैसे हो सकता है?’राजा ने कहा।‘मैं यह बात साबित कर सकता हूँ’, तेनालीराम ने कहा। ‘कैसे?’राजा ने पूछा।’

‘अभी जान जाएँगे आप। जरा,राजगुरु को बुलवाइए।’राजगुरु को बुलवाया गया। तेनालीराम ने कहा,‘महाराज, अब मैं अपनी बात साबित करूँगा, लेकिन इस काम में आप दखल नहीं देंगे। आप यह वचन दें, तभी मैं काम आरंभ करूँगा।’ राजा ने तेनालीराम की बात मान ली। तेनालीराम ने आदरपूर्वक राजगुरु से कहा,‘राजगुरु जी,महाराज को आपकी चोटी की आवश्यकता है। इसके बदले आपको मुँहमांगा इनाम दिया जाएगा।’

राजगुरु को काटो तो खून नहीं। वर्षों से पाली गई प्यारी चोटी को कैसे कटवा दें? लेकिन राजा की आज्ञा कैसे टाली जा सकती थी। उसने कहा, ‘तेनालीराम जी, मैं इसे कैसे दे सकता हूँ।’‘राजगुरु जी, आपने जीवन-भर महाराज का नमक खाया है। चोटी कोई ऐसी वस्तु तो है नहीं, जो फिर न आ सके। फिर महाराज मुँहमाँगा इनाम भी दे रहे हैं।…’

राजगुरु मन ही मन समझ गया कि यह तेनालीराम की चाल है। तेनालीराम ने पूछा,‘राजगुरु जी, आपको चोटी के बदले क्या इनाम चाहिए?’ राजगुरु ने कहा, ‘पाँच स्वर्णमुद्राएँ बहुत होंगी।’पाँच स्वर्णमुद्राएँ राजगुरु को दे दी गई और नाई को बुलावाकर राजगुरु की चोटी कटवा दी गई। अब तेनालीराम ने नगर के सबसे प्रसिद्ध व्यापारी को बुलवाया। तेनालीराम ने व्यापारी से कहा, ‘महाराज को तुम्हारी चोटी की आवश्यकता है।’ ‘सब कुछ महाराज का ही तो है, जब चाहें ले लें, लेकिन बस इतना ध्यान रखें कि मैं एक गरीब आदमी हूँ।’
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