16-07-2012, 11:20 AM | #1 |
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
16-07-2012, 11:22 AM | #2 |
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रो रहा है रायपुरम
-पा.ना. सुब्रमणियम पिछले कई दिनों से चेन्नई के अखबारों में रायपुरम रेलवे स्टेशन के बारे में काफी कुछ पढ़ने को मिल रहा है। उसकी गौरवमय ऐतिहासिकता का बखान भी हो रहा है। उसके अंग्रेजी वर्तनी का प्रयोग करने पर रोयापुरम प्रकट हुआ और उस इलाके के लोगों का रोना देखकर सहानुभूति हो ही आई। रेलवे के बारे में हिसाब किताब रखने वालों को शायद इस बात का गुमान हो कि रायपुरम स्टेशन वर्त्तमान में भी जीवित प्राचीनतम भवन है। एक और महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि भारत ही नहीं दक्षिण एशिया में यह दूसरी रेलवे लाइन थी जिसका उद्गम रायपुरम रहा है। 16 अप्रेल 1853 में भारत में पहली रेलगाड़ी बोरीबंदर (बम्बई) से ठाणे तक चलाई गई थी तो मद्रास में 28 जून 1856 को रायपुरम से वालाजाबाद 102 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन पर रेलगाड़ी चल पड़ी थी। एक जुलाई 1856 से जनता के लिए रेलसेवा उपलब्ध हुई। दक्षिण का पहला स्टेशन यही था और लम्बे समय तक मद्रास आने वाली सभी रेलगाड़ियां यहीं आकर रूकती थीं। उन दिनों मद्र्रास सेंट्रल नाम का कोई स्टेशन भी नहीं था जो सन 1873 में ही अस्तित्व में आया। रायपुरम के ही बगल में मद्रास (अब चेन्नई) का बंदरगाह है और जहाजों से माल उतारने के बाद उन्हें आगे ले जाने के लिए रेलवे की आवश्यकता महसूस की गई थी और इसीलिए वहां टर्मिनस बनाया गया था। व्यावसायिक गतिविधियां रायपुरम के इर्दगिर्द ही विकसित भी हुईं। अपवादों को छोड़ दें तो नगरों का विकास दक्षिण की तरफ अधिक हुआ प्रतीत होता है। यही बात यहां चेन्नई पर भी लागू होती है। दक्षिण की तरफ ही नए आवास क्षेत्र बनते गए और नगर बढ़ता गया। उत्तरी चेन्नई (रायपुरम) कुछ हद तक उपेक्षा का शिकार रहा है और इसलिए लोग तिलमिला रहे हैं। वे चाहते हैं कि रायपुरम को भी टर्मिनस बनाया जाए क्योंकि वहां रेलवे के पास 72 एकड़ की भूमि उपलब्ध है और कम से कम 16 प्लेटफॉर्म बनाए जा सकते हैं। चूंकि चेन्नई में कुछ समय रहने का अवसर मिल गया तो सोचा क्यों न उस प्राचीनतम स्टेशन के दर्शन कर लूं। रायपुरम स्टेशन में प्रवेश के लिए कोई व्यवस्थित मार्ग नहीं है। ऐसा लगा व्यस्ततम इलाके से एक गली में घुस पड़े हैं। एक दो रेल लाईनों को पार कर ही स्टेशन के प्रवेश द्वार का दर्शन कर पाए। उसी तरफ आधुनिक प्लेटफॉर्म भी बना हुआ है उपनगरीय रेल सेवाओं के लिए उसका प्रयोग हो रहा है। बहुत कम गाड़ियां हैं जो यहां तक आती हैं और शायद इसीलिए यात्री भी दो चार ही दिखे। पूरे स्टेशन का अवलोकन किया ऐसे जैसे हम कोई रेलवे के निरीक्षक हों। स्टेशन से लगा एक प्लेटफॉर्म भी है जिसका शायद उपयोग नहीं हो रहा है क्योंकि रेलों का अब आवागमन भवन के दूसरी तरफ दूर हटकर है। पुराने चित्रों में तो प्लेटफॉर्म ही नहीं दिखता। शायद उन दिनों उसकी आवश्यकता नहीं रही होगी। खंडहर बनी ऊंची लम्बी दीवार भी थी जिन पर कई मेहराबदार प्रवेश द्वार दिखे। वे शायद स्टेशन की दीवारें थीं। संभव है अगली बार वह धरोहर एक बड़े से नए स्टेशन के लिए अपनी कुर्बानी दे चुका हो। हम देखने से वंचित रहें यही सोचकर वहां जाना सार्थक ही लगा।
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16-07-2012, 11:25 AM | #3 |
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अकेले हैं तो क्या गम है
-डॉ. आराधना चतुर्वेदी अकेली औरत के साथ समस्या ये होती है कि उसे सब सार्वजनिक समझ लेते हैं बिना जाने कि वह किन परिस्थितियों में अकेले रहने को मजबूर है। अकेले रहना ना मेरी मजबूरी है और ना ही मेरी इच्छा। मैंने बचपन से ही और लड़कियों की तरह दुल्हन बनने के सपने नहीं संजोए। हमेशा सोचा कि मुझे अलग करना है। सोच लिया था कि शादी नहीं करूंगी। बचपन में मां के देहांत के बाद तो ये इरादा और पक्का हो गया था लेकिन अकेले रहने के बारे में कभी नहीं सोचा था। चाहती थी किअपने पैरों पर खड़ी हो जाऊं और पिताजी के साथ रहूं, लेकिन 2006 में पिताजी के देहांत के बाद ये सपना टूट गया। अकेले रहना मेरी मजबूरी हो गई। मैं इलाहाबाद से दिल्ली आ चुकी थी । यहां कम से कम आपको हर वक्त लोगों की प्रश्नवाचक दृष्टि का सामना नहीं करना पड़ता। हां, कुछ महिलाओं ने जानने की कोशिश की कि मेरी मैरिटल स्टेटस क्या है पर मैंने कोई सफाई नहीं दी। मुस्कुराकर इतना कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है। जब आप अकेले होते हैं और आपपर कोई बंधन नहीं होता तो खुद ही कुछ सीमाएं खींचनी पड़ती हैं। मैंने भी सीमाएं तय कर रखी हैं। अकेली हूं और बीमार पड़ने पर कोई देखभाल करने वाला नहीं है तो खाने-पीने का ध्यान रखती हूं। व्यायाम करती हूं। बाहर नहीं खाती। बहुत कम लोगों को फोन नंबर देती हूं। बेहद करीबी रिश्तेदारों को भी नहीं। बेहद करीबी दोस्तों के अलावा किसी को अपने कमरे पर मिलने को नहीं बुलाती। मेरा बहुत मन करता है रात में सड़कों पर टहलने का पर कभी अपनी ये इच्छा पूरी करने की हिम्मत नहीं की। कोशिश करती हूं कि रात आठ-साढ़े आठ बजे तक घर पहुंच जाऊं। नौ बजे बाद मोहल्ले से बाहर नहीं जाती। मेरे साथ दिक्कत है कि अमूमन तो किसी से बात करती नहीं लेकिन जब दोस्ती हो जाती है तो खुल जाती हूं। मुझे जो अच्छा लगता है बेहिचक कह देती हूं। किसी पर प्यार आ गया है तो लव यू डियर कहने में कोई संकोच नहीं होता। मैं बहुत भावुक हूं और उदार भी। मेरे दोस्त कई बार मुझे इस बात के लिए टोक चुके हैं लेकिन मैं कम लोगों से घुलती-मिलती हूं इसलिए आज तक मुझे लेकर किसी को कोई गलतफहमी नहीं हुई। लेकिन पिछले कुछ दिनों से सोच रही हूं कि अपनी बोल्डनेस थोड़ा कम करूं। क्या फायदा किसी को नि:स्वार्थ लव यू कह देने का या लोट्स आफ हग्स एंड किसेज दे देने का जब सामने वाला उसे लेकर भ्रमित हो जाए। मेरे ख्याल से हमारे समाज में लोग (विशेषकर पुरुष) अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि इस तरह के प्यार को समझ पाएं । उन्हें लगता है कि स्त्री- पुरुष के बीच केवल आदिम अवस्था वाला विपरीतलिंगी प्रेम होता है जबकि मैं ऐसा मानती हूं कि ऐसा प्रेम एक समय में एक ही के साथ संभव है चाहे वो पति हो, पत्नी हो या प्रेमी। पर जब तक कि हमारा समाज इतना परिपक्व नहीं हो जाता कि सहज स्रेह को समझ सके, मेरा और सम्बन्ध बनाना स्थगित रहेगा। अकेले रहने का इतना तो खमियाजा भुगतना ही पड़ेगा।
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16-07-2012, 11:30 AM | #4 |
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धनुष की टंकार में भी होता है संगीत
-पूजा उपाध्याय सोचो मत। सोचो मत। अपने आप को भुलावा देती हुई लड़की ग्लास में आइस क्यूब्स डालती जा रही है। नई विस्की आई है घर में। जॉनी वाकर डबल ब्लैक। ओह, एकदम गहरे सियाह चारकोल के धुएं की खुशबू विस्की के हर सिप में घुली हुई है। डबल ब्लैक। तुम्हारी याद यूं भी कातिलाना होती है। उस पर खतरनाक मौसम। डबल ब्लैक। मतलब अब जान ले ही लो! लाईट चली गई थी। सोचने लगी कि कौन सा कैंडिल जलाऊं कि तुम्हारी याद को एम्पलीफाय ना करे। वनीला जलाने को सोचती हूं। लम्हा भी नहीं गुजरता है कि याद आता है तुम्हारे साथ एक धूप की खुशबू वाले कैफे में बैठी हूं और कपकेक्स हैं सामने। घुलता हुआ वानिला का स्वाद और तुम्हारी मुस्कराहट दोनों क्रोसफेड हो रहे हैं। मैं घबरा के मोमबत्ती बुझाती हूं। ना,वाइल्ड रोज तो हरगिज नहीं जलाऊंगी। आज मौसम भी बारिशों का है। वो याद है तुम्हें जब ट्रेक पर थोड़ा सा आॅफ रूट रास्ता लिया था हमने कि गुलाबों की खुशबू से एकदम मन बहका हुआ जा रहा था। और फिर एकदम घने जंगलों के बीच थोड़ी सी खुली जगह थी जहां अनगिन जंगली गुलाब खिले हुए और एक छोटा सा झरना भी बह रहा था। तुम्हारा पैर फिसला था और तुम पानी में जा गिरे थे। पत्थरों पर लेटे हुए चेहरे पर हलकी बारिश की बूंदों को महसूस करते हुए गुलाबों की उस गंध में बौराना। फिर मेरे दांत बजने लगे थे तो तुमने हथेलियां रगड़ कर मेरे चेहरे को हाथों में भर लिया था। गर्म हथेलियों की गंध कैसी होती है। डबल ब्लैक कॉफी। ओह नो। मैंने सोचा भी कैसे! वो दिन याद है तुम्हें। हवा में बारिश की गंध थी। आसमान में दक्षिण की ओर से गहरे काले बादल छा रहे थे। आधा घंटा लगा था फिल्टर कॉफी को रेडी होने में। मैंने फ्लास्क में कॉफी भरी। कुछ बिस्कुट, चोकलेट, चिप्स बैगपैक में डाले और बस हम निकल पड़े। बारिश का पीछा करने। हाइवे पर गाड़ी उड़ाते हुए चल रहे थे कि जैसे वाकई तूफान से गले लगने जा रहे थे हम। फिर शहर से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर वाइनरी थी। दोनों ओर अंगूर की बेल की खेती थी। हवा में एक मादक गंध उतरने लगी थी। फिर आसमान टूट कर बरसा। हमने गाड़ी अलग पार्क की। थोड़ी ही देर में जैसे बाढ़ सी आ गई। सड़क किनारे नदी बहने लगी थी। कॉफी जल्दी जल्दी पीनी पड़ी थी कि डाइल्यूट न हो जाए और तुम। एक हाथ से मेरी कॉफी के ऊपर छाता तानते, एक हथेली मेरे सर के ऊपर रखते। मैं घर में नोर्मल कैंडिल्स क्यूं नहीं रख सकती। परेशान होती हूं। फिर बाहर से रौशनी के कुछ कतरे घर में चले आते हैं और कुछ आंखें भी अभ्यस्त हो जाती हैं अंधेरे की। मोबाइल पर एक इन्स्ट्रूमेन्टल संगीत का टुकड़ा है। वायलिन कमरे में बिखरती है और मैं धीरे धीरे एक कसा हुआ तार होती जाती हूं। कमान पर खिंची हुयी प्रत्यंचा। सोचती हूं धनुष की टंकार में भी तो संगीत होता है। शंखनाद में कैसी आर्त पुकार। घंटी में कैसा सुरीला अनुग्रह। संगीत बाहर से ज्यादा मन के तारों में बजता है। अच्छे वक्त पर हाथ से गिरा ग्लास भी शोर नहीं करता। एकदम सही बीट्स देता है गिने हुए अंतराल पर....।
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16-07-2012, 11:44 AM | #5 |
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इंसान से बेहतर है जानवर?
-अमिता नीरव खिड़की से रोशनी आ रही थी और अलसुबह की हल्की ठंडक भी। इस वक्त ना तो किसी तरह की कोई हड़बड़ी थी न आगे की योजना थी। वक्त जैसे हवा में उड़ाने के लिए ही बचा हुआ था। यूं ही विचार तंद्र्रा की तरह थे कि खिड़की की फ्रेम पर गिलहरी उछल-कूद करती नजर आई। अचानक वो कूलर पर नजर आई। उसके मुंह में कपड़े का छोटा टुकड़ा था जिसे वो कूलर के अंदर डालने की कोशिश कर रही थी। उसी दौरान एक और गिलहरी वहां आ गई। फिर दोनों बाहर की तरफ से उस कपड़े को अंदर ठेलने की कोशिश करती रहीं। ये क्रम 10-12 सेकंड तक चलता रहा। जो गिलहरी कपड़ा लेकर आई थी वो अचानक उस कपड़े और दूसरी गिलहरी को छोड़कर चली गई। शायद दोनों इस बात से मुत्तमईन हो गई थीं कि कपड़ा अटक गया है और अब गिरेगा नहीं। कितने कौशल से दोनों ने उस कपड़े को अटका दिया था। बहुत कौतूहल था उन गिलहरियों की गतिविधियों को लेकर। दूसरी गिलहरी और थोड़ी देर तक कपड़े को अंदर डालने की कोशिश करती रही। एकाएक वो कूलर के अंदर घुसी और उस कपड़े को खींच लिया। मैं हतप्रभ। कितनी योजना,सामंजस्य,समझ,प्यार और कितनी बुद्धि। बचपन में ही सुना था कि इंसान और जानवर के बीच का एकमात्र फर्क ये है कि इंसान के पास बुद्धि होती है। कहा किसी बड़े ने था सो मानना ही था। भूल गए कि बारिश से पहले चींटियां अपना खाना जमा करती हैं। क्यों ऐसा होता है जिस रास्ते से घुस कर बिल्ली को खाने-पीने के लिए मिलता है वो बार-बार उसी रास्ते का इस्तेमाल करती है। भूल गए कि हमारे बुजुर्गों ने अपने जीवन के कई अनुभव जीव-जंतुओं के व्यवहार से ही वेरीफाई किए हैं। याद आता है मां का कहा कि काली चींटी काटती नहीं है। इसलिए बचपन में दोनों हाथों की पहली ऊंगलियों और अंगूठों को जोड़कर काली चींटी के इर्दगिर्द पाननुमा घेरा बना लेते। वो लगातार घेरे से निकलने का रास्ता ढूंढती रहती। कई बार हाथ पर चढ़ जाती है। जरा सा रास्ता निकालते तो वो खट से बाहर निकलने की जुगत लगा लेती। तो कैसे कहा जा सकता है कि जीव-जंतुओं के पास बुद्धि नहीं होती?अनुसंधानों ने भी ये सिद्ध किया कि जीव-जंतुओं में भी बुद्धि होती है। प्यार,संवेदना, समझ,अपनापन सब कुछ होता है। भाषा भी होती है। ये हमारे ज्ञान की सीमा है कि हम ना तो उनकी भाषा समझ पाते हैं और न हीं उनके बीच के संबंधों को। तो फिर कैसे कह सकते हैं कि इंसानों के पास कुछ ऐसा है जो अतिरिक्त है। जैसे बुद्धि! लेकिन सही है। कुछ तो है जो इंसानों के पास प्रकृति की हर सजीव देन से ज्यादा है। जाहिर है तभी विकास भी है, विनाश भी और असंतुलन भी। दरअसल इंसान के पास नकारात्मक बुद्धि है। हवस, ईर्ष्या, हिंसा, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ और लालच जिसके स्वभाव का हिस्सा है और जो अपनी हवस और अहम की पूर्ति के लिए प्रकृति, जीव-जंतुओं और अपने सहोदरों को बेवजह भी नुकसान पहुंचाता है। तो जो कुछ विकास-विनाश है जो इस लालच और हवस की ही देन है। तो हुआ न इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति...।
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17-07-2012, 02:02 AM | #6 |
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रिमझिम गिरे सावन, सुलग जाए मन...
-पल्लवी सक्सेना लंबी चली गर्मियों के बाद आज फिर मौसम ने ली अंगड़ाई और एक बार फिर आया सावन झूम के। आज सुबह जब उनींदी आंखों से देखा खिड़की की ओर तो जैसे एक पल में सारी नींद हवा हो गई। लगा जैसे यह सुहाना मौसम बाहें फैलाए मेरे जागने का ही इंतजार कर रहा था। आज न जाने क्यूं अलग सा अहसास था इस बारिश में। महसूस हो रहा था जैसे यह बारिश का पानी मुझसे कुछ कहना चाहता है। मुझे कुछ याद दिलाना चाहता है। तभी सहसा याद आया सावन का महीना। इस महीने सावन के सोमवार भी होते हैं। यह याद आते ही मुझे सब से पहले याद आया वो मंदिरों में होती शिव आराधना। वो मंत्रो के उच्चारण से गूंजते मंदिर। वो मंदिर के बाहर बेलपत्र, धतूरे और पूजा के अन्य सामग्री से सजी दुकानों का कोलाहल। सब घूम गया आंखों के सामने । सावन के महीने में हरे रंग का महत्व होता है। धरती सूरज की तपिश से मुक्त होकर अपनी धानी चूनर छोड़ हरियाली से परिपूर्ण ठंडी-ठंडी हरी चुनरी ओढ़ लिया करती है। बड़े बड़े पेड़ों से लेकर नन्हे-नन्हें पौधों पर पड़ी बारिश की बूंदें जैसे बचपन पर आया नव यौवन का निखार। झीलों-तालाबों और नदियों में बढ़ता जलस्तर। बहते पानी का तेज होता बहाव जैसे सब पर एक नयी उमंग छा जाती है। प्रकृति भी नए अंकुरों को जन्म देकर उन्हे नन्हें हरे-हरे पौधों के रूप में बदल कर नव जीवन की शुरूआत का संदेशा देती नजर आती है। वो घर आंगन में पड़े सावन के झूले। वो उन झूलों पर आज भी झूलता बचपन और उस बचपन में मेरे बचपन की झलक जिसे आज भी सिर्फ मैं देख सकती हूं। वो हरी-हरी चूड़ियों की खनक। वो मिट्टी की सौंधी खुशबू में मिली मेहंदी की महक। वो मेहंदी के रंग को देखने का उतावलापन कि रंग आया या नही। वो मिठाइयों की दुकानो पर सजे फेनी और घेवर की खुशबू। वो फुर्सत के पल में घड़ी-घड़ी बनती चाय और पकोड़ों की महक। वो पिकनिक की जगह तलाशता बचपन। वो पानी सी भरी सड़कों पर बिना कीचड़ की परवाह किए बेझिझक भीगना। सब जैसे एक साथ किसी चलचित्र की तरह चल रहा है आंखों में। मेरे लिए तो इतना कुछ छुपा है इस सावन के मौसम में जिसे पूरी तरह व्यक्त कर पाना शायद मेरे बस में नहीं। बस एक यादों का अथाह समंदर है जिसमें यादों की ही लहरें उठ रही है। एक अजीब सा खिंचाव जो हर साल हर सावन में हर बार मुझे यूं हीं खींचता है अपनी ओर। और उन यादों के आवेग में मेरा मन बस यूं हीं बहता चला जाता है। किसी मदहोश इंसान की तरह जिसे मौसम का नशा चढ़ा हो। ना जाने क्यूं कुछ लोग नशे के लिए शराब का सहारा लिया करते है। कभी कुदरत के नशे में भी खोकर देखें । लेकिन इन सब चीजों के बाद भी सावन का महीना एक महवपूर्ण चीज के बिना अधूरा है और वह है संगीत। वो सावन के गीत और उस पर बॉलीवुड का तड़का इसके बिना तो सावन नहीं भड़का। वो चाय का कप और बारिश का पानी और किशोर कुमार की आवाज। भला और क्या चाहिए जिंदगी में इस आनंद के सिवा। आप भी मेरे साथ मजा लीजिए इन सावन की बूंदों और किशोर के इस मधुर गीत के साथ जिसने मेरे मन के सभी अहसासों को जाहिर कर दिया...रिमझिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन।
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17-07-2012, 11:07 PM | #7 |
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दोष तुम्हारा है पागल लड़की !
-अनुसिंह चौधरी ऐ लड़की, तार-तार हुई अपनी इज्जत और वजूद लेकर कहां जाओगी अब? तुम तो मुंह दिखाने लायक ही नहीं बची कि लोग तुम्हारी पहचान नहीं भूलेंगे। वो चेहरे जरूर भूल जाएंगे जो तुम्हें सरेआम नोचते-खसोटते रहे थे। लड़की, सारा दोष तुम्हारा है। पार्टी में गई थी ना? वो भी गुवाहाटी जैसे शहर में? अपने दायरे में रहना सीखा नहीं था क्या? किसी ने बताया नहीं था कि पार्टियों में जाने और सड़कों पर खुलेआम बेफिक्री से घूमने, अपनी मर्जी से रास्ते चुनने का हक तुम्हें नहीं इज्जतदार घर के शरीफ लड़कों को होता है। पहन क्या रखा था जब घर से पार्टी के लिए निकली थी? जरूर मिनी स्कर्ट और टैंक टॉप पहन कर निकली होगी। या फिर तंग टीशर्ट और जीन्स? हालांकि ठीक ठीक बता नहीं सकती कि साड़ी में लिपटी निकली होती तो बच गई होती। और इतना भी नहीं जानती कि बिना किसी मेल मेम्बर के घर से बाहर स्कूल और ट्यूशन के लिए निकलना भी गुनाह होता है लड़की के लिए? कोई तो होता साथ। कोई पुरुषनुमा परछाई साथ चलती तो इस हादसे से बच जाती तुम शायद। जानती नहीं किस समाज में रहती हो? यहां अंधेरों के तो क्या रौशनी के भी घिनौने हाथ होते हैं जो तुम्हें अपनी गंदी उंगलियों और तीखे नाखूनों से खसोट लेने के लिए बेताब होते हैं। तुम्हारी अरक्षितता, तुम्हारा नाजुकपन,तुम्हारा सबसे बड़ा गुनाह है। उससे भी बड़ा गुनाह चौबीस घंटे लड़की होने की अतिसंवेदनशीलता को याद ना रखना है। सुना कि तुम मां-बहन की गुहार लगा रही थी लड़कों के सामने? अरे पागल, नहीं जानती क्या कि यहां लोग बहनों को भी नहीं छोड़ते? मां ने सिखाया नहीं था कि किसी पर भरोसा नहीं करना? किसी ने बताया नहीं था कि हम ऐसे भीरुओं के बीच रहते हैं जो ऊंची आवाज में चिल्लाना जानते हैं, मौका-ए-वारदात पर कुछ कदम उठाना नहीं जानते? मैं होती वहां तो कुछ कर पाती कहना मुश्किल है। वैसे अब क्या करोगी तुम पागल लड़की? पूरे देश ने ये वीडियो देखा है। तुम्हारे गली-मोहल्ले के लोग तुम्हारा जीना दूभर ना कर दें तो कहना। तुम्हारे स्कूल में बच्चे और टीचर्स तुम्हें अजीब सी निगाहों से ना देखें तो कहना। और ठीक चौबीस घंटे में तुम्हारे साथ चला घिनौना तमाशा पब्लिक मेमरी से ना उतर जाए तो कहना। इस हादसे का बोझ लेकर जीना तुम्हें हैं। नपुंसकों के बीच रहती हो लड़की। यहां किसी तरह के न्याय की उम्मीद मत करना। इस नोचे और खसोटे जाने को भूल जाने की कोशिश करना। याद सिर्फ इतना रखना कि इस दुनिया में सांस लेना मुश्किल है। तुम्हारा जीना मुश्किल है और मर जाने में भी सकून नहीं। ऊपरवाले ने फिर किसी तरह का बदला निकालने के लिए अगले जन्म में लड़की बनाकर भेजा तो? एक बुर्का सिलवा लो लड़की और अकेली मत निकला करो सड़कों पर। वैसे मैं अपनी बेटी को कैसे बचा कर रखूं इस उलझन में हूं फिलहाल। उससे भी बड़ी उलझन है कि बेटे को उन्हीं इज्जतदार लोगों के घरों के शरीफ लड़कों में से एक होने से कैसे बचाया जाए? तुमसे और क्या कहूं सिवाय इसके कि अपना ख्याल रखना और अपने आंसुओं को बचाए रखना। तुम्हें पागल होने से यही आंसू बचाए रखें शायद। अलविदा, पागल लड़की।
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27-07-2012, 04:51 PM | #8 |
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Re: ब्लॉग वाणी
अब तो खो गया है सब कुछ
-रश्मि पांच वर्ष की लड़की। पहली बार दिल्ली से गर्मी की छुट्टियां बिताने गांव आती है अपनी मां और बड़े भाई के साथ। आते ही देखा उसने। लकड़ी के चूल्हे में मां गरम-गरम धुसका (चावल से बनने वाला छोटा नागपुरी पकवान) बना रही है। उसने कहा भूख लगी है। मैं भी खाऊंगी और तुरंत मिट्टी की जमीन पर रसोई में बैठ गई व गरमागरम धुसके स्वाद लेकर खाने लगी। उसे ऐसे जमीन पर बैठे देखकर हम सबको शर्म आ रही थी। मेहमान अचानक आए थे। यह लगभग दो दशक पूर्व से भी ज्यादा की बात है। तब गांव में न एसी था न कूलर। पंखे थे मगर बिजली मेहरबान न थी। मेहमान आए थे। कहां बिठाएं,कहां सुलाएं। शाम का वक्त। फटाफट आंगन में पानी का छींटा देकर चारपाई लगाई। उस पर बिस्तर और पास ही कुछ कुर्सियां भी। उन्हें बाहर खुले में बिठाया। वो लड़की गरिमा। अपनी आंखे आश्चर्य से चौड़ी कर पूरा मुआयना कर रही थी। आंगन में तुलसी का चौरा जहां शाम का दीपक जल रहा था। बगल में मीठे पानी का कुआं। उसके ठीक पश्चिम में नीम का पेड़। आंगन के एक किनारे मोगरे के कुछ पौधे जिस पर सफेद फूल खिले थे और खुश्बू से आंगन महक रहा था। बगल में जवा पुष्प के पौधे जिस पर रोज लाल फूल खिलते थे जिन्हें सुबह दादी पूजा के लिए तोड़ती थी। हर शाम पौधों को पानी देने का जिम्मा हम बच्चों का था। घर आए दोनों बच्चों को मिलाकर हम छह बच्चे और मस्ती का आलम। हमारी जीवन शैली बिल्कुल अलग। वो दोनों हमें कौतूहल से देख रहे थे और हम लोग उन्हें। बातचीत का दौर चलता रहा। खाना खाने के बाद सोने की तैयारी। बिजली इतनी नहीं रहती कि कमरे में रात गुजारे। वैसे भी हम लोग गर्मियों में छत पर ही सोते थे। पानी का छींटा देकर छत बुहारा गया और बिस्तर लगा। तब तक हम लोग घुलमिल गए थे। खूब गप्प, कहानियां और तारों का परिचय। इसी तरह रात गुजरी। सुबह पांच बजे पड़ोस के आम के पेड़ से रात भर टपके आमों को चुनने हम लोग टोकरी लेकर भागे और पानी भरी बाल्टी में घंटे भर भिगोया फिर खाया नहीं चूसा । नदी-तालाब की सैर । सारा दिन गांव की खाक छानना। मां के बनाए व्यंजन खाना और रात। वो तो अपनी थी। वे लोग सप्ताह भर रूके। फिर तो लगभग सात वर्ष तक हर गर्मी में वे आते और ग्राम्य जीवन का आनंद उठाते। अचानक ये बीस बरस पहले की यादें क्यों? आप भी सोच में पड़ गए होंगे न। ये यादें उस दर्द की उपज हैं जो हम भूल गए हैं। गर्मियों में गांव जाना हुआ इस बार। कुछ भी तो नहीं अब। जो भी था कुछ कमी, कुछ अभाव मगर बहुत खूबसूरत था। याद रह जाने लायक। उम्र भर यादों में जुगाली करने लायक। अब के बच्चों को यह नसीब कहां। कंप्यूटर के जमाने में चांद-तारों से कौन बात करता है। एसी व कूलर की उपलब्धता ने पेड़ की छांव छीन ली। अब गांव वाले भी शहरी सुख-सुविधा में जीना चाहते हैं। अब गांव वाले भी शहरी बनने की होड़ में उस कच्चेपन का, अपनेपन का सुख भी भूल गए है। अब चाहकर भी संभव नहीं वो जीवन जीना। पूरा देश गर्म हवा के थपेड़ों से झुलस रहा है। अगर हम प्रकृति का ख्याल रखें तो कम से कम खुली व स्वच्छ हवा में तो सांस ले पाएंगे हम। नहीं क्या ?
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27-07-2012, 04:59 PM | #9 |
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Re: ब्लॉग वाणी
एक नाता जो टूट नहीं सकता...
-पारुल अग्रवाल मेरा ननिहाल लखनऊ का है। गर्मियों की छुट्टियों में लखनऊ जाना, तपती दोपहर में दशहरी आम की दावत उड़ाना और नानी के साथ अमीनाबाद, हजरतगंज की सैर का सालभर इंतजार रहता था। हम उन दिनों छोटे शहर में रहते थे और लखनऊ हमारे लिए बड़े शहर की वो खिड़की थी जिससे हर पल कुछ नया,कुछ रंगीन दिखता था। गर्मियों की ऐसी ही एक शाम अमीनाबाद की भीड़भाड़ से गुजरते हुए अचानक मेरी नजर चाय की एक दुकान पर पड़ी, जिसके कोने में लटकी तख्ती पर लिखा था - मुस्कुराइए जनाब ये लखनऊ है...। गलियों, दीवारों, जगहों से प्यार हो जाने की मेरी आदत पुरानी है और इस एक पंक्ति ने जैसे लखनऊ शहर के लिए मेरे प्यार को शब्द दे दिए। पिछले सोलह साल से मैं दिल्ली में रह रही हूं लेकिन इसे मेरी बेरुखी कहें या इस शहर में बस आगे बढ़ते रहने की गफलत कि सोलह साल तक दिल्ली से मेरा नाता केवल बस और उसके कंडक्टर सा रहा जो बस में सफर तो हर दिन करता है लेकिन पहुंचता कहीं नहीं। लेकिन नई दिल्ली के सौ साल की कहानी को अपने जानकार लोगों से साझा करने के लिए पिछले कुछ महीनों में इस शहर को मैंने जिस नजरिए से देखा और महसूस किया उसे शब्दों में बयां करना ही इस ब्लॉग को लिखने का मकसद है। सौ साल की इस कड़ी ने पहली बार मुझे उस दिल्ली से रूबरू कराया जो गुमनाम इतिहास की तरह सड़कों के किनारे,गलियों के बीच, घरों के पिछवाड़े हर जगह बसती है। ये वो दिल्ली है जिसके दरवाजे कभी लाहौर, तुर्किस्तान, कश्मीर या अजमेर को जाया करते थे। वो दिल्ली जिसमें सराय थे, किले थे, रौशनारा बाग थ। ये वो दिल्ली है जिससे बुलबुल-ए-खाना की गलियों से गुजरते अचानक मुलाकात हो जाती है जो मुझे ले जाती है मलिका-ए-हिंदुस्तान रजिया सुल्तान की उस गुमशुदा कब्र पर जिसकी आखिरी सल्तनत अब वाकई सिर्फ दो गज जमीन है। इतिहास के ऐसे कितने की पीले पन्ने इस शहर में बिखरे पड़े हैं, लेकिन अफसोस कि उन्होंने सहेजने का टेंडर अभी पास किया जाना बाकी है। रजिया सुल्तान को वहीं सोता छोड़ कर और इतिहास के इन पन्नों के कोने मोड़कर हर बार मैं आगे बढ़ी लेकिन वापस लौटने के कई वादों के साथ। कुल मिलाकर दिल्ली मेरे लिए सिर्फ घर का पता नहीं है। वो शहर है जिसकी कई गलियों, बाजारों ने मुझसे अपने सुख-दुख की कहानी बांटी है। यही वजह है कि इस शहर की हवा अब मेरे लिए और यादा ताजी है। इस शहर के हर बुजुर्ग से अब किस्से-कहानियों की महक आती है और सड़कों से गुजरते अब मुझे लगता है कि हर खंडहर-इमारत से मेरी पुरानी रिश्तेदारी है। दिल्ली के सामने अब मैं भले ही खुद को छोटा और बौना महसूस करती हूं लेकिन यही वो अहसास है जिसके साथ इस शहर में बाकी की उम्र गुजरेगी। शहर की भीड़ में अब मैं जब अकेली पड़ूंगी, इन गलियों, इमारतों से ही गुफ्तगू होगी। सफर अभी लंबा है और दिल्ली की ये कहानी सिर्फ एक पड़ाव था। खबरें और होंगी। श्रृंखलाएं और बनेंगी लेकिन इस शहर में जीते जी सबसे पहले अब मेरी खोज एक ऐसे कोने की है जहां मैं भी हर आने जाने वाले के लिए लिख सकूं- मुस्कुराइए जनाब ये दिल्ली है...।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
29-07-2012, 01:36 AM | #10 |
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Re: ब्लॉग वाणी
इमारत जो अब चुप हो गई
-राजेश प्रियदर्शी इमारत जिसे बनाया गया था ट्रेड सेंटर के तौर पर मगर उसकी किस्मत में लिखा था 70 वर्षों तक दुनिया के करोड़ों लोगों से हर रोज पचासों भाषाओं में बात करना। वह इमारत अचानक चुप हो गई है। स्टूडियो के बाहर जलती लाल बत्तियां बुझ गई हैं। घड़ी अब भी चल रही है। याद दिला रही है कि वक्त चलता और बदलता रहता है। बुश हाउस कोई ताजमहल या बकिंघम पैलेस नहीं है जिसकी शान में कसीदे पढ़े जाएं। बुश हाउस एक विचार है, एक संस्कृति है। विश्व बंधुत्व की मिसाल। भाषाओं और देशों की सीमाओं से परे। 1920 के दशक में सफेद पत्थर से बनी एक आठ मंजिला इमारत है बुश हाउस। उस जैसी और उससे भी भव्य इमारतें लंदन में न जाने कितनी हैं मगर किसी की आवाज इतने कानों और दिलों तक नहीं पहुंची। अंतरराष्टñीय रेडियो प्रसारण का पर्याय बन चुके बुश हाउस को छोड़ना बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के ज्यादातर पत्रकारों के लिए व्यक्तिगत सदमे जैसा रहा है। वे जिस नई इमारत में गए हैं वह अधिक सुविधा संपन्न और आधुनिक है मगर मेरे ज्यादातर सहकर्मी यही कहते हैं- बुश हाउस की बात ही कुछ और थी। यह बात ही कुछ और क्या है। इसे बुश हाउस में काम किए बगैर समझना जरा कठिन है। 26 अगस्त 1997 को जब मैं लगभग पचास फीट ऊंचे खंभों के नीचे से गुजरकर मुख्य दरवाजे तक पहुंचा तो इमारत ने जैसे धीरे से कान में कहा, मैंने बहुत कुछ सुना और कहा है। बुश हाउस के कोने-कोने में दुनिया की युगांतकारी घटनाओं की स्मृतियां बिखरी थीं। जॉर्ज आॅरवेल, वीएस नॉयपाल से लेकर बलराज साहनी जैसे लोगों ने यहां से प्रसारण किया। दूसरे विश्व युद्ध से लेकर इराक के युद्ध तक हर बड़ी घटना का हाल यहीं से पूरी दुनिया को सुनाया गया। मगर इन सबके ऊपर एक बात थी। वह थी बुश हाउस के संस्कार और उसकी संस्कृति। ईमानदारी और लगन से काम करने वाले पत्रकार हर संस्थान में मौजूद हैं पर बुश हाउस का माहौल ऐसा था कि उसमें पक्षपातपूर्ण या तथ्यों से परे जाकर बात कहने की गुंजाइश ही नहीं थी। यह माहौल यूं ही नहीं बना था। दशकों तक अनेक पत्रकारों ने कड़ी मेहनत, अनुशासन और कई बार तकलीफदेह ईमानदारी की पूंजी लगाकर यह माहौल तैयार किया था। करोड़ों लोगों का विश्वास जीतने के क्रम में दुनिया भर के शक्तिशाली लोगों को नाराज भी किया था जिनमें पूर्व ब्रितानी प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर भी शामिल थीं। बुश हाउस में काम करने वाले लोगों के बारे में मेरा एक अफगान दोस्त कहता था, जिस तरह काबुल में भी गधे होते हैं उसी तरह बुश हाउस में भी हैं मगर यहां गधों को लात चलाने की तमीज सिखा दी जाती है। 24 घंटे जागने वाली इमारत जिसमें हर रंग-रूप, वेश भाषा के लोग न सिर्फ काम करते थे बल्कि एक तरह से अपनी जिंदगी जीते थे। किसी दूर देश से ठंडे लंदन आने वाले एकाकी व्यक्ति के लिए सुखद टापू की तरह था बुश हाउस। बुश हाउस आने से पहले मैंने उनका नाम तक नहीं सुना था। मेरे भीतर, मेरे उन सारे दोस्तों के भीतर जो कभी यहां काम कर चुके हैं एक बुश हाउस है। हमारी सोच में, हमारी समझ में, हमारी रगों में दौड़ता बुश हाउस है जो हमेशा रहेगा।
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