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Old 18-07-2013, 07:00 AM   #1491
Dark Saint Alaick
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तीन सौ अरब टन प्रति वर्ष की दर से पिघल रहे हैं ग्लेशियर

लंदन। एक उपग्रह से पता चला है कि पिछले एक दशक में अंटाकर्टिक और ग्रीनलैंड ग्लेशियर की बर्फ करीब 300 अरब टन प्रति वर्र्ष की दर से पिघल रही है। शोधकर्ताओं ने बताया कि ग्रीनलैंड एवं अंटाकर्टिक की विशाल बर्फ की चादरों में बदलाव की वजह से पृथ्वी के गुरूत्व में होने वाले परिवर्तन का पता लगाने वाले एक उपग्रह ने इस गलन का पता लगाया। इससे दुनियाभर में समुद्र के स्तरों पर नाटकीय प्रभाव पड़ सकता है। अंतरिक्ष में परिक्रमा कर रहे उपग्रह ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (ग्रेस) ने 2002 के बाद से बर्फ के इतनी तेजी से पिघलने के बारे में पता लगाया। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी कि इन जानकारियों से आने वाले दशक में कितनी बर्फ पिघलेगी और समुद्र स्तरों में कितनी तेजी से बढ़ोतरी होगी, इसका सही आकलन करना मुश्किल है, क्योंकि यह एक अल्पकालीन अध्ययन है। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के ग्लेशियोलॉजी सेंटर से जुड़े बर्ट वोउटर्स ने कहा कि इस अध्ययन के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि बर्फ की चादरें बहुत अधिक मात्रा में बर्फ खो रही हैं। इसकी दर 300 अरब टन प्रतिवर्ष है। ग्लेशियर के पिघलने की दर बेहद तेज हो रही है। नेचर जियोसाइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए इस शोध के मुख्य अध्ययनकर्ता वोउटर्स ने कहा कि ग्रेस मिशन के शुरू होने के बाद के पहले कुछ साल की तुलना में हाल के सालों में बर्फ की चादरों के पिघलने से समुद्र स्तर में होने वाली वृद्धि पर लगभग दोगुना असर पड़ रहा है।
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Old 18-07-2013, 11:18 AM   #1492
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तीन सौ अरब टन प्रति वर्ष की दर से पिघल रहे हैं ग्लेशियर

लंदन। एक उपग्रह से पता चला है कि पिछले एक दशक में अंटाकर्टिक और ग्रीनलैंड ग्लेशियर की बर्फ करीब 300 अरब टन प्रति वर्र्ष की दर से पिघल रही है। शोधकर्ताओं ने बताया कि ग्रीनलैंड एवं अंटाकर्टिक की विशाल बर्फ की चादरों में बदलाव की वजह से पृथ्वी के गुरूत्व में होने वाले परिवर्तन का पता लगाने वाले एक उपग्रह ने इस गलन का पता लगाया। इससे दुनियाभर में समुद्र के स्तरों पर नाटकीय प्रभाव पड़ सकता है। अंतरिक्ष में परिक्रमा कर रहे उपग्रह ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (ग्रेस) ने 2002 के बाद से बर्फ के इतनी तेजी से पिघलने के बारे में पता लगाया। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी कि इन जानकारियों से आने वाले दशक में कितनी बर्फ पिघलेगी और समुद्र स्तरों में कितनी तेजी से बढ़ोतरी होगी, इसका सही आकलन करना मुश्किल है, क्योंकि यह एक अल्पकालीन अध्ययन है। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के ग्लेशियोलॉजी सेंटर से जुड़े बर्ट वोउटर्स ने कहा कि इस अध्ययन के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि बर्फ की चादरें बहुत अधिक मात्रा में बर्फ खो रही हैं। इसकी दर 300 अरब टन प्रतिवर्ष है। ग्लेशियर के पिघलने की दर बेहद तेज हो रही है। नेचर जियोसाइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए इस शोध के मुख्य अध्ययनकर्ता वोउटर्स ने कहा कि ग्रेस मिशन के शुरू होने के बाद के पहले कुछ साल की तुलना में हाल के सालों में बर्फ की चादरों के पिघलने से समुद्र स्तर में होने वाली वृद्धि पर लगभग दोगुना असर पड़ रहा है।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं, यह तो पुरानी जानकारी है. लेकिन यह इतनी तेज गति से पिघल रहे हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में इनके पिघलने की दर 300 अरब टन प्रति वर्ष है. विश्व के सभी देशों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि पिघलने की इस दर को गंभीरता से लें और इसे सीमित करने की दिशा में आवश्यक कदम उठायें. दुनिया भर के अन्य स्थानों में फैले ग्लेशियर भी आज पहले की अपेक्षा चिंताजनक रूप से पिघल रहे हैं. इससे वैश्विक तापमान और महासागरीय जल-स्तर में खतरनाक बदलाव से मानव जीवन भी अछूता नहीं रह सकता.
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Old 20-07-2013, 12:30 PM   #1493
Dark Saint Alaick
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आसमां में सितारे भिड़े तो धरती पर आया सोना ?
शोधकर्ताओं का मानना है कि कीमती धातु सोना धरती पर दुर्लभ है क्योंकि यह पूरे ब्रह्मांड में ही दुर्लभ है

लॉस एंजिलिस। एक नए अध्ययन की मानें तो पृथ्वी पर जितना सोना है वह बहुत पहले सघन मृत सितारों के आपसी कॉस्मिक टकरावों से आया है। शोधकर्ताओं ने कहा कि कीमती धातु सोना धरती पर दुर्लभ है क्योंकि यह पूरे ब्रह्मांड में ही दुर्लभ है। कार्बन या लौह जैसे तत्वों की तरह इसका निर्माण किसी सितारे के भीतर संभव नहीं है। इसका निर्माण किसी प्रलयकारी भूकंप जैसी घटना में होना चाहिए। ऐसी ही एक घटना पिछले माह हुई थी जिसे लघु गामा किरण विस्फोट (जीआरबी) के नाम से पहचाना जाता है। जीआरबी बहुत अधिक उर्जा वाली गामा किरणों के अत्यधिक उर्जापूर्ण विस्फोट से निकली एक तेज चमक है। जीआरबी के अवलोकन से प्रमाण मिलता है कि यह दो न्यूट्रॉन सितारों के टकराव के कारण हुआ। न्यूट्रॉन सितारे पहले विस्फोटित हो चुके सितारों का मृत भाग है। शोधकर्ताओं ने कहा कि जीआरबी के स्थल पर कई दिनों तक रहने वाली चमक सोने जैसी भारी धातुओं की उत्पत्ति की बड़ी संभावना को दर्शाती है। हावर्ड स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजीक्स के प्रमुख लेखक एडो बर्जर ने कहा कि हमारा आकलन है कि दो न्यूट्रॉन सितारों के मिलने से निर्मित होकर निकलने वाले सोने की मात्रा दस चंद्र्रमाओं के द्र्रव्यमान जितनी बड़ी भी हो सकती है। आकलन के अनुसार जीआरबी में निकले पदार्थ का द्रव्यमान एक सौर द्र्रव्यमान के सौवें हिस्से के बराबर था। इस पदार्थ में कुछ मात्रा सोने की भी थी। किसी एकल लघु गामा किरण विस्फोट में निर्मित सोने की मात्रा और ब्रह्मांड की कुल आयु में हुए ऐसे ही विस्फोटों की संख्या को आपस में मिलाते हुए कहा जा सकता है कि ब्रह्मांड में मौजूद सारा सोना गामा किरणों के विस्फोट से आया होगा।
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Old 20-07-2013, 12:35 PM   #1494
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सींग वाले डायनोसोर का पता लगा

लॉस एंजिलिस। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने बैल जैसे सींग वाले एक नए किस्म के डायनोसोर का पता लगाया है जो अपनी इस खूबी का इस्तेमाल अपने शत्रुओं को दूर भगाने तथा मादा डायनोसोर को आकर्षित करने मे करता होगा। जीवाश्मविद स्काट सैपसन ने बताया कि नेसुटोसेराटाप्स प्रजाति का यह डायनासोर 7.6 करोड वर्ष पहले पश्चिमोत्तर अमेरिका के उस इलाके में रहता होगा जो एक प्राचीन समुद्र की वजह से अमेरिका की मुख्यभूमि से अलग थलग रहा होगा। इस डायनोसोर के बारे में आलेख रायल सोसाइटी के एक जर्नल में प्रकाशित हुआ है। प्रोफेसर सैपसन ने बताया कि यह डायनोसोर अब तक मिले सभी सींग वाले डायनोसोरो में हटकर है और इसके सींग बेहद विलक्षण है। इस डायनोसोर के सींग बैल के जैसे हैं जो इसके माथे से शुरु होकर इसकी नाक तक जाते हैं और मुड जाते हैं। सैपसन के अनुसार इन सींगो का विकास मादा डायनोसोर को आकर्षित करने,शत्रुआें को भयभीत कर भगा देने अथवा दिमाग को ठंडा रखने के लिए हुआ होगा। ठंडे खून वाला यह पशु अपने चोचनुमा मुख का इस्तेमाल आसपास मौजूद वनस्पत्तियां खाने में करता होगा। इसके दांतो की संरचना शार्क मछली की तरह थी। इस नयी किस्म के डायनोसोर के पाये जाने से पता चलता है कि पश्चिमोत्तर अमेरिका के दक्षिणी छोर पर प्राचीनकाल मे अलग ही किस्म के डायनोसोर वास करते थे।
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Old 21-07-2013, 12:19 AM   #1495
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दफ्तर में प्रबंधन को समझ नहीं पाते शीर्ष बिजनेस स्कूलों के स्नातक

नई दिल्ली। देश के शीर्ष बिजनेस स्कूलों के एमबीए स्नातक वास्तव में कार्यस्थल पर प्रबंधन की व्यावहारिक समझ नहीं रखते हैं। रोजगार क्षमता समाधान प्रदाता एस्पाइरिंग माइंड्स की एक रिपोर्ट में यह बात कही गई है। ‘प्रैक्टिकल इंटेलिजेंस इन टॉप बी-स्कूल इन इंडिया’ विषय की रिपोर्ट में देश के शीर्ष बिजनेस स्कूलों के छात्रों पर यह अध्ययन किया गया है। इसमें कहा गया है कि व्यावहारिक बुद्धिमता तथा स्थिति से निपटने की क्षमता के मामले में प्रबंधन स्नातक तथा उद्योग का अनुभव रखने वाले लोगों के अंकों में काफी अंतर पाया गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन एमबीए स्नातकों तथा उद्योग का 3 से 5 साल का अनुभव रखने वाले लोगों के बीच व्यवहारिक समझ के मामले में काफी अंतर पाया गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि सर्वेक्षण के ये निष्कर्ष इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं कि देश की प्रमुख कंपनियां इन बिजनेस स्कूलों के छात्रों की ही नियुक्तियां करती हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि बिजनेस स्कूलों को एमबीए पाठ्यक्रम से उपर उठकर छात्रों की व्यावहारिक बुद्धिमता को विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। एस्पाइरिंग माइंड्स के सीटीओ और सीओओ वरण अग्रवाल ने कहा, ‘हमारे देश के शीर्ष बिजनेस स्कूल देश की प्रमुख कंपनियों को प्रतिभा उपलब्ध कराते हैं। उद्योग इन प्रतिभाओं के आकलन के लिए कई तरीके अपनाता है।’
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Old 21-07-2013, 03:56 AM   #1496
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भारतीय हिमालयी क्षेत्र के कई हिस्से भूकंप के प्रति संवेदनशील

हैदराबाद। शहर के नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट (एनजीआरआई) के एक अध्ययन में कहा गया है कि भारतीय हिमालीय क्षेत्र के कई भाग भूकंप के प्रति संवेदनशील हैं और वहां भूकंप आने का खतरा है। एनजीआरआई के वैज्ञानिक दल का अध्ययन करने वाले प्रमुख वैज्ञानिक (सीस्मिक टोमोग्राफी) श्याम राय ने बताया ‘अध्ययन के लिए उत्तराखंड के कुमाउं-गढवाल क्षेत्र में सिस्मिक इमैजिंग के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया है।’ सिस्मिक इमैजिंग मानव शरीर की इमैजिंग की तरह होती है। अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के सहयोग से यह अध्ययन अप्रैल 2005 से जून 2008 के बीच किया गया। अमेरिकी सरकार को इस अध्ययन की जरूरत थी और इसकी शुरूआती रिपोर्ट वर्ष 2010 में सौंपी गई थी। बहरहाल, सिस्मिक इमैजिंग और अध्ययन के अन्य पहलुओं का विस्तृत ब्यौरा इसके बाद ही मिला। यह पूछे जाने पर कि क्या उत्तराखंड में पिछले माह हुई भीषण बारिश का संबंध अध्ययन के नतीजों से है, राय ने कहा ‘नहीं।’ बहरहाल उन्होंने कहा कि यह सब मिलीजुली प्रणााली है। उन्होंने कहा ‘उत्तराखंड को इसलिए चुना गया क्योंकि कुछ आंकड़े उपलब्ध थे जिनसे पता चलता है कि इस क्षेत्र में स्ट्रेन बिल्ड अप बहुत ज्यादा है। इसीलिए यहां भूकंप आने की आशंका भी अत्यधिक है। वह जानना चाहते थे कि भूकंप कहां आ रहे हैं। कुमाउं में वर्ष 1803 में तीव्र भूकंप आया था।’ एनजीआरआई वैज्ञानिकों के दल की अगुवाई कर रहे मुख्य वैज्ञाानिक (भूंकपीय टोमोग्राफी) श्याम राय ने उस दिन के ब्रिटिश गजट का हवाला देते हुए कहा कि वर्ष 1803 में आए भूकंप के झटके लखनउ तक महसूस किए गए थे। राय ने कहा, ‘‘उससे बड़ा नहीं तो उसी तीव्रता का भूकंप भी आज अगर आता है, तो नए निर्माण, बांधों और इतनी बड़ी आबादी के कारण इसके परिणाम कही अधिक गंभीर हो सकते हैं। इसी संदर्भ मेें सरकार ने यह फैसला किया कि हमें उचित निगरानी करनी चाहिए।’’ उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर से लेकर अरणाचल प्रदेश तक भारतीय हिमालयी क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों में कई विनाशकारी भूकंप आ चुके हैं। भूवैज्ञानिकों ने पाया कि बद्रीनाथ, केदारनाथ से लेकर उत्तर पश्चिम हिमालय की ओर जा रही लकीर के करीब ही 90 फीसद से अधिक भूकंप आए हैं। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद् के अंतर्गत आने वाला एनजीआरआई देश का सबसे बड़ा अनुसंधान एवं विकास संगठन है। राय ने बताया, ‘‘ऐसा हमेशा से कहा जाता है कि भारत एशिया से नीचे खिसक रहा है और इसी वजह से सभी भूकंप आ रहे हैं... इसलिए, यह कुछ कोणों से नीचे जा रहा होगा। अगर यह कोण निर्बाध है, तो ऐसे में किसी उर्जा एकाग्रता की संभावना बेहद कम हो जाती है। लेकिन यह कोण बढ जाता है, तो उर्जा एकाग्रता की आंशका बढ जाती है, जहां यह मुड़ने लगता है।’’ राय ने कहा, ‘‘शुरआत में ऐसा कहा जाता था कि भारत 4-5 डिग्री के कोण से नीचे जा रहा है, जो निर्बाधा था। हालांकि, जब हमने इसका अध्ययन किया, तो हमने पाया कि यह सही नहीं है।’’ एनजीआरआई दल द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि यहां 16 डिग्री के तीव्र कोण पर भूकंपीय गतिविधियां चल रही थीं। उन्होंने कहा कि चमोली के इर्द गिर्द यह हो रहा है। पिछले एक दो वर्ष में उत्तरकाशी और चमोली में भूकंप के कई झटके आए हैं और इनमें से ज्यादातर वहीं आए हैं, जहां यह मुड़ रहा है। प्रमुख भूवैज्ञानिक ने कहा, ‘‘इसी वजह से हमने यह बयान जारी किया था कि यह मुड़ रहा है और काफी तेज कोण से मुड़ रहा है।’’ उन्होंने कहा कि यहां की भूगर्भीय गतिविधियां इस क्षेत्र को अतिसंवेदनशील भूकंपीय क्षेत्र बना देती हैं। उन्होंने कहा, ‘‘उर्जा एकाग्रता की आशंका बेहद बढ गई है। उर्जा एकाग्रता बदस्तूर जारी है और यहां कोई बड़ा भूकंप भी नहीं आ रहा। इसका अर्थ यह है कि उर्जा इस जगह पर लगातार संग्रहित हो रही है। लेकिन यह अनंत काल तक चलता नहीं रहेगा। एक दिन इस उर्जा को मुक्त होना और जब यह मुक्त होगी तब यहां आठ से अधिक तीव्रता का कोई बड़ा भूकंप या सात से अधिक तीव्रता वाले 20-30 भूकंप आ सकते है।’’ उन्होंने कहा कि चमोली या कुमाउं क्षेत्र में अगर कोई बड़ा भूकंप आता है तो इसका प्रभाव दिल्ली पर भी पड़ने की आशंका है, क्योंकि यह उसी रेखा पर पड़ता है। राय ने कहा कि इसकी कोई समय सीमा निर्धारित करना असंभव है। उन्होंने कहा, ‘‘हालांकि, भूकंप चक्र के सामान्य पैटर्न के आधार पर ऐसा अनुमान है कि प्रत्येक 180 वर्ष बाद 7.5 से अधिक तीव्रता वाला भूकंप आने की आशंका रहती है। इस क्षेत्र में इस तरह का बड़ा भूकंप पिछली बार वर्ष 1803 में आया था।’’
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Old 25-07-2013, 02:10 PM   #1497
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टमाटर और सेब के छिलके से दूर होगा पानी का प्रदूषण

सिंगापुर। भारतीय मूल के एक वैज्ञानिक ने पानी का प्रदूषण दूर करने वाली दुनिया की पहले ऐसे तकनीक का विकास किया है जो प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों को दूर करने के लिए टमाटर और सेब के छिलकों का उपयोग करेगा । नेशनल यूनिवसिर्टी आफ सिंगापुर (एनयूएस) में पीएचडी के छात्र रामकृष्ण मल्लमपति ने कम मूल्य पर स्वच्छ जल उपलब्ध कराने की कोशिश के तहत आसपास मौजूद वस्तुओं का उपयोग पानी को शुद्ध करने के लिए किया । एनयूएस के फैकल्टी आफ साइंस के रसायन विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर सुरेश वालियावीत्तिल की देखरेख में यह प्रयोग किया गया है । शोध दल ने टमाटर के छिलकों का प्रयोग कर पानी में मिले हुए धातु कण सहित अन्य आॅर्गेनिक प्रदूषकों को भी निकालने में सफलता पायी । इन छिलकों की मदद से पानी में पीएच की स्थिति में भी सुधार हुआ है । इसके अलावा वह कीटनाशकों आदि को भी पानी से अलग कर देता है । इस शोध के परिणाम रॉय सोसायटी आॅफ केमिस्ट्री के जर्नल एरएससी एडवांसेज में प्रकाशित हुए हैं ।
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मोबाइल फोन का जासूसी का निशाना बनना आसान
1970 के दशक की पुरानी तकनीक हो रही है अब भी इस्तेमाल

ह्यूस्टन। दुनिया में लाखों-करोड़ों मोबाइल फोन जासूसी का आसानी से निशाना बन सकते हैं, क्योंकि 1970 के दशक की तकनीक के जरिए इनका इस्तेमाल होता है। एक नए शोध में यह दावा किया गया है। अमेरिका में होने जा रहे ‘ब्लैक हैट’ सुरक्षा सम्मेलन में इस शोध को प्रस्तुत किया जाएगा। इसमें कहा गया गया है कि पुरानी क्रिप्टोग्राफी तकनीक के इस्तेमाल के कारण बड़ी संख्या में मोबाइल फोन की सुरक्षा को खतरा है। क्रिप्टोग्राफी के जरिए मोबाइल नेटवर्क पर बातचीत संभव होती है। ‘सिक्योरिटी रिसर्च लैब्स’ के साथ जुड़े विशेषज्ञ क्रिस्टोग्राफर कर्सटन नोल ने पाया कि किस तरह से मोबाइल फोन के स्थान, एसएमएस तक पहुंच तथा व्यक्ति के वॉयसमेल नंबर में बदलाव संभव है। नोल ‘रूटिंग सिम कार्ड’ नाम से एक प्रस्तुति 31 जुलाई को लास वेगास में आयोजित ब्लैक हैट सुरक्षा सम्मेलन में देंगे। दुनियाभर में इस वक्त सात अरब से अधिक सिम कार्ड का इस्तेमाल किया जा रहा है। बातचीत के समय सिम कार्ड एनक्रिप्सन का इस्तेमाल करते हैं। नोल के शोध में पाया गया है कि सिम एनक्रिप्सन मानक 1970 के दशक हैं जिन्हें डाटा एनक्रिप्सन स्टैंडर्ड (डीईएस) कहा जाता है। शोध का संक्षिप्त रूप उनकी कंपनी के ब्लॉग पर प्रकाशित किया गया है। डीईएस को एनक्रिप्सन का सबसे कमजोर रूप माना जाता रहा है और कई मोबाइल आपरेटर अब उन्नत एनक्रिप्सन का इस्तेमाल कर रहे हैं। डीईसी के इस्तेमाल होने वाले मोबाइल फोन को भेदना आसान है। ब्लैक हैट सुरक्षा सम्मेलन 2013 का मकसद भविष्य में आईटी क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर गहन मंथन करना है। इसमें दुनिया भर के जानकार लोग शामिल होंगे।
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मलेरिया का मुकाबला करेगी नई दवा

मेलबर्न। आस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं का कहना है कि एक ऐसी दवा विकसित की गई है जो विटामिन बी 1 का इस्तेमाल करके मलेरिया को रोकने में सफल रहेगी। आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिर्टी के औषधि विशेषज्ञ केविन सालिबा और उनके दल के नए शोध का विवरण ‘नेचर कम्युनिकेशंस’ के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। मानवों की तरह मलेरिया परजीवियों को बढ़ने और प्रसार के लिए विटामिन की जरूरत होती है। इसमें विटामिन बी 1 (थियामिन) की प्रमुख भूमिका होती है। सालिबा और उनके साथियों ने विटामिन बी 1 के उपापचय के रास्तों को रोकने की दिशा में काम किया। उन्होंने कहा कि हम उन रास्तों को रोक सकते हैं जिनसे परजीवी विटामिन लेते हैं और उपापचय होता है। मलेरिया विरोधी प्रयासों के रास्ते की सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि मलेरिया परजीवी की प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता रहता है। सालिबा ने कहा कि हमने मलेरिया के खिलाफ जितनी दवाओं का इस्तेमाल किया, उनमें से अधिकांश का मलेरिया परजीवी पर असर नहीं हुआ। अब एक नई दवा का सामने आना महत्वपूर्ण है, जो ऊर्जा उपापचय में एंजाइमों के बढ़ने को नियंत्रित करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया की लगभग आबादी (3.3 अरब) के सामने मलेरिया का खतरा मंडरा रहा है।
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त्वचा की जांच की 3 डी तकनीक अब भारत में

नई दिल्ली। त्वचा रोगों का पता लगाने वाली त्रिआयामी स्किन एसेसमेंट तकनीक अब भारत में भी उपलब्ध हो गई है। इस तकनीक की मदद से त्वचा रोगों का इलाज समय से पहले ही सकता है। भारत में इस तकनीक की शुरुआत करने वाले मुंबई के पॉजिटिव हेल्थ के प्रबंध निदेशक डा. अक्षय बत्रा ने बताया कि इस तकनीक की मदद से न केवल त्वचा रोगों की समयपूर्व पर सटीक पहचान हो जाती है, बल्कि त्वचा की बनावट एवं त्वचा को सूर्य से होने वाली क्षति का भी विशलेषण हो सकता है। इसके अलावा यह तकनीक त्वचा में मौजूद मेलानिन एवं हीमोग्लोबिन की सटीक सांद्रता का पता लगाने में भी सहायता करती है। इस तकनीक का एक और अत्यंत महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इससे पूर्वानुमानित विश्लेषण करना संभव हो जाता है। 3 डी इमेजिंग डाइग्नोसिस की मदद से त्वचा में आने वाले उन बदलावों को भी देखना संभव है, जिन्हें आंखों से देखना तीन माह बाद ही संभव हो पाता है। एक अनुमान के अनुसार देश में लगभग दस प्रतिशत लोग त्वचा से सम्बंधित बीमारियों से पीड़ित हैं, जिनमें सोरियासिस सफेद धब्बे, डर्मेटाइटिस एक्जीमा, कील-मुंहासे तथा हाइपरशपिग्मेंटशन शमिल हैं। इन अनेक रोगों के साथ सामाजिक लज्जा भी जुड़ी हुई है और रोगी अक्सर इन स्थितियों के कारण मनोवैज्ञानिक समस्या का भी सामना करते हैं।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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