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Old 09-02-2013, 09:28 AM   #1
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Default भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक

भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक
राजा रवि वर्मा


प्रभु जोशी
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Old 09-02-2013, 09:29 AM   #2
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चित्रकार राजा रवि वर्मा पर लिखते हुए मुझे लगभग आधी शताब्दी के पहले के वक्त का वह हिस्सा याद आ रहा है, जिसमें ईश्वर से मेरे तअल्लुकात आज की तरह खराब नहीं हुए थे। अलबत्ता इसके उलट यह था कि मेरे संकटों के 'महाघोर' समय में, वह खुद पहल करता और इमदाद के लिए आगे आ जाता था। मसलन, जब कभी मेरे बस्ते में पेंसिल गुम जाती, पानी-पोते की शीशी फूट जाती या फिर कंचों के खेल में तकरीबन हारने की नौबत आ जाती, तब मैं क्षण भर ठिठक के आँख मूँद कर, बुदबुदाते हुए ईश्वर को बेकरारी के साथ याद करता और वह घर की अल्मारी में रखे, गीता प्रेस, गोरखपुर के 'कल्याणों' के चित्रों में से कमोबेश भाग कर आता और मेरी बंद पलकों के नीचे 'तथास्तु' की मुद्रा में मुस्करा कर गायब हो जाता। मैं आँखें खोल कर फिर से खेल में स्वयं को एकाग्र करता और धीरे-धीरे हारने के 'कगार' से ऊपर उठ कर जीत के शिखर पर चढ़ जाता।
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Old 09-02-2013, 09:29 AM   #3
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दोस्त 'जै-जैकार' कर उठते, जो मुझे अपनी जीत से ज्यादा ईश्वर की जय-जयकार लगती। कभी-कभार, कंचों और कबड्डियों से बचे वक्त में फटी-पुरानी निकरों और थेगलेदार कमीजों में रहनेवाले मेरे दोस्तों की जिज्ञासा बलवती हो जाती और वे पूछते कि 'आँख मूँदने पर क्या मुझे भगवान दिख जाते हैं? और दिखते हैं, तो वे कैसे हैं?' मैं उन्हें फटाफट भगवान की आबादी, उनके कुनबे और शक्ल-सूरत के बारे में ऐसे रोचक और प्रामाणिक ब्यौरे देता कि वे सब के सब हतप्रभ रह जाते, क्योंकि मेरे तमाम दोस्तों के पास ईश्वर की शिनाख्त के रूप में, गाँव में सिंदूर के पुते पत्थर और पेड़ों के तनों के पास गड़े, अनगढ़ आकार भर थे, जबकि मेरे द्वारा दिए गए विवरण एकदम अलौकिक थे, क्योंकि उनमें भगवान के पँखुरियों-से होंठ थे, कमलनाल-सी कोमल कलाइयाँ और गुलाबी तलवोंवाले पैर। कुल मिला कर, 'नख से शिख' तक दिव्यता का सृजन करनेवाली कमनीय काया। मुझे आज भी याद है कि मैंने जब 'कल्याण' में देखे गए चित्र के आधार पर राधाजी के रूप का बखान किया था तो मेरा सहपाठी प्रहलाद रोमांचित हो कर बेसाख्ता बोला था, 'प्रभु, म्हारे राधाजी दिखी जाए तो हूँ तो उनके छू लूँ और बस मरी जाऊँ।' अर्थात राधा का सौंदर्य इतना अनिंद्य, अलौकिक और अलभ्य लगा था, अपने उस सहपाठी के बाल मन को कि स्पर्श की कामना के पूरी होने के बाद शेष जीवन को जीने की निरर्थता का बोध पैदा करनेवाला था।
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Old 09-02-2013, 09:30 AM   #4
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दरअसल, भगवानों के हुलियों के बखान की कूवत मुझमें पिता द्वारा गीता प्रेस, गोरखपुर से मँगवाई गई कोई आधा दर्जन उन चित्रावलियों से आई थी, जिनमें भारतीय मिथकीय अवतारों के तमाम ढेरों चित्र थे। मैंने धीरे-धीरे करके अपने सभी दोस्तों को वे चित्रावलियाँ दिखाई थीं। बाद इसके हम सारे के सारे दोस्त उन अलौकिक भगवानों को निकट से जाननेवालों में से हो गए।

हमारे लिए वे चित्र ही ईश्वर के चेहरे-मोहरे और कद-काठी के सर्वथा प्रामाणिक और अंतिम दस्तावेज थे। हम अपनी नींदों में भी उनके साथ रहने लगे थे, लेकिन तभी एक दिन अचानक हम सबको गहरी ठेस लगी। उस ठेस से मेरे भीतर एक अजीब-सी बेकाबू रुलाई उठी, जो आज तक मेरे भीतर जीवित है। मेरे ही नहीं, कदाचित मुझसे पहले पैदा हुए कई-कई लोगों के भीतर भी बचपन की कुछेक रुलाइयाँ जीवित होंगी। उस ठेस में जितना मर्मभेदी और दारुण दुःख था, साथ ही साथ उतना ही विस्मय भी था।

हुआ यों कि गाँव में सतनारायण महाराज के यहाँ काँच में मढ़ा हुए कोई बड़ा-सा चित्र उज्जैन से लाया गया था। चित्र ऐसा अनोखा था कि तुरंत खबर फैल गई थी, क्योंकि यह छोटे-से गाँव की ऐतिहासिक घटना थी। तब तक हमारे आसपास के गाँवों में कैलेंडर जैसी चीज ने प्रवेश तक नहीं किया था।
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Old 09-02-2013, 09:30 AM   #5
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मैंने भी अपने दोस्तों की मंडली को लाय की तरह पूरे गाँव में फैल चुकी इस घटना की सूचना तुरत-फुरत पहुँचाई और सबको एकत्र कर लगभग उस छोटे-से जत्थे के नेतृत्व का दायित्व अपने कंधे पर ले कर उस चित्र को देखने गया। हमने देखा और यक-ब-यक हुआ यह कि चित्र को देखते ही हम सबों के भीतर के अलौकिक संसार में अफरा-तफरी मच गई। हमने एक-दूसरे की तरफ कुछ इस तरह हक्का-बक्का हो कर देखा, गालिबन पूछना चाहते हों कि यह क्या हो गया? दरअसल सामने टँगे चित्र में दिखाई दे रहीं 'राधाजी' तो कोई दूसरी ही 'राधाजी' थी। अभी तक हमारे द्वारा देखी और लगभग निकट से बखूबी जान ली गई राधाजी से बिलकुल अलग। न तो पंखुरी जैसे होंठ। न चिंतामणि-सी अलौकिक देह। न दिव्य और दीप्त त्वचा। बल्कि उनकी त्वचा, उलटे हमारे घर की बंइराओं स्त्रियों जैसी थी, जिनकी त्वचा से पसीना भी टपकता है। और इससे भी ज्यादा तो विस्मय करनेवाली बात यह थी कि जैसे कृष्ण के बगल में 'राधाजी' की जगह पड़ोसवाली 'मनोरमा भाभी' ही साड़ी लपेट कर बैठ गई है। और येल्लो ! उन्होंने भी हड़बड़ी में पल्ला भी उलटा ही ले लिया है। उलटे पल्लेवाली साड़ी पहनी स्त्री तो हमने अभी तक गाँव में देखी तक नहीं थी। कृष्ण भी मेरे पास की चित्रावलियों जैसे 'प्रकट हो सकनेवाले' कृष्ण नहीं थे - देवत्व से बिलकुल रहित। वे 'राधाजी' की तरफ कुछ ऐसी दृष्टि से देख रहे थे कि यदि हम लोगों ने उनकी तरफ से तनिक भी आँखें फेरीं कि वे मौके का लाभ उठा कर राधाजी के गाल को चूम लेंगे। ऐसी दृष्टि से देखनेवाले बिना लिहाज के उन कृष्ण को देख कर शर्म हमें आने लगी थी।
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Old 09-02-2013, 09:30 AM   #6
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और अब हम चुपचाप मुँह लटका कर लौट रहे थे। हम सबों को एक नए और अपरिचित-से दुःख ने घेर लिया था। हमारी मनोदशा इस तरह की हो गई थी कि हम दोस्तों में एक-दूसरे से आँख मिलाने लायक ताकत भी छिन चुकी थी। उस चित्र ने हमारी अभी तक की अवधारणा को संदिग्ध कर दिया था। वास्तव में वह चित्र कोई सामान्य चित्र नहीं था, बल्कि यथार्थवादी शैली में बनाई गई राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की चित्र कृति थी, जिसके सामने हम सब हतप्रभ रह गए थे। ठेस चित्र ने नहीं, 'यथार्थ' ने पहुँचाई थी। क्योंकि, गोकुल का लीलाधारी कृष्ण, अपना 'दिव्यत्व' खो कर पाँच फुट छह इंच के निहायत ही सामान्य मनुष्य की तरह सामने चित्र में खड़ा था। यह कला में ईश्वर से उसकी अलौकिकता का अपहरण था। राधा में भी 'पावनता' के स्थान पर एक किस्म की 'ऐंद्रिकता' थी। पवित्रता की 'आभा' और 'आलोक' के बजाय देह केंद्र में आ गई थी। कृष्ण की आँखों में प्रेम का दैहिक चरितार्थ प्रकट हो रहा था। भगवान हमारे देखे भगवान से छोटा और सामान्य (लिटिल-लेस-देन गॉड) हो गया था।
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Old 09-02-2013, 09:30 AM   #7
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बहरहाल, इस चित्र ने मेरे कल्पनालोक को तो छठे दशक के उत्तरार्द्ध में संकटग्रस्त किया था, लेकिन वास्तव में तो ऐसा संकट उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में समूचे भारतीय कला जगत ने अनुभव किया था, क्योंकि राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक भारतीय कलाजगत में एक ऐसे समय में अवतरित हुए थे, जब कला के सिर्फ दो छोर थे - एक तो था, 'शास्त्र' जो सामंतयुगीन उच्च वर्ग के अधीन था और दूसरा था 'लोक'. जो ग्रामीण जनसमुदाय के बीच ही अपना सर्वस्व जोड़े हुए था।

शास्त्र के नाम पर दो-तीन स्पष्ट वर्गीकरण थे। मसलन, चित्रांकन की राजपूत शैली तथा मुगल कलमकारी। लेकिन, दोनों शैलियाँ ही अपने शानदार अतीत का वैभव खोना शुरू कर चुकी थीं। वे एक ध्वंस का सामना कर रही थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते वर्चस्व ने सामंतयुगीन सत्ता को इतना युद्धरत बना दिया था कि कलाओं के परंपरागत संरक्षण का काम उनके लिए अब दूसरे क्रम पर था। कहना चाहिए कि कलाएँ उनकी प्राथमिकता के काफी निचले दर्जे पर थीं। इसके साथ ही जो भारतीय कलम और कूँचीकार चितेरों से काम ले रहे थे, उसमें बादशाह द्वारा शिकार किए जाने या राधाकृष्ण और शिवपार्वती के बहाने इरोटिक चित्रकारी की जा रही थी। कदाचित यही वह कालखंड था जब भारतीय चित्रकला बंगाल स्कूल के जरिए अपनी अस्मिता की तलाश में जापान की जलरंग-पद्धति (वाश तकनीक) को अपना कर एक नई सौंदर्य दृष्टि रचने के लिए संघर्षरत थी। प्रकारांतर से यह एक किस्म का नया उदयकाल था।
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Old 09-02-2013, 09:31 AM   #8
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संयोग से 'कल्याण' के अंकों में छपने वाले अधिकांश चित्र इसी चित्रशैली के थे और उनमें शारदा उकील जैसे महान चित्रकारों द्वारा रची गई जलरंग कृतियाँ हुआ करती थीं। उस कलादृष्टि में भारतीय मूर्तिशास्त्र को सामने रख कर एक नई आकृतिमूलकता को आहूत किया जा रहा था, जिसमें देवाकृति का आदर्शीकरण था। शारदा उकील जैसे महान चित्रकार उसी गौरवमयी परम्परा की उपज थे।

ठीक इसी काल संधि पर त्रिवेंद्रम से पच्चीस किलोमीटर दूर किल्लीमनूर से निकल कर त्रावणकोर पहुँच कर एक पच्चीस वर्षीय युवक वियना की चित्र प्रदर्शनी में स्वर्ण पदक हासिल करता है। उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय यथार्थवादी शैली में वह ऐसी दक्षता के साथ काम करता है कि समूचे कला जगत को हतप्रभ कर देता है। इसमें भी उल्लेखनीय बात यह थी कि उसने कला के किसी भी संस्थान से अकादमिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी। वह पूरी तरह आत्म-दीक्षित कलाकार ही था, जबकि वह निष्णात जलरंगों में था और तैलरंगों को वहीं भारत में पहली बार इस्तेमाल कर रहा था। उसने वीणा बजाती हुई एक भारतीय स्त्री का चित्रांकन किया था। रंग की 'स्पेस क्रिएटिंग प्रापर्टी' का जो दोहन उसने किया था, वह किसी भी यूरोपीय महत्वाकांक्षी चितेरे के लिए ईर्ष्या का कारण बन सकता था और हुआ भी यही कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के 'कमीशंड आर्टिस्टों' ने इस चित्रकार को ताउम्र अहमियत नहीं दी - और, कहने की जरूरत नहीं कि यह चित्रकार था, राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक।
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Old 09-02-2013, 09:31 AM   #9
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राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक जन्म से राजा नहीं थे, लेकिन उन्हें उनकी अद्भुत प्रतिभा ने अंततः राजा बना दिया। हालाँकि वे एक बेहद सुरुचि-संपन्न परिवार में ही जन्मे थे, जहाँ साहित्य और कला की अत्यंत परिष्कृत समझ और अभिजात दृष्टि थी। माँ उमा अंबा तथा पिता इजुमाविल नीलकांतन भट्टत्रिपाद की संतान, राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की प्रतिभा की पहचान पहली बार उनके चाचा ने की थी।

एक दफा 'राजा-राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक' राजभवन की दीवार पर तंजोर शैली में चित्रांकन कर रहे थे और बीच में थोड़ी देर के लिए काम छोड़ कर उन्हें अन्यत्र जाना पड़ा। जब बाहर से लौट कर आए तो उन्होंने आश्चर्य से देखा कि उनके मात्र चौदह वर्षीय भतीजे ने न केवल उसमें रंग भर दिए हैं, बल्कि चित्र का शेष रेखांकन भी पूरा कर दिया है। उन्होंने बालक को भावातिरेक में गले लगा लिया। बस यही वह क्षण था, जिसमें चाचा ने तय किया कि वे बालक को एक मशहूर चितेरा बनाकर रहेंगे।
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Old 09-02-2013, 09:31 AM   #10
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वे बालक राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को किल्लीमनूर से त्रावणकोर के महाराजा अयिल्लम तिरुनल के पास ले गए, जहाँ उसने राजप्रासाद के दरबारी चित्रकार रामास्वामी नायकर से जलरंग चित्रकारी सीखी। राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक के लिए यह समय कठिन तपस्या का समय था। एक ओर जहाँ उन्हें जलरंग जैसे माध्यम में दक्षता हासिल करना थी, वहीं दूसरी ओर रेखांकन के शास्त्रीय पक्ष का पर्याप्त अध्ययन करना भी था। परिणामस्वरूप उन्होंने राजप्रासाद में एक बहुत संपन्न पुस्तकालय भी मिल गया, जिसमें मलयालम और संस्कृत के साहित्य और कला पर एकाग्र सैकड़ों ग्रंथ थे, जिन्हें उन्होंने खँगाल डाला। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र, मूर्तिशास्त्र तथा संस्कृत नाटकों के गहन अध्ययन ने उनमें मिथकीय इमेजरी की विराट और विशिष्ट समझ, संवेदना और सौंदर्य दृष्टि के विकास में एक ठोस आधारभूमि का काम किया। यहाँ तक कि बाद में राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने संस्कृत के छंदों में कविताएँ भी लिखीं।
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