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Old 09-02-2013, 09:31 AM   #11
anjaan
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Default Re: भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक

इस तरह रंग और शब्द दोनों के मर्म को जानने के साथ ही उन्होंने संगीत के स्वरों को भी समझा। कथकली की कई मुद्राओं को उन्होंने एक कलाकार की दृष्टि से आत्मसात किया। इसी बीच एक दिन मद्रास के एक अखबार में तैलरंगों का एक विज्ञापन छपा। यह माध्यम उनके लिए नितांत अपरिचित और चुनौतीपूर्ण था। चाचा राजा-राजा रवि वर्मा ने युवा भतीजे के लिए तैलरंगों को उपलब्ध कराया, लेकिन दिक्कत यह थी कि वे उसके इस्तेमाल की तकनीक से नितांत अनभिज्ञ थे। उन्होंने त्रावणकोर के दरबार में पोर्टेट (व्यक्ति चित्र) बनाने के लिए आए एक ब्रिटिश चित्रकार थियोडोर जेनेसन से आग्रह किया कि वे उन्हें तैल रंगों में काम करने की तकनीक का प्रशिक्षण देने की अनुकंपा करें, लेकिन जलरंग में राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक द्वारा किए गए काम को देख कर वह यह जान चुका था कि इस ऐसी अदम्य इच्छा से भरे प्रतिभाशाली युवक को तैलरंग का उपयोग सिखाना स्वयं के लिए एक खतरा मोल लेना होगा।
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Old 09-02-2013, 09:31 AM   #12
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Default Re: भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक

बहरहाल, ईर्ष्यावश उसने स्पष्ट इनकार कर दिया। उसने कहा कि वह उसके द्वारा बनाए चित्रों को तो देख सकता है, लेकिन रंग संयोजन और रंग मिश्रण के समय वह किसी को भी अंदर आने की अनुमति नहीं देगा। उनकी आगामी संभावनाओं का आकलन करते हुए रामास्वामी नायकर ने भी तैलरंग के वापरने की तकनीक बताने से इनकार कर दिया। नतीजतन, युवा राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने गहरे मनोयोग के साथ भिड़ कर स्वयं ही सबकुछ सीख लिया और कुछ दिनों में महाराज तथा महारानी का सुंदर कंपोजीशन उसी यथार्थवादी शैली में तैलरंग से बना दिया।

भारतीय परंपरागत चित्रशैली में मूलतः चित्रांकन में कागज की सतह पर एक आयामी ही काम होता था। वे चित्रकृतियाँ 'चित्रलेख' की-सी थीं, क्योंकि उन चित्रकृतियों को देख कर यह नहीं बताया जा सकता था कि चित्रकार ने उस चित्र को किस जगह से देख कर बनाया है। वे 'सीन फ्रॉम नोव्हेयर' थे, जबकि चित्रांकन की यूरोपीय यथार्थवाद शैली में एक स्पष्ट पर्सपेक्टिव उभरता था, उसमें छाया और प्रकाश के बीच चीजों को देखने की अनिवार्यता थी। इसके अध्ययन के लिए उन्होंने पद्मानाभनपुर के मलाबार स्कूल ऑफ पेंटिंग में दाखिला भी लेना चाहा, लेकिन उनको निराशा ही हाथ लगी। इस घटना ने राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को गहरा आघात दिया, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें उनकी काम करते रहने की निरंतरता ने इससे उबार लिया। बाद में उन्होंने स्वयं ही संस्था में प्रवेश पाने के विचार को त्याग दिया था तथा महाराजा की मदद से लंदन की रॉयल अकादमी द्वारा पश्चिम की चित्रकला पर प्रकाशित होनेवाली पत्रिकाओं और बहुमूल्य पुस्तकों को मँगवाया और अत्यंत सूक्ष्मता के साथ स्वयं यूरोपीय कलाकारों की तकनीक और चित्रभाषा को समझ कर काम करना शुरू किया।
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Old 09-02-2013, 09:32 AM   #13
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संयोगवश लॉर्ड हर्वर्ड राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक के काम से इतना अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने उनकी चित्रकृतियों को अंतरराष्ट्रीय कला प्रदर्शनियों में स्पर्धा के लिए भेजा और जब वहाँ उन्हें स्वर्णपदक मिला तो सारा दृश्य ही बदल गया। यह उनकी कला की ख्याति का ही सुफल रहा कि ड्यूक ऑफ बकिंघम ने राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक द्वारा महाकवि कालिदास के चर्चित महाकाव्य शाकुन्तलम् की नायिका को ध्यान में रख कर बनाई गई चित्रकृति 'शकुंतला' खरीदी। तब के समय में उन्होंने उसका मूल्य पचास हजार रुपए अदा किया था। यहाँ तक आते-आते उनके सामने एक मार्ग स्पष्ट हो चुका था कि अब उन्हें अपनी प्रतिभा को नाथ कर अपनी कला को किस रास्ते पर ले जाना है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि उनके लिए जो कला दिशा चुनी जा रही थी, उसकी वाजिब वजह यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी के कमीशंड आर्टिस्ट भारत आ कर जो चित्रांकन कर रहे थे, उसमें जहाँ एक ओर भारत को साँपों, जादू-टोनों और भूख से बिलबिलाते नंगों-भूखों का देश बताया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर पंडों-पुजारियों और नदियों में करोड़ों की संख्या में एक साथ नहानेवालों का देश था। उस समय के ब्रिटिश चित्रकारों ने जो रेखांकन और चित्रांकन किए हैं, उनसे इस तथ्य का सत्यापन किया जा सकता है।
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Old 09-02-2013, 09:32 AM   #14
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दरअसल, यह वह कालखंड था, जब औपनिवेशक सत्ता के विरुद्ध एक धीमी लपट लगभग सारे देश में उठ रही थी, क्योंकि भारतीयों को लग रहा था कि वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शिकंजे में फँस कर अपनी अस्मिता खो रहे हैं। भारत की भव्य और विराट परंपरा पर वक्त की धूल जमती जा रही है। निश्चय ही उसकी तलाश में सिर्फ गर्दन मोड़ कर पीछे देखा जा सकता था। निकट अतीत गड़बड़ था और भविष्य अस्पष्ट और एक गहरी धुंध के पार था। इसलिए निकट अतीत के उत्खनन को उन्होंने इरादतन रद्द करते हुए सुदूर अतीत या कहें कि पवित्र की तरफ अग्रसर होना तय किया, क्योंकि विराट और वैविध्य वहीं भर ही शेष था - जो ऊर्जा देने के विकल्प की तरह सामने था। शायद यही वह द्वंद्व था, जिसने राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को अपने चित्रों के विषयों को निर्धारित करने में एक बड़ी और निर्णायक भूमिका अदा की। उन्होंने संस्कृत नाटकों, गीतगोविन्दम् और 'रसमंजरी' से मदद ली और यूरोपीय 'न्यू क्लासिकल रियलिज्म' की संभावनाओं का दोहन करते हुए, भारतीय पुराकथाओं और देवी-देवताओं का चित्रण आरंभ किया। किंचित इसी कारण चित्रित देव-स्त्रियों की काया कुछ-कुछ पृथुल बनने लगी। दरअसल, रवि वर्मा ने सौम्य भाव की निर्दोष सात्विकता को अपनी कला की गहरी ऐंद्रिकता के जरिए अतिक्रमित किया। नतीजतन वे एक खास किस्म की सेंसुअसनेस से भरी स्त्रियाँ थी, जो पूज्या से अधिक रूपाविष्टता का भाव लिए हुए थीं। बहरहाल निर्बाध रूप से यह कहा जा सकता है कि राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की चित्रकृतियाँ रंग व्यवहार में राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की क्षमताएँ रेम्ब्राँ, गोया और टिशियन से रत्ती भर कम नहीं थी। अभी भी गोया की नेकेड माजा, रेम्ब्राँ की 'सास्किया' या टिशियन की वीनस ऑफ अर्बिनो से राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की किसी भी निवर्सना की तुलना बाआसानी की जा सकती है। बल्कि, यह कहा जा सकता है कि वे चित्रभाषा में भी यूरोप के उपर्युक्त महान चित्रकारों के स्तर पर ठहरती हैं। कहना न होगा कि उनकी चित्रकृतियों में देह की कामाश्रयी अभिव्यक्ति रंग-अभिव्यक्ति में काव्यात्मक लगती है। सेक्स को लिरिकल बनाने का यह अद्भुत उपक्रम था, जो हमारे रस-सिद्धांत की समझ से पैदा हुआ था।
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Old 09-02-2013, 09:32 AM   #15
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कहना न होगा कि निश्चय ही पुराकथाओं और देवी-देवताओं का चित्रण आसान नहीं था, क्योंकि उनके आभूषण और वस्त्रविन्यास के साथ ही साथ उस परिवेश और काल को भी समाहित करना था, जिसका कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था। राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने महाराष्ट्रीय नौ गज की साड़ी को देवियों का परिधान बनाया तो तत्कालीन कला आलोचकों ने राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की बहुत आक्रामकता के साथ आलोचना की। उनका तर्क था कि क्या तब ऐसे वस्त्र और परिधान संभव नहीं थे, फिर साड़ी के साथ चित्रण में एक ऐसी स्थानीयता भी आ रही थी, जिससे मिथकीय पात्रों और दरित्रों की भौगोलिकता ही संदिग्ध और संकटग्रस्त होने लगी थी। राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने वसंतसेना नामक चित्र में नौ गजवाली साड़ी को पहली बार ऐसा रूप दिया था कि धीरे-धीरे वह भारतीय स्त्री की सार्वदेशीय पोशाक बन गई। बाद में इसी उलटे पल्लेवाली साड़ी को प्रभु जोशी की भाभी ज्ञानदानंदिनी ने पहन कर सर्वस्वीकृत बना दिया। बहरहाल साड़ी लपेटने की इस शैली ने परंपरा को समकालीनता प्रदान की और आज भी वह भारतीय स्त्री के अभिजात्य परिधान की एक बड़ी जगह घेरती है।
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Old 09-02-2013, 09:32 AM   #16
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राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक सुबह चार बजे उठ कर अपने चित्र बनाते थे। प्रकाश और छाया के सूक्ष्म अध्ययन और आकलन के लिए यह समय सर्वाधिक उपयुक्त लगता है - अँधेरे की विदाई और उजाले की दबे पाँव आमद। एक नीम अँधेरे और नीम उजाले के बीच बैठ कर वे घंटों अपने बनाए चित्र को देखा करते थे।

उनकी कृतियाँ धीरे-धीरे पूरे देश में लोकप्रिय होने लगी, जबकि भारतीय कलाजगत उन्हें निरंतर निरस्त कर रहा था। उनकी कलादृष्टि राजपूत तथा मुगल कला के मिश्रण से निथर कर बनी चित्रदृष्टि को ठेस पहुँचा रही थी। उन्होंने शांतनु और मत्स्यगंधा, नल-दमयंती, श्रीकृष्ण-देवकी, अर्जुन-सुभद्रा, विश्वामित्र-मेनका जैसे जो चित्र बनाए, उनमें उन्होंने स्त्री देह का भारतीय कलादृष्टि के परम्परागत ढाँचे में बहुत शाइस्तगी से एक नया ही सौंदर्यशास्त्र रचा, लेकिन उन्हें भीतर कहीं यह बात सालती थी कि कलाकार और कला समीक्षक उनके काम को लगातार और निर्ममता के साथ निरस्त कर रहे हैं।

अतः उन्होंने अपने छोटे भाई के साथ उत्तर भारत की सांस्कृतिक यात्रा की ताकि वे उसकी सांस्कृतिक और भौगोलिक समग्रता को पूरी तरह आत्मसात कर सकें। बाद इसके ही उन्होंने अपनी चित्रकृतियों में भूदृश्य भी चित्रित करना शुरू किया। चित्र में पृष्ठभूमि के रूप में जो लैंडस्केप होते, वह उनके अनुज किया करते थे। इस बीच दीवान शेषशय्या ने टी. माधवराव के जरिए राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को बड़ौदा के सयाजीराव महाराज से मिलवाया। बड़ौदा में रह कर उन्होंने पोर्टेट तो किए ही, देवी-देवताओं को विषय बना कर कई अद्भुत ऐतिहासिक चित्रकृतियाँ तैयार कीं। उनकी कृतियों से प्रभावित हो कर स्वामी विवेकानंद ने 'वर्ल्ड रिलीजन कांग्रेस ऑफ शिकागो' में उनकी चित्र कृतियाँ प्रदर्शनार्थ मँगवाईं, जहाँ उन्हें पदक भी प्रदान किए गए।
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Old 09-02-2013, 09:33 AM   #17
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जहाँ एक ओर भारत में उनके द्वारा चित्रित स्त्री की देह को कामना की सृष्टि करनेवाली कह के निरादृत किया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर विदेशों में इस विशिष्टता की सराहना की जा रही थी। हालाँकि आज भी कुछ कला समीक्षक उनकी सौंदर्यमूलक ऐंद्रिकता की वजह से उनके द्वारा चित्रित स्त्री के बारे में कहते हैं कि राजा रवि वर्मा ने तो एक तरह से 'फेंसीफुल रिप्रजेंटेशन ऑफ वूमन्स' बॉडी को ही पेंट किया है। यह सर्वविदित है कि स्त्री-चित्रण में जिस मॉडल की वे सहायता लेते थे, धीरे-धीरे वह उनके जीवन में इस कदर दाखिल हो गई कि अपने सरस्वती और लक्ष्मी के चित्रों में प्रकारांतर से उन्होंने उसी सुगंधी नाम की स्त्री की मुखाकृति और छवियों का आश्रय लिया। कुछ वर्षों पहले सुगंधी या सुगनीबाई से उनका जो रागात्मक संबंध बना, उसे ले कर केतन मेहता और शाजी एन करुण ने हिंदी फिल्म बनाने की घोषणा की थी, जिसमें सुगंधी की भूमिका के लिए माधुरी दीक्षित को प्रस्तावित किया गया था। दुर्भाग्यवश उस योजना पर काम शुरू ही नहीं हो पाया।
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Old 09-02-2013, 09:33 AM   #18
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दरअसल, इसे समय की विसंगति या कहा जाए कि यह राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक का दुर्भाग्य रहा कि वे अपने जीवन के आखिरी वर्षों में मुंबई आए, जब उनकी सर्जनात्मक ऊर्जा का चमत्कृत कर देनेवाला कालखंड बीत चुका था। मुंबई आ कर उन्होंने 1894 में अपनी चित्रकृतियों के छापे बना कर अधिकतम लोगों के पास अधिकतम पहुँचने का संकल्प किया। मुंबई के लोनावाला में उन्होंने अपना प्रेस स्थापित किया। कहते हैं कि उन्होंने जर्मनी से ही छपाई मशीन मँगवाई थी और तकनीशियन भी बुलाए थे। उनके लिए इंग्रेविंग का काम धुंडीराज गोविंद किया करते थे। लेकिन हुआ यह कि धीरे-धीरे घाटा बढ़ता ही चला गया, क्योंकि वे इंग्रेविंग के लिए किए जा रहे निवेश पर स्वभावगत कारणों से यथोचित निगाह नहीं रख पाए और उन्हें छापाखाना बंद कर देना पड़ा। वे भारी कर्ज से घिर गए थे। धुंडीराज गोविंद बाद में दादा फालके के नाम से जाने गए। राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक के छापों ने उनके स्वप्न को आधा-अधूरा ही सही, लेकिन काफी कुछ अर्थों में कण-कणवाले भगवान को घर-घर के भगवान के रूप में साकार कर दिया। यह एक किस्म का नया 'डोमेस्टिकेशन ऑफ गॉड' था। कहना न होगा कि मंदिर से उठा कर भगवान को राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने सामान्य आदमी के घर की बैठक का स्थायी नागरिक बना दिया। सारे देवी-देवता घर के सदस्य की तरह भारतीय घरों में दाखिल हो गए। उनके द्वारा बनाए गए चित्रों में ईश्वर अपने ईश्वरत्व से कुछ कम और मनुष्यत्व से कुछ ऊपर था।
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Old 09-02-2013, 09:33 AM   #19
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उनके इसी 'प्रोलिफिक प्रॉडक्शन' के प्रयास के कारण उन्हें कैलेंडर आर्टिस्ट कह कर नए तरीके से खारिज किया जाने लगा। लेकिन, एक विचित्र स्थिति यह थी कि जहाँ एक ओर भारतीय कला-जगत में उनकी जितनी अस्वीकृति बढ़ रही थी, ठीक दूसरी ओर सामान्य जनता के बीच वे उतने ही अधिक स्वीकृत होते जा रहे थे। जनता में उनकी कला की इस पहुँच को ईस्ट इंडिया कंपनी भी पसंद नहीं कर रही थी। खासकर, जब उन्होंने शिवाजी और बाल गंगाधर तिलक के व्यक्ति चित्र बनाए तो वे तत्कालीन औपनिवेशक सत्ता के खिलाफ लड़ रहे आंदोलनकारी लोगों के बीच भी सम्मानजनक दृष्टि से देखे जाने लगे। अंग्रेजों को लगने लगा था, यह आदमी पराधीन मुल्क के अतीत के प्रति लोगों में अदम्य रागात्मक उन्माद पैदा कर रहा है, जो एक तरह से प्रेत को साक्षात करना है। प्रकारांतर से यह देश में चल रहे तत्कालीन स्वदेशी आंदोलन का कलाजन्य समर्थन था।

उम्र के आखिरी वर्षों में निश्चय ही वे अपनी ख्याति के चरम पर थे। उन्हें एशिया का रेम्ब्राँ कहा जाने लगा था, लेकिन उन्हें लग रहा था कि कला का मर्म तो वे अब समझने लगे हैं। वे घंटों एक जगह खड़े हो कर दिन-रात काम करते थे। इसी श्रम ने उनकी देह को तोड़ना शुरू कर दिया था। इसी बीच उन्हें उन दिनों राजरोग कहे जानेवाले मधुमेह ने घेर लिया। वे थकने लगे थे। उन्हें विदेशों से आमंत्रण आते थे, लेकिन समुद्र-यात्रा न करनेवाली उस पुरानी अवधारणा के चलते उन्होंने तमाम आमंत्रण ठुकरा दिए। वे देश में रह कर ही दुनिया भर का हो जाना चाहते थे। शायद, वे सोचते थे कि अपनी जड़ों को अपनी ही मिट्टी में धँसे रहना चाहिए।
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Old 09-02-2013, 09:33 AM   #20
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इस उम्र तक वे वास्तव में ही बिना किसी तरह का राजमुकुट धारण किए राजा हो चुके थे। उनकी दो-दो पोतियाँ राजघराने में ब्याह कर राजरानियाँ बन चुकी थीं। वे सेतुलक्ष्मी को बहुत प्यार भी करते थे। रावण द्वारा सीता के हरण के चित्रण में उन्होंने सीता की मुखाकृति अपनी इसी पोती की छवि से ली थी।

बहरहाल, उनकी आत्मा के अतल में सुलगती छुपी थी एक आग, जिसकी लपट में उन्होंने प्रेम के मर्म को पहचाना था। इसी वक्त उनके खिलाफ तब के एक नैतिकतावादी ने एक मुकदमा भी किया था, जो इस मुद्दे को ले कर था कि उन्होंने जिस स्त्री का चेहरा सरस्वती या लक्ष्मी के प्रतिमानीकरण के लिए चित्रित किया था, उसी स्त्री का निवर्सन चित्र बना कर उन्होंने भारतीय मानस के शुचिताबोध का अपमान किया। इस मुकदमे को लड़ने के लिए उन्होंने कोई वकील नहीं किया और स्वयं ही लड़ा और जीत भी गए। उस मुकदमे में की गई तवील जिरहों पर अभी तक कला जगत ने ध्यान नहीं दिया है, जबकि वह एक अद्भुत पाठ हो सकता है, जो बता सकता है कि सामाजिक नैतिकता का कठिन प्रशिक्षण कलानुभव में विघ्न का कारण बन कर किस तरह सामने आ सकता है।
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