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Old 20-01-2013, 07:59 PM   #1
aksh
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एक साधू अपने शिष्य के साथ नदी में स्नान कर रहे थे. तभी एक बिच्छू जल की धारा में बहता हुआ उधर आया और साधू ने उसे पानी से निकालने के लिए अपने हाथ पर लेने की कोशिश की. बिच्छू ने साधू के हाथ पर तेज डंक का प्रहार किया और साधू के हाथ से छूट कर दूर जा कर गिरा. तभी साधू ने दोबारा उसे हाथ में लेकर बचने की कोशिश की पर बिच्छू ने एक बार फिर से तेज डंक का प्रहार किया और साधू के हाथ से छूट कर दूर जा कर गिरा. साधू ने उसे फिर बचने के लिए हाथ बढाया और बिच्छू ने फिर से डंक मारा और यह क्रम कई बार चला और अंततः साधू ने बिच्छू को किनारे पर पहुंचा दिया. पर इस क्रम में साधू के हाथ में कम से कम ६-७ डंक लग चुके थे. एक चेला जो ये सारा उपक्रम देख रहा था, बोला " महाराज जब ये बिच्छू बार बार आपको डंक मार रहा था तो फिर आपने उसे इतने डंक खाकर क्यों पानी से बाहर निकाला ? "
साधू बोले " बिच्छू का स्वभाव ही डंक मारने का होता है और वो अपने स्वभाव को नहीं छोड़ सकता "
चेला बोला " तो फिर आप तो उसको बचाना छोड़ सकते थे "
साधू बोले " जब बिच्छू जैसे प्राणी ने अपना स्वभाव नहीं छोड़ा तो फिर मैं क्यों साधू होकर अपना स्वभाव त्याग देता और बिच्छू को ना बचाता ?"
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Old 20-01-2013, 07:59 PM   #2
aksh
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महर्षि धौम्य वन में आश्रम बनाकर रहा करते थे. वे बहुत ही विद्वान महापुरुष थे. वेदों पर उनका पूरा अधिकार था तथा अनेक विद्याओं में वे पारंगत थे दूर-दूर से उनके आश्रम में बालक पढ़ने के लिए आया करते थे और शिक्षा प्राप्त करके अपने-अपने स्थानों पर लौट जाते थे. ऋषि धौम्य के आश्रम में आरूणि नाम का एक शिष्य भी था. वह गुरु का अत्यन्त आज्ञाकारी शिष्य था. सदा उनके आदेश का पालन करने में तत्पर रहता था यद्यपि वह अधिक कुशाग्र बुद्धि नहीं था परन्तु इस आज्ञाकारिता के गुण के कारण वह ऋषि धौम्य का प्रिय शिष्य था. एक दिन बड़े जोर की वर्षा हुई, जो लगातार बहुत देर तक होती रही. आश्रम में एक उसके चारों ओर पानी ही पानी हो गया. आश्रम के चारों ओर आश्रम के खेत थे जिनमें अन्न तथा साग-सब्जी उगी हुई थी. वर्षा की दशा देखकर ऋषि को यह चिन्ता हुई कि कहीं खेतों में अधिक पानी न भर गया हो. यदि ऐसा हो गया तो सभी फ़सल नष्ट हो जाएंगी. उन्होंने आरूणि को अपने पास बुलाया और उससे कहा कि वह जाकर देखे कि खेतों में कहीं अधिक पानी तो नहीं भर गया. कोई बरहा (नाली) तो पानी के जोर से नहीं टूट गया है. यदि ऐसा हो गया है तो उस जाकर बंद कर दें. आरूणि तुंरत फावड़ा लेकर चल दिया. वर्षा जोरों पर थीं पर उसने इसकी कोई चिन्ता न की. वह सारे खेतों में बारी-बारी से घूमता रहा. एक जगह उसने देखा कि बरहा टूटा पड़ा है और पानी बड़े वेग के साथ खेत में घूस रहा है. वह तुंरत उसे रोकने में लग गया. बहुत प्रयास किया परन्तु बरहा बार-बार टूट जाता था. जितनी मिट्टी वह डालता सब बह जाती. काफ़ी देर संघर्ष करते हो गई लेकिन पानी को आरूणि नहीं रोक पाया. उसे गुरु के आदेश का पालन करना था चाहे कुछ भी हो. जब थक गया तो एक उपाय उसकी समझ में आया, वह स्वंय उस टूटी हुई मेंड़ पर लेट गया अब उसके बहने का तो प्रश्न ही नहीं था. पानी बंद हो गया और वह चुपचाप वहीं लेटा रहा. धीरे-धीरे वर्षा कम होने लगी, लेकिन पानी का बहाव अभी वैसा ही था, इसलिए उसने उठना उचित नहीं समझा.
इधर, गुरु को चिंता सवार हूई. आख़िर इतनी देर हो गई आरूणि कहां गया ?. उन्होंने अपने सभी शिष्यों से पूछा, लेकिन किसी को भी आरूणि के लौटने का ज्ञान नहीं था. तब ऋषि धौम्य कुछ शिष्यों को साथ लेकर खेतों की ओर चल दिए. वे जगह-जगह रूक कर आरूणि को आवाज लगाते लेकिन कोई उत्तर न पाकर आगे बढ़ जाते. एक जगह जब उन्होंने पुनः आवाज लगाई "आरूणि तुम कहां हो?" तो आरूणि ने उसे सुन लिया, लेकिन वह उठा नहीं और वहीं से लेटे-लेटे बोला, "गुरुजी मैं यहाँ हूं " गुरु और सभी उसकी आवाज की ओर दौड़े और उन्होंने पास जाकर देखा कि आरूणि पानी में तर-बतर और मिट्टी में सना मेंड़ पर लेटा हुआ है. गुरु कर दिल भर आया. आरूणि की गुरु भक्ति ने उन्हें हिलाकर रख दिया. उन्होंने तुरंत उसे उठने की आज्ञा दी और गद् गद होकर अपने सीने से लगा लिया. सारे शिष्य इस अलौकिक दृश्य को देखकर रोमांचित हो गए. उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे. वे आरूणि को अत्यन्त सौभाग्यशाली समझ रहे थे, जो गुरुजी के सीने से लगा हुआ रो रहा था.
गुरु ने उसके अश्रु अपने हाथ से पीछे और बोले "बेटे, आज तुमने गुरु भक्ति का एक अपूर्व उदाहरण किया है, तुम्हारी यह तपस्या और त्याग युगों-युगों तक याद किया जाएगा. तुम एक आदर्श शिष्य के रूप में सदा याद किए जाओगे तथा अन्य छात्र तुम्हारा अनुकरण करेंगे. मेरा आर्शीवाद है कि तुम एक दिव्य बुद्धि प्राप्त करोगे तथा सभी शास्त्र तुम्हें प्राप्त हो जाएंगे. तुम्हें उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ेगा. आज से तुम्हारा नाम उद्दालक के रूप में प्रसिद्ध होगा अर्थात जो जल से निकला उत्पन्न हुआ" और यही हुआ. आरूणि का नाम उद्दालक के नाम से प्रसिद्ध हुआ और सारी विद्याएं उन्हें बिना पढ़े, स्वंय ही प्राप्त हो गई.

कमाल की गुरु भक्ति की वजह से ही ये सब कुछ संभव हो सका.
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Old 02-03-2013, 08:18 AM   #3
khalid
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बहुत बढिया प्रसंग हैँ अनिल भैया बहुत कुछ सीखने को मिलेगा
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दोस्ती करना तो ऐसे करना
जैसे इबादत करना
वर्ना बेकार हैँ रिश्तोँ का तिजारत करना
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Old 02-03-2013, 12:45 PM   #4
aksh
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बहुत बढिया प्रसंग हैँ अनिल भैया बहुत कुछ सीखने को मिलेगा
शुक्रिया अनुज...!!
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Old 20-01-2013, 07:59 PM   #5
aksh
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मशहूर लेखक जोर्ज बर्नाड शा को एक दावत में आमंत्रित किया गया था और वो अपने काम से थके मांदे सीधे ही उस दावत में चले गए पर मेजबान ने उनको कहा " जोर्ज साहब यहाँ पर इतने बड़े बड़े मेहमान आपसे मिलने के लिए आये हुए हैं और आप सीधे ही यहाँ पर चले आये. पहले आप को घर जाना चाहिए था और कपडे बगैरह बदल कर फिर दावत में आना चाहिए था. "
जोर्ज साहब ने कहा " छोड़ो अब तो में आ ही गया हूँ "
पर मेजबान ने उनकी एक ना चलने दी और अपने ड्राइवर के साथ उनको घर भेज दिया ताकि तैयार होने के बाद वो जल्दी से दावत में आ सकें.
जब जोर्ज साहब वापस आये तो उनके शरीर पर नए कपडे जगमगा रहे थे और तुरंत ही मेजबान ने उनका स्वागत किया और उनसे जलपान के लिए अनुरोध किया. जोर्ज साहब तो जैसे इसके लिए उताबले ही बैठे थे. और उन्होंने अपने कपड़ों पर शराब उडेलना चालू कर दिया, उसके बाद एक एक करके वो खाने और पीने के सभी चीजों को अपने कपड़ों पर ही उड़ेलने लगे. मेजबान को जैसे ही ये दिखाई दिया वो तुरंत ही जोर्ज साहब के पास पहुंचे और बोले " जोर्ज साहब ये क्या कर रहे हैं ? "
जोर्ज साहब बोले " अरे भाई तुमने मुझे तो बुलाया नहीं है इस दावत में. मेरे कपड़ों को बुलाया है तो खाना पीना तो उन्ही को खिलायूंगा ना ? "
इतना सुनते ही मेजबान पर घड़ों पानी पद गया और उसने जोर्ज साहब से सबके सामने ही माफ़ी मांगी.
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Old 20-01-2013, 08:00 PM   #6
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बचपन से ही नानक साधु-संतो के साथ रहना पसंद करते थे. अपने गांव तलवंड़ी से कुछ दूर जंगल में घूमते थे. एक बार उनके पिता ने काम-धंधा करने के लिए उन्हें कुछ रुपये दिये. संयोंग से नानक को कुछ साधु मिल गये. ये साधु कई दिन से भूखे थे.
नानक के पास जो कुछ था, साधुओं के खाने-पीने पर खर्च कर दिया. सोचा
" भूखो को भोजन कराने से बढ़कर ज्यादा फायदे की बात भला और क्या हो सकती है. यह सौदा ही सच्चा सौदा है.’’
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Old 20-01-2013, 08:00 PM   #7
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भगवान श्रीराम वनवास काल के दौरान संकट में हनुमान जी द्वारा की गई अनूठी सहायता से अभिभूत थे. एक दिन उन्होंने कहा " हे हनुमान, संकट के समय तुमने मेरी जो सहायता की, मैं उसे याद कर गदगद हो उठा हूं. सीता जी का पता लगाने का दुष्कर कार्य तुम्हारे बिना असंभव था. लंका जलाकर तुमने रावण का अहंकार चूर-चूर किया, वह कार्य अनूठा था. घायल लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए यदि तुम संजीवनी बूटी न लाते, तो न जाने क्या होता? "
तमाम बातों का वर्णन करके श्रीराम ने कहा " तेरे समान उपकारी सुर, नर, मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है. मैंने मन में खूब विचार कर देख लिया, मैं तुमसे उॠण नहीं हो सकता "
सीता जी ने कहा " तीनों लोकों में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो हनुमान जी को उनके उपकारों के बदले में दी जा सके "
श्रीराम ने पुन: जैसे ही कहा " हनुमान, तुम स्वयं बताओ कि मैं तुम्हारे अनंत उपकारों के बदले क्या दूं , जिससे मैं ॠण मुक्त हो सकूं ? "
श्री हनुमान जी ने हर्षित होकर, प्रेम में व्याकुल होकर कहा "‘भगवन, मेरी रक्षा कीजिए, मेरी रक्षा कीजिए, अभिमान रूपी शत्रु कहीं मेरे तमाम सत्कर्मों को नष्ट नहीं कर डाले. प्रशंसा ऐसा दुर्गुण है, जो अभिमान पैदा कर तमाम संचित पुण्यों को नष्ट कर डालता है. "
कहते-कहते वह श्रीराम जी के चरणों में लोट गए. हनुमान जी की विनयशीलता देखकर सभी हतप्रभ हो उठे.
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Old 20-01-2013, 08:01 PM   #8
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किसी गाँव में एक किसान को बहुत दूर से पीने के लिए पानी भरकर लाना पड़ता था. उसके पास दो बाल्टियाँ थीं जिन्हें वह एक डंडे के दोनों सिरों पर बांधकर उनमें तालाब से पानी भरकर लाता था.

उन दोनों बाल्टियों में से एक के तले में एक छोटा सा छेद था जबकि दूसरी बाल्टी बहुत अच्छी हालत में थी. तालाब से घर तक के रास्ते में छेद वाली बाल्टी से पानी रिसता रहता था और घर पहुँचते-पहुँचते उसमें आधा पानी ही बचता था. बहुत लम्बे अरसे तक ऐसा रोज़ होता रहा और किसान सिर्फ डेढ़ बाल्टी पानी लेकर ही घर आता रहा.
अच्छी बाल्टी को रोज़-रोज़ यह देखकर अपने पर घमंड हो गया. वह छेदवाली बाल्टी से कहती थी की वह आदर्श बाल्टी है और उसमें से ज़रा सा भी पानी नहीं रिसता. छेदवाली बाल्टी को यह सुनकर बहुत दुःख होता था और उसे अपनी कमी पर लज्जा आती थी.
छेदवाली बाल्टी अपने जीवन से पूरी तरह निराश हो चुकी थी. एक दिन रास्ते में उसने किसान से कहा – “मैं अच्छी बाल्टी नहीं हूँ. मेरे तले में छोटे से छेद के कारण पानी रिसता रहता है और तुम्हारे घर तक पहुँचते-पहुँचते मैं आधी खाली हो जाती हूँ.”
किसान ने छेदवाली बाल्टी से कहा – “क्या तुम देखती हो कि पगडण्डी के जिस और तुम चलती हो उस और हरियाली है और फूल खिलते हैं लेकिन दूसरी ओर नहीं. ऐसा इसलिए है कि मुझे हमेशा से ही इसका पता था और मैं तुम्हारे तरफ की पगडण्डी में फूलों और पौधों के बीज छिड़कता रहता था जिन्हें तुमसे रिसने वाले पानी से सिंचाई लायक नमी मिल जाती थी. दो सालों से मैं इसी वजह से अपने देवता को फूल चढ़ा पा रहा हूँ. यदि तुममें वह बात नहीं होती जिसे तुम अपना दोष समझती हो तो हमारे आसपास इतनी सुन्दरता नहीं होती.”
मुझमें और आपमें भी कई दोष हो सकते हैं. दोषों से कौन अछूता रह पाया है. कभी-कभी ऐसे दोषों और कमियों से भी हमारे जीवन को सुन्दरता और पारितोषक देनेवाले अवसर मिलते हैं. इसीलिए दूसरों में दोष ढूँढने के बजाय उनमें अच्छाई की तलाश करें.
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Old 20-01-2013, 08:01 PM   #9
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आचार्य तुलसी के सत्संग के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचा करते थे. एक बार किसी जिज्ञासु ने उनसे पूछ लिया "परलोक सुधारने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए ?" आचार्यश्री ने कहा "पहले तुम्हारा वर्तमान जीवन कैसा है या तुम्हारा विचार व आचरण कैसा है, इस पर विचार करो. इस लोक में हम सदाचार का पालन नहीं करते, नैतिक मूल्यों पर नहीं चलते और मंत्र-तंत्र या कर्मकांड से परलोक को कल्याणमय बना लेंगे, यह भ्रांति पालते रहते हैं."
आचार्य महाप्रज्ञ प्रवचन में कहा करते थे "धर्म की पहली कसौटी है आचार, और आचार में भी नैतिकता का आचरण. ईमानदारी और सचाई जिसके जीवन में है, उसे दूसरी चिंता नहीं करनी चाहिए. "
एक बार उन्होंने सत्संग में कहा "उपवास, आराधना, मंत्र-जाप, धर्म चर्चा आदि धार्मिक क्रियाओं का तात्कालिक फल यह होना चाहिए कि व्यक्ति का जीवन पवित्र बने. वह कभी कोई अनैतिक कर्म न करे और सत्य पर अटल रहे. अगर ऐसा होता है, तो हम मान सकते हैं कि धर्म का परिणाम उसके जीवन में आ रहा है. यह परिणाम सामने न आए, तो फिर सोचना पड़ता है कि औषधि ली जा रही है, पर रोग का शमन नहीं हो रहा. चिंता यह भी होने लगती है कि कहीं हम नकली औषधि का इस्तेमाल तो नहीं कर रहे. "
आज सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आदमी इस लोक में सुख-सुविधाएं जुटाने के लिए अनैतिकता का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाता. वह धर्म के बाह्य आडंबरों कथा-कीर्तन, यज्ञ, तीर्थयात्रा, मंदिर दर्शन आदि के माध्यम से परलोक के कल्याण का पुण्य अर्जित करने का ताना-बाना बुनने में लगा रहता है"
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Old 21-01-2013, 02:29 PM   #10
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लिंकन कभी भी धर्म के बारे में चर्चा नहीं करते थे और किसी चर्च से सम्बद्ध नहीं थे. एक बार उनके किसी मित्र ने उनसे उनके धार्मिक विचार के बारे में पूछा. लिंकन ने कहा – “बहुत पहले मैं इंडियाना में एक बूढ़े आदमी से मिला जो यह कहता था ‘जब मैं कुछ अच्छा करता हूँ तो अच्छा अनुभव करता हूँ, और जब बुरा करता हूँ तो बुरा अनुभव करता हूँ’. यही मेरा धर्म है "
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