20-01-2011, 08:33 PM | #1 |
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बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
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20-01-2011, 08:56 PM | #2 |
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Re: बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
लाखो की भीढ़ है पर आदमी अकेला है ...!!! सच तो यही है अनिल जी !
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( वैचारिक मतभेद संभव है ) ''म्रत्युशैया पर आप यही कहेंगे की वास्तव में जीवन जीने के कोई एक नियम नहीं है'' Last edited by VIDROHI NAYAK; 20-01-2011 at 10:04 PM. |
20-01-2011, 09:55 PM | #3 |
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Re: बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
काफी अच्छा विषय चुना है अनिल जी आपने. इसके लिए आपको धन्यवाद.
इस विषय पर मैं भी अपने कुछ विचार रख रहा हूँ.
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22-01-2011, 09:03 AM | #4 |
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Re: बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
अनिल जी, आपके सूत्र के शीर्षक बहुत प्यारा है !! विषयवस्तु भी अत्यंत वेदनादायी है !!
ऐसी सूत्र के रचनाकार से विस्तार पूर्वक अवदान के उम्मीद है !! जल्दी इस सूत्र में अपना भी एक छोटा सा योगदान करेंगे !! धन्यवाद !!
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"खैरात में मिली हुई ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती,
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22-01-2011, 10:32 AM | #5 |
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Re: बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
मित्र ये मेरा नहीँ अपितु हम सबका सूत्र है । हम अपने विचारोँ को साझा कर यंत्रवत हो चुके इस जीवन की संवेदनाओँ को खँगालेँगे । सिकुड़े सिमटे कराहते रिश्तोँ की मीमांसा कर उसे उपचारित करने का भी प्रयास करेँगे । भौतिकता रूपी दीमक द्वारा खोखली कर दी गयी नीँव को पुनः ठोस करने के उपाय सोचेँगे । अन्त मेँ मैँ आप सबका आभारी हूँ कि आप सब एक एक कर श्रृँखलाबद्ध हो गये और मेरे विचार को अपने शब्द देने के लिये आतुरता प्रकट कर रहे हैँ ।
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22-01-2011, 12:04 PM | #6 |
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Re: बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
दिल और दिमाग को झंझोर देने वाला मुद्दा है
मुझे कालका जी वाली वो घटना याद आती है जिसमें एक बहन घर पर मरी पड़ी थी और दूसरी अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी वो किसी को इस घटना के बारे में नहीं बताती है और दुर्भाग्य की सीमा देखिये पड़ोसिओं को तब पता चला जब लाश से दुर्गन्ध आने लगी मेरे लिए ये घटना झकझोर देने वाली थी शायद इसलिए भी क्योंकि उस समय मैं कालका जी में ही रहता था और जिस मकान में मैं दो साल से अकेला रहता था वहां मेरे पड़ोस में कौन रहता था मुझे नहीं पता था/ ये है हमारे बड़े शहरो का सच/ मुझे लगा की मैं इस मामले में अभी तक काफी खुश किस्मत हूँ पर क्या पता आगे ना रहूँ/ सबसे पहले मैंने माकान छोड़ा फिर दिल्ली ही छोड़ दी/
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
22-01-2011, 01:11 PM | #7 |
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Re: बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
विश्व बन्धुत्व , वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत प्रेम के पुजारी इस देश ने न जाने क्यूँ समष्टिवाद से व्यष्टिवाद की ओर चलने की ठान ली और नतीजतन मूल्योँ का क्षरण आरम्भ हो गया । समाज की मूलभूत इकाई व्यक्ति मशीन बनकर रह गया । व्यक्ति के इस रूपान्तरण ने प्रेम की बलि देकर संवेदनाओँ को संज्ञाशून्य कर दिया । मोहल्लोँ के चाचा , चाची , मामा , मौसी न जाने कहाँ और कब काल कवलित हो गये और मीठे मुँहबोले रिश्तोँ के कब्रिस्तान पर न जाने कब उग आयीँ कुकुरमुत्ती कालोनियोँ का कैक्टस सामाजिक ढाँचे को क्षत विक्षत कर हमारा उपहास करने लगा ।
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22-01-2011, 01:32 PM | #8 |
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Re: बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
आज के युग का एक कडवा सच हैँ
बाँगवान फिल्म जिसमेँ एक सच्चाई हैँ आज के युग का
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दोस्ती करना तो ऐसे करना जैसे इबादत करना वर्ना बेकार हैँ रिश्तोँ का तिजारत करना |
22-01-2011, 01:37 PM | #9 |
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Re: बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
शायद हमेँ इसका संज्ञान ही नहीँ था कि हमारी इस दुनिया का विस्तार हमारे अपने स्व को खोकर ही मिलना है । प्रगति के इस चक्रव्यूह मेँ हमने अपना अमूल्य खो डाला , पता ही नहीँ चला । परिवार की परिभाषा कब सिकुड़ कर पति पत्नी और बच्चोँ तक सीमित हो गयी , बोध ही नहीँ हुआ । बरगदी परिवार कब बोनसाई होकर आधुनिकता की झूठी बगिया मेँ सज गया , अहसास तक नहीँ हुआ ।
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25-01-2011, 01:51 AM | #10 | |
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Re: बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते
Quote:
आपकी पंक्तियाँ पढ़कर मैं खुद को ही दोषी मान रहा हूँ | दिन भर फोन हाथ में रहता है किन्तु घर पर फोन करने के लिए काल मैनेजर में टास्क सेट करना पड़ता है | हालत जाँघों जैसी है, दोनों में से कोई भी दिखे, इज्जत पुरे तन की जाएगी | पैसे ना कमाओ तो भी गुजरा नहीं और कमाने जाओ तो भी काफी कुछ छूट जाता है | किन्तु कोई भी कारण हो, दोषी तो हम हैं ही | |
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