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Old 10-06-2012, 12:59 PM   #51
neelam
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संसारसुखनिषेध वर्णन


रामजी बोले, हे मुनीश्वर! जैसे कमलपत्र के ऊपर जल की बूदें नहीं ठहरतीं वैसे ही लक्ष्मी भी क्षण भंगुर है । जैसे जल से तरंग होकर नष्ट होती हैं वैसे ही लक्ष्मी वृद्धि होकर नष्ट हो जाती है । हे मुनीश्वर! पवन को रोकना कठिन है पर उसे भी कोई रोकता है और आकाश का चूर्ण करना अति कठिन है उसे भौ कोई चूर्ण कर डालता है ओर बिजली का रोकना अति कठिन है सो उसे भी कोई रोकता है, परन्तु लक्ष्मी को कोई स्थिर नहीं रख सकता । जैसे शश की सींगों से कोई मार नहीं सकता और आरसी के ऊपर जैसे मोती नहीं ठहरता, जैसे तरंग की गाँठ नहीं पड़ती वैसे ही लक्ष्मी भी स्थिर नहीं रहती । लक्ष्मी बिजली की चमक सी है सो होती है और मिट भी जाती है ।

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Old 10-06-2012, 01:00 PM   #52
neelam
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जो लक्ष्मी पाकर अमर होना चाहे उसे अति मूर्ख जानना और लक्ष्मी पाकर जो भोग की इच्छा करता है वह महा आपदा का पात्र है । उसका जीने से मरना श्रेष्ठ है । जीने की आशा मूर्ख करते हैं । जैसे स्त्री गर्भ की इच्छा अपने दुःख के निमित्त करती है वैसे ही जीने की आशा पुरुष अपने नाशके निमित्त करते हैं।ज्ञानवान् पुरुष जिनकी परमपद में स्थिति है और उससे तृप्त हुए हैं, उनका जीना सुख के निमित्त है । उनके जीने से और के कार्य भी सिद्ध होते हैं । उनका जीना चिन्तामणि की नाईं श्रेष्ठ है । जिनको सदा भोग की इच्छा रहती है और आत्मपद से विमुख हैं उनका जीना जीना किसी के सुख के निमित्त नहीं है वह मनुष्यनहीं गर्दभ है । जैसे वृक्ष पक्षी पशु का जीना है वैसे उनका भी जीना है । हे मुनीश्वर! जो पुरुष शास्त्र पढ़ता है और उसने पाने योग्य पद नहीं पाया तो शास्त्र उसको भाररूप है । जैसे और भार होता है वैसे ही पड़नेका भी भार है और पड़कर विवाद करते हैं और उसके सार को नहीं ग्रहण करते वह भी भार है । हे मुनीश्वर! यह मन आकाश रूप है । जो मन में शान्ति न आई तो मन भी उसको भार है और जो मनुष्य शरीर को पाकर उसका अभिमान नहीं त्यागता तो यह शरीर पाना भी उसका निष्फल है । इसका जीना तभी श्रेष्ठ है जब आत्मपद को पावै अन्यथा जीना व्यर्थ है ।
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Old 10-06-2012, 01:00 PM   #53
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आत्मपद की प्राप्ति अभ्यास से होती है । जैसे जल पृथ्वी खोदने से निकलता है वैसे ही आत्मपद की प्राप्ति भी अभ्यास से होती है । जो आत्मपद से विमुख होकर आशा की फाँसी में फँसे हैं वे संसार में भटकते रहते हैं । हे मुनीश्वर! जैसे सागर में तरंग अनेक उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं वैसे ही यह लक्ष्मी भी क्षणभंगुर है । इसको पाकर जो अभिमान करता है सो मूर्ख है । जैसे बिल्ली चूहे को पकड़ने के लिये पड़ी रहती है । वैसे ही उनको नरक में डालने के लिये घरमें पड़ी रहती है । जैसे अञ्जली में जल नहीं ठहरता वैसे ही लक्ष्मी भी नहीं ठहरती । ऐसी क्षणभंगुर लक्ष्मी ओर शरीर को पाकर जो भोग की तृष्णा करता है वह महामूर्ख है । वह मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ जीने की आशा करता है जैसे सर्प के मुख में मूर्ख मेढ़क पड़कर मच्छर खाने की इच्छा करता है वैसे ही जो जीव मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ भोग की वाञ्छा करता है वह महामूर्ख है । जब युवा अवस्था नदी के प्रवाह की नाईं चली जाती हैं । तब वृद्धावस्था आती है ।
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Old 10-06-2012, 01:00 PM   #54
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उसमें महादुःख प्रकट होते हैं और शरीर जर्जर हो जाता है और मरता है । निदान एक क्षण भी मृत्यु इसको नहीं बिसारती । जैसे कामी पुरुष को सुन्दर स्त्री मिलती है तो उसके देखने का त्याग नहीं करता वैसे ही मृत्यु मनुष्य को देखे बिना नहीं रहती । हे मुनीश्वर! मूर्ख पुरुष का जीना दुःख के निमित्त है ।जैसे वृद्ध मनुष्य का जीना दुःख का कारण है वैसे ही मृत्यु मनुष्य को देखे बिना नहीं रहती । हे मुनीश्वर! मूर्ख पुरुष का जीना दुःख के निमित्त है । जैसे वृद्ध मनुष्य का जीना दुःख का कारण है वैसे ही ज्ञानी काजीना दुःख का कारण है । उसके बहुत जीने से मरना श्रेष्ठ है । जिस पुरुष ने मनुष्य शरीर पाकर आत्मपद पाने का यत्न नहीं किया उसने अपना आप नाश किया और वह आत्महत्यारा है । हे मुनीश्वर! यह माया बहुत सुन्दर भासती है पर अन्त में नष्ट हो जाती है ।
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Old 10-06-2012, 01:00 PM   #55
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जैसे काठ को भीतर से घुन खा जाता है और बाहर से बहुत सुन्दर दीखता है वैसे ही यह जीव बाहर से सुन्दर दृष्टि आता है और भीतर से उसको तृष्णा खा जाती है । जो मनुष्य पदार्थ को सत्य और सुखरूप जानकर सुख के निमित्त आश्रय करता है वह सुखी नहीं होता है । जैसे कोई नदी में सर्प को पकड़के पार उतरा चाहे तो पार नहीं उतर सकता, मूर्खता से डूबेगा, वैसे ही जो संसार के पदार्थों को सुखरूप जानकर आश्रय करता है सो सुख नहीं पाता, संसारसमुद्र में डूब जाता है हे मुनीश्वर! यह संसार इन्द्र धनुष की नाईं है । जैसे इन्द्रधनुष बहुत रंग का दृष्टि आता है और उससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता वैसे ही यह संसार भ्रममात्र है, इसमें सुख की इच्छा रखनी व्यर्थ है । इस प्रकार जगत् को मैंने असत् रूप जानकर निर्वासनिक होने की इच्छा की है ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे संसारसुखनिषेध-वर्णनन्नाम नवमस्सर्गः ॥९॥
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Old 10-06-2012, 01:01 PM   #56
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अहंकारदुराशा वर्णन


श्रीरामजी बोले, हे मुनीश्वर! अहंकार अज्ञान से उदय हुआ है । यह महादुष्ट है और यही परम शत्रु है । उसने मुझको दबा डाला है पर मिथ्या है और सब दुःखों की खानि है । जब तक अहंकार है तब तक पीड़ा की उत्पत्ति का अभाव कदाचित् नहीं होता । हे मुनीश्वर जो कुछ मैंने अहंकार से भजन और पुण्य किया,जो कुछ लिया दिया और जो कुछ किया वह सब व्यर्थ है । इससे परमार्थ की कुछ सिद्धि नहीं है । जैसे राख में आहुति धरी व्यर्थ हो जाती है वैसे ही मैं इसे जानता हूँ ।
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Old 10-06-2012, 01:01 PM   #57
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जितने दुःख हैं उनका बीज अहंकार है । जब इसका नाश हो तब कल्याण हो । इससे आप उसकी निवृत्ति का उपाय कहिऐ । हे मुनीश्वर! जो वस्तु सत्य है इसके त्याग करने में दुःख होता है और जो वस्तु नाशवान् है और भ्रम से दीखती है उसके त्याग करने में आनन्द है । शान्तिरूप चन्द्रमा के आच्छादन करने को अहंकाररूपी राहु है । जब राहु चन्द्रमा को ग्रहण करता है तब उसकी शीतलता और प्रकाश ढक जाता है वैसे ही जब अहंकार बढ़ जाता है तब समता ढक जाती है । जब अहंकाररूपी मेघ गरजके वर्षता है तब तृष्णारूपी कण्टकमञ्जरी बढ़ जाती है और कभी नहीं घटती । जब अहंकार का नाश हो तब तृष्णा का अभाव हो । जैसे जब तक मेघ है तब तक बिजली है; जब विवेक रूपी पवन चले तब अहंकाररूपी मेघ का अभाव होकर तृष्णारूपी बिजली नष्ट हो जाती है और जैसे जब तक तेल और बाती है तब तक दीपक का प्रकाश है जब तेल बाती का नाश होता है तब दीपक का प्रकाश भी नष्ट हो जाता है वैसे ही जब अहंकार का नाश हो तब तृष्णा का भी नाश होता है ।
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Old 10-06-2012, 01:01 PM   #58
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हे मुनीश्वर! परम दुःख का कारण अहंकार है । जब अहंकार का नाश हो जाता हो तब दुःख का भी नाश हो जाय । हे मुनीश्वर! यह जो मैं राम हूँ सो नहीं और इच्छा भी कुछ नहीं, क्योंकि मैं नहीं तो इच्छा किसको हो? और इच्छा हो तो यही हो कि अहंकार से रहित पदकी प्राप्ति हो । जैसे जनेन्द्र को अहंकार का उत्थान नहीं हुआ वैसा मैं होऊँ ऐसी मुझको इच्छा है । हे मुनीश्वर! जैसे कमल को बरफ नष्ट करता है वैसे ही अहंकार ज्ञान का नाश करता है! जैसे व्याध जाल से पक्षी को फँसाता है और उससे पक्षी दीन हो जाते हैं वैसे ही अहंकार रूपी व्याध ने तृष्णारूपी जाल डाल कर जीवों को फँसाया है उससे वह महादीन हो गये हैं जैसे पक्षी अन्न के दाने सुखरूप जानकर चुगने आता है फिर चुगते चुगते जाल में फँस बन्धन से दीन हो जाता है वैसे ही यह जीव विषयभोग की इच्छा करने से तृष्णारूपी जाल में फँसकर महादीन हो जाता है ।
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Old 10-06-2012, 01:02 PM   #59
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इससे हे मुनीश्वर! मुझसे वही उपाय कहिये जिससे अहंकार का नाश हो ।जब अहंकार का नाश होगा तब मैं परमसुखी हूँगा । जैसे विन्ध्याचल पर्वत के आश्रय से उन्मत्त हस्ती गर्जते हैं वैसे ही अहंकाररूपी विन्ध्याचल पर्वत के आश्रय से मनरूपी उन्मत्त हस्ती नाना प्रकार के संकल्प विकल्परूपी शब्द करता है । इससे आप वही उपाय कहिये जिससे अहंकार का नाश हो जो अकल्याण का मूल है । जैसे मेघ का नाश करनेवाला शरत्काल है वैसे ही वैराग्य का नाश करनेवाला अहंकार है । मोहादिक विकाररूप सर्पों के रहने का अहंकाररूपी बिल है और वह कामी पुरुषों की नाईं है जैसे कामी पुरुष काम को भोगता है और फूल की माला गले में डालके प्रसन्न होता है वैसे ही तृष्णारूपी तागा है और मनरूपी फूल हैं सो तृष्णारूपी तागे के साथ गुहे हैं सो अहंकाररूपी कामी पुरुष उनको गले में डालता है और प्रसन्न होता है ।
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Old 10-06-2012, 08:31 PM   #60
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मोहादिक विकाररूप सर्पों के रहने का अहंकाररूपी बिल है
sahi mein moh ahankar rupi sanp ka asryasthal hai

Last edited by sombirnaamdev; 10-06-2012 at 08:33 PM.
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