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Old 13-12-2010, 02:27 PM   #111
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कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।

काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?"

रहमत हँसता हुआ कहता, "हाथी।" फिर वह मिनी से कहता, "तुम ससुराल कब जाओगी?"

इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?"

रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।" इस पर मिनी खूब हँसती।

हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।

एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।
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Old 13-12-2010, 02:27 PM   #112
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इतने में "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ‘’तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"

रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।

काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।

कई साल बीत गए।

आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।

मैंने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?"

"कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ," उसने बताया।

मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।"

वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?"

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।"
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Old 13-12-2010, 02:28 PM   #113
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वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।

मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “'यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।“

मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, 'आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।' फिर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।“

उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, “लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?”

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।

मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद में खो गया।
मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, “रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।“
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Old 13-12-2010, 02:28 PM   #114
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चीलें - भीष्म साहनी


चील ने फिर से झपट्टा मारा है। ऊपर, आकाश में मण्डरा रही थी जब सहसा, अर्धवृत्त बनाती हुई तेजी से नीचे उतरी और एक ही झपट्टे में, मांस के लोथड़े क़ो पंजों में दबोच कर फिर से वैसा ही अर्द्ववृत्त बनाती हुई ऊपर चली गई। वह कब्रगाह के ऊंचे मुनारे पर जा बैठी है और अपनी पीली चोंच, मांस के लोथडे में बार-बार गाड़ने लगी है।

कब्रगाह के इर्द-गिर्द दूर तक फैले पार्क में हल्की हल्की धुंध फैली है। वायुमण्डल में अनिश्चय सा डोल रहा है। पुरानी कब्रगाह के खंडहर जगह-जगह बिखरे पडे़ हैं। इस धुंधलके में उसका गोल गुंबद और भी ज्यादा वृहदाकार नजर आता है। यह मकबरा किसका है, मैं जानते हुए भी बार-बार भूल जाता हूँ। वातावरण में फैली धुंध के बावजूद, इस गुम्बद का साया घास के पूरे मैदान को ढके हुए है जहाँ मैं बैठा हूँ जिससे वायुमण्डल में सूनापन और भी ज्यादा बढ ग़या है, और मैं और भी ज्यादा अकेला महसूस करने लगा हूँ।

चील मुनारे पर से उड़ कर फिर से आकाश में मंडराने लगी है, फिर से न जाने किस शिकार पर निकली है। अपनी चोंच नीची किए, अपनी पैनी आँखें धरती पर लगाए, फिर से चक्कर काटने लगी है, मुझे लगने लगा है जैसे उसके डैने लम्बे होते जा रहे हैं और उसका आकार किसी भयावह जंतु के आकार की भांति फूलता जा रहा है। न जाने वह अपना निशाना बांधती हुई कब उतरे, कहाँ उतरे। उसे देखते हुए मैं त्रस्त सा महसूस करने लगा हूँ।

किसी जानकार ने एक बार मुझसे कहा था कि हम आकाश में मंडराती चीलों को तो देख सकते हैं पर इन्हीं की भांति वायुमण्डल में मंडराती उन अदृश्य 'चीलों' को नहीं देख सकते जो वैसे ही नीचे उतर कर झपट्टा मारती हैं और एक ही झपट्टे में इन्सान को लहु-लुहान करके या तो वहीं फेंक जाती हैं, या उसके जीवन की दिशा मोड़ देती हैं। उसने यह भी कहा था कि जहाँ चील की आँखें अपने लक्ष्य को देख कर वार करती हैं, वहाँ वे अदृश्य चीलें अंधी होती हैं, और अंधाधुंध हमला करती हैं। उन्हें झपट्टा मारते हम देख नहीं पाते और हमें लगने लगता है कि जो कुछ भी हुआ है, उसमें हम स्वयं कहीं दोषी रहे होंगे। हम जो हर घटना को कारण की कसौटी पर परखते रहे हैं, हम समझने लगते हैं कि अपने सर्वनाश में हम स्वयं कहीं जिम्मेदार रहे होंगे। उसकी बातें सुनते हुए मैं और भी ज्यादा विचलित महसूस करने लगा था।
उसने कहा था, 'जिस दिन मेरी पत्नी का देहान्त हुआ, मैं अपने मित्रों के साथ, बगल वाले कमरे में बैठा बतिया रहा था। मैं समझे बैठा था कि वह अंदर सो रही है। मैं एक बार उसे बुलाने भी गया था कि आओ, बाहर आकर हमारे पास बैठो। मुझे क्या मालूम था कि मुझसे पहले ही कोई अदृश्य जंतु अन्दर घुस आया है और उसने मेरी पत्नी को अपनी जकड़ में ले रखा है। हम सारा वक्त इन अदृश्य जंतुओं में घिरे रहते है।'
अरे, यह क्या! शोभा? शोभा पार्क में आई है! हाँ, हाँ, शोभा ही तो है। झाड़ियों के बीचों-बीच वह धीरे-धीरे एक ओर बढ़ती आ रही है। वह कब यहाँ आई है और किस ओर से इसका मुझे पता ही नहीं चला।
मेरे अन्दर ज्वार सा उठा। मैं बहुत दिन बाद उसे देख रहा था।
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Old 13-12-2010, 02:29 PM   #115
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शोभा दुबली हो गई है, तनिक झुक कर चलने लगी है, पर उसकी चाल में अभी भी पहले सी कमनीयता है, वही धीमी चाल, वही बांकापन, जिसमें उसके समूचे व्यक्तित्व की छवि झलकती है। धीरे-धीरे चलती हुई वह घास का मैदान लांघ रही है। आज भी बालों में लाल रंग का फूल ढंके हुए है।

शोभा, अब भी तुम्हारे होंठों पर वही स्निग्ध सी मुस्कान खेल रही होगी जिसे देखते मैं थकता नहीं था, होंठों के कोनों में दबी-सिमटी मुस्कान। ऐसी मुस्कान तो तभी होंठों पर खेल सकती है जब तुम्हारे मन में किन्हीं अलौकिक भावनाओं के फूल खिल रहे हों।

मन चाहा, भाग कर तुम्हारे पास पहुँच जाऊँ और पूछूं, शोभा, अब तुम कैसी हो?

बीते दिन क्यों कभी लौट कर नहीं आते? पूरा कालखण्ड न भी आए, एक दिन ही आ जाए, एक घड़ी ही, जब मैं तुम्हें अपने निकट पा सकूँ, तुम्हारे समूचे व्यक्तित्व की महक से सराबोर हो सकूँ।

मैं उठ खड़ा हुआ और उसकी ओर जाने लगा। मैं झाड़ियों, पेड़ों के बीच छिप कर आगे बढूंगा ताकि उसकी नजर मुझ पर न पडे़। मुझे डर था कि यदि उसने मुझे देख लिया तो वह जैसे-तैसे कदम बढ़ाती, लम्बे-लम्बे डग भरती पार्क से बाहर निकल जाएगी।

जीवन की यह विडम्बना ही है कि जहाँ स्त्री से बढ़ कर कोई जीव कोमल नहीं होता, वहाँ स्त्री से बढ़कर कोई जीव निष्ठुर भी नहीं होता। मैं कभी-कभी हमारे सम्बन्धों को लेकर क्षुब्ध भी हो उठता हूँ। कई बार तुम्हारी ओर से मेरे आत्म-सम्मान को धक्का लग चुका है।

हमारे विवाह के कुछ ही समय बाद तुम मुझे इस बात का अहसास कराने लगी थी यह विवाह तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हुआ है और तुम्हारी ओर से हमारे आपसी सम्बन्धों में एक प्रकार का ठण्डापन आने लगा था। पर मैं उन दिनों तुम पर निछावर था, मतवाला बना घूमता था। हमारे बीच किसी बात को लेकर मनमुटाव हो जाता, और तुम रूठ जाती, तो मैं तुम्हें मनाने की भरसक चेष्ठा किया करता, तुम्हें हँसाने की। अपने दोनों कान पकड़ लेता, 'कहो तो दण्डवत लेटकर जमीन पर नाक से लकीरें भी खींच दूँ, जीभ निकाल कर बार-बार सिर हिलाऊं?' और तुम, पहले तो मुँह फुलाए मेरी ओर देखती रहती, फिर सहसा खिलखिला कर हँसने लगती, बिल्कुल बच्चों की तरह जैसे तुम हँसा करती थी और कहती, 'चलो, माफ कर दिया।'

और मैं तुम्हें बाहों में भर लेता था। मैं तुम्हारी टुनटुनाती आवाज सुनते नहीं थकता था, मेरी आँखें तुम्हारे चेहरे पर तुम्हारी खिली पेशानी पर लगी रहती और मैं तुम्हारे मन के भाव पढ़ता रहता।
स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में कुछ भी तो स्पष्ट नहीं होता, कुछ भी तो तर्क-संगत नहीं होता। भावनाओं के संसार के अपने नियम हैं, या शायद कोई भी नियम नहीं।
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हमारे बीच सम्बन्धों की खाई चौड़ी होती गई, फैलती गई। तुम अक्सर कहने लगी थी, 'मुझे इस शादी में क्या मिला?' और मैं जवाब में तुनक कर कहता, 'मैंने कौन से ऐसे अपराध किए हैं कि तुम सारा वक्त मुँह फुलाए रहो और मैं सारा वक्त तुम्हारी दिलजोई करता रहूँ? अगर एक साथ रहना तुम्हें फल नहीं रहा था तो पहले ही मुझे छोड़ जाती। तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ कर चली गई? तब न तो हर आये दिन तुम्हें उलाहनें देने पड़ते और न ही मुझे सुनने पड़ते। अगर गृहस्थी में तुम मेरे साथ घिसटती रही हो, तो इसका दोषी मैं नहीं हूँ, स्वयं तुम हो। तुम्हारी बेरूखी मुझे सालती रहती है, फिर भी अपनी जगह अपने को पीड़ित दुखियारी समझती रहती हो।'

मन हुआ, मैं उसके पीछे न जाऊँ। लौट आऊँ, और बेंच पर बैठ कर अपने मन को शांत करूँ। कैसी मेरी मन:स्थिति बन गई है। अपने को कोसता हूँ तो भी व्याकुल, और जो तुम्हें कोसता हूँ तो भी व्याकुल। मेरा सांस फूल रहा था, फिर भी मैं तुम्हारी ओर देखता खड़ा रहा।

सारा वक्त तुम्हारा मुँह ताकते रहना, सारा वक्त लीपा-पोती करते रहना, अपने को हर बात के लिए दोषी ठहराते रहना, मेरी बहुत बड़ी भूल थी।

पटरी पर से उतर जाने के बाद हमारा गृहस्थ जीवन घिसटने लगा था। पर जहाँ शिकवे-शिकायत, खीझ, खिंचाव, असहिष्णुता, नुकीले कंकड़-पत्थरों की तरह हमारी भावनाओं को छीलने-काटने लगे थे, वहीं कभी-कभी विवाहित जीवन के आरम्भिक दिनों जैसी सहज-सद्भावना भी हर-हराते सागर के बीच किसी झिलमिलाते द्वीप की भांति हमारे जीवन में सुख के कुछ क्षण भी भर देती।

पर कुल मिलाकर हमारे आपसी सम्बन्धों में ठण्डापन आ गया था। तुम्हारी मुस्कान अपना जादू खो बैठी थी, तुम्हारी खुली पेशानी कभी-कभी संकरी लगने लगी थी, और जिस तरह बात सुनते हुए तुम सामने की ओर देखती रहती, लगता तुम्हारे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा है। नाक-नक्श वही थे, अदाएँ भी वही थीं, पर उनका जादू गायब हो गया था। जब शोभा आँखें मिचमिचाती है- मैं मन ही मन कहता- तू बड़ी मूर्ख लगती है।

मैंने फिर से नजर उठा कर देखा। शोभा नजर नहीं आई। क्या वह फिर से पेड़ों-झाड़ियों के बीच आँखों से ओझल हो गई है? देर तक उस ओर देखते रहने पर भी जब वह नजर नहीं आई, तो मैं उठ खड़ा हुआ। मुझे लगा जैसे वह वहाँ पर नहीं है। मुझे झटका सा लगा। क्या मैं सपना तो नहीं देख रहा था? क्या शोभा वहाँ पर थी भी या मुझे धोखा हुआ है? मैं देर तक आँखें गाडे़ उस ओर देखता रहा जिस ओर वह मुझे नजर आई थी।
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सहसा मुझे फिर से उसकी झलक मिली। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। पहले भी वह आँखों से ओझल होती रही थी। मुझे फिर से रोमांच सा हो आया। हर बार जब वह आँखों से ओझल हो जाती, तो मेरे अन्दर उठने वाली तरह-तरह की भावनाओं के बावजूद, पार्क पर सूनापन सा उतर आता। पर अबकी बार उस पर नजर पड़ते ही मन विचलित सा हो उठा। शोभा पार्क में से निकल जाती तो?

एक आवेग मेरे अन्दर फिर से उठा। उसे मिल पाने के लिए दिल में ऐसी छटपटाहट सी उठी कि सभी शिकवे-शिकायत, कचरे की भांति उस आवेग में बह से गए। सभी मन-मुटाव भूल गए। यह कैसे हुआ कि शोभा फिर से मुझे विवाहित जीवन के पहले दिनों वाली शोभा नजर आने लगी थी। उसके व्यक्तित्व का सारा आकर्षण फिर से लौट आया था। और मेरा दिल फिर से भर-भर आया। मन में बार-बार यही आवाज उठती, 'मैं तुम्हें खो नहीं सकता। मैं तुम्हें कभी खो नहीं सकता।'

यह कैसे हुआ कि पहले वाली भावनाएँ मेरे अन्दर पूरे वेग से फिर से उठने लगी थीं।

मैंने फिर से शोभा की ओर कदम बढा दिए।

हाँ, एक बार मेरे मन में सवाल जरूर उठा, कहीं मैं फिर से अपने को धोखा तो नहीं दे रहा हूँ? क्या मालूम वह फिर से मुझे ठुकरा दे?

पर नहीं, मुझे लग रहा था मानो विवाहोपरांत, क्लेश और कलह का सारा कालखण्ड झूठा था, माना वह कभी था ही नहीं। मैं वर्षो बाद तुम्हें उन्हीं आँखों से देख रहा था जिन आँखों से तुम्हें पहली बार देखा था। मैं फिर से तुम्हें बाहों में भर पाने के लिए आतुर और अधीर हो उठा था।

तुम धीरे-धीरे झाड़ियों के बीच आगे बढ़ती जा रही थी। तुम पहले की तुलना में दुबला गई थी और मुझे बड़ी निरीह और अकेली सी लग रही थी। अबकी बार तुम पर नज़र पड़ते ही मेरे मन का सारा क्षोभ, बालू की भीत की भांति भुरभुरा कर गिर गया था। तुम इतनी दुबली, इतनी निसहाय सी लग रही थी कि मैं बेचैन हो उठा और अपने को धिक्कराने लगा। तुम्हारी सुनक सी काया कभी एक झाड़ी क़े पीछे तो कभी दूसरी झाड़ी क़े पीछे छिप जाती। आज भी तुम बालों में लाल रंग का फूल टांकना नहीं भूली थी।
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स्त्रियाँ मन से झुब्ध और बेचैन रहते हुए भी, बन-संवर कर रहना नहीं भूलतीं। स्त्री मन से व्याकुल भी होगी तो भी साफ-सुथरे कपडे़ पहने, संवरे-संभले बाल, नख-शिख से दुरूस्त होकर बाहर निकलेगी। जबकि पुरूष, भाग्य का एक ही थपेड़ा खाने पर फूहड़ हो जाता है। बाल उलझे हुए, मुँह पर बढ़ती दाढ़ई, क़पडे़ मुचडे हए और आँखो में वीरानी लिए, भिखमंगों की तरह घर से बाहर निकलेगा। जिन दिनों हमारे बीच मनमुटाव होता और तुम अपने भाग्य को कोसती हुई घर से बाहर निकल जाती थी, तब भी ढंग के कपडे़ पहनना और चुस्त-दुरूस्त बन कर जाना नहीं भूलती थी। ऐसे दिनो में भी तुम बाहर आंगन में लगे गुलाब के पौधे में से छोटा सा लाल फूल बालों में टांकना नहीं भूलती थी। जबकि मैं दिन भर हांफता, किसी जानवर की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर काटता रहता था।

तुम्हारी शॉल, तुम्हारे दायें कंधे पर से खिसक गई थी और उसका सिरा जमीन पर तुम्हारे पीछे-घिसटने लगा था, पर तुम्हें इसका भास नहीं हुआ क्योंकि तुम पहले की ही भांति धीरे-धीरे चलती जा रही थी, कंधे तनिक आगे को झुके हुए। कंधे पर से शॉल खिसक जाने से तुम्हारी सुडौल गर्दन और अधिक स्पष्ट नजर आने लगी थी। क्या मालूम तुम किन विचारों में खोयी चली जा रही हो। क्या मालूम हमारे बारे में, हमारे सम्बन्ध-विच्छेद के बारे में ही सोच रही हो। कौन जाने किसी अंत: प्रेरणावश, मुझे ही पार्क में मिल जाने की आशा लेकर तुम यहाँ चली आई हो। कौन जाने तुम्हारे दिल में भी ऐसी ही कसक ऐसी ही छटपटाहट उठी हो, जैसी मेरे दिल में। क्या मालूम भाग्य हम दोनों पर मेहरबान हो गया हो और नहीं तो मैं तुम्हारी आवाज तो सुन पाऊँगा, तुम्हे आँख भर देख तो पाऊँगा। अगर मैं इतना बेचैन हूँ तो तुम भी तो निपट अकेली हो और न जाने कहां भटक रही हो। आखिरी बार, सम्बन्ध- विच्छेद से पहले, तुम एकटक मेरी ओर देखती रही थी। तब तुम्हारी आँखें मुझे बड़ी-बड़ी सी लगी थीं, पर मैं उनका भाव नहीं समझ पाया था। तुम क्यों मेरी ओर देख रही थी और क्या सोच रही थी, क्यों नहीं तुमने मुँह से कुछ भी कहा? मुझे लगा था तुम्हारी सभी शिकायतें सिमट कर तुम्हारी आँखों के भाव में आ गए थे। तुम मुझे नि:स्पंद मूर्ति जैसी लगी थी, और उस शाम मानो तुमने मुझे छोड़ जाने का फैसला कर लिया था।

मैं नियमानुसार शाम को घूमने चला गया था। दिल और दिमाग पर भले ही कितना ही बोझ हो, मैं अपना नियम नहीं तोड़ता। लगभग डेढ घण्टे के बाद जब में घर वापस लौटा तो डयोढी में कदम रखते ही मुझे अपना घर सूना-सूना लगा था। और अन्दर जाने पर पता चलता कि तुम जा चुकी हो। तभी मुझे तुम्हारी वह एकटक नजर याद आई थी? मेरी ओर देखती हुई।
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Default Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये

तुम्हें घर में न पाकर पहले तो मेरे आत्म-सम्मान को धक्का-सा लगा था कि तुम जाने से पहले न जाने क्या सोचती रही हो, अपने मन की बात मुँह तक नहीं लाई। पर शीघ्र ही उस वीराने घर में बैठा मैं मानो अपना सिर धुनने लगा था। घर भांय-भांय करने लगा था।

अब तुम धीरे-धीरे घास के मैदान को छोड़ कर चौड़ी पगडण्डी पर आ गई थी जो मकबरे की प्रदक्षिणा करती हुई-सी पार्क के प्रवेश द्वारा की ओर जाने वाले रास्ते से जा मिलती है। शीघ्र ही तुम चलती हुई पार्क के फाटक तक जा पहुँचोगी और आंखों से ओझल हो जाओगी।

तुम मकबरे का कोना काट कर उस चौकोर मैदान की ओर जाने लगी हो जहाँ बहुत से बेंच रखे रहते हैं और बड़ी उम्र के थके हारे लोग सुस्ताने के लिए बैठ जाते हैं।

कुछ दूर जाने के बाद तुम फिर से ठिठकी थी मोड़ आ गया था और मोड़ क़ाटने से पहले तुमने मुड़कर देखा था। क्या तुम मेरी ओर देख रही हो? क्या तुम्हें इस बात की आहट मिल गई है कि मैं पार्क में पहुँचा हुआ हूँ और धीरे-धीरे तुम्हारे पीछे चला आ रहा हूँ?

क्या सचमुच इसी कारण ठिठक कर खड़ी हो गई हो, इस अपेक्षा से कि मैं भाग कर तुम से जा मिलूँगा? क्या यह मेरा भ्रम ही है या तुम्हारा स्त्री-सुलभ संकोच कि तुम चाहते हुए भी मेरी ओर कदम नहीं बढ़ाओगी?

पर कुछ क्षण तक ठिठके रहने के बार तुम फिर से पार्क के फाटक की ओर बढ़ने लगी थी।

मैंने तुम्हारी और कदम बढ़ा दिए। मुझे लगा जैसे मेरे पास गिने-चुने कुछ क्षण ही रह गए हैं जब मैं तुमसे मिल सकता हूँ। अब नहीं मिल पाया तो कभी नहीं मिल पाऊँगा। और न जाने क्यों, यह सोच कर मेरा गला रूंधने लगा था।

पर मैं अभी भी कुछ ही कदम आगे की और बढ़ा पाया था कि जमीन पर किसी भागते साये ने मेरा रास्ता काट दिया। लम्बा-चौड़ा साया, तैरता हुआ सा, मेरे रास्ते को काट कर निकल गया था। मैंने नजर ऊपर उठाई और मेरा दिल बैठ गया। चील हमारे सिर के ऊपर मंडराए जा रही थी। क्या यह चील ही हैं? पर उसके डैने कितने बड़े हैं और पीली चोंच लम्बी, आगे को मुड़ी हुई। और उसकी छोटी-छोटी पैनी आँखों में भयावह सी चमक है।

चील आकाश में हमारे ऊपर चक्कर काटने लगी थी और उसका साया बार-बार मेरा रास्ता काट रहा था।

हाय, यह कहीं तुमपर न झपट पडे़। मैं बदहवस सा तुम्हारी ओर दौड़ने लगा, मन चाहा, चिल्ला कर तुम्हें सावधान कर दूँ, पर डैने फैलाये चील को मंडराता देख कर मैं इतना त्रस्त हो उठा था कि मुँह में से शब्द निकल नहीं पा रहे थे। मेरा गला सूख रहा था और पांव बोझिल हो रहे थे। मैं जल्दी तुम तक पहुँचना चाहता था मुझे लगा जैसे मैं साये को लांघ ही नहीं पा रहा हूँ। चील जरूर नीचे आने लगी होगी। जो उसका साया इतना फैलता जा रहा है कि मैं उसे लांघ ही नहीं सकता।
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Old 13-12-2010, 02:32 PM   #120
Hamsafar+
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Default Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये

मेरे मस्तिष्क में एक ही वाक्य बार-बार घूम रहा था, कि तुम्हें उस मंडराती चील के बारे में सावधान कर दूँ और तुमसे कहूँ कि जितनी जल्दी पार्क में से निकल सकती हो, निकल जाओ।
मेरी सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी, और मुँह से एक शब्द भी नहीं फूट पा रहा था।

बाहर जाने वाले फाटक से थोड़ा हटकर, दायें हाथ एक ऊँचा सा मुनारा है जिस पर कभी मकबरे की रखवाली करनेवाला पहरेदार खड़ा रहता होगा। अब वह मुनार भी टूटी-फूटी हालत में है।

जिस समय मैं साये को लांघ पाने को भरसक चेष्टा कर रहा था उस समय मुझे लगा था जैसे तुम चलती हुई उस मुनारे के पीछे जा पहुँची हो, क्षण भर के लिए मैं आश्वस्त सा हो गया। तुम्हें अपने सिर के ऊपर मंडराते खतरे का आभास हो गया होगा। न भी हुआ हो तो भी तुमने बाहर निकलने का जो रास्ता अपनाया था, वह अधिक सुरक्षित था।

मैं थक गया था। मेरी सांस बुरी तरह से फूली हुई थी। लाचार, मैं उसी मुनारे के निकट एक पत्थर पर हांफता हुआ बैठ गया। कुछ भी मेरे बस नहीं रह गया था। पर मैं सोच रहा था कि ज्योंही तुम मुनारे के पीछे से निकल कर सामने आओगी, मैं चिल्ला कर तुम्हें पार्क में से निकल भागने का आग्रह करूँगा। चील अब भी सिर पर मंडराये जा रही थी।

तभी मुझे लगा तुम मुनारे के पीछे से बाहर आई हो। हवा के झोंके से तुम्हारी साड़ी क़ा पल्लू और हवा में अठखेली सी करती हुई तुम सीधा फाटक की ओर बढ़ने लगी हो।

'शोभा!' मैं चिल्लाया।

पर तुम बहुत आगे बढ़ चुकी थी, लगभग फाटक के पास पहुँच चुकी थी। तुम्हारी साड़ी क़ा पल्लू अभी भी हवा में फरफरा रहा थ। बालों में लाल फूल बड़ा खिला-खिला लग रहा था।

मैं उठ खड़ा हुआ और जैसे तैसे कदम बढ़ता हुआ तुम्हारी ओर जाने लगा। मैं तुमसे कहना चाहता था, 'अच्छा हुआ जो तुम चील के पंजों से बच कर निकल गई हो, शोभा।'

फाटक के पास तुम रूकी थी, और मुझे लगा था जैसे मेरी ओर देख कर मुस्कराई हो और फिर पीठ मोड़ ली थी और आँखों से ओझल हो गई थी।

मैं भागता हुआ फाटक के पास पहुँचा था। फाटक के पास मैदान में हल्की-हल्की धूल उड़ रही थी और पार्क में आने वाले लोगों के लिए चौड़ा, खुला रास्ता भांय-भांय कर रहा था।

तुम पार्क में से सही सलामत निकल गई हो, यह सोच कर मैं आश्वस्त सा महसूस करने लगा था। मैंने नजर उठा कर ऊपर की ओर देखा। चील वहाँ पर नहीं था। चील जा चुकी थी। आसमान साफ था और हल्की-हल्की धुंध के बावजूद उसकी नीलिमा जैसे लौट आई थी।

- समाप्त -
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