01-04-2017, 06:53 PM | #1 |
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दो कुण्डलिनी छंद
1- कितनी छोटी हो गयी, है मानव की सोच, आगे बढ़ने के लिए, रहा स्वयं को नोच। रहा स्वयं को नोच, बढ़ी लालच है इतनी, और-और का फेर, दुखी दुनिया है कितनी।। 2- आदत जिनकी हो गयी, लेकर खाना कर्ज, कामचोर हैं हो गये, भूल गये हैं फर्ज। भूल गये हैं फर्ज, नहीं पाते वे राहत, बस लेना ही कर्ज, हुई है जिनकी आदत।। - आकाश महेशपुरी ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ वकील कुशवाहा "आकाश महेशपुरी" ग्राम- महेशपुर पोस्ट- कुबेरस्थान जनपद- कुशीनगर उत्तर प्रदेश |
07-04-2017, 11:13 PM | #2 | |
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Re: दो कुण्डलिनी छंद
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07-06-2017, 10:45 AM | #3 |
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Re: दो कुण्डलिनी छंद
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07-06-2017, 09:36 PM | #4 | |
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Re: दो कुण्डलिनी छंद
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Advo.Ravinder Ravi "Sagar" |
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16-06-2017, 08:32 AM | #5 |
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Re: दो कुण्डलिनी छंद
बेहद अर्थपूर्ण व सरस रचना. आज के हालत व सोच पर अच्छा कटाक्ष. धन्यवाद, आकाश जी.
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