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Old 17-05-2011, 03:36 PM   #1
jai_bhardwaj
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मित्रों, प्रस्तुत सूत्र में परमार्थ और धर्म से सम्बंधित विषयों पर छोटे छोटे किन्तु हृदयग्राही दृष्टांत प्रस्तुत करने की चेष्टा कर रहा हूँ / आज के वातावरण में उक्त सूत्र धर्मान्धता और दकियानूसी विचारों से भरा हुआ भी माना जा सकता है अतः विचारों में मतभेद संभव है किन्तु सूत्रधार का अभी भी इन सब पर विश्वास है / धन्यवाद /

ज्ञान

आतंरिक प्रकाश का नाम ज्ञान जबकि अज्ञान आतंरिक अँधेरे का पर्यायवाची है / जीवन का पथ इस अज्ञान के अंधियारे से पूरी तरह आपूरित है / इस पर सफलतापूर्वक चलने के लिए ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता है किन्तु ध्यान रहे कि इस अंधियारे में औरों का प्रकाश काम में नहीं आता बल्कि अपना प्रकाश हो तो जीवन पथ सुगमता से पार किया जा सकता है / जो किसी भी कारण दूसरों के प्रकाश पर भरोसा कर लेते हैं वे हमेशा धोखा खाते हैं /
सूफियों में बाबा फरीद के कथा प्रसंग में एक कथा आती है / उन्होंने अपने शिष्य से कहा, "ज्ञान को उपलब्ध करो/ इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है /"
यह सुन कर वह शिष्य नम्र भाव से बोला, " बाबा! रोगी तो सदैव वैद्य के पास ही जाता है, स्वयं चिकित्साशास्त्र का ज्ञान अर्जित करने के चक्कर में नहीं पड़ता/ आप मेरे मार्गदर्शक हैं, गुरु हैं/ मैं यह जानता हूँ कि आप मेरा उद्धार करेंगे तो फिर स्वयं के ज्ञान की क्या आवश्यकता ?"
यह सुनकर बाबा फरीद ने बड़ी गंभीरता से उसे एक कथा सुनायी, " एक गाँव में एक वृद्ध रहता था/ वह मोतियाबिंद के कारण अंधा हो गया था/ जब बेटों में अपने पिता के नेत्रों की चिकित्सा करानी चाही तो उसने स्पष्ट रूप से अस्वीकार करते हुए कहा, 'भला मुझे आँखों की अब क्या आवश्यकता, तुम आठ मेरे पुत्र हो, ये आठ मेरी पुत्रवधुएँ हैं और तुम्हारी माँ भी तो हैं / ये चौतीस आँखे मुझे मिली हैं तो फिर मेरी दो आँखे ना होने का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है/'
पिता ने पुत्रों की बात नहीं मानी और उसकी आँखे वैसी ही बनी रहीं / कुछ दिनों के बाद एक रात अचानक घर में आग लग गयी / सभी अपनी अपनी जान बचा कर भागे किन्तु अभागे पिता की किसी को भी याद नहीं आयी और वह प्रचंड आग में जल कर भस्म हो गया /"
यह कथा सुनाने के बाद शेख फरीद ने अपने शिष्य से कहा, "बेटा! अज्ञान का आग्रह मत करो / ज्ञान स्वयं की आँखे हैं/ इसका कोई विकल्प नहीं है/ सत्य कहीं पडा हुआ नहीं प्राप्त हो जाता बल्कि उसे स्वयं ही अनुभव के आधार पर पाया जता है /स्वयं का ज्ञान ही कुसमय में असहाय मनुष्य का एक मात्र आधार होता है / "
(कृपया संभावित शाब्दिक त्रुटियों को शुद्ध कर के पढ़ लें/ धन्यवाद)
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Old 17-05-2011, 06:32 PM   #2
prashant
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ज्ञान वह प्रकाश पुंज है/
जिससे जीवन रूपी पथ प्रकाशित होता है/
अत: जीवन में हमेशा ज्ञान का सहारा अवश्य लेना चाहिए/
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Old 18-05-2011, 01:04 AM   #3
jai_bhardwaj
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उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार मित्रों/
पुण्य
एक संत मृत्यु के उपरान्त स्वर्गलोक पहुंचे / चित्रगुप्त ने उनका हिसाब किताब देखने से पूर्व उनका विस्तृत विवरण पूछा / संत बोले," आप नहीं जानते कि मैं कौन हूँ? अरे ! मेरी तपश्चर्या के चर्चे तो सम्पूर्ण धरती पर हैं / मैं अमुक संत हूँ /"
चित्रगुप्त ने पुनः प्रश्न किया, " आपने धरती में क्या क्या किया?"
संत ने तनिक दर्प से कहा," प्रारम्भ का आधा जीवन तो दुनियादारी के चक्कर में व्यतीत हो गया/ जीवन के अंतिम आधे भाग में सांसारिकता को त्याग कर मैंने तपस्या की और पुण्य कमाया है/"
चित्रगुप्त बही में उनके पाप और पुण्य का विवरण देखने लगे /
साधु ने कहा, " आप प्रारम्भ में क्या देख रहे हैं , महोदय मैंने असली पुण्य तो उत्तरार्ध में कमाए हैं /"
चित्रगुप्त ने कहा, "किन्तु आपके उत्तरार्ध में मुझे कुछ भी पुण्य नहीं दिखाई दे रहे हैं / जो कुछ भी पुण्य हैं वे आपके जीवन के पूर्वार्ध में ही हैं/ "
तब संत ने आश्चर्य से कहा, " ऐसा कैसे हो सकता है ? इसका क्या कारण है यह मुझे नहीं ज्ञात है !! "
चित्रगुप्त ने स्पष्ट किया, " आपने अपने जीवन का पूर्वार्ध काल भले ही दुनियादारी में व्यतीत किया हो किन्तु आत्मीयता, प्रेम, बंधुत्व, दया, करुणा, उपकार, सहायता, दान आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ है / पुण्य कमाने के यही कारण हैं / सच तो यही है कि आपके स्वर्गलोक में आने का कारण आपके जीवन का पूर्वार्ध काल ही है ना कि उत्तरार्ध काल /"
संत को सचाई का बोध हो गया /


(कृपया संभावित शाब्दिक त्रुटियों को शुद्ध कर के पढ़ें/ धन्यवाद/)
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Old 18-05-2011, 04:16 AM   #4
prashant
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इससे तो मुझे यही लगता है की कर्म करो तभी फल भी मिलेगा/
निठल्ला ध्यान भजन भी किसी काम का नहीं है/
धन्यवाद भाई जी
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Old 18-05-2011, 03:51 PM   #5
jai_bhardwaj
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आप को हार्दिक धन्यवाद मित्र /
उपासना


महाभारत युद्ध काल का यह प्रसंग है / युधिष्टिर रात्रि में व्यक्तिगत उपासना हेतु जाते हैं, यह सभी पांडव भाइयों को विदित था किन्तु वे कहाँ जाते हैं यह किसी को नहीं पता था / प्रातः तीसरे पहर वे लौट आते एवं कुछ देर विश्राम करने के उपरान्त युद्ध हेतु तैयार हो जाते थे / एक दिन भीम, नकुल, सहदेव ने उनका पीछा किया ताकि वे जान सकें कि युधिष्ठिर कहाँ जाते हैं /जहां जाते हैं वह स्थान सुरक्षित है अथवा नहीं / मद्धिम प्रकाश में उन्होंने ने देखा कि वे युद्ध स्थल की तरफ जा रहे हैं / पीछे आ रहे तीनों भाइयों से अनजान युधिष्ठिर मृतकों के मध्य घायलों को खोज रहे थे और ऐसे व्यक्तियों को वे अपने साथ चादर में छुपा कर लाये अन्न, जल, औषधियों आदि से उपचारित करते जा रहे थे / ऐसा करते समय उन्होंने यह जानने की चेष्टा नहीं की कि यह घायल सैनिक पांडव सेना का है अथवा कौरव सेना का / उन्होंने सभी घायलों को सम्यक दृष्टि से किसी को पानी पिलाया, किसी को भोजन दिया और किसी के घावों में पीड़ाहारी लेप लगाया /
तीनों भाईयों ने अब अपने आप को प्रकट कर दिया और पूछा, " तात! आप छिप कर यहाँ क्यों आये?"
" भाईयों! यदि मैं प्रकट होकर आता तो वे अपने हृदय की बातें मुझसे ना कह पाते / मैं सेवा के सौभाग्य से वंचित रह जाता और वे संभवतः अकालमृत्यु को प्राप्त हो जाते/"
" किन्तु क्या शत्रु की सेवा करना अधर्म नहीं है ?" भीम ने जानना चाहा /
"बन्धु, मनुष्य शत्रु कब से होने लगा ? अरे शत्रु तो होते हैं पाप, अधर्म, छद्म , झूठ और कलुषित विचार /"
"आपने कह रखा है कि आप उपासना के लिए जाते हैं अतः आपका यह झूठ क्या आपको पाप में नहीं धकेल रहा है ?" जिज्ञासु नकुल ने जानना चाहा /
"नहीं नकुल! दुखियों और पीड़ितों की सेवा करना ही असली उपासना है और यही मैंने किया है /" युधिष्ठिर ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया /
सभी नतमस्तक हो गए और धर्मराज को हृदय से प्रणाम किया /

(कृपया संभावित शाब्दिक त्रुटियों को शुद्ध कर के पढ़ें / धन्यवाद /)
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Old 18-05-2011, 06:25 PM   #6
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जय भाई आप नहीँ थे तो कितनी अच्छी अच्छी बातोँ से हमलोग वंचित रह गए आप का हार्दिक आभार
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दोस्ती करना तो ऐसे करना
जैसे इबादत करना
वर्ना बेकार हैँ रिश्तोँ का तिजारत करना
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Old 19-05-2011, 03:25 PM   #7
jai_bhardwaj
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प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद मित्र /
मन
अष्टावक्र अपने पिता को मुक्त कराने के लिए राजा जनक की सभा में गए / उनके आठ तरफ से टेढ़े मेढ़े शरीर को देख कर राजा जनक सहित सभी उपस्थित दरबारी हँस पड़े / अष्टावक्र हँस कर राजा जनक से बोले, " तुम ज्ञान की बात कहते हो और स्वयं शरीर के रंग, रूप और बनावट के प्रेमी हो/ यह कैसा ज्ञान यज्ञ है आपका ?"
जनक जी चुप हो गए और दरबारियों ने अपना शीश लज्जा से झुका लिया / सायंकाल अष्टावक्र शयन के लिए चले गए किन्तु राजा जनक की नींद उड़ चुकी थी / उन्हें आभास हुआ कि यह ऋषि कुमार ही उन्हें सत्य के मार्ग तक ले जाएगा / वे मध्यरात्रि में अष्टावक्र के कक्ष में गए / तब वे ध्यानस्थ थे /
बाद में अष्टावक्र ने जनक से आने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा ," मुझे विश्वास हो गया है कि आप ही मुझे ज्ञान दे सकते हैं / सच्ची बात को पूर्ण निर्भीकता के साथ कहने वाला ही उपदेश का अधिकारी हो सकता है / कृपया मुझे ज्ञान दें /"
काफी देर तक प्रश्नों और उत्तरों का आदान प्रदान हुआ / राजा जनक ने गुरु दक्षिणा में पहले राज्य, फिर सम्पूर्ण राजकोष, फिर शरीर और फिर मन को देने की बात कही / अंत में ऋषिकुमार अष्टावक्र ने उनसे कहा, " अच्छा, आप अपना मन मुझे दे दीजिये/" राजा जनक ने सहर्ष संकल्प कर दिया / ऋषिकुमार अपने गंतव्य को चले गए /
कुछ दिनों बाद वे राजदरबार में उपस्थित हुए और राजा जनक से पूछा, " अब कैसा लग रहा है ?"
शांत स्वर में जनक ने उत्तर दिया, " जब से मन आपको दे दिया तब से सारी चंचल क्रियाएं शांत हो गयी हैं /"
" राजन! सारी संसारिकता, विषय आदि मन के आधीन हैं / मन ही देही है / तब तक मन की गति आत्मा की ओर उन्मुख नहीं होगी तब तक वह शरीर में लगा है / धीरे धीरे एक एक कोष पार कर तुम विशुद्ध ज्ञान और आनंद को प्राप्त हो जाओगे/ अब ज्ञान के आधीन हो कर राज्य का संचालन करो /"
उसी के बाद राजा जनक विदेह कहलाये / अष्टावक्र ने न केवल अपने पिता को मुक्त कराया बल्कि सभी ज्ञानियों को भी मुक्त करा लिया /

(संभावित शाब्दिक त्रुटियों को कृपया शुद्ध कर के पढ़ लें / धन्यवाद /)
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Old 19-05-2011, 04:58 PM   #8
prashant
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सह प्रशासक के पद के लिए बधाई/
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Old 25-05-2011, 12:35 AM   #9
jai_bhardwaj
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पराधीन

मगधराज की कन्या सुहासिनी विवाह योग्य हो गयी / बाल्यकाल से ही संतो ऋषियों का सानिध्य मिला था अतः ज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी उसे / उसने पिता से कहा कि वह स्वतंत्र होकर श्रेष्ठतम का वरण करना चाहती है / पराधीन तो कष्ट ही भोगते हैं / राजा ने इच्छित वर का चयन करने के लिए स्वयंवर की व्यवस्था कर दी / राजकुमार, व्यवसायी, विद्वान्, कलाकार अलग अलग कक्षों में ठहराए गए / राजकुमारी कृमशः सभी वर्गों के कक्षों में गयी / राजकुमारों से पूछा, " आपकी इच्छा तो सभासदों पर निर्भर रहती है फिर तो आप पराधीन ही हुए /" राजकुमारों को उत्तर नहीं समझ में आया / राजकुमारी ने विद्वानों के वर्ग से कहा, " गुण ग्राहकों के अभाव में आपकी विद्या का परिचय कैसे मिलता होगा अतः आप की विद्या उन्ही के अधीन है /" विद्वान् वर्ग अनुत्तरित रह कर शांत हो गया / व्यवसायियों के वर्ग से राजकुमारी ने कहा, " यदि दुर्भिक्ष पडा, अराजकता फैली तो आपका व्यवसाय कैसे चलेगा ?" व्यवसायियों ने भी अपनी पराजय स्वीकार कर ली / पारखी के अभाव में कलाकार वर्ग कैसे पनपेगा यह द्विविधा कलाकार वर्ग नहीं हल कर सका /
सभी को निराश कर खिन्न हृदय से राजकुमारी भी एकान्त में चली गयी / तभी महामनीषी कौन्डिल्य का राज्य में आगमन हुआ / मगध राज ने अपनी पुत्री को साथ लिया और उनका आशीष प्राप्त किया / राजकुमारी की खिन्नता महामनीषी से छिपी नहीं रही अतः उन्हों ने कहा, " दूसरों के सहारे सुख की आस रखने वाली तू भी तो पराधीन हुई न !"
अब राजकुमारी को आत्मज्ञान हुआ तो मानसिक भ्रांतियां भी मिट गयी / जीवनसाथी खोजने का विचार छोड़ कर वह परमार्थ में तल्लीन हो गयी और आजीवन उसने यही किया /


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Old 26-05-2011, 02:25 PM   #10
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आत्म संतुष्टि

महानगरों में भिखारियों की रूप सज्जा के लिए भी कई ब्यूटी पार्लर खुले हुए हैं / क्योंकि ये भिखारी परम्परागत भिखारी नहीं होते हैं अतः इन रूप सज्जा केन्द्रों पर जाकर पर्याप्त धनराशि व्यय करके भिखारियों का रूप रचते हैं और पुनः होटल अथवा किसी अति व्यस्त स्थल पर अपने लिए निर्धारित स्थान की प्राप्ति के लिए भी उचित धनराशि व्यय करते हैं / विचारणीय है कि यदि उन्हें पर्याप्त भीख ना मिलती हो तो वे प्रतिदिन इतना कैसे व्यय कर सकते हैं ?
आखिर इन भिखारियों को भीख देता कौन है ?
हममे से कई /
अब प्रश्न उठता है कि हम भीख क्यों देते हैं ?
भिखारियों की सहायता के उद्देश्य से /
तो क्या वाकई यह सच है ?
एक भिखारी से पूछा गया कि उसे प्रतिदिन कितनी आय हो जाती है तो उसने कहा कि इसका कोई निश्चित माप दंड नहीं है / उसने यह भी कहा कि वह अगले कुछ दिनों में प्रतिदिन की आय को बताएगा और उसी से उसकी आय का निर्धारण कर लिया जाए /
पहली संध्या को जब वह अपने स्थान पर लौटा को उसने बताया कि आज जब वह अपनी रूप सज्जा के उपरान्त एक पांच सितारा होटल के द्वार पर अपने निर्धारित स्थल पर खडा था तो एक साहब अपने कुछ मित्रों के साथ आये और जब उसने कटोरा आगे किया तो मित्रों की ओर देखते हुए पांच सौ की एक नोट उस कटोरे में डाल दी / इसके अलावा कुछ फुटकर राशियाँ भी प्राप्त हुयी हैं /
दूसरी संध्या को भी वह भिखारी बहुत प्रफुल्लित वाणी में बोला कि आज पुनः वही साहब अपनी पत्नी के साथ होटल आये और मेरे कटोरे में सौ सौ के तीन नोट डाल गए तथा उनकी पत्नी ने भी सौ के दो नोट डाले / जो फुटकर राशियाँ प्राप्त हुईं हैं वे पृथक हैं /
तीसरी संध्या को वह भिखारी दुखी था और नशे में भी था / कुछ बता भी नहीं रहा था / बहुत कुरेदने पर उसने कहा कि उसे आज बहुत बड़ा घाटा लगा है / आज उसे उस स्थान के लिए अधिक राशि भी चुकानी पडी थी / आज वही साहब पुनः होटल में आये / आज वह अकेले थे / उन्होंने ना तो उसकी ओर देखा और ना उसके कटोरे में एक रूपये का सिक्का ही डाला / जो कुछ फुटकर राशियाँ मिली थी उसी में आज उसने मद्यपान भी किया है /
निष्कर्ष यही निकला कि तीसरे दिन उन साहब के 'मैं' के सम्मान बोध की संतुष्टि में दानी दिखाने के लिए उनके साथ में कोई अन्य व्यक्ति नहीं था अतः तथाकथित दान नहीं दिया था / वस्तुतः यही परम सच्चाई है कि जीवन में हम जो भी करते हैं वह मात्र अपने लिए करते हैं .... या तो अपनी भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति के लिए ..... या प्रेम और सम्मान की संतुष्टियों के लिए ...... या सुरक्षा बोध, धन हानि अथवा सम्मान - प्रेम के मामलों में होने वाली असंतुष्टियों से बचने के लिए /
हम किसी अन्य के लिए कभी भी कुछ भी नहीं करते / करते हैं तो मात्र आत्म संतुष्टि के लिए ......भौतिक अथवा मानसिक /

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