28-11-2012, 06:08 PM | #1 |
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अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
28-11-2012, 06:10 PM | #2 |
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Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
भारत में अंग्रेजी की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है, अंग्रेजी का वर्चस्व और इसकी स्वीकार्यता- दोनों में लगातार तेजी से वृद्धि हो रही है. इस आशय को सिद्ध करने के लिए एक खास वर्ग के लोगों की राय उद्धृत की जाती है और भाषा संबंधी आँकड़ों से मनमाने निष्कर्ष निकाले जाते हैं और यह सिद्ध करने की एकतरफा कोशिश की जाती है कि अंग्रेजी की तुलना में देश की जनता के बीच हिंदी की ठाठ नगण्य है.
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28-11-2012, 06:10 PM | #3 |
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Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
कुल मिलाकर, अंग्रेजी के आगे देश में हिंदी की हैसियत कुछ भी नहीं है! इसके साथ ही, उक्त दैनिक का हिंदी पर आरोप यह भी है कि हिंदी पर सरकार एक भारी-भरकम राशि खर्च करती है, जो निरर्थक और नाजायज है, क्योंकि हिंदी का कोई भविष्य नहीं है. अंग्रेजी की श्रीवृद्धि को साबित करने के लिए यह प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक एक अभियानी नारा भी छापता रहता है- इंगलिश अनस्टॉप्पेबल ! अर्थात अंग्रेजी किसी से दबने वाली नहीं. इसके वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं दे सकता!
यहाँ इस लेख को लिखने के पीछे मेरी मंशा अंग्रेजी के ख़िलाफ़ कोई तर्क गढ़ना या अंग्रेजी के विरुद्ध विष-वमन करना हरगिज नहीं है. मेरा बस एकमात्र विनम्र प्रयास, अंग्रेजी को श्रेष्ठ साबित करने के क्रम में हिंदी के विरुद्ध गढ़े जा रहे कुतर्कों को तार्किक ढंग से निरस्त करना मात्र है.
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28-11-2012, 06:10 PM | #4 |
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Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
यहाँ यह कहने की जरूरत नहीं कि कोई भी भाषा-प्रेमी किसी भी देशी या विदेशी भाषा से किसी भी प्रकार का बैर-भाव नहीं रखता. लेकिन किसी भाषा-विशेष को श्रेष्ठ साबित करने की प्रचेष्टा में जब किसी दूसरी भाषा को दोयम दर्जे का बताने की दुष्ट कोशिश की जाती है तो किसी भी संवेदनशील और सचेत नागरिक को चोट अवश्य पहुँचती है.
मैं इस लेख में उक्त प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक में वर्ष 2010 में छपे दो लेखों- व्हाट इट कॉस्ट्स टू कीप हिंदी अलाईव? और अ वेरी इंगलिश अफेयर से चर्चा शुरू करना चाहूँगा और अंत में अभी मार्च, 2012 में छपे एक न्यूज आइटम नाऊ टू करोर इंडियन किड्स स्टडी इन इंगलिश मीडियम स्कूल्स (इंगलिश सीज 274% राईज इन एनरॉलमेंट सिंस 2003-04) के निहितार्थ पर चर्चा करना चाहूँगा.
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28-11-2012, 06:10 PM | #5 |
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Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
03 दिसंबर, 2010 को उक्त प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक में छपे उपर्युक्त लेखों का लब्बोलुबाब यह है कि देश में हिंदी उतनी "पॉपुलर" नहीं है, जितनी इंगलिश है और दूसरी बात यह कि भारतीय संविधान और राजभाषा अधिनियम (ऑफिसियल लैंग्वेज एक्ट) के अंतर्गत बनाई गई राजभाषा नीति बस इसलिए है कि हिंदी-पट्टी (हिंदी-बेल्ट) के हजारों लोगों के लिए नौकरियाँ सुनिश्चित की जा सके! और तो और, उनको काम पर बनाए रखने के लिए उनपर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं! इसलिए हिंदी राष्ट्र की संपर्क भाषा बनने के लायक हरगिज नहीं है!
अपनी मान्यताओं को बल देने के लिए इन दोनों लेखों की प्रबुद्ध लेखिका ने सिर्फ़ उन्हीं लोगों को उद्धृत (कोट) किया है, जो हिंदी के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त (बायस्ड) हैं और जानबूझकर हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहते हैं. आइए, इन लेखों से कुछ उदाहरणों को लें और उनकी विवेकसम्मत विवेचना करें. यहाँ पहले लेख से बात शुरू करते हैं. पहले लेख के आरंभ में ही यह कहा गया है कि भारत सरकार राजभाषा हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करती है, जबकि राजभाषा संकल्प, 1968 में यह कहा गया है कि आठवीं अनुसूची की सभी भाषाओं के संपूर्ण विकास के लिए ठोस उपाय किये जायें.
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28-11-2012, 06:12 PM | #6 |
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Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
इस संदर्भ में मद्रास विश्वविद्यालय के तमिल विभाग के एक प्रोफेसर को उद्धृत (कोट) किया गया है, जिनका कहना है कि हिंदी के बजट का दसवाँ हिस्सा भी शेष भाषाओं को नहीं मिलता है. लेख में आगे बताया गया है कि राजभाषा हिंदी को वर्ष 2009 में लगभग 36 (छत्तीस) करोड़ रुपए का सालाना बजट आबंटित किया गया. इसके उलट, नैशनल इंस्टीच्यूट ऑफ कम्युनिकेबल डिजिजेज का बजट 25 (पच्चीस) करोड़ रुपए, नैशनल आर्काईव्ज ऑफ इंडिया का बजट 20 (बीस) करोड़ रुपए और सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाईजेशन का बजट 32 (बत्तीस) करोड़ रुपए था.
यहाँ यह देखिए कि भाषाओं के बजटों की तुलना आपस में नहीं करके, हिंदी के बजट की तुलना गैर-भाषायी मदों से करके हिंदी पर हो रहे खर्च को निरर्थक साबित करने की कोशिश की गई है. दूसरी तरफ, यह तथ्य स्पष्ट करना अनिवार्य है कि राजभाषा पर व्यय गृह मंत्रालय, भारत सरकार का राजभाषा विभाग करता है और इसका उद्देश्य भारत सरकार तथा उसके अधीनस्थ मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, राष्ट्रीयकृत बैंकों, उपक्रमों, उद्यमों, सार्वजनिक कंपनियों आदि में राजभाषा हिंदी का प्रयोग बढ़ाना है और इस प्रकार राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन सुनिश्चत करवाना है.
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28-11-2012, 06:12 PM | #7 |
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Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
यहाँ यह पुन: स्पष्ट कर दें कि राजभाषा विभाग इस बजट का इस्तेमाल न तो हिंदी भाषा के संपूर्ण विकास के लिए करता है और न ही आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं से इसका कुछ लेना-देना है. वस्तुत: यह भारत सरकार के गृह मंत्रालय (राजभाषा विभाग) का नहीं, बल्कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का दायित्व है. यह मानव संसाधन विकास मंत्रालय है जो आठवीं अनुसूची में शामिल हिंदी समेत अन्य सभी भाषाओं के संपूर्ण विकास के लिए बजट आबंटित करता है.
अब आइए, दसवीं पंचवर्षीय योजना (टेंथ फाईव-ईयर प्लान) में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा भाषा-विकास (लैंग्वेज-डेवलपमेंट) पर किए गए कुल व्यय की पड़ताल करें और स्वयं यह निष्कर्ष निकालें कि हिंदी की तुलना में किसी भाषा के साथ कतई कोई अन्याय नहीं किया गया है. केवल हिंदी भाषा और उर्दू भाषा (सिंधी भाषा सहित) के विकास पर दसवीं पंचवर्षीय योजना में किए गए कुल व्यय की तुलना कर लेने से ही हिंदी पर लगाए जा रहे सारे आरोप स्वत: निराधार साबित हो जाएँगे.
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28-11-2012, 06:12 PM | #8 |
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Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
दसवीं पंचवर्षीय योजना में हिंदी भाषा के विकास पर जहाँ कुल 61.07 (इकसठ) करोड़ रुपए व्यय किए गए, वहीं सिंधी भाषा सहित उर्दू भाषा के विकास पर कुल 61.45 (लगभग साढ़े इकसठ) करोड़ रुपए व्यय किए गए जो हिंदी की तुलना में लगभग आधा करोड़ रुपए ज्यादा था. प्रसंगवश यहाँ यह भी बता दें कि इसी दौरान अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाओं के विकास के लिए कुल 15.39 करोड़ रुपए और तमिल भाषा के विकास के लिए 03.30 करोड़ रुपए खर्च किए गए. वहीं संस्कृत भाषा के विकास और संस्कृत की पढ़ाई पर कुल 154.77 करोड़ रुपए खर्च किए गए.
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28-11-2012, 06:13 PM | #9 |
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Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
इस तरह, दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने हिंदी समेत अन्य सभी भाषाओं के लिए कुल 577.62 (लगभग पौने छह सौ) करोड़ रुपए खर्च किए. यहाँ स्पष्ट कर दें कि ये राशियाँ विभिन्न भाषाओं के विकास, संरक्षण, शिक्षण एवं प्रोत्साहन के लिए गठित उन सभी संस्थाओं पर खर्च की जाती हैं, जो इस मंत्रालय के अधीन आती हैं. उदाहरणार्थ; केंद्रीय हिंदी निदेशालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (सीआईआईएल, मैसूर), केंद्रीय अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा संस्थान (सीआईईएफएल, हैदराबाद), नैशनल काउंसिल फॉर प्रोमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज, नैशनल काउंसिल फॉर प्रोमोशन ऑफ सिंधी लैंग्वेज, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान आदि. मद-वार विस्तृत ब्योरे के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार की सरकारी वेबसाइट देखें.
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28-11-2012, 06:14 PM | #10 |
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Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
इस तरह, ऊपर किए गए बजट-वार विश्लेषण से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सभी भाषाओं के साथ विवेकपूर्ण और यथोचित न्याय किया गया है. फिर राजभाषा हिंदी पर किए जा रहे खर्च पर उँगली उठाना न केवल अनुचित है, बल्कि द्वेषपूर्ण भी है. अब आइए, उस आरोप का विश्लेषण करें जिसमें कहा गया है कि यह राजभाषा नीति हिंदी-पट्टी के हजारों लोगों को बस नौकरी मुहैया कराने के लिए ही है. कहने की आवश्यकता नहीं कि कोई भी प्रतियोगिता अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित की जाती है और अनुवादक या राजभाषा अधिकारी/हिंदी अधिकारी के पद के लिए वांछित योग्यता रखने वाला किसी भी प्रांत का उम्मीदवार आवेदन कर सकता है.
सुखद आश्चर्य अब यह है कि दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, गुजरात आदि प्रांतों के अनेक उम्मीदवार इन पदों पर चयनित हो रहे हैं. हिंदी के राजनीतिक बहिष्कार को ठेंगा दिखाकर अनेक दक्षिण-भारतीय छात्र-छात्राएँ हिंदी में बी.ए., एम.ए., एम.फिल., पीएच.डी. करने में गर्व महसूस कर रहे हैं. इससे यह बात भी साबित होती है कि हिंदी विश्व की सर्वाधिक सहज एवं वैज्ञानिक भाषाओं में से एक है. गौर करने वाली बात यह भी है कि आज हिंदी विश्व में 160 से भी अधिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है और हिंदी का लगातार विस्तार होता जा रहा है. जिस विश्व-बाज़ार (ग्लोबल मार्केट) ने अंग्रेजी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा (इंटरनैशनल लैंग्वेज) का दर्जा दिया, आज वही विश्व-बाजार हिंदी को अपने विस्तार का माध्यम बनाकर हिंदी की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध कर रहा है. फिर हिंदी-पट्टी को कोसना कहाँ तक उचित है? संघ लोक सेवा आयोग में हिंदी में परीक्षा और साक्षात्कार का विकल्प जब तक नहीं खुला था, तब तक हिंदी-पट्टी के उम्मीदवार भी बड़ी तादाद में आई.ए.एस., आई.पी.एस. आदि नहीं बन पाते थे. तब इन पदों पर अधिकांश दक्षिण-भारतीय और बंगाली-उड़िया उम्मीदवारों का दबदबा होता था क्योंकि उनको अंग्रेजी बेहतर आती थी. लेकिन हिंदी-पट्टी के लोगों ने तो इस बात की कभी शिकायत नहीं की! फिर आज हिंदी की हैसियत पर हंगामा है क्यों बरपा?
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