23-01-2013, 07:32 PM | #41 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
रोज होते हादसों से पिघल रहा हूँ मै आसरा महताब का मांगता है 'रौनक' सालों से आफताब सा जल रहा हूँ मै दीपक खत्री 'रौनक' Last edited by deepuji1983; 28-01-2013 at 02:41 PM. |
23-01-2013, 07:33 PM | #42 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
Sunday -Funday
ऐतराज़ है मेरे पीने से मेरी बीवी को ज्यादा तो क्योंकि भूल जाता हूँ उसकी दहशत पीने के बाद दीपक खत्री 'रौनक' |
23-01-2013, 07:33 PM | #43 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
मसला ये कितना आम हुआ है
हुश्न का ये क्या अंजाम हुआ है दीपक खत्री 'रौनक' |
23-01-2013, 07:35 PM | #44 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
शीर्षक :- क्यों न अभिमान करूँ मै
==================== क्यों न अभिमान करूँ मै पहचानते हो क्या तुम मुझे मै वही हूँ मै जो बना कभी पात्र माँ के दुलार का बहन के प्यार का पिता की आँखों मे नुमाया उनके उज्जवल भविष्य का अहसास हूँ मै हाँ वही तो हूँ मै नारी का आभारी हूँ, था और रहूँगा और जानते तो हो मानो भी जन्मो जन्मो से हूँ प्रयासरत निभाने को अंतिम क्षण तक एक परिवार , एक समाज मे अपनी सकारात्मक भागीदारी याके जिम्मेदारी या फ़र्ज़ जो भी मानों तुम जानो तुम पहचानो तुम हाँ हाँ वही पुरूष, पुरूष ही तो हूँ मै क्यों न अभिमान करूँ मै चाहे रहा हो वो कोई भी युग बहुत हुआ बखान हर त्याग, बलिदान और शौर्य का हरदम क्यों भुलाया पर मुझको तुमने जहां सीता थी वहाँ राम भी तो थे राधा थी वहाँ किशन भी तो थे झाँसी की रानी थी तो प्रताप भी तो थे माँ का वात्सल्य त्याग अमर है बाप का दुलार और पुरुषार्थ भी तो है पत्नी का व्रत , प्रेम लाजवाब है पति का स्नेह, दायित्व भी तो वहीं है बहन की दुआओं का असर नहीं भूला मै भाई का बल, सुरक्षा की अनुभूति भी तो है क्यों न अभिमान करूँ मै तुम्हे अगर दिखता हरदम रूप हर जगह रावन, कंस और दुशासन का क्यों भूल जाते तुम कैकयी, मन्थरा, होलिका, सुर्पनखा जैसी प्रजाति को हाँ कुछ दुष्ट दुष्टता खेले है पर क्यों हर मुख संताप झेले है मैंने अगर अच्छा अच्छा देखा है तुम क्यों इतना बुरा देखते हो मुझे गर्व है अपने होने पर और अपने पुरूषार्थ पर तो कहो क्यों न अभिमान करूँ मै दीपक खत्री 'रौनक' |
23-01-2013, 07:37 PM | #45 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
दलील थी ये उनकी कि वो हमारे हो नहीं सकते
तो वो क्या है जो बनके लहू नस नस मे बहता है दीपक खत्री 'रौनक' |
23-01-2013, 07:38 PM | #46 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
सौदा
=== सौदा कितना आम सा व्यावारिक सा क्रियाकलाप हुआ करता था कभी रोज़मर्रा की चीज़े जमीन जायदाद गहने कपडे इत्यादि इत्यादि के लिए होते थे सौदे लेकिन रूप कितना बदल दिया है आधुनिकता ने इसका क्या...नहीं होता तुम्हे यकीन... अरे देखो न देखो देखो कोई बेच रहा अपना मन अपना तन अपना जमीर अपना ईमान अपनी सोच और देखो तो सही इनके खरीदार भी कितने खड़े है कहाँ ये हुआ है बस अभी वो देखो किसी ने देश बेचा तो बेचा किसी ने भेष आदमी बिकता औरत बिकती बिक रहे संस्कार और ये पूरा जग आतुर है अधीर है कि किसी तरह हो जाये बस एक फायदे का सौदा दीपक खत्री 'रौनक' |
23-01-2013, 07:40 PM | #47 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
ख्यालों को अपने खूब पहचानता हूँ मै
उन्हें अल्फाज़ मे ढालना जानता हूँ मै आता नहीं है सताने का हुनर 'रौनक' को बस अपनाने का हुनर ही जानता हूँ मै दीपक खत्री 'रौनक' |
23-01-2013, 07:41 PM | #48 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
नज़र का उनके बस यही सवाल होता है
पैसेवाला है जो वही कंगाल होता है फ़साना जुल्फ का बेकार हो रहा पल पल हुश्न के हाथ हर गला हलाल होता है फकीरी आजकल है बहुत रोज फाका है नेता जो बन गया वही बहाल होता है जलाओ मत मेरे शरीर को रखो उसको देखो आकाश से क्या कमाल होता है लबों से रुख मेरा क्यों चूम लेते हो जमाने मे मेरा जीना मुहाल होता है ऊंचाई कौन जाने व्योम की बता रौनक यहाँ तो रोज़ एक नया बवाल होता है दीपक खत्री 'रौनक' |
23-01-2013, 07:43 PM | #49 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
दोस्तों छोटी बहर पर मेरी पहली
कोशिश आप सब की नज़र- रातें प्यार की मनचली है बस बदनाम ये तिरगी है लाचारी बेबसी है हर पल कितनी आम ये जिन्दगी है काला काज हुआ असिम मन कैसी आज की गन्दगी है भारी भीड़ लगी है हर पल इतनी काहे की तिश्नगी है उस शह का हथियार है वो जिसकी कायल रोशनी है मै हूँ ना से क्या है ज्यादा जीस्त जाने कहाँ चली है अपना काम निकाल ले बस विधी हर ओर अभी यही है कांटा आज बना है रौनक कितनी ये मनहूस घड़ी है दीपक खत्री 'रौनक' |
26-01-2013, 02:41 PM | #50 |
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Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
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