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25-01-2015, 01:32 PM | #1 |
Junior Member
Join Date: Jan 2015
Posts: 2
Rep Power: 0 |
इक इमारत गॉंव में मेरे पुरानी और है….
हाँ मगर आँगन में इक बेटी सयानी और है स्वाद भी उसका अलग है प्यास भी उसकी अलग बोतलों में बंद जो रहता है पानी और है ये तो मेरे शहर का है ताज़ा ताज़ा वाकया कैस और लैला की जो है वो कहानी और है सोचते हैं आपको कैसे बुलाएँ गॉंव में हम किसानों की ऐ साहब जिन्दगानी और है फुल हमसे, तुमसे लेकिन सिर्फ हैं कांटे उगे ऐ सियासत देख तेरी बागवानी और है मैकदे में देख कर इनको कभी मत सोचना देश पे कुरबां जो होगी वो जवानी और है साथ कैसे बैठ सकता हूँ मैं दस्तरखान पे बाप हूँ बेटी का मेरी मेजबानी और है एक तवायफ ने कहा था देखना पीकर कभी झील का कुछ और एक दरिया का पानी और है आप चंदे की रसीदें बेझिझक छपवाइए एक मस्जिद शहर में अपने पुराणी और है एक हवेली तो नहीं जो बेंच दू अपनी अना चीज़ मेरे पास ये ही खानदानी और है हारकर बदल सभी कहते हुवे ये उड़ गये जानते हैं हम तेरी आँखों में पानी और है आपसे मिलने से पहले मैं बड़ा मायूस था आज मुझको लग रहा है जिन्दगानी और है अशोक कुमार ‘दीप’ ................... edit note outside links are not allowed. Last edited by rajnish manga; 25-01-2015 at 03:07 PM. |
27-01-2015, 09:34 PM | #2 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 242 |
Re: इक इमारत गॉंव में मेरे पुरानी और है….
ग़ज़ल की इस बेमिसाल प्रस्तुति के लिए मेरा धन्यवाद स्वीकार करें, मित्र. ग़ज़ल का एक एक शे'र मोती के समान खिल रहा है.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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