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Old 04-05-2013, 10:10 PM   #91
aspundir
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Default Re: प्रेरक प्रसंग

बहुत समय पहले की बात है हिमालय के जंगलों में एक बहुत ताकतवर शेर रहता था . एक दिन उसने बारासिंघे का शिकार किया और खाने के बाद अपनी गुफा को लौटने लगा. अभी उसने चलना शुरू ही किया था कि एक सियार उसके सामने दंडवत करता हुआ उसके गुणगान करने लगा .
उसे देख शेर ने पूछा , ” अरे ! तुम ये क्या कर रहे हो ?”
” हे जंगल के राजा, मैं आपका सेवक बन कर अपना जीवन धन्य करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अपनी शरण में ले लीजिये और अपनी सेवा करने का अवसर प्रदान कीजिये .” , सियार बोला.
शेर जानता था कि सियार का असल मकसद उसके द्वारा छोड़ा गया शिकार खाना है पर उसने सोचा कि चलो इसके साथ रहने से मेरे क्या जाता है, नहीं कुछ तो छोटे-मोटे काम ही कर दिया करेगा. और उसने सियार को अपने साथ रहने की अनुमति दे दी.
उस दिन के बाद से जब भी शेर शिकार करता , सियार भी भर पेट भोजन करता. समय बीतता गया और रोज मांसाहार करने से सियार की ताकत भी बढ़ गयी , इसी घमंड में अब वह जंगल के बाकी जानवरों पर रौब भी झाड़ने लगा. और एक दिन तो उसने हद्द ही कर दी .
उसने शेर से कहा, ” आज तुम आराम करो , शिकार मैं करूँगा और तुम मेरा छोड़ा हुआ मांस खाओगे.”
शेर यह सुन बहुत क्रोधित हुआ, पर उसने अपने क्रोध पर काबू करते हुए सियार को सबक सिखाना चाहा.
शेर बोला ,” यह तो बड़ी अच्छी बात है, आज मुझे भैंसा खाने का मन है , तुम उसी का शिकार करो !”
सियार तुरंत भैंसों के झुण्ड की तरफ निकल पड़ा , और दौड़ते हुए एक बड़े से भैंसे पर झपटा, भैंसा सतर्क था उसने तुरंत अपनी सींघ घुमाई और सियार को दूर झटक दिया. सियार की कमर टूट गयी और वह किसी तरह घिसटते हुए शेर के पास वापस पहुंचा .
” क्या हुआ ; भैंसा कहाँ है ? “, शेर बोला .
” हुजूर , मुझे क्षमा कीजिये ,मैं बहक गया था और खुद को आपके बराबर समझने लगा था …”, सियार गिडगिडाते हुए बोला.
“धूर्त , तेरे जैसे एहसानफरामोश का यही हस्र होता है, मैंने तेरे ऊपर दया कर के तुझे अपने साथ रखा और तू मेरे ऊपर ही धौंस जमाने लगा, ” और ऐसा कहते हुए शेर ने अपने एक ही प्रहार से सियार को ढेर कर दिया.
किसी के किये गए उपकार को भूल उसे ही नीचा दिखाने वाले लोगों का वही हस्र होता है जो इस कहानी में सियार का हुआ. हमें हमेशा अपनी वर्तमान योग्यताओं का सही आंकलन करना चाहिए और घमंड में आकर किसी तरह का मूर्खतापूर्ण कार्य नहीं करना चाहिए.
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Old 05-05-2013, 06:17 PM   #92
jai_bhardwaj
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Default Re: प्रेरक प्रसंग

एक वन में हाथियों का एक झुंड रहता था। झुंड के सरदार को गजराज कहते थे। वो विशालकाय, लम्बी सूंड तथा लम्बे मोटे दांतों वाला था। खंभे के समान उसके मोटे-मोटे पैर थे। जब वो चिंघाड़ता था तो सारा वन गूंज उठता था।

गजराज अपने झुंड के हाथियों से बड़ा प्यार करता था। स्वयं कष्ट उठा लेता था, पर झुंड के किसी भी हाथी को कष्ट में नहीं पड़ने देता था और सारे के सारे हाथी भी गजराज के प्रति बड़ी श्रद्घा रखते थे।

एक बार जलवृष्टि न होने के कारण वन में जोरों का अकाल पड़ा। नदियां, सरोवर सूख गए, वृक्ष और लताएं भी सूख गईं। पानी और भोजन के अभाव में पशु-पक्षी वन को छोड़कर भाग खड़े हुए। वन में चीख-पुकार होने लगी, हाय-हाय होने लगी। गजराज के झुंड के हाथी भी अकाल के शिकार होने लगे। वे भी भोजन और पानी न मिलने से तड़प-तड़पकर मरने लगे। झुंड के हाथियों का बुरा हाल देखकर गजराज बड़ा दुखी हुआ। वह सोचने लगा, कौन सा उपाय किया जाए, जिससे हाथियों के प्राण बचें।

एक दिन गजराज ने तमाम हाथियों को बुलाकर उनसे कहा, 'इस वन में न तो भोजन है, न पानी है! तुम सब भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाओ, भोजन और पानी की खोज करो।'

हाथियों ने गजराज की आज्ञा का पालन किया। हाथी भिन्न-भिन्न दिशाओं में छिटक गए। एक हाथी ने लौटकर गजराज को सूचना दी, 'यहां से कुछ दूर पर एक दूसरा वन है। वहां पानी की बहुत बड़ी झील है। वन के वृक्ष फूलों और फलों से लदे हुए हैं।' गजराज बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने हाथियों से कहा कि अब हमें देर न करके तुरंत उसी वन में पहुंच जाना चाहिए, क्योंकि वहां भोजन और पानी दोनों हैं। गजराज अन्य हाथियों के साथ दुसरे वन में चला गया। हाथी वहां भोजन और पानी पाकर बड़े प्रसन्न हुए।

उस वन में खरगोशों की एक बस्ती थी। बस्ती में बहुत से खरगोश रहते थे। हाथी खरगोशों की बस्ती से ही होकर झील में पानी पीने के लिए जाया करते थे। हाथी जब खरगोशों की बस्ती से निकलने लगते थे, तो छोटे-छोटे खरगोश उनके पैरों के नीचे आ जाते थे। कुछ खरगोश मर जाते थे, कुछ घायल हो जाते थे।

रोज-रोज खरगोशों के मरते और घायल होते देखकर खरगोशों की बस्ती में हलचल मच गई। खरगोश सोचने लगे, यदि हाथियों के पैरों से वे इसी तरह कुचले जाते रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब उनका खात्मा हो जाएगा।

अपनी रक्षा का उपाय सोचने के लिए खरगोशों ने एक सभा बुलाई। सभा में बहुत से खरगोश इकट्ठे हुए। खरगोशों के सरदार ने हाथियों के अत्याचारों का वर्णन करते हुए कहा, 'क्या हममें से कोई ऐसा है, जो अपनी जान पर खेलकर हाथियों का अत्याचार बंद करा सके ?'

सरदार की बात सुनकर एक खरगोश बोल उठा, 'यदि मुझे खरगोशों का दूत बनाकर गजराज के पास भेजा जाए, तो मैं हाथियों के अत्याचार को बंद करा सकता हूं। 'सरदार ने खरगोश की बात मान ली और खरगोशों का दूत बनाकर गजराज के पास भेज दिया।

खरगोश गजराज के पास जा पहुंचा। वह हाथियों के बीच में खड़ा था। खरगोश ने सोचा, वह गजराज के पास पहुंचे तो किस तरह पहुंचे। अगर वह हाथियों के बीच में घुसता है, तो हो सकता है, हाथी उसे पैरों से कुचल दे। यह सोचकर वह पास ही की एक ऊंची चट्टान पर चढ़ गया। चट्टान पर खड़ा होकर उसने गजराज को पुकारकर कहा, 'गजराज, मैं चंद्रमा का दूत हूं। चंद्रमा के पास से तुम्हारे लिए एक संदेश लाया हूं।'

चद्रमा का नाम सुनकर, गजराज खरगोश की ओर आकर्षित हुआ। उसने खरगोश की ओर देखते हुए कहा, 'क्या कहा तुमने? तुम चद्रमा के दूत हो? तुम चंद्रमा के पास से मेरे लिए क्या संदेश लाए हो?'

खरगोश बोला, 'हां गजराज, मैं चंद्रमा का दूत हूं। चंद्रमा ने तुम्हारे लिए संदेश भेजा है। सुनो, तुमने चंद्रमा की झील का पानी गंदा कर दिया है। तुम्हारे झुंड के हाथी खरगोशों को पैरों से कुचल-कुचलकर मार डालते हैं। चंद्रमा खरगोशों को बहुत प्यार करते हैं, उन्हें अपनी गोद में रखते हैं। चंद्रमा तुमसे बहुत नाराज हैं। तुम सावधान हो जाओ। नहीं तो चंद्रमा तुम्हारे सारे हाथियों को मार डालेंगे।'

खरगोश की बात सुनकर गजराज भयभीत हो उठा। उसने खरगोश को सचमुच चंद्रमा का दूत और उसकी बात को सचमुच चंद्रमा का संदेश समझ लिया उसने डर कर कहा, 'यह तो बड़ा बुरा संदेश है। तुम मुझे तुरंत चंद्रमा के पास ले चलो। मैं उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करूंगा।'

खरगोश गजराज को चंद्रमा के पास ले जाने के लिए तैयार हो गया। उसने कहा, 'मैं तुम्हें चंद्रमा के पास ले चल सकता हूं, पर शर्त यह है कि तुम अकेले ही चलोगे।' गजराज ने खरगोश की बात मान ली।

पूर्णिमा की रात थी। आकाश में चंद्रमा हंस रहा था। खरगोश गजराज को लेकर झील के किनारे गया। उसने गजराज से कहा, 'गजराज, मिलो चंद्रमा से ' खरगोश ने झील के पानी की ओर संकेत किया। पानी में पूर्णिमा के चंद्रमा की परछाईं को ही चंद्रमा मान लिया।

गजराज ने चंद्रमा से क्षमा मांगने के लिए अपनी सूंड पानी में डाल दी। पानी में लहरें पैदा हो उठीं, परछाईं अदृश्य हो गई। गजराज बोल उठा, 'दूत, चंद्रमा कहां चले गए ?'

खरगोश ने उत्तर दिया, 'चंद्रमा तुमसे नाराज हैं। तुमने झील के पानी को अपवित्र कर दिया है । तुमने खरगोशों की जान लेकर पाप किया है इसलिए चंद्रमा तुमसे मिलना नहीं चाहते।'

गजराज ने खरगोश की बात सच मान ली । उसने डर कर कहा, 'क्या ऐसा कोई उपाय है, जिससे चंद्रमा मुझसे प्रसन्ना हो सकते हैं?'

खरगोश बोला 'हां, है। तुम्हें प्रायश्चित करना होगा। तुम कल सवेरे ही अपने झुंड के हाथियों को लेकर यहां से दूर चले जाओ। चंद्रमा तुम पर प्रसन्न हो जाएंगे।' गजराज प्रायश्चित करने के लिए तैयार हो गया। वह दूसरे दिन हाथियों के झुंड सहित वहां से चला गया।

इस तरह खरगोश की चालाकी ने बलवान गजराज को धोखे में डाल दिया और उसने अपनी बुद्घिमानी के बल से ही खरगोशों को मृत्यु के मुख में जाने से बचा लिया।

सारांश
छोटे से छोटे से शरीर वाला कमजोर जीव बड़े से बड़े शरीर वाले ताकतवर जीव को अपनी बुद्धिमानी से हरा सकता है। धीरज से सोच विचार कर प्रयास करने से बड़ी से बड़ी परेशानी का समाधान निकल आता है। अतः परेशानी के सामने आते ही घबराना नहीं चाहिए।
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परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Old 05-05-2013, 06:24 PM   #93
jai_bhardwaj
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एक युवा धनुर्धर ने अपने गुरु से धनुर्विद्या सीखी और जल्दी ही वह बहुत अच्छा निशाना लगाने लगा। तीर चलाने में वह इतना निपुण हो गया था कि अपने साथी से पूछता था कि बोलो कहां निशाना लगाना है। साथी बताते कि फलां पेड़ या फलां फल को गिराकर बताओ और वह धनुर्धर तुरंत ही वैसा करके दिखा देता।

अपनी इस विधा पर धनुर्धर फूला नहीं समा रहा था। सफलता सर चढ़कर बोलने लगी। अब वह कहने लगा कि वह गुरुजी से बढ़िया धनुर्धर हो गया है। गुरुजी को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुछ भी नहीं कहा।

एक बार गुरुजी को किसी काम से दूसरे गांव जाना था। उन्होंने अपने इसी शिष्य को बुलाया और साथ चलने को कहा। गुरु-शिष्य दोनों जब रास्ते से चले तो बीच में एक जगह खाई दिखी। गुरु ने देखा, खाई में एक तरफ से दूसरी तरफ जाने के लिए एक पेड़ के तने का पुल बना हुआ है। गुरु उस पेड़ के तने पर पैर रखते हुए आगे बढ़े और पुल के बीच में पहुंच गए।

वहां पहुंचकर उन्होंने शिष्य की तरफ देखा और पूछा कि बताओ कहां निशाना लगाना है। शिष्य ने कहा कि वो जो सामने पतला-सा पेड़ दिख रहा है उसके तने पर निशाना साधिए। गुरु ने तत्काल निशाना लगाकर बता दिया। गुरु सरपट पुल से इस तरफ आ गए।

इसके बाद उन्होंने शिष्य से ऐसा करके दिखाने को कहा। शिष्य ने जैसे ही पुल पर पैर रखा, वह घबरा गया। पुल पर अपना वजन संभालकर आगे बढ़ना मुश्किल काम था। शिष्य जैसे-तैसे पुल के बीच में पहुंचा। गुरु ने कहा- तुम भी उसी पेड़ के तने पर निशान साधकर बताओ।

शिष्य ने जैसे ही धनुष उठाया, संतुलन बिगड़ने लगा और वह तीर ही नहीं चला पाया। वह चिल्लाने लगा- गुरुजी बचाइए। वरना मैं खाई में गिर जाऊंगा। गुरुजी पुल पर गए और शिष्य को इस तरफ उतार लाए। दोनों ने यहां से चुपचाप गांव तक का सफर तय किया। शिष्य के समझ में बात आ गई थी कि उसे अभी भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। इसलिए कभी अपनी श्रेष्ठता का घमंड नहीं करना चाहिए।

सारांश :

ज्ञान प्राप्ति की कोई सीमा नहीं है। कितना भी सीख लिया जाए, कम है। अतः अपने ज्ञान पर इतराना नहीं चाहिए।
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Old 05-05-2013, 06:48 PM   #94
jai_bhardwaj
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शेर बड़ा या किशमिश


एक खूबसूरत गांव था। चारों ओर पहाड़ियों से घिरा हुआ। पहाड़ी के पीछे एक शेर रहता था। जब भी वह ऊंचाई पर चढ़कर गरजता था तो गांव वाले डर के मारे कांपने लगते थे।

कड़ाके की ठंड का समय था। सारी दुनिया बर्फ से ढंकी हुई थी। शेर बहुत भूखा था। उसने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था। शिकार के लिए वह नीचे उतरा और गांव में घुस गया।

वह शिकार की ताक में घूम रहा था। दूर से उसे एक झोपड़ी दिखाई दी। खिड़की में से टिमटिमाते दिए की रोशनी बाहर आ रही थी। शेर ने सोचा यहां कुछ न कुछ खाने को जरूर मिल जाएगा। वह खिड़की के नीचे बैठ गया।

झोपड़ी के अंदर से बच्चे के रोने की आवाज आई। ऊं...आं... ऊं...आं..। वह लगातार रोता जा रहा था। शेर इधर-उधर देखकर मकान में घुसने ही वाला था कि उसे औरत की आवाज आई- 'चुप रहे बेटा। देखो लोमड़ी आ रही है। बाप रे, कितनी बड़ी लोमड़ी है? कितना बड़ा मुंह है इसका। कितना डर लगता है उसको देखकर।' लेकिन बच्चे ने रोना बंद नहीं किया।

मां ने फिर कहा- 'वह देखो, भालू आ गया... भालू खिड़की के बाहर बैठा है। बंद करो रोना नहीं तो भालू अंदर आ जाएगा', लेकिन बच्चे का रोना जारी रहा। उसे डराने का कोई असर नहीं पड़ा।

खिड़की के नीचे बैठा शेर सोच रहा था- 'अजीब बच्चा है यह! काश मैं उसे देख सकता। यह न तो लोमड़ी से डरता है, न भालू से।'

उसे फिर जोर की भूख सताने लगी। शेर खड़ा हो गया। बच्चा अभी भी रोए जा रहा था।

'देखो... देखो...' मां की आवाज आई, 'देखो शेर आ गया शेर। वह रहा खिड़की के नीचे।' लेकिन बच्चे का रोना, फिर भी बंद नहीं हुआ। यह सुनकर शेर को बहुत ताज्जुब हुआ और बच्चे की बहादुरी से उसको डर लगने लगा। उसे चक्कर आने लगे और बेहोश-सा हो गया।

'वह कैसे जान गई कि मैं खिड़की के पास हूं।' शेर ने सोचा।थोड़ी देर बाद उसकी जान में जान आई और उसने खिड़की के अंदर झांका। बच्चा अभी भी रो रहा था। उसे शेर का नाम सुनकर भी डर नहीं लगा।

शेर ने आज तक ऐसा कोई जीव नहीं देखा जो उससे न डरता हो। वह तो यही समझता था कि उसका नाम सुनकर दुनिया के सारे जीव डर के मारे कांपने लगते हैं, लेकिन इस विचित्र बच्चे ने मेरी भी कोई परवाह नहीं की। उसे किसी भी चीज का डर नहीं है। शेर का भी नहीं।

अब शेर को चिंता होने लगी। तभी मां की फिर आवाज सुनाई दी। 'लो अब चुप रहो। यह देखो किशमिश...।' बच्चे ने फौरन रोना बंद कर दिया। बिलकुल सन्नाटा छा गया।

शेर ने सोचा- 'यह किशमिश कौन है? बहुत खूंखार होगा।' अब तो शेर भी किशमिश के बारे में सोचकर डरने लगा। उसी समय कोई भारी चीज धम्म से उसकी पीठ पर गिरी। शेर अपनी जान बचाकर वहां से भागा। उसने सोचा कि उसकी पीठ पर किशमिश ही कूदा होगा।

असल में उसकी पीठ पर एक चोर कूदा था, जो उस घर में गाय-भैंस चुराने आया था। अंधेरे में शेर को गाय समझकर वह छत पर से उसकी पीठ पर कूद गया। डरा तो चोर भी। उसकी तो जान ही निकल गई जब उसे पता चला कि वह शेर की पीठ पर सवार है, गाय की पीठ पर नहीं।

शेर बहुत तेजी से पहाड़ी की ओर दौड़ा, ताकि किशमिश नीचे गिर पड़े, लेकिन चोर ने भी कसकर शेर को पकड़ रखा था। वह जानता था कि यदि वह नीचे गिरा तो शेर उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा। शेर को अपनी जान का डर था और चोर को अपनी जान का।

थोड़ी देर में सुबह का उजाला होने लगा। चोर को एक पेड़ की डाली दिखाई दी। उसने जोर से डाली पकड़ी और तेजी से पेड़ के ऊपर चढ़कर छिप गया। शेर की पीठ से छुटकारा पाकर उसने चैन की सांस ली।

शेर ने भी चैन की सांस ली- 'भगवान को धन्यवाद मेरी जान बचाने के लिए। किशमिश तो सचमुच बहुत भयानक जीव है' और वह भूखा-प्यासा वापस पहाड़ी पर अपनी गुफा में चला गया।

सारांश :

ताकतवर होना बुद्धिमान होने का परिचायक नहीं है। आपत्तिकाल में जो प्राणी धीरज रख कर विचार करता है वही बुद्धिमान है वही ताकतवर भी होता है।
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Old 06-05-2013, 06:39 PM   #95
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ऋषि अष्टावक्र के जीवन की एक घटना:


राजा जनक मे काल में अष्टावक्र जी नाम के एक बहुत विद्वान संत थे, बडे ही महान ऋषि थे, पर शारिरिक रुप से थोडे टेढ़े मेढ़े थे, आप और हम कह सकते हैं कि वे अपने शरीर में कुल मिला कर आठ जगह से टेढ़े मेढ़े थे | कहते हैं कि राजा जनक की सभा में वे एक बार आये और तब उनकी चाल ढ़ाल, रंग रुप देख कर बहुत से दरबारी हंस पडे |

अकारण दरबारियों के हंसने का कारण वे जान चुके थे कि ये लोग मेरे शरीर को देख कर हंस रहे हैं, और तब अष्टावक्र जी नें कहा मर्खों चमडी को देख कर तो जूता बनाने वाले व्यक्ति हंसा करते हैं तुम जेसे दिखावटी सभ्य लोगों और जूता बनाने वाले व्यक्तियों में मुझे कोई अंतर दिखाई नहीं पडता | अष्टावक्र के क्रोध से दरबारियों की घिग्घी बंध गयी, की कहीं ये ऋषि गुस्से ही गुस्से में हम सभी को कोई श्राप ना दे दे | फिर राजा जनक के कहने पर सभी नें तत्क्षण उनसे माफी मांगी |

सच भी है किसी कि शक्ल सूरत या दिखावे पे ना जाओ और कुछ ए॓सा कृत्य ना करो की बाद में पछतावा हो |
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Old 06-05-2013, 07:31 PM   #96
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Default Re: प्रेरक प्रसंग

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Originally Posted by aksh View Post
एक बार कवि कालिदास बाजार में घूमने निकले.एक स्त्री घड़ा और कुछ कटोरियाँ लेकर बैठी थी ग्राहकों के इन्तजार में. कविराज को कौतूहल हुआ कि यह महिला क्या बेचती है ? तो पास जाकर पूछा " "बहन ! तुम क्या बेचती हो?"

महिला ने कुछ अजीब सी बात कही "मैं पाप बेचती हूँ. मैं लोगों से स्वयं कहती हूँ कि मेरे पास पाप है, मर्जी हो तो ले लो. फिर भी लोग चाहत पूर्वक पाप ले जाते हैं."

कालिदास उलझन में पड़ गये। पूछा " घड़े में कोई पाप होता है ?"

महिला बोली " हाँ... हाँ.. होता है, जरूर होता है. देखो जी, मेरे इस घड़े में आठ पाप भरे हुए हैं. 1. बुद्धिनाश, 2. पागलपन, 3. लड़ाई-झगड़े, 4. बेहोशी, 5.विवेक का नाश, 6. सदगुण का नाश, 7. सुखों का अन्त और 8. नर्क में ले जाने वाले तमाम दुष्कृत्य "

कालिदास की उत्सुकता बढ़ गयी और बोले " अरे बहन ! इतने सारे पाप बताती है तो आखिर है क्या तेरे घड़े में ? स्पष्टता से बता तो कुछ समझ में आये. "

वह स्त्री बोली " शराब ! शराब !! शराब !!! यह शराब ही उन सब पापों की जननी है. जो शराब पीता है वह उन आठों पापों का शिकार बनता ही है."

कालिदास उस महिला की चतुराई पर खुश हो गये.
वास्तव में सभी बुराइयो की जड़ शराब ही है अक्ष जी
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Old 07-05-2013, 06:38 PM   #97
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Originally Posted by sombirnaamdev View Post
वास्तव में सभी बुराइयो की जड़ शराब ही है अक्ष जी


शुक्रिया बन्धु...!! सुत्र पर सभी बन्धुओँ के योगदान के लिये भी शुक्रिया.
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Old 07-05-2013, 09:29 PM   #98
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Default Re: प्रेरक प्रसंग

एक बार एक भला आदमी नदी किनारे बैठा था। तभी उसने देखा एक बिच्छू पानी में गिर गया है। भलेआदमी ने जल्दी से बिच्छू को हाथ में उठा लिया।
बिच्छू ने उस भले आदमी कोडंक मार दिया। बेचारे भले आदमी का हाथ काँपा औरबिच्छू पानी में गिर गया।
भले आदमी ने बिच्छू को डूबने से बचाने के लिए दुबारा उठा लिया। बिच्छू ने
दुबारा उस भले आदमी को डंक मार दिया। भले आदमी का हाथ दुबारा काँपा और बिच्छू पानी में गिर गया।
भले आदमी ने बिच्छू को डूबने से बचाने के लिए एकबार फिर उठा लिया । वहाँ
एक लड़का उस आदमी का बार-बार बिच्छू को पानी से निकालना और बार-बार
बिच्छू का डंक मारना देख रहा था। उसने आदमी से कहा, "आपको यह बिच्छू
बार-बार डंक मार रहा है फिर भी आप उसे डूबने से क्यों बचाना चाहते हैं?"
भले आदमी ने कहा, "बात यह है बेटा कि बिच्छू का स्वभाव है डंक मारना और
मेरा स्वभाव है बचाना। जब बिच्छू एक कीड़ा होते हुए भी अपना स्वभाव नहीं
छोड़ता तो मैं मनुष्य होकर अपना स्वभाव क्यों छोड़ूँ ?"

* मनुष्य को कभी भी अपना अच्छा स्वभाव नहीं भूलना चाहिए *
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एक मूर्तिकार उच्चकोटि की ऐसी सजीव मूर्तियाँ बनाता था, जो सजीव लगती थीं। लेकिन उस मूर्तिकार को अपनी कला पर बड़ा घमंड था।

उसे जब लगा कि जल्दी ही उसक मृत्यु होने वाली है तो वह परेशानी में पड़ गया। यमदूतों को भ्रमित करने के लिये उसने एकदम अपने जैसी दस मूर्तियाँ उसने बना डालीं और योजनानुसार उन बनाई गईमूर्तियों के बीच मे वह स्वयं जाकर बैठ गया।

यमदूत जब उसे लेने आए तो एक जैसी ग्यारह आकृतियाँ देखकर स्तम्भित रह गए। इनमें से वास्तविक मनुष्य कौन है- नहीं पहचान पाए। वे सोचने लगे, अब क्या किया जाए। मूर्तिकार के प्राण अगर न ले सके तो सृष्टि का नियम टूट जाएगा और सत्य परखने के लिये मूर्तियाँ तोड़ें तो कला का अपमान होगा।

अचानक एक यमदूत को मानव स्वभाव के सबसे बड़े दुर्गुण अहंकार की स्मृति आई। उसने चाल चलते हुए कहा- "काश इन मूर्तियों को बनाने वाला मिलता तो मैं से बताता कि मूर्तियाँ तो अति सुंदर बनाई हैं, लेकिन इनको बनाने में एक त्रुटि रह गई।"

यह सुनकर मूर्तिकार का अहंकार जाग उठा कि मेरी कला में कमी कैसे रह सकत है, फिर इस कार्य में तो मैंने अपना पूरा जीवन समर्पित किया है। वह बोल उठा-
"कैसी त्रुटि?"
झट से यमदूत ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला, बस यही त्रुटि कर गए तुम अपने अहंकार में। क्या जनते नहीं कि बेजान मूर्तियाँ बोला नहीं करतीं।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Default Re: प्रेरक प्रसंग

बचपन से ही मुझे अध्यापिका बनने तथा बच्चों को मारने का बड़ा शौक था। अभी मैं पाँच साल की ही थी कि छोटे-छोटे बच्चों का स्कूल लगा कर बैठ जाती। उन्हें लिखाती पढ़ाती और जब उन्हें कुछ न आता तो खूब मारती।
मैं बड़ी हो कर अध्यापिका बन गई। स्कूल जाने लगी। मैं बहुत प्रसन्न थी कि अब मेरी पढ़ाने और बच्चों को मारने की इच्छा पूरी हो जाएगी। जल्दी ही स्कूल में मैं मारने वाली अध्यापिका के नाम से प्रसिद्ध हो गई।

एक दिन श्रेणी में एक नया बच्चा आया। मैंने बच्चों को सुलेख लिखने के लिए दिया था। बच्चे लिख रहे थे। अचानक ही मेरा ध्यान एक बच्चे पर गया जो उल्टे हाथ से बड़ा ही गंदा हस्तलेख लिख रहा था। मैंने आव देखा न ताव, झट उसके एक चाँटा रसीद कर दिया। और कहा, "उल्टे हाथ से लिखना तुम्हें किसने सिखाया है और उस पर इतनी गंदी लिखाई!"

इससे पहले कि बच्चा कुछ जवाब दे, मेरा ध्यान उसके सीधे हाथ की ओर गया, जिसे देख कर मैं वहीं खड़ी की खड़ी रह गयी क्यों कि उस बच्चे का दायाँ हाथ था ही नहीं। किसी दुर्घटना में कट गया था।

यह देख कर मेरी आँखों में बरबस ही आँसू आ गए। मैं उस बच्चे के सामने अपना मुँह न उठा सकी। अपनी इस गलती पर मैंने सारी कक्षा के सामने उस बच्चे से माफ़ी माँगी और यह प्रतिज्ञा की कि कभी भी बच्चों को नहीं मारूँगी।
इस घटना ने मुझे ऐसा सबक सिखाया कि मेरा सारा जीवन ही बदल गया।
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