20-04-2016, 08:36 PM | #61 |
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Re: मेरी कलम से.....
मैं क्या चाहती हूँ ?
अपने प्यार के बदले में नहीं उपहार चाहती हूँ .... जीवन भर का साथ मिले बस यही उपकार चाहती हूँजीवन भर का साथ मिले बस यही उपकार चाहती हूँ भोर तुम ही से हो मेरी और साँझ तुम ही पर ढल जाए..... प्यार हमारा ऐसा हो कि सारी दुनिया जल जाए ..... तुम्हें समर्पित मैं अपना सारा संसार चाहती हूँ मेरी हर अरदास में हो तुम, मुझे बस तेरी फिक्र हो..... तेरी आँखों से अपनापन छलके,जब जब मेरा जिक्र हो..... मैं तुम पर अपना बस इतना अधिकार चाहती हूँ जीवन भर का साथ मिले बस यही उपकार चाहती हूँ राधा-रूकमणी के जैसा नहीं तो मीरा के जैसा ही सही , प्रणय निवेदन मेरा तुम करो स्वीकार चाहती हूँ जीवन भर का साथ मिले बस यही उपकार चाहती हूँ
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20-04-2016, 10:17 PM | #62 | |
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Re: मेरी कलम से.....
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21-04-2016, 08:01 AM | #63 | |
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Re: मेरी कलम से.....
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प्यार के संसार का ऐसा ही चित्र प्रेमीजन अपने मन में सजाते हैं और उसी की कामना करते हैं. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति. एक श्रेष्ठ कविता. धन्यवाद, पवित्रा जी.
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22-04-2016, 08:48 PM | #64 | ||
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Re: मेरी कलम से.....
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सोनी पुष्पा जी और रजनीश जी , आप दोनों का बहुत बहुत आभार ...... और सोनी पुष्पा जी अब मैं पूरी कोशिश करुँगी कि अपनी नियमित उपस्थिति दर्ज करूँ ......
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23-04-2016, 01:20 AM | #65 |
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Re: मेरी कलम से.....
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21-01-2017, 07:04 PM | #66 |
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Re: मेरी कलम से.....
प्रेम एक कली खिली थी बगिया में ,
एक भँवरा उस पर मरता था, जाने कितने थे फूल वहाँ , पर वो पास उसी के फिरता था उस बगिया के कुछ फूलों ने उस से इसका कारण पूछा ? भँवरे ने शरमा के ये कहा कि - अब लगता नहीं कोई और अच्छा उस कली में क्या है खास कहो? वो क्या है जो हमारे पास न हो ? रूप ,महक ,रस या यौवन वो सब तो है जो लुभाये मन फिर भी पास उसी के फिरते हो , हम को तो देखा भी न करते हो जब मन को कोई भाता है पर क्यों ? ये न समझ में आता है तब ही समझो कि प्यार हुआ वरना तो बस व्यापार हुआ भँवरे के ऐसे प्यार को पा कली का हृदय कुछ और खिला भँवरे को लिया आगोश में ऐसे जैसे सूर्य साँझ से मिला कुदरत का नियम अटल होता रोके जो ,न ऐसा कोई सबल होता साँझ ढले जब अंधेरा हुआ फूलों ने खुद को समेट लिया भँवरा अपनी मस्ती में अब भी था वहीं कली ही में जब पंख मिले तो घबराया सोचा कि अन्त निकट आया भँवरा बहुत सबल होता भेदे काठ को इतना बल होता जब काठ की ही नहीं कोई औकात तो नन्हीं कली की तो क्या है बिसात? पर अपने प्राणों की खातिर क्या प्राण वो कली के हरे ? या अपने प्रिय की बाहों में खुशी खुशी वो मरे जब प्रेम का सूर्य उदित होता तो नियम नहीं कोई ढोता जब प्रेम का प्रकाश चहु ओर हुआ तो रात्री में ही भोर हुआ पंख पसारे अपने कली ने भँवरे को जीवनदान दिया अपने प्रिय की जान बचा के उसने खुद पर ही एहसान किया भाग्य सराहे वो अपना जिसको किसी का प्यार मिले पर सौभाग्य सराहे वो ही जो सच्चा प्यार किसी से करे
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21-01-2017, 11:27 PM | #67 | |
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Re: मेरी कलम से.....
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22-01-2017, 04:36 AM | #68 |
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Re: मेरी कलम से.....
बेहद खूबसूरत कविता लिखी है आपने पवित्रा जी .प्रेम के भावों का सही शब्दों में निरूपण किया है आपने प्रेम की गरिमा को एकदम तरतीब से प्रस्तुत किया है ..
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22-01-2017, 07:31 AM | #69 |
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Re: मेरी कलम से.....
[ ....उस कली में क्या है खास कहो?बहुत सुंदर .... अद्वितीय. इस भावपूर्ण कविता में प्रेम का ऐसा उदात्त स्वरूप दर्शाया गया है जिसमे एक खुबसूरत कहानी भी है तथा प्रेमी व प्रेमिका के बीच परस्पर समर्पण और त्याग के लिये प्रतिबद्धता भी है. भाषा लयबद्ध है और वर्णन को प्रभावशाली बनाती है. आपको बधाई देना चाहता हूँ, पवित्रा जी और पाठक के रूप में आपको धन्यवाद भी कहना चाहता हूँ.
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22-01-2017, 02:00 PM | #70 |
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Re: मेरी कलम से.....
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद
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