06-11-2011, 01:06 AM | #1 |
Member
Join Date: Nov 2011
Location: Banglore/Moscow
Posts: 118
Rep Power: 16 |
'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
बंधुओ ! 'श्रीमदभगवदगीता' के अनुरूप ही 'अष्टावक्र गीता' की भी महिमा है ! देवभाषा संस्कृत में रचे गए इस श्रेष्ठ ग्रन्थ का मृदुलकीर्ति द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद मैं इस सूत्र में प्रस्तुत कर रहा हूं ! आशा करता हूं कि सुधि पाठक इसे स्वयं के लिए उपयोगी पाएंगे ! ... तो प्रारंभ करते हैं सार से, तदुपरांत क्रमशः एक-एक अध्याय ! |
06-11-2011, 01:07 AM | #2 |
Member
Join Date: Nov 2011
Location: Banglore/Moscow
Posts: 118
Rep Power: 16 |
Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
प्रथम प्रकरण / श्लोक 1-10
जनक उवाचः हे ईश ! मानव ज्ञान कैसे, प्राप्त कर सकता अहो ! हमें मुक्ति और वैराग्य कैसे, मिल सकें कृपया कहो [1] अष्टावक्र उवाचः प्रिय तात यदि तू मुमुक्ष, तज विषयों को, जैसे विष तजें, सन्तोष, करूणा सत, क्षमा, पीयूष वत नित-नित भजें. [2] न ही वायु, जल, अग्नि, धरा और न ही तू आकाश है, मुक्ति हेतु साक्ष्य तू, चैतन्य रूप प्रकाश है. [3] यदि पृथक करके देह भाव को, देही में आवास हो तब तू अभी सुख शांति, बन्धन मुक्त भव, विश्वास हो. [4] वर्ण आश्रम का न आत्मा, से कोई सम्बन्ध है, आकार हीन असंग केवल, साक्ष्य भाव प्रबंध है. [5] सुख दुःख धर्म-अधर्म मन के, विकार हैं तेरे नहीं, कर्ता, कृतत्त्व का और भर्ता भाव भी घेरे नहीं. [6] सर्वस्व दृष्टा एक तू, और सर्वदा उन्मुक्त है, यदि अन्य को दृष्टा कहे, भ्रम, तू ही बन्धन युक्त है. [7] तू अहम् रुपी सर्प दंषित, कह रहा कर्ता मैं ही, विश्वास रुपी अमिय पीकर कह रहा, कर्ता नहीं. [8] मैं सुध, बुद्ध, प्रबुद्ध, चेतन, ज्ञानमय चैतन्य हूँ, अज्ञान रुपी वन जला कर, ज्ञान से मैं धन्य हूँ. [9] सब जगत कल्पित असत, रज्जु मैं सर्प का आभास है इस बोध का कारण कि तुझमें, भ्रम का ही वास है.[10] |
06-11-2011, 01:09 AM | #3 |
Member
Join Date: Nov 2011
Location: Banglore/Moscow
Posts: 118
Rep Power: 16 |
Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
प्रथम प्रकरण / श्लोक 11-20
अष्टावक्र उवाचः जो मुक्त माने, मुक्त स्व को, बद्ध माने बद्ध है, जैसी मति वैसी गति, किंवदंती ऐसी प्रसिद्ध है ! [11] परिपूर्ण, पूर्ण है, एक विभु, चैतन्य साक्षी शांत है, यह आत्मा निःस्पृह विमल, संसारी लगती भ्रांत है ! [12] यह देह मन बुद्धि अहम्, ममकार, भ्रम है, अनित्य है, कूटस्थ बोध अद्वैत निश्चय, आत्मा ही नित्य है ! [13] बहुकाल से तू देह के अभिमान में आबद्ध है, कर ज्ञान रूपी अरि से बेधन, नित्य तब निर्बद्ध है ! [14] निष्क्रिय निरंजन स्व प्रकाशित, आत्म तत्व असंग है, तू ही अनुष्ठापित समाधि, कर रहा क्या विसंग है ! [15] यह विश्व तुझमें ही व्याप्त है, तुझमें पिरोया सा हुआ, तू वस्तुतः चैतन्य, सब तुझमें समाया सा हुआ ! [16] निरपेक्ष अविकारी तू ही, चिर शान्ति मुक्ति का मूल है, चिन्मात्र चिद्घन रूप तू, चैतन्य शक्ति समूल है ! [17] देह मिथ्या आत्म तत्व ही, नित्य निश्चल सत्य है, उपदेश यह ही यथार्थ, जग आवागमन, से मुक्त है ! [18] ज्यों विश्व में प्रतिबिम्ब अपने रूप का ही वास है, त्यों बाह्य अंतर्देह में, परब्रह्म का आवास है ! [19] ज्यों घट में अन्तः बाह्य स्थित सर्वगत आकाश है, त्यों नित निरंतर ब्रह्म का सब प्राणियों में प्रकाश है ! [20] |
06-11-2011, 12:39 PM | #4 |
Member
Join Date: Nov 2011
Location: Banglore/Moscow
Posts: 118
Rep Power: 16 |
Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
द्वितीय प्रकरण / श्लोक 1-12
बोधस्वरूपी मैं निरंजन, शांत प्रकृति से परे, ठगित मोह से काल इतने, व्यर्थ संसृति में करे. [1] ज्यों देह देही से प्रकाशित, जगत भी ज्योतित तथा, या तो जगत सम्पूर्ण या कुछ भी नहीं मेरा यथा . [2] इस देह में ही विदेह जग से त्याग वृति आ गई आश्चर्य ! कि पृथकत्व भाव से ब्रह्म दृष्टि भा गई [3] ज्यों फेन और तरंग में, जल से न कोई भिन्नता, त्यों विश्व, आत्मा से सृजित, तद्रूप एक अभिन्नता [4] ज्यों तंतुओं से वस्त्र निर्मित, तन्तु ही तो मूल हैं. त्यों आत्मा रूपी तंतुओं से, सृजित विश्व समूल हैं. [5] ज्यों शर्करा गन्ने के रस से ही विनिर्मित व्याप्त है, त्यों आत्मा में ही विश्व, विश्व में आत्मा भी व्याप्त है. [6] संसार भासित हो रहा, बिन आत्मा के ज्ञान से, ज्यों सर्प भासित हो रहा हा, रज्जू के अज्ञान से. [7] ज्योतिर्मयी मेरा रूप मैं, उससे पृथक किंचित नहीं , जग आत्मा की ज्योति से, ज्योतित निमिष वंचित नहीं. [8] अज्ञान से ही जगत कल्पित, भासता मुझमें अहे, रज्जू में, अहि सीपी में चांदी, रवि किरण में जल रहे. [9] माटी में घट जल में लहर, लय स्वर्ण भूषन में रहे , वैसे जगत मुझसे सृजित, मुझमें विलय कण कण अहे. [10] ब्रह्मा से ले पर्यंत तृण, जग शेष हो तब भी मेरा, अस्तित्व, अक्षय, नित्य, विस्मय, नमन हो मुझको मेरा. [11] मैं देहधारी हूं, तथापि अद्वैत हूं, विस्मय अहे, आवागमन से हीन जग को व्याप्त कर स्थित महे. [12] |
06-11-2011, 08:00 PM | #5 |
Senior Member
Join Date: Sep 2011
Location: मुजफ़्फ़रपुर, बि
Posts: 643
Rep Power: 19 |
Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
अद्भुत है मित्र....
|
06-11-2011, 08:03 PM | #6 |
Member
Join Date: Nov 2011
Location: Banglore/Moscow
Posts: 118
Rep Power: 16 |
Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
|
06-11-2011, 08:38 PM | #7 |
Senior Member
Join Date: Sep 2011
Location: मुजफ़्फ़रपुर, बि
Posts: 643
Rep Power: 19 |
Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
|
09-11-2011, 12:10 AM | #8 |
Member
Join Date: Nov 2011
Location: Banglore/Moscow
Posts: 118
Rep Power: 16 |
Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
द्वितीय प्रकरण / श्लोक 13-25
मुझको नमन आश्चर्यमय ! मुझसा न कोई दक्ष है. स्पर्श बिन ही देह धारूँ, जगत क्या समकक्ष है. [13] मैं आत्मा आश्चर्य वत हूँ , स्वयं को ही नमन है, या तो सब या कुछ नहीं, न वाणी है न वचन है. [14] जहाँ ज्ञेय, ज्ञाता,ज्ञान तीनों वास्तविकता मैं नहीं, अज्ञान- से भासित हैं केवल, आत्मा सत्यम मही. [15] चैतन्य रस अद्वैत शुद्ध,में,आत्म तत्व महिम मही, द्वैत दुःख का मूल, मिथ्या जगत, औषधि भी नहीं. [16] अज्ञान- से हूँ भिन्न कल्पित, अन्यथा मैं अभिन्न हूँ, मैं निर्विकल्प हूँ, बोधरूप हूँ, आत्मा अविछिन्न हूँ. [17] में बंध मोक्ष विहीन, वास्तव में जगत मुझमें नहीं, हुई भ्रांति शांत विचार से, एकत्व ही परमं मही. [18] यह देह और सारा जगत, कुछ भी नहीं चैतन्य की, एक मात्र सत्ता का पसारा, कल्पना क्या अन्य की. [19] नरक, स्वर्ग, शरीर, बन्धन, मोक्ष भय हैं, कल्पना, क्या प्रयोजन आत्मा का, चैतन्य का इनसे बना. [20] हूँ तथापि जन समूहे, द्वैत भाव न चित अहो, एकत्व और अरण्य वत, किसे दूसरा अपना कहो. [21] न मैं देह न ही देह मेरी, जीव भी में हूँ नहीं, मात्र हूँ चैतन्य, मेरी जिजीविषा बन्धन मही. [22] मैं महोदधि, चित्त रूपी पवन भी मुझमें अहे, विविध जग रूपी तरंगें, भिन्न न मुझमें रहे. [23] मैं महोदधि चित्त रूपी, पवन से मुझमें मही, विविध जगरूपी तरंगें, भाव बन कर बह रहीं. [24] मैं महोदधि, जीव रूपी, बहु तरंगित हो रहीं, ज्ञान से मैं हूँ यथावत, न विसंगति हो रही. [25] |
16-11-2011, 09:29 PM | #9 |
Member
Join Date: Oct 2011
Location: Muzaffarpur, Bihar, India
Posts: 179
Rep Power: 14 |
Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
बहुत ही अच्छी है
|
18-11-2011, 02:20 AM | #10 |
Member
Join Date: Nov 2011
Location: Banglore/Moscow
Posts: 118
Rep Power: 16 |
Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
तृतीय प्रकरण / श्लोक 1-7
अद्वैत आत्मिक अमर तत्व से, सर्वथा तुम् विज्ञ हो, क्यों प्रीति, संग्रह वित्त में, ऋत ज्ञान से अनभिज्ञ हो. [1] ज्यों सीप के अज्ञान से,चांदी का भ्रम और लोभ हो, त्यों आत्मा के अज्ञान से,भ्रमित मति, अति क्षोभ हो. [2] आत्मा रूपी जलधि में, लहर सा संसार है, मैं हूँ वही, अथ विदित, फ़िर क्यों दीन, हीन विचार हैं. [3] अति सुन्दरम चैतन्य पावन, जानकर भी आत्मा, अन्यान्य विषयासक्त यदि,तू मूढ़ है, जीवात्मा. [4] आत्मा को ही प्राणियों में,आत्मा में प्राणियों आश्चर्य !ममतासक्त मुनि, यह जान कर भी ज्ञानियों. [5] स्थित परम अद्वैत में, तू शुद्ध, बुद्ध, मुमुक्ष है, आश्चर्य ! है यदि तू अभी, विषयाभिमुख कामेच्छु है. [6] काम रिपु है ज्ञान का, यह जानते ऋषि जन सभी, आश्चर्य ! कामासक्त हो सकता है मरणासन्न भी. [7] |
Bookmarks |
|
|