07-12-2012, 08:56 PM | #1 |
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कुछ फुटकर शे’र
जो लहर जूनूँ में उट्ठी वही इन्किलाब लायी. नहीं बात दौलतों की निगाह-ए-करम हुज़ूर, मेरी ज़िंदगी में खुशियाँ बेहिसाब लायी. हर शै नशे में डूबती जाती है किसलिए तेरे रुख को छू के शायद ये हवा शराब लायी. रफ्ता रफ्ता हाय दिल की बेकरारी कम हुयी दीवानगी आखिर मेरी सारे जवाब लायी. |
07-12-2012, 08:58 PM | #2 |
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Re: कुछ फुटकर शे’र
फ़रिश्तों मुझको लौटा दो दोबारा तिश्नगी मेरी,
वो देखो फिर सरे महफ़िल पिलाने वाला आया है. कहाँ हैं वो जो करते थे रफू संगीन ज़ख्मों को गरेबाँ चाक है सीयो, सिलाने वाला आया है. उठो आगाज़ दिन का कर लिया जाये हलक तर से सहर का वक्त है रिन्दो! पिलाने वाला आया है. |
08-12-2012, 04:20 PM | #3 |
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Re: कुछ फुटकर शे’र
रजनीश जी, यह फुटकर नहीं काफी अच्छे शेर हैं, शेयर करने के लिए धन्यवाद
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अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
10-01-2013, 12:06 PM | #4 |
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Re: कुछ फुटकर शे’र
हिंदी गज़ल क्षेत्र में कुछ वरिष्ठ कवियों द्वारा बड़ा अच्छा काम किया जा रहा है. उन्हीं स्वनाम धन्य कवियों की गज़लों के चंद शे'र यहाँ प्रस्तुत हैं:
मैं आदमी का ज़हर कहाँ तक उतारता मेरी भी एक हद है फकत सांप ही तो हूँ.(डॉ. राजेन्द्र टोकी) डाल से टूटा हुआ पत्ता हूँ मेरी शर्त क्या जाऊँगा ही अब हवा मुझको जहाँ ले जायेगी. (चंद्रसेन विराट) महफ़िलें ज्यों ज्यों हँसीं तन्हाईयाँ बढती गईं. आप ज्यों ज्यों पास आये खाइयाँ बढती गईं. कौन सी है धूप इस माया नगर में दोस्तों, हम तो छोटे हो गए परछाइयाँ बढती गईं. (राम दरश मिश्र) सांप ने काटा जिसे उसकी तरफ कोई नहीं. लोग सांपों की तरफ हैं या सपेरों की तरफ. (अशोक रावत) पडोसी के यहाँ कुहराम सा कुछ था मगर हम सो गए करवट बदलकर. (महेश अश्क) बहस पूरी हो चुकी फैंसला होने को है ये अदालत सबके आगे बेवफा होने को है. (रामनारायण स्वामी) है बढ़ रही अपराध की रफ़्तार इन दिनों मुंसिफ़ हैं मुजरिमों के मददगार इन दिनों. (वशिष्ठ अनूप) |
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