25-07-2014, 11:55 PM | #251 |
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Re: इधर-उधर से
(लियो टॉलस्टॉय की कहानी का एक अंश) एलिशा उन तीनों प्राणियों की सेवा में लग गया। सुबह होते ही उसने घर की सफाई की, चूल्हा जलाया और भोजन बनाया। घरके लिए आवश्यक सामग्री खरीद लाया। एक दिन, दो दिन औरफिर तीन दिन बीत गए। उसे समझ में नहीं आता था कि क्या करे। एक ओर वह सोचता कि मुझे जाना चाहिए, लेकिन दूसरी ओर उन लोगों की दशा देखकर उनका हृदय भर आता था। अंत में एलिशा ने उन लोगोंके साथ ही रुकने का निश्चय किया। उसकी सेवा से उन तीनों प्राणियों में शक्ति आ गई। एलिशा ने उन लोगोंके दूध्के लिए एक गाय और खेत जोतनेके लिए एक घोड़ा खरीदा। साथ ही फसल आने तकके लिए अनाज भी खरीदकर रख दिया। एक दिन एलिशा ने सुना कि बूढ़ीस्त्री अपने बेटे से कह रही थी - "बेटा! यह मनुष्य नहीं, देवदूत है। ऐसे भले मनुष्य संसार में अधिक नहीं हैं।" एलिशा ने जब अपनी प्रशंसा सुनी तो उसने सोचा कि मुझे यहाँ से चल देना चाहिए। इन लोगोंके लिए मैंने अगली फसल तकके लिए प्रबंध् कर ही दिया है। अगले दिन जब घरके सब लोग गहरी नींद सो रहे थे, वह चुपचाप चल पड़ा। उसके पैसे समाप्त हो चुके थे। इसलिए उसने जेरुसलेम जाने का विचार छोड़ दिया और घर की ओर चल पड़ा। घर पहुँचने पर उसके परिवारके लोग बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने पूछा - "क्या आप जेरुसलेम हो आए? एफिम कहाँ है?” एलिशा ने उन लोगों कोकुछ नहीं बताया, केवल इतना कहकर टाल दिया कि ईश्वर की इच्छा नहीं थी कि मैं वहाँ जाऊँ। मेरा साराधन मार्ग में ही समाप्त हो गया, अतः मैं एफिम के साथ नहीं जा सका और रास्ते से ही लौट आया। >>>
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26-07-2014, 12:01 AM | #252 |
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Re: इधर-उधर से
उधर एफिमझोंपड़ी छोड़नेके बाद जितना शीघ्र हो सका, जेरुसलेम की ओर चला। वहाँ पहुँचकर वह प्रार्थना करनेके लिए चर्च में गया। चर्च में बड़ी भीड़ थी। उसे सदा अपनेधन कीचिंता लगी रहती। प्रार्थनाके समय भी वह जब-तब टटोलकर देख लेता कि कहीं भीड़ में उसकी कोई जेब न काट ले। पैसों कीचिंता में प्रार्थना में उसका मन ही न लग रहा था।
एफिम तीन सप्ताह जेरुसलेम में रहा। वह प्रतिदिन चर्च में जाता। वहाँ अपने मित्र को विशेष स्थान पर खड़ा देखता परंतु उसके बाद उसका कहीं पता न चलता। अब एफिम अपने घर की ओर चला। रास्ते में वह उसी गाँव में पहुँचा, जहाँ एलिशा रुका था। झोंपड़ीके दरवाजे पर एक बूढ़ीस्त्री दिखाई दी। वह बोली - "आइए बाबा, हमारे साथ ठहरिए और भोजन कीजिए। हम सदा अपने यहाँ यात्रियों का स्वागत करते हैं। एकयात्री ने ही हमारी प्राण रक्षा की थी।" एफिम समझ गया कि वहस्त्री एलिशाके बारे में ही बात कर रही है। जब एफिम ने एलिशाके बारे में पूछा, तो उसस्त्री ने कहा - मैं नहीं जानती वह कौन था, मनुष्य अथवा देवदूत। वह हम सबसेप्रेम करता था। वह अपना, नाम बताए बिना ही यहाँ से चला गया। परमात्मा उसका भला करे। यदि वह यहाँ न आया होता, तो हम सब मर ही गये होते। >>>
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26-07-2014, 12:03 AM | #253 |
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Re: इधर-उधर से
फिर उसस्त्री ने एफिम को भोजन कराया और सोनेके लिए स्थान बताया। एफिम विश्रामके लिए लेटा, पर उसे नींद नहीं आई। उसके मन में निरंतर एलिशा का ध्यान आता रहा। उसे याद था कि उसने जेरुसलेमके चर्च में एलिशा को विशेष स्थान पर खड़े देखा था और वह यह तो जानता था कि वह एलिशा को इसी झोंपड़ी में छोड़ गया था।
उसकी समझ मेंकुछ भी नहीं आ रहा था। मन-ही-मन उसे ऐसा लगने लगा कि ईश्वर ने शायद उसकी तीर्थ-यात्रा स्वीकार नहीं की परंतु एलिशा की तीर्थयात्रा अवश्य स्वीकार हुई है। प्रातःकाल वह अपने गाँव की ओर चल पड़ा। गाँव पहुँचकर वह सबसे पहले एलिशाके घर गया। एफिम को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और बोला - मित्र, आशा है आप जेरुसलेम की यात्रा सकुशल पूरी कर आए? एफिम बोला – “मित्र, मेरा शरीर तो वहाँ अवश्य पहुच गया, परंतु मेरी आत्मा वहाँ पहुच सकी, इसमें मुझे संदह है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हारी आत्मा वहाँ थी।मैंने अपनी आँखों से तुम्हें चर्चके भीतरी भाग में दीपमालाके पीछे खड़े देखा था। तुम्हीं सच्चे तीर्थयात्री और ईश्वरके प्रिय हो।“ “मैं समझ गया हूँ कि मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है।“ **
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01-08-2014, 10:52 PM | #254 |
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Re: इधर-उधर से
परचित्तानुरंजन (निबन्ध का एक अंश)
पं. बालकृष्ण भट्ट पं. बालकृष्ण भट्ट दिल्ली का बादशाह नसीरुद्दीन महमूद ने एक किताबअपने हाथ से नकल की थी। एक दिन अपने किसी अमीर को दिखला रहा था उस अमीर ने कई जगहगलती बतलाई बादशाह ने उन गलतियों को दुरुस्त कर दिया। जब वह अमीर चला गया तो फिरवैसा ही बना दिया जैसा पहले था। लोगों ने पूछा ऐसा आपने क्यों किया? बादशाह ने कहा मुझको मालूम था कि मैंने गलती नहीं किया लेकिन खैरखाहऔर नेक सलाह देने वाले का दिल दुखाने से क्या फायदा इससे उसके सामने वैसा ही बनाययह मेहनत अपने ऊपर लेनी मैंने उचित समझा। व्यर्थ का शुष्कवाद और दाँत किट्टन करनेकी बहुधा लोगों की आदत होती है अंत को इस दाँत किट्टन से लाभ कुछ नहीं होता। चित्त में दोनों के कशाकशी और मैल अलबत्ता पैदा हो जाती है। बहुधा ऐसा भी होता है किहमारी हार होगी इस भय से प्रतिवादी का जो तत्व और मर्म है उसे न स्वीकार कर अपनेही कहने को पुष्ट करता जाता है और प्रतिपक्षी की बात काटता जाता है। हम कहते हैंइससे लाभ क्या? प्रतिवादी जो कहता है उसे हम क्यों न मान लें उसका जी दुखाने सेउपकार क्या। 'फलं न किंचित् अशुभा समाप्ति:।' सिद्धांत है 'मुंडे मतिर्भिन्ना तुंडे तुंडे सरस्वती:' बहुत लोग इस सिद्धांत को न मान जो हम समझे बैठे हैं उसेक्यों न दूसरे को समझाएँ इसलिए न जानिए कितना तर्क कुतर्क शुष्कवाद करते हुएबाँय-बाँय बका करते हैं, फल अंत में इसका यही होता है कि जी कितनों का दुखी होता है, मानता उसके कहने को वही है जिसे उसके कथन में श्रद्धा है। हमारे चित्त में ऐसा आताहै कि जो हमने तत्व समझ रक्खा है उसे उसी में कहें जिसे हमारी बात पर श्रद्धा हो। (मुझे यह बताने में खुशी हो रही है कि उक्त निबन्ध मैंने अपनी हाई स्कूल की पुस्तक में पढ़ा था)
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09-08-2014, 10:52 PM | #255 |
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Re: इधर-उधर से
सुखदा मणि
आभार: एमएलएम एकता एक संत सदा प्रसन्न रहते थे | वह हर बात पर ठहाके लगते रहते , कुछ चोरो को यह बात अजीब सी लगाती थी | वह समझ नही पते थे की कोई व्यक्ति हर समय इतना खुश कैसे रह सकता है | चोरो ने यह सोच कर की संत के पास अपार धन होगा , उनका अपहरण कर लिया | वे उन्हें दूर जंगल में ले गए और बोले, "सुना है संत की तुम्हारे पास काफी धन है तभी इतने प्रसन्न रहते हो| सारा धन हमारे हवाले कर दो वर्ना तुमारी जन की खैर नही |" संत ने एक-एक कर हर चोर को अलग-अलग बुलाया और कहा मेरे पास सुखदा मणि है मगर मैंने उसे तुम चोरो के डर से जमीन में गाड़ दिया है | यहाँ से कुछ दूर पर वह स्थान है | अपनी खोपड़ी के नीचे चन्द्रमा की छाया में खोदना, शायद मिल जाए| यह कहकर संत एक पेड़ के नीचे सो गए | सभी चोर अलग-अलग दिशा में जाकर खोदने लगे, जरा सा उठते चलते तो छाया भी हिल जाती और उन्हें जहाँ-तहाँ खुदाई करनी पड़ती| रात भर में सैकड़ो छोटे-बड़े गढ्ढे बन गये पर कही भी मणि का पता नही चला| चोर हताश होकर लौट आये और संत को बुरा-भला कहने लगे | संत हँस कर बोले "मूर्खो मेरे कहने का अर्थ समझो | खोपड़ी तले सुखदा मणि छिपी है अर्थात श्रेष्ट विचारो के कारण मनुष्य प्रसन्न रह सकता है | तुम भी अपना दृष्टिकोण बदलो और जीना सीखो |" चोरो को यथार्थ का बोध हुआ | वे भी अपनी आदते सुधार कर प्रसन्न रहने की कला सीखने लगे|
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25-09-2014, 08:42 PM | #256 |
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Re: इधर-उधर से
मास एक्सपेरीमेंट या समूह प्रयोग
(ओशो के वचनों पर आधारित) सिंगापुर के पास एक छोटे से द्वाप पर जब पहली दफा पश्चिमी लोगों ने हमला किया तो वे बड़े हैरान हुए। जो चीफ़ थ, जो प्रमुख था कबीले का, वह आया किनारे पर, और जो हमलावर थे उनसे उसने कहा कि हम निहत्थे थे लोग जरूर है। पर हम परतंत्र नहीं हो सकते। पश्चिमी लोगों ने कहा कि वह तो होना ही पड़ेगा। उन कबीले वालों ने कहा, हमारे पास लड़ाई का उपाय तो कुछ नहीं है, लेकिन हम मरना जानते हे—हम मर जांएगे। उन्हें भरोसा नहीं आया कि कोई ऐसे कैसे मरता है, लेकिन बड़ी अद्भुत घटना है। ऐतिहासिक घटनाओं में एक घटना घट गयी। जब वे राज़ी नहीं हुए और उन्होंने कदम रख दिया, द्वीप पर उतर गए, तो पूरा कबीला इकट्ठा हुआ। कोई पाँच सौ लोग तट पर इकट्ठे हुए और वह देखकर दंग रह गए कि उनका प्रमुख पहले मर कर गिर गया। और फिर दूसरे लोग मरकर गिरने लगे। मरकर गिरने लगे बिना किसी हथियार की चोट के। शत्रु घबरा गए, यह देख कर। पहले तो उन्होंने समझा कि लोग डर कर ऐसे ही गिर गए होंगे। लेकिन देखा वह तो खत्म ही हो गए। अभी तक साफ़ नहीं हो सका कि यह क्या घटना घटी, असल में हम की कांशेसनेस अगर बहुत ज्यादा हो तो मृत्यु ऐसी संक्रामक हो सकती है। एक के मरते ही फैल सकती है।
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25-09-2014, 08:53 PM | #257 |
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Re: इधर-उधर से
मास एक्सपेरीमेंट या समूह प्रयोग— यह एक ऐसा प्रयोग है जिसके ज़रिये अधिकतम विराट पैमाने पर उस अनंत शक्ति को उतारा जा सके। और जब लोग सरल थे तो यह घटना बड़ी आसानी से घटती थी। उन दिनों तीर्थ बड़े सार्थक थे। तीर्थ से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटता था। इसलिए … तो आज आदमी खाली लौट आता है, खाली लौट आने पर आदमी फिर दोबारा चला जाता है। उन दिनों तो ट्रांसफार्म होकर लौटता था ही। पर वह बहुत सरल और इनोसेंट समाज की घटनाएं है। क्योंकि जितना सरल समाज हो, जहां व्यक्तित्व का बोध जितना कम हो, वहां तीर्थ का यह प्रयोग काम करेगा, अन्यथा नहीं करेगा।
तो जब समाज बहुत ‘’हम’’ के बोध से भरा था और ‘’मैं’’ का बोध बहुत कम था तब तीर्थ (इसमें कुंभ भी शामिल है) बड़ा कारगर था। यह समझ लीजिये कि उसकी उपयोगिता उसी मात्रा में कम हो जाएगी, जिस मात्रा में ‘’मैं’’ का बोध बढ़ जाएगा। **
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28-09-2014, 03:49 PM | #258 |
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Re: इधर-उधर से
वह हिन्दू भी था और मुसलमान भी
बदीउज्ज़मां के उपन्यास “छाको की वापसी” का पात्र ‘ढल्लन सिंह’ उपरोक्त उपन्यास का पात्र ‘ढल्लन सिंह’ एक अनोखा पात्र है जो अपनी प्रेमिका से विवाह करने की खातिर मुसलमान हो जाता है. परन्तु क्या वास्तव में वह मुसलमान हो पाया? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जो हमें कई बुनियादी बातों के बारे में सोचने पर मजबूर कर देता है. एक धर्म से दूसरे धर्म में प्रवेश कर जाने से क्या दूसरे धर्म की सारी बुनियादी बातों के साथ तादात्म्य हो जाता है ? क्या धर्म कोई ऐसी चीज है जो कपड़ों की तरह उतारी जा सकती है और बदली जा सकती है. क्या यह संभव है कि एक धर्म ने हमें जो संस्कार दिए हैं क्या उनको उतार कर हम फेंक सकते हैं ? चाहे हम वाह्य रूप से पुराने धर्म से कट चुके हों, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उससे हम फिर भी जुड़े रहते हैं. बकौल उपन्यास-लेखक इसकी एक मिसाल स्वयं इस्लाम के इतिहास से मिल जाती है. मक्के के बहुत सारे लोग जो इस्लाम स्वीकार करने से पहले मूर्तिपूजक थे. वे जब इस्लाम धर्म में आये तो उनमे से कितने ही लोग मस्जिदों में अपनी आस्तीनों में मूर्तिया छिपा कर ले जाते थे.
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28-09-2014, 03:50 PM | #259 |
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Re: इधर-उधर से
सवाल उठता है कि क्या ढल्लन सिंह औपचारिक रूप से मुसलमान होने के बाद भी क्या अपने हिंदुत्व का पूरी तरह त्याग कर देता है. नहीं, ऐसा करना शायद संभव नहीं है. वह हिंदुत्व और मुस्लिमत्व के बीच घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलने के लिए ही बना है. उसके नए मुस्लिम नाम के बावजूद उसे ढल्लन सिंह के नाम से ही पुकारा जाता है – मुसलमानों और हिन्दुओं दोनों द्वारा. वह अपने पुराने समाज से कट भी जाता है और जुड़ा भी रहता है. नया रिश्ता बना अवश्य है किन्तु यह संस्कारगत नहीं हो पाता. इसीलिए अपने जीवन के अंतिम क्षणों में जब वह चेतना-शून्य हो जाता है तो उस समय उसके मुंह से केवल राम – राम ही निकलता है. कहा जा सकता है कि वह न हिन्दू है और न मुसलमान. या यह कह सकते हैं कि वह हिन्दू भी है और मुसलमान भी. सआदत हसन मंटो के टोबा टेक सिंह के परिवेश की तरह जो न इधर है न उधर. या फिर इधर भी है और उधर भी. किसी एक जगह बंधा हुआ नहीं है.
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28-09-2014, 04:01 PM | #260 |
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Re: इधर-उधर से
प्रख्यात लेखक अमृतलाल नागर के जीवन काल में
एक पाठक के उद्गार: लेखन प्रतिभा के धनी, करते सृजन रसाल, छलकायें अमृत सदा, नागर अमृतलाल. नागर अमृतलाल, शान लखनऊ शहर की, पद्म-विभूषित, सुरभित संपति भारत भर की कह “राजेश” चिरायु हों, फैले सुयश प्रचंड, युगों युगों साहित्य के , बनें रहें मार्तंड.
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