05-04-2011, 05:07 PM | #1 |
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अमृत-मंथन कथा
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05-04-2011, 05:10 PM | #2 |
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Re: अमृत-मंथन कथा
तब देवताओं ने असुरों से संधि कर समुद्र-मंथन के लिए सम्मिलित उद्योग प्रारंभ किया। दैत्य सेनापतियों ने कहा, ‘पूँछ तो सॉंप का अशुभ अंग है, हम उसे न पकड़ेंगे। हमने वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया है। ऊँचे वंश में हमारा जन्म हुआ है और हमने वीरता के कार्य किए हैं। हम देवताओं से किस बात में कम हैं।‘ अंत में देवताओं ने वासुकि नाग की पूँछ पकड़ी और असुरों ने उसका फन। इस प्रकार स्वर्ण पर्वत मंदराचल की मथानी से मंथन प्रारंभ हुआ। पर नीचे कोई आधार न होने के कारण मंदराचल डूबने लगा। तब भगवान ने कच्छप अवतार के रूप में प्रकट हो जंबूद्वीप के समान फैली अपनी पीठ पर मंदराचल को धारण किया।
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05-04-2011, 05:15 PM | #3 |
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Re: अमृत-मंथन कथा
सागर-मंथन में पहले कालकूट विष निकला। यह चारों ओर फैलने लगा। तब संपूर्ण प्रजा तथा प्रजापति कहीं त्राण न मिलने पर शिव की शरण में गए। शिव ने वह तीक्ष्ण हलाहल पी लिया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया। जो थोड़ा विष टपक पड़ा उसे विषैले जीवों एवं वनस्पतियों ग्रहण कर लिया।
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05-04-2011, 05:16 PM | #4 |
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Re: अमृत-मंथन कथा
इसके बाद सागर-मंथन से अनेक वस्तुऍं निकलीं। कामधेनु को, जो यज्ञ के लिए घी-दूध देती थी, ऋषियों ने ग्रहण किया। इसी प्रकार उच्चै:श्रवा नामक श्वेत वर्ण घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष-जो याचकों को इच्छित वस्तु देता था-और संगीत- प्रवण अप्सराऍं प्रकट हुई। इसके बाद नित्यशक्ति लक्ष्मी प्रकट हुई जो सृष्टि रूपी भगवान के वक्षस्थल पर निवास करले लगीं। इसके बाद वारूणी-शराब-निकली, जिसे असुरों ने ले लिया। अंत में भगवान के अंशावतार तथा आयुर्वेद के प्रवर्तक धन्वंतरि हाथ में अमृत कलश लिये प्रकट हुए। तब असुरों ने उस अमृत कलश को छीन लिया। उनमें आपस में झगड़ा होने लगा कि पहले कौन पिए। कुछ दुर्बल दैत्य ही बलवान दैत्यों का ईर्ष्यावश विरोध करने तथा न्याय की दुहाई देने लगे-‘देवताओं ने हमारे बराबर परिश्रम किया, इसलिए उनको यज्ञ-भाग समान रूप से मिलना चाहिए।‘
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05-04-2011, 05:18 PM | #5 |
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Re: अमृत-मंथन कथा
इस पर भगवान ने अत्यंत सुंदर स्त्री मोहिनी का रूप धारण किया। असुरों ने मोहित हो मोहिनी को ही वारूणी तथा अमृत सबमें बॉंटने के लिए दे दिए। मोहिनी ने असुरों तथा देवताओं को अलग-अलग पंक्ति में बैठाकर पिलाना प्रारंभ किया। असुरों की बारी में वारूणी तथा देवताओं की बारी में अमृत पिलाया। नशा उतरने पर असुरों ने देखा कि उनके साथ धोखा हुआ। तब उन्होंने देवताओं पर धावा बोल दिया। पुन: देवासुर संग्राम हुआ। अबकी बार असुरराज बेहोश हो गए, पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उन्हें फिर ठीक कर दिया। नारदजी के आग्रह पर, कि देवताओं को अभीष्ट प्राप्त हो चुका है, युद्ध बंद हुआ। देवता और असुर अपने-अपने लोक को पधारे।
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05-04-2011, 07:23 PM | #6 |
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Re: अमृत-मंथन कथा
बहुत ही सुन्दर प्रयास हमसफ़र जी ।
अब मै इसी कथा को कुछ तत्व ज्ञान के साथ कुछ अलग तरह से प्रस्तुत करना चाहता हूं क्या आपकी आज्ञा है ।
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05-04-2011, 10:36 PM | #7 | |
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Re: अमृत-मंथन कथा
Quote:
और हां दिन में आपका फोन आया था किसी करनवास अटेंड नहीं कर पाया , छमा कीजियेगा
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05-04-2011, 11:19 PM | #8 |
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Re: अमृत-मंथन कथा
धन्यवाद हमसफ़र जी । कभी कभी मार्केट समय मे भी हमे याद कर लिया करे प्रभु । अब मै सागर मन्थन की एक व्याख्या जो कि शंका-समाधान (रचयिता: स्वमी अड़गड़ानन्द जी ) नामक पुस्तक से ली गई है ।
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05-04-2011, 11:26 PM | #9 |
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Re: अमृत-मंथन कथा
सागर मन्थन दोहा: भव सागर मन्थन करि, रतन कह्यो सब देख । तेरह विष की बेलि है, अमिय पदारथ एक ॥ 1॥ भावार्थ: चिन्तन की भवधारा मे, एक समय की अनुभूति है, भवसागर मन्थन किया गया जिसके परिणाम स्वरुप उपलब्ध तेरह रत्न विष को बढाने वाले है और केवल अमृत ही ऐसा विलक्षण पदार्थ है जिसमे अनेकता नही जो सर्वथा अद्वितीय और अनुपमेय है ।
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05-04-2011, 11:42 PM | #10 |
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Re: अमृत-मंथन कथा
सागर मन्थन की उपलब्धि को देख कर संत महात्माओ के भाव पटल पर कुछ तनाव स्पष्ट दिखता है क्योकि इसके मन्थन से तेरह रत्न मिल गये पर इसमे से सिर्फ़ एक अमृत को छोड कर बाकि सब रत्न जीव को अनेक योनियो मे, विविध भोग विलास के सुखो के विस्तार मे घुमाते रहेते है । जहा तक वासना का विस्तार है और प्राणियो के विलासता की सीमा है उसके प्रोत्साहन मे क्रियात्मक प्रभावशीलता इन्ही तेरह रत्नो की क्षणिक चमत्कारिता का दुष्परिणाम है । इनके आकर्षण के विविध साधनो के बीच जीव जन्म और मौत के चक्र मे भटकता रहता है ।
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