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Old 05-02-2013, 11:20 PM   #1
Dark Saint Alaick
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Default इनसे सीखें जीने का अन्दाज़

इनसे सीखें जीने का अन्दाज़

मित्रो, संसार में अनेक लोग हैं, जो अपनी अभिनव ... सबसे जुदा सोच, नए आइडियाज़ और उद्यमशीलता से कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो देख सुन कर आप दांतों में अंगुली दबा लेने को विवश हो सकते हैं। मेरा यह सूत्र ऐसे ही इंसानों को समर्पित है अर्थात मैं इस सूत्र में आपको ऐसे जांबाज़ लोगों से मिलवाऊंगा, जो कुछ अनूठा काम या उद्यम कर रहे हैं। उम्मीद है, मेरा यह नया सूत्र आप सभी का मनोरंजन तो करेगा ही, कुछ नया करने की प्रेरणा भी देगा। धन्यवाद।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु

Last edited by Dark Saint Alaick; 05-02-2013 at 11:29 PM.
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Old 05-02-2013, 11:23 PM   #2
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Default Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़

टॉम स्जाकी, न्यू जर्सी



अब तक सिगरेट की ठुड्डियों या सिगेरट बट को समस्या पैदा करने वाला कचरा माना जाता था, लेकिन अब पढ़ाई-लिखाई से जी चुराने वाला एक युवक सिगरेट बट से प्लास्टिक बनाकर कारोबार चमका रहा है।
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Old 05-02-2013, 11:24 PM   #3
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Default Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़

सिगरेट की बट से बनता प्लास्टिक

प्रिंस्टन कॉलेज से पढ़ाई छोड़ कर कचरे की रिसाइक्लिंग से सामान बनाने का बिजनेस शुरू करने वाले टॉम स्जाकी के पास ऐसा एक तरीका है जिससे सिगरेट का फायदा उठाया जा सकता है। 30 वर्षीय सैकी ने पढ़ाई छोड़ कर न्यू जर्सी के ट्रेंटन में अपनी कम्पनी ‘टेरासाइकिल’ की शुरुआत की है। वह कहते हैं दुनिया में कचरे जैसी कोई चीज नहीं होती, हर चीज का इस्तेमाल है, यहां तक कि सिगरेट पीने के बाद बचे बट यानी ठुड्डी का भी। उनकी कम्पनी लोगों से सिगरेट के बचे हुए बट जमा करती है और फिर उससे प्लास्टिक बना देती हैं, जिसका इस्तेमाल प्लास्टिक का सामान बनाने में किया जाता है। कई बार वह उसी से प्लास्टिक की ऐशट्रे भी बना देते हैं। सबसे पहले वह बुझी हुई सिगरेट पर बचा तम्बाकू और कागज अलग करते हैं। इसके बाद बट का वह हिस्सा जिसमें फिल्टर हेता है, उसे पिघलाया जाता है। फिल्टर वाला यह हिस्सा सेलुलोस एसिटेट का बना होता है। पिघले हुए इस हिस्से से प्लास्टिक बनता है। उन्होंने बताया कि एक ऐशट्रे बनाने में लगभग 100 से 200 बट लगते हैं जबकि करीब दो लाख बट से एक कुर्सी बन जाती है। उन्हें कच्चे माल यानि बट की कमी की भी कोई संभावना नहीं दिख रही है। टेरासाइकिल को इस काम के लिए तम्बाकू बनाने वाली कम्पनी से आर्थिक मदद भी मिल रही है क्योंकि इसके जरिए उन्हें प्रचार मिल रहा है। सिगरेट बट जमा करने वालों को कम्पनी की तरफ से हर बट पर एक प्वाइंट मिलता है जिसका फायदा चैरिटी को जाता है। सड़कों पर बिखरी रहने वाले सिगरेट बट भी अब कम दिखते हैं। टेरासाइकिल इस प्लास्टिक से बने उत्पादों को वॉलमार्ट और होलफूड जैसी कम्पनियों को बेचकर और बिजनेस बढ़ा रही है। जूस के खाली पैकेट, खाली बोतलें, पेन, चाय और कॉफी के यूज एंड थ्रो प्लास्टिक कप, कैंडी के रैपर और टूथब्रश से लेकर कम्प्यूटर की बोर्ड तक हर चीज टेरासाइकिल के काम की है। कई बार इनको पिघलाकर बिल्कुल ही नया उत्पाद बन जाता है और कई बार थोड़े ही फेर बदल के बाद उनका किसी और काम में इस्तेमाल हो जाता है, जैसे कैंडी के रैपर का किताबों की जिल्द में इस्तेमाल। सिगरेटट बट से रिसाइक्लिंग का यह प्रोजेक्ट स्जाकी ने कनाडा में शुरू किया था। उन्होंने बताया कि यह प्रोजेक्ट इतना कामयाब हुआ कि कुछ ही समय में 10 लाख से ज्यादा ठुड्डियां इक टठा हो गई। इस प्रोजेक्ट ने तम्बाकू कम्पनियों को भी इतना चौंका दिया कि उन्होंने इसे अमेरिका और स्पेन में भी शुरू करने की मांग की और इस तरह बात आगे बढ़ी। उनको उम्मीद है कि आने वाले चार महीनों में वह इस कारोबार को यूरोप में भी बढ़ा पाएंगे।
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Old 05-02-2013, 11:27 PM   #4
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Default Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़

wow...............
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Old 05-02-2013, 11:49 PM   #5
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Default Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़

अप्पन समाचार, बिहार



मध्यम वर्ग को केंद्रित कर जहां रोज नए-नए चैनल खुलते जा रहे हैं, वहीं चार गांव की चार लड़कियों द्वारा शुरू किए गए ‘अप्पन समाचार’ ने गांव की आवाज बन कर देश के सामने नजीर पेश की है। इसके कद्रदान देश ही नहीं, विदेशों में भी हैं।
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Old 05-02-2013, 11:51 PM   #6
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Default Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़

साइकिल पर घूमती लड़कियों का ‘अप्पन समाचार’

शहर केंद्रित खबरों की होड़ और विज्ञापन के शोर में गांव की आवाज दबकर रह जाती है। पर भारत के बिहार प्रांत स्थित मुजफ्फरपुर के पारू प्रखंड में ग्रामीण परिवेश से आई लड़कियों ने अपने दम पर ‘अप्पन समाचार’ नाम का एक समाचार पत्र चला दिया है। सुमैरा खान, खुशबू, नगमा व श्वेता अप्पन समाचार द्वारा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए दिन-रात मेहनत करती हैं। लोगों के सामने अपने समाज की वास्तविक तस्वीर पेश कर ये उनके मन में अपना स्थान बना रही हैं। ये चारों युवतियां अपने गांव के आस पास से जुड़ी खबरों और महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में साइकिल पर घूम-घूम कर हैंडीकैम की मदद से जानकारी एवं साक्षात्कार इकट्ठा करती हैं। फिर उस क्षेत्र में लगने वाले साप्ताहिक पेंठियां (हाट) में पोर्टेबल वीडियो पर समाचार प्रसारित करती हैं। बज्जिका, भोजपुरी एवं स्थानीय हिंदी में किया जाने वाला यह अनूठा प्रयास इस क्षेत्र की ग्रामीण जनता में इतना लोकिप्रय हो चुका है कि अब इसकी खासी मांग बढ़ गई है। अप्पन समाचार 6 दिसम्बर, 2007 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड के रामलीला गाछी (चान्दकेवारी) में शुरू हुआ था। यह आॅल वूमन चैनल के रूप में चर्चित हुआ। एक गांव से शुरू हुआ यह आल वूमन न्यूज नेटवर्क आज जिले के पांच प्रखंडों के तकरीबन दो दर्जन से अधिक गांवों को कवर करता है। इसमें समाचार बुलेटिन 45 मिनट का होता है और प्रोजेक्टर या डीवीडी के जरिए गांव के हाट-बाजारों में दिखाया जाता है। समाचार के लिए लगभग बीस लड़कियां एंकरिंग, रिपोर्टिंग, कैमरा चलाने का काम, एडिटिंग आदि का काम देखती हैं। मीडिया वर्कशॉप के द्वारा भी इन महिला पत्रकारों को पत्रकारिता का प्रशिक्षण दिया जाता रहा है। इस इलाके में बिजली नहीं रहने के कारण जेनरेटर पर लोगों को अप्पन समाचार दिखाया जाता है। पर इस समस्या से निजात के लिए टीम ने एक तरीका निकाला और वे टेलीविजन के लिए तैयार कि गई स्क्रिप्ट से चार पत्रों की मासिक पत्रिका निकालने लगी। इस समाचार की चर्चित शख्सियत खुशबू ग्रामीण लड़कियों के लिए एंकरिंग व रिपोर्टिंग करती हैं। सत्रह वर्षीया खुशबू दूरस्थ दियारा क्षेत्र की उन ग्रामीण लड़कियों में एक हैं, जिसने घर की दहलीज को लांघ कर कैमरा थामा है। गांव की गरीबी, अशिक्षा, किसानों का दर्द, कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त रिश्वतखोरी को अपने कैमरे में कैद कर समुदाय के सामने उसे उजागर करती है। अप्पन समाचार को टीवी नेटवर्क 18 द्वारा अक्टूबर, 2008 में सिटीजन जर्नलिस्ट अवार्ड मिल चुका है। इसकी लोकप्रियता का यह आलम है कि क्षेत्र के लोग किसी भी हालत में इसे बंद नहीं होने देना चाहते। चार लड़कियों द्वारा शुरू किया गया यह सामुदायिक प्रयास आज गांव के लोगों की हिम्मत बन चुका है।
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Old 06-02-2013, 12:02 AM   #7
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सिकी और झांग वनिजा, दक्षिणी चीन



शिक्षक और विद्यार्थी का रिश्ता अपने आप में अनोखा होता है। ऐसा ही नजारा चीन के एक स्कूल में देखने को मिलता है। जहां पढ़ाने वाला एक टीचर है और पढ़ने वाली भी एक बच्ची है, लेकिन फिर भी स्कूल रोज के हिसाब से चलता है।
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Old 06-02-2013, 12:03 AM   #8
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एक विद्यार्थी, एक टीचर वाला स्कूल

स्कूल की घंटी और क्लास की तरफ भागते बच्चे। पढ़ाई के बीच में साथियों के साथ शरारतें, लंच की छुट्टी, मिल बांट कर खाना और खेलना। आखिरी क्लास और स्कूल से घर की ओर दौड़ लगाते बच्चे। लेकिन चीन में एक अनोखा स्कूल है जहां ना बच्चे खेलते नजर आते हैं न हीं पढ़ते और शरारतें करते दिखते हैं। इस स्कूल में एक बच्ची है जो अकेले पढ़ती है और अकेले ही खेलती है। ऐसा नहीं है कि इस बच्ची के दोस्त नहीं बने। दरअसल इतने बड़े स्कूल में बच्ची को पढ़ाने वाला भी एकमात्र शिक्षक है। सात साल की यह बच्ची रोज सवेरे स्कूल आती है और वहां एकमात्र टीचर से पढ़ती है। ठीक समय पर लंच की घंटी बजती है। वह अकेले लंच करती है और फिर क्लास चलती है। स्कूल खत्म होने पर वह अकेली घर को लौट जाती है। यह देखते और सुनने वालों को बड़ा ही आश्चर्य होता है। दक्षिणी चीन के फुजियन प्रांत का नानोउ गांव इस स्कूल और बच्ची के चलते चर्चा में आ गया है। दरअसल इस गांव के लोग काफी समय पहले गांव छोड़कर जा चुके हैं। सात साल की झांग सिकी स्पाइनल डिस्क की बीमारी के चलते गांव छोड़कर नहीं जा सकी। झांग अपनी 76 साल की दादी मां के साथ इस गांव में रहती है। सिकी की बीमारी के चलते और उसके गांव के नजदीक होने के कारण इस स्कूल को दोबारा खोला गया है। यहां के टीचर हैं झांग वनिजा। वनिजा ने बताया कि सिकी स्कूल में पढ़ने वाली एकमात्र विद्यार्थी है लेकिन वो पूरे दिल से उसे पढ़ाते हैं। अकेली होने के कारण सिकी को कोई छूट नहीं मिलती। वनिजा चीन के राष्ट्रीय स्कूल प्रोग्राम का हर नियम पूरा करते हैं। सिकी लंच टाइम में अपने टीचर के साथ बॉस्केट बॉल खेलती है और स्कूल कंपाउंड का एक चक्कर लगाती है। इतना ही नहीं हर सप्ताह होने वाली फ्लैग सेरेमनी में भी सिर्फ सिकी और वनिजा ही होते हैं। पर फिर भी वनिजा को कोई अफसोस नहीं है। उनका कहना है कि इतने बड़े स्कूल में एक बच्चे को पढ़ाना बड़ा अजीब लगता है लेकिन कोई चारा नहीं है। बहुत बुरा लगता है जब वह स्कूल के कार्यालय में बैठते हैं और पूरे स्कूल में कोई नहीं होता। सिकी की दादी का कहना है कि उनकी पोती बहुत मेहनती और समझदार है। वह जानती है कि उसे अकेले ही शिक्षा लेनी है फिर भी वह बहुत मेहनत और लगन के साथ पढ़ाई करती है। दादी के अनुसार सिकी उनका घर के काम में भी हात बंटाती है और उन्हें चाय के बागान में जाने से रोक देती है क्योंकि वह बहुत बुजुर्ग हो गई हैं।
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Old 06-02-2013, 12:15 AM   #9
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डॉ. अच्युत सामंत, उड़ीसा



आज हमारे समाज की सबसे बड़ी विडम्बना है गरीबी और बेरोजगारी। इन दोनों समस्याओं के आगे शिक्षा का महत्व लोगों को समझ ही नहीं आता। गरीबी की हालत में भी पढ़ाई को महत्व देने वाले डॉ. सामंत समाज के लिए जीता-जागता उदाहरण हैं।
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साक्षरता से गरीबी दूर करते ‘सामंत’

कई बार हमारे सामने ऐेसे उदाहरण सामने आते हैं जब हमे पता चलता है कि ऊंचे पद पर पहुंचे अमूक शख्स का बचपन बेहद गरीबी में गुजरा है। आर्थिक तंगी होने के बावजूद उन्होंने शिक्षा ग्रहण की और अपने लक्ष्य की और आगे बढ़ते चले गए। इसका एक और सबसे बड़ा जीता जागता उदाहरण हैं डॉ. अच्युत सामंत जिनका बचपन गरीबी में बीता लेकिन अपनी आर्थिक व्यवस्था खराब होने के बावजूद भी वे हिम्मत नहीं हारे और शिक्षा ग्रहण की और आज वह केआईटीटी और केआईएसएस जैसी संस्थाओं के संस्थापक हैं। अत्यंत गरीबी के कारण इनके बचपन का अनुभव काफी कड़वा रहा ,फिर भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी और आज वह विश्व के सबसे बड़े निशुल्क आदिवासी आवासीय संस्थान के संस्थापक हैं, जो कलिंगा इंस्टिट्यूट आफ सोशल साइंसेज के नाम से प्रचलित है। डॉ. सामंत को पूर्ण विश्वास है की गरीबी से निरक्षरता पनपती है और साक्षरता से गरीबी दूर होती है। इसी विश्वास को कायम रखते हुए वह अनेक संघर्षों से पार पाते गए और अपने नेक इरादे और निरंतर प्रयास की बदौलत हर लक्ष्य को हासिल करते गए। उस दौर में जब उनके लिए दो वक्त की रोटी की कल्पना एक सुंदर स्वप्न था वहीं से आज एक महान विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले सामंत की कहानी सुनने वालों को उनकी मेहनत पर गर्व होता है। उन्हें देखकर यह अहसास होता है की अगर मन में किसी भी काम को करने का दृढ़ संकल्प है तो किसी साधन की जरुरत नहीं रह जाती। रास्ते अपने आप निकलते जाते हैं। रोजाना 16 घंटे और साल में 365 दिन काम कर आज वो खुद असमंजस में पड़ जाते हैं और भगवान को इतने नेक काम में अपनी सहायता के लिए धन्यवाद देते हैं। केवल 5000 रुपए से दो कमरों में छोटे से आईटीआई से शुरुआत करते हुए केआईआईटी ने आज विश्व में तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में मिसाल कायम की है। आईटीआई की स्थापना इस उद्देश्य के साथ बिलकुल नहीं की थी की उसे एक विश्वस्तरीय विद्यालय बना कर पैसे कमाए जाएं। उसका उद्देश्य था की जिस भुखमरी में उनका बचपन बीता वह समाज के गरीब और पिछड़ी जाति के लोगों को न देखना पड़े और इसी सोच के साथ उन्होंने वर्ष 1993 में केवल 125 बेसहारा आदिवासी बच्चों से केआईएसएस की शुरुआत की और आज यह संस्थान 20 हजार आदिवासी बच्चों के साथ विश्व मंच पर दूसरा शान्ति निकेतन बन गया है। आज उनके चेहरे पर जो खुशी झलकती है उससे कोई भी व्यक्ति उनके वयक्तित्व का अनुमान लगा सकता है। ढेरों पुरस्कारों से सम्मानित डॉ. सामंत का सबसे बड़ा पुरस्कार है दूसरों के जीवन में खुशी लाना। समाज में ऐसे लोगों की आज बहुत जरुरत है जो नि:स्वार्थ भाव से समाज के लिए अपने आपको समर्पित करें और देश को आगे बढाने की जिम्मेदारी लें।
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