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Old 05-01-2013, 04:56 AM   #31
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कबीर



संसारभर में भारत की भूमि ही तपोभूमि (तपोवन) के नाम से विख्यात है। यहाँ अनेक संत, महात्मा और पीर-पैगम्बरों ने जन्म लिया। सभी ने भाईचारे, प्रेम और सद्भावना का संदेश दिया है। इन्हीं संतों में से एक संत कबीरदासजी भी हुए हैं। इनका जन्म संवत्* 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। इसीलिए ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा के दिन देश भर में कबीर जयंती मनाई जाती है।

महात्मा कबीर समाज में फैले आडम्बरों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाया। वे लेखक और कवि थे। उनके दोहे इंसान को जीवन की नई प्रेरणा देते थे। कबीर ने जिस भाषा में लिखा, वह लोक प्रचलित तथा सरल थी। उन्होंने विधिवत शिक्षा नहीं ग्रहण की थी, इसके बावजूद वे दिव्य प्रभाव के धनी थे।

कबीरदासजी को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संप्रदायों में बराबर का सम्मान प्राप्त था। दोनों संप्रदाय के लोग उनके अनुयायी थे। यही कारण था कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से।

किंतु इसी छीना-झपटी में जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। यह कबीरजी की ओर से दिया गया बड़ा ही सशक्त संदेश था कि इंसान को फूलों की तरह होना चाहिए- सभी धर्मों के लिए एक जैसा भाव रखने वाले, सभी को स्वीकार्य।

बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने तथा अपनी-अपनी रीति से उनका अंतिम संस्कार किया। ऐसे थे कबीर।
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Old 05-01-2013, 05:01 AM   #32
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संगीत सम्राट बैजु बावरा


वेत्रवती और ऊर्वशी युगल सरिताओं के मध्य विंध्याचल पर्वत की गगनचुंबी श्रेणियों के बीच बसा चंदेरी नगर महाभारत काल से आज तक किसी न किसी कारण विख्यात रहा है। महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण और राजा शिशुपाल के कारण और मध्यकाल में महान संगीतज्ञ बैजू बावरा, मुगल सम्राट बाबर, बुंदेला सम्राट मैदिनीराय तथा मणिमाला के कारण यह इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है।

१६वीं शताब्दी के महान गायक संगीतज्ञ तानसेन के गुरुभाई पंडित बैजनाथ का जन्म १५४२ में शरद पूर्णिमा की रात एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। चंदेरी बैजनाथ की क्रीड़ा-कर्मस्थली रही है। इस बात का उल्लेख प्रसिद्ध साहित्यकार श्री वृंदावनलाल वर्मा के 'मृगनयनी' व 'दुर्गावती' जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों में भी मिलता है।

पंडित बैजनाथ की बाल्यकाल से ही गायन एवं संगीत में काफी रुचि थी। उनके गले की मधुरता और गायन की चतुराई प्रभावशाली थी। पंडित बैजनाथ को बचपन में लोग प्यार से 'बैजू' कहकर पुकारते थे। बैजू की उम्र के साथ-साथ उनके गायन और संगीत में भी बढ़ोतरी होती गई। जब बैजू युवा हुए तो नगर की कलावती नामक युवती से उनका प्रेम प्रसंग हुआ। कलावती बैजू की प्रेयसी के साथ-साथ प्रेरणास्रोत भी रही। संगीत और गायन के साथ-साथ बैजू अपनी प्रेयसी के प्यार में पागल हो गए। इसी से लोग उन्हें बैजू बावरा कहने लगे।

कला और बैजू का प्रेम प्रसंग जितना निश्छल, अद्वितीय एवं सुखद था, उसका अंत उतनी ही दुखद घटना से हुआ। कहा जाता है कि बैजू को अपने पिता के साथ तीर्थों के दर्शन के लिए चंदेरी से बाहर जाना पड़ा और उनका विछोह हो गया। वे बाद में भी नहीं मिले। इस घटना का 'बैजू' के जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा और इसी घटना का बैजू को महान संगीतकार बनाने में काफी योगदान रहा।

चंदेरी में जब अपने संगीत और स्वयं का भविष्य अंधकार में नजर आया तो बैजू ने चंदेरी छोड़ने का दृढ़ निश्चय किया। ग्वालियर के महाराजा मानसिंह को कला एवं संगीत से अत्यधिक प्रेम था। उन्होंने बैजू बावरा को अपने दरबार में रख लिया तथा अपनी रानी मृगनयनी की संगीत शिक्षा की जिम्मेदारी बैजू को सौंपी। बैजू ने ध्रुपद, मूजरीटोड़ी, मंगल गुजरी आदि नए-नए रागों का आविष्कार किया। उन्होंने मृगनयनी को संगीत में निपुण कर संगीताचार्य बनाया तथा बाद में दरबार छोड़कर अपने गुरु हरिदास के पास चल दिए।

मध्यकाल में साहित्य और भक्ति का उत्थान हुआ और एक आंदोलन के रूप में इसका फैलाव हुआ। इस काल को भक्तिकाल के स्वर्णयुग के नाम से जाना जाता है। इस काल में संगीत और साहित्य को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ। भक्तिकाल के प्रतिपादकों में महासंत रामानुज, रामानंद, नानक, कबीर, सूरदास, मीराबाई, तुलसीदास, रैदास अनेकानेक संत रहे हैं।
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Old 05-01-2013, 11:08 AM   #33
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भक्त कवि सूरदास



भक्त कवि सूरदास जन्मांध होने की वजह से अपने माता−पिता का स्नेह प्राप्त नहीं कर सके थे। उन्होंने बहुत थोड़ी ही आयु में अपना घर छोड़ दिया था और एक तालाब के किनारे रहने लगे थे। मात्र छह वर्ष की आयु में वे सगुन बताने में माहिर हो गये थे जिससे कई श्रद्धालु उनके सेवक बन गए। सूरदास जी के कंठ में रस था और उनकी रूचि संगीत में होने की वजह से वह श्रोताओं को पल भर में मंत्रमुग्ध कर देने की क्षमता रखते थे। गोस्वामी हरिराय ने लिखा है कि सूरदास अंधे तो थे लेकिन जन्मांध थे, यह प्रामाणिक नहीं है। इस बारे में कहा जाता है कि ब्रज प्रदेश के यमुना तट पर गोवर्धन गिरि पर जब से उनका निवास हुआ तब से नित्य स्नान करना और उसके प्रति आस्था भरी आत्मीयता रखना ही उनके भक्त जीवन का अंग था। वहीं मंदिर में भजन कीर्तन करना उनकी दैनिक दिनचर्या बन गई थी। कवि और गायक होने के नाते भगवान का गुणगान करना उनका कर्म बन गया था। प्रारम्भ में सूरदास जी श्रीकृष्ण के बाल रूप के उपासक थे किन्तु महाप्रभु श्री विट्ठलदास से दीक्षित होने के पश्चात वे राधाकृष्ण की युगल मूर्ति एवं राधा के उपासक बन गए।

एक बार की बात है, एक दिन तानसेन ने सूरदास का एक पद जब सम्राट अकबर को दरबार में सुनाया तो उन्होंने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की। अकबर स्वयं सूरदास जी के दर्शन करने मथुरा में गोवर्धन पर श्रीनाथ जी के मंदिर में पहुंचे। उन्होंने सूरदास जी से कुछ गाने की प्रार्थना की तो वे एक पद गाने लगे− मना रे कर माधव सों प्रीति। गायन के समय मंत्रमुग्ध हो अकबर एक क्षण के लिए खो−सा गया। फिर प्रसन्न मुद्रा में तानसेन के माध्यम से अपने यश ज्ञान की प्रार्थना करने पर सूरदास ने दूसरा पद सुनाया− नाहिंन रह्यो मन में ठौर। पद की अंतिम पंक्ति जब उन्होंने पढ़ी− सूर ऐसे दर्श को ए मरन लोचन प्यास। तो गीत की समाप्ति पर बादशाह ने नम्रतापूर्वक प्रश्न किया− सूरदास जी, तुम्हारे लोचन तो दिखाई नहीं देते, वे प्यासे कैसे मरते हैं? सूरदास निरुत्तर हो मौन रहे किन्तु अकबर को स्वयं इसका समाधान सूझ गया। बादशाह को मंदिर के द्वार तक छोड़ वे वापिस लौट आये।

सूरदास जी ने कलियुग में भक्ति को ही कल्याण का एकमात्र साधन बताया और कहा कि भजन के बिना मनुष्य का जीवित रहना प्रेत के समान है। भगवद्पूजन के बिना यमदूत द्वार पर खड़े ही रहते हैं। जिस व्यक्ति का मलिन मन उदर भरने के लिए घर−घर डोलता है वह कुटुम्ब सहित डूबता है। भगवान की कृपा की शक्ति तो असीम है ही उसका क्षेत्र भी असीम है। हरि नाम ही भक्त की अतुल संपत्ति है जिसे कोई छीन नहीं सकता। यही मेरा ध्यान है, यही मेरा ज्ञान, यही सुमिरन। सूर प्रभु यही वर दो, मैं यही पाउं।

श्रीनाथ जी की अधिक दिन सेवा में रहने के पश्चात भगवदिच्दा से सूरदास जी एक दिन 1583 में रासलीला की भूमि पारसौली आये और श्रीनाथ जी की ध्वजा के सामने दण्डवत लेट श्री गोसाईं जी एवं श्री आचार्य जी का स्मरण करते रहे। तब उनकी उम्र 100 वर्ष से ज्यादा थी। सूरदास जी ने अपना अंतिम पद गाया− खंजन नैन रूप रस माते। और इसके बाद अपना शरीर त्याग दिया।
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Old 05-01-2013, 07:41 PM   #34
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रानी लक्ष्मी बाई

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1835 में हुआ था। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका था। सब उनको प्यार से मनु कह कर पुकारा करते थे। उनके पिता का नाम मोरपंत व माता का नाम भागीरथी बाई था जो धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। उनके पिता ब्राह्*मण थे। सिर्फ़ 4 साल की उम्र में ही उनकी माता की मृत्यु हो गई थी इसलिये मनु के पालन पोषण की जिम्मेदारी उनके पिता पर आ गई थी। मनु ने बचपन से ही पढ़ाई के साथ-साथ शिकार करना, तलवार-बाजी, घुड़सवारी आदि विद्याएँ सीखी। उनके विषय में एक रचनाकार ने लिखा है :

चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी।
बुन्देले हर बोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी ।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी ।

1842 में मनु की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। शादी के बाद मनु को लक्ष्मी बाई नाम दिया ग़या। 1851 में इनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई लेकिन मात्र 4 महीने बाद ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। उधर उनके पति का स्वास्थ्य बिगड़ गया तो सबने उत्तराधिकारी के रू प में एक पुत्र गोद लेने की सलाह दी। इसके बाद दामोदर राव को गोद लिया गया। 21 नवम्बर 1853 को महाराजा गंगाधर राव की भी मृत्यु हो गई। इस समय लक्ष्मी बाई 18 साल की थी और अब वो अकेली रह गई लेकिन रानी ने हिम्मत नहीं हारी व अपने फ़र्ज को समझा।

जब दामोदर को गोद लिया गया उस समय वहा ब्रितानियों का राज था। ब्रिटिश सरकार ने बालक दामोदर को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया व झांसी को ब्रितानी राज्य में मिलाने का षड़यंत्र रचा। जब रानी को पता लगा तो उन्होंने एक वकील की मदद से लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। लेकिन ब्रितानियों ने रानी की याचिका खारिज कर दी व डलहौजी ने बालक दामोदर को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया क्योंकि वे झांसी को अपने अधिकार में लेना चाहते थे।

मार्च 1854 में ब्रिटिश सरकार ने रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया साथ ही उनकी सालाना राशि में से 60,000 रू पये हर्जाने के रू प में हड़प लिये। लेकिन रानी ने निश्चय किया की वह झांसी को नहीं छोडेगी। रानी देशभक्त व आत्मगौरव शील महिला थी। उन्होंने प्रण लिया की वह झांसी को आजाद करा कर के ही दम लेंगी। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनके हर प्रयास को विफ़ल करने का प्रयास किया।

रानी ने एक सेना सगं़ठित की। इसमें सामान्य जनता को भी शामिल किया गया। इस सेना में महिलाओं को भी भर्ती किया गया। उनको भी घुड़सवारी, तलवार- बाजी, शिकार, आदि का प्रशिक्षण दिया गया।

झांसी के पड़ौसी राज्य ओरछा व दत्तिया ने 1857 में झांसी पर हमला किया। लेकिन रानी ने उनके इरादों को नाकामयाब कर दिया। 1858 में ब्रिटिश सरकार ने
झांसी पर हमला कर उसको घेर लिया व उस पर कब्जा कर लिया। लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा। उन्होंने पुरुषों की पोशाक धारण की, अपने पुत्र को पीठ पर बांधा। दोनों हाथों में तलवारें ली व घोडे़ पर सवार हो गई व घोड़े की लग़ाम अपने मँुह में रखी व युद्ध करते हुए दुश्मनों के दांत खट्टे किये। झंासी से निकलने के लिये उन्हें बहुत संघर्षर् करना पड़ा, अन्त में रानी अपने दत्तक पुत्र व कुछ सहयोगियों के साथ वहां से भाग निकली और तांत्या टोपे से मिलने कालपी जा पंहुची। वहां रानी के साथस्वतंत्रता आंदोलन के अन्य संगठन जुड़ गये। तांत्या टोपे भी इन संगठनों के सदस्य थे। अब रानी ने ग्वालियर की और रुख किया तो रानी को फ़िर से शत्रुओं का सामना करना पड़ा। रानी में साहस व देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी इसलिये उन्होंने उनका सामना किया व युद्ध किया। युद्ध के दूसरे ही दिन (18जून 1858) भारत की आजादी के लिये चलने वाले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 22 साल की महानायिका लक्ष्मीबाई लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गई।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी ,स्वयं वीरता की अवतार।
देख मराठे पुलकित होते, उनकी तलवारों के वार।
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Old 05-01-2013, 07:44 PM   #35
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बेगम ह्जरत महल

बेगम हजरत महल 1857 की क्रांति की एक महान क्रांतिकारी महिला थी। एक ब्रितानी इतिहासकार ने उन्हें नर्तकी बताया है। यह अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम बन गई। उनमें अनेक गुण विद्यमान थे। 1857 की क्रांति का व्यापक प्रभाव कानपुर,
झांसी, अवध, लखनऊ, दिल्ली, बिहार आदि में था।

1857 में डलहौजी भारत का वायसराय था। उसी साल वाजिद अली शाह भी लखनऊ के नवाब बने। अवध के नवाब वाजिद अली शाह पर विलासी होने के आरोप में उन्हें हटाने की योजना बना ली गई थी। डलहौजी नवाब के विलासिता पूर्ण जीवन से परिचित था। उन्होंने तुरंत अवध की रियासत को हड़पने की योजना बनाई। पत्र लेकर कंपनी का दूत नवाब के पास पहुँचा और उस पर हस्ताक्षर के लिये कहा। शर्त के अनुसार कंपनी का पूरा अधिकार अवध पर स्थापित हो जाना था। वाजिद अली ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किया, फ़लस्वरू प उन्हें नजरबंद करके कलकत्ता भेज दिया गया। अब क्रांति का बीज बोया जा चुका था। लोग सरकार को उखाड़ फ़ेंकने की योजनाएं बना रहे थे। 1857 में मंगल पांडे के विद्रोह के बाद क्रांति मेरठ तक फ़ैली। मेरठ के सैनिक दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह से मिले। बहादुर शाह और ज़ीनत महल ने उनका साथ दिया और आजादी की घोषणा की।

इधर क्रांति की लहर अवध, लखनऊ, रुहेलखंड आदि में फ़ैली। वाजिद अली शाह के पुत्र को 11 साल की आयु में अवध के तख्त पर बैठाया गया। राज्य का कार्यभार उनकी माँ बेगम हजरत महल देखती थी क्योंकि वे नाबालिग थे। 7 जुलाई 1857 से अवध का शासन हजरत महल के हाथ में आया।

बेगम हजरत महल ने हिन्दू, मुसलमान सभी को समान भाव से देखा। अपने सिपाहियों का हौसला बढ़ाने के लिये युद्ध के मैदान में भी चली जाती थी। बेगम ने सेना को जौनपुर और आजमगढ़ पर धावा बोल देने का आदेश जारी किया लेकिन ये सैनिक आपस में ही टकरा ग़ये। ब्रितानियों ने सिखों व राजाओं को खरीद लिया व यातायात के सम्बंध टूट गए। नाना की भी पराजय हो गई। 21 मार्च को लखनऊ ब्रितानियों के अधीन हो गया। अन्त में बेगम की कोठी पर भी ब्रितानियों ने कब्जा कर लिया। 21 मार्च को ब्रितानियों ने लखनऊ पर पूरा अधिकार जमा लिया। बेगम हजरत महल पहले ही महल छोड़ चुकी थी पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बेगम हजरत महल ने कई स्थानों पर मौलवी अहमदशाह की बड़ी मदद की। उन्होंने नाना साहब के साथ सम्पर्क कायम रखा।

लखनऊ के पतन के बाद भी बेगम के पास कुछ वफ़ादार सैनिक और उनके पुत्र विरजिस कादिर थे। 1 नवम्बर 1858 को महारानी विक्टोरिया ने अपनी घोषणा द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन भारत में समाप्त कर उसे अपने हाथ में ले लिया। घोषणा में कहा गया की रानी सब को उचित सम्मान देगी। परन्तु बेगम ने विक्टोरिया रानी की घोषणा का विरोध किया व उन्होंने जनता को उसकी खामियों से परिचित करवाया।

बेगम लड़ते-लड़ते थक चुकी थी और वह चाहती थी कि किसी तरह भारत छोड़ दे। नेपाल के राजा जंग बहादुर ने उन्हें शरण दी जो ब्रितानियों के मित्र बने थे। बेगम अपने लड़के के साथ नेपाल चली गई और वहीं उनका प्राणांत हो गया। आज भी उनकी कब्र उनके त्याग व बलिदान की याद दिलाती है।
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रानी द्रोपदी बाई

रानी द्रोपदी बाई निःसंदेह भारत की एक प्रसिद्ध वीरांगना हो गई है जिनके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है लेकिन इतिहास में रानी द्रोपदी बाई का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने कभी भी सरकार की ख़ुशामद नहीं की। एक छोटी सी रियासत धार की रानी द्रौपदी बाई ने अपने कर्म से यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय ललनाओं की धमनियों में भी रणचंडी और दुर्गा का रक्त ही प्रवाहित होता है। रानी द्रौपदी बाई धार क्षेत्र की क्रांति की सूत्रधार थी। ब्रितानी उनसे भयभीत थे। धार मध्य भारत का एक छोटा-सा राज्य था। 22 मई 1857 को धार के राजा का देहावसान हो गया। आनन्दराव बाल साहब को उन्होंने मरने के एक दिन पहले गोद लिया। वे उनके छोटे भाई थे। राजा की बड़ी रानी द्रौपदी बाई ने ही राज्य भार सँभाला, कारण आनन्दराव बाला साहब, नाबालिग़ थे।

अन्य राजवंशों के विपरीत ब्रितानियों ने धार के अल्पव्यस्क राजा आनन्दराव को मान्यता प्रदान कर दी। उन्हें आशा थी कि ऐसा करने से धार राज्य उनका विरोध नहीं कर सकता, लेकिन रानी द्रौपदी के ह्रदय में तो क्रांति की ज्वाला धधक रही थी। रानी ने कार्य-भार सँभालते ही समस्त धार क्षेत्र में क्रांति की लपटें प्रचंड रू प से फैलने लगीं।

रानी द्रौपदी बाई ने रामचंद्र बापूजी को अपना दीवान नियुक्त किया। बापूजी ने सदा उनका समर्थन किया इन दोनों ने 1857 की क्रांति में ब्रितानियों का विरोध किया। क्रांतिकारियों की हर संभव सहायता रानी ने की। सेना में अरब, अफ़ग़ान आदि सभी वर्ग के लोगों को नियुक्त किया। अँग्रेज़ नहीं चाहते कि रानी देशी वेतन भोगी सैनिकों की नियुक्ति करें। रानी ने उनकी इच्छा की कोई चिंता न की। रानी के भाई भीम राव भोंसले भी देशभक्त थे। धार के सैनिकों ने अमझेरा राज्य के सैनिकों के साथ मिलकर सरदार पुर पर आक्रमण कर दिया रानी के भाई भीम राव ने क्रांतिकारियों का स्वागत किया। रानी ने लूट में लाए गए तीन तोपों को भी अपने राजमहल में रख लिया। 31 अगस्त को धार के कीलें पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया। क्रांतिकारियों को रानी की ओर से पूर्ण समर्थन दिया गया था। अँग्रेज़ कर्नल डयूरेड ने रानी के कार्यों का विरोध करते हुए लिखा कि आगे की समस्त कार्य वाई का उत्तरदायित्व उन पर होगा।

धार की राजमाता द्रौपदी बाई एवं राज दरबार द्वारा विद्रोह को प्रेरणा दिए जाने के कारण कर्नल डयूरेंड बहुत चिंतित हो गए। उन्हें भय था कि समस्त माल्वान् क्षेत्र में शीघ्र क्रांति फैल सकती है। नाना साहब भी उसके आस-पास ही जमे हुए थे। जुलाई 1857 से अक्टूबर 1857 तक धार के क़िले पर क्रांतिकातियों के बीच एक समझौता हो गया। क्रांतिकारियों के नेता गुलखान, बादशाह खान, सआदत खान स्वयं रानी द्रौपदी बाई के दरबार में आए। क्रांतिकारी अँग्रेज़ों को बहुत परेशान किया करते थे। वे उनके डाक लूट लेते। उनके घरों में आग लगा दी।

ब्रिटिश सैनिकों ने 22 अक्टूबर 1857 को धार का क़िला घेर लिया। यह क़िला मैदान से 30 फ़िट ऊँचाई पर लाल पत्थर से बना था। क़िले के चारों ओर 14 ग़ोल तथा दो चौकोर बुर्ज बने हुए थे। क्रांतिकारियों ने उनका डटकर मुक़ाबला किया। ब्रितनियों को आशा थी कि वे शीघ्र आत्म सर्मपण कर देंगे पर ऐसा न हुआ। 24 से 30 अक्टूबर तक संघर्ष चलता रहा। क़िले की दीवार में दरार पड़ने के कारण ब्रितानी सैनिक क़िले में घुस गए। क्रांतिकारी सैनिक गुप्त रास्ते से निकल भागे।

कर्नल ड़्यूरेन्ड़ तो पहले से ही रानी का विरोधी था। उसने क़िले को ध्वस्त कर दिया। धार राज्य को ज़ब्त कर लिया गया। दीवान रामचंद्र बापू को बना दिया गया। 1860 में धार का राज्य पुनः अल्पव्यस्क राजा को व्यस्कता प्राप्त करने पर सौंप दिया गया।

रानी द्रौपदी बाई धार क्षेत्र के क्रांतिकारियों को प्रेरणा देती रही। उन्होंने बहादुरी के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। यह अपने आप में कम नहीं थी निःसंदेह रानी द्रौपदी बाई एक प्रमुख क्रांति की अग्रदूत रही है।
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बालक सिद्धार्थ अपने चचेरे भाई के साथ जंगल की ओर निकले। भाई देवदत्त के हाथ में धनुष बाण था। ऊपर उडते एक पक्षी को देख देवदत्त ने बाण साधा और उस पक्षी को घायल कर दिया। पक्षी जैसे ही नीचे गिरा, दोनों भाई उसकी ओर दौडे। सिद्धार्थ पहले पहुंचे और उसे अपनी हथेली में रखकर बाण को बडे प्*यार से निकाला। किसी जडी-बूटी का रस उसके घाव पर लगाकर पानी आदि पिला उसे मृत्*यु से बचा लिया। देवदत्त पक्षी पर अपना अधिकार जमाना चाहता था। उसका कहना था कि मैंने इसे नीचे गिराया है अत: इस पर मेरा अधिकार है। सिद्धार्थ का कथन था कि यह केवल घायल हुआ है, यदि मर जाता तो तुम्*हारा होता। पर, क्*योंकि मैं इसकी सेवा सुश्रुषा कर रहा हूं अत: यह मेरा हुआ। दोनों में जब विवाद बढा तो मामला न्*यायालय तक जा पहुंचा। न्*यायालय ने दोनों के तर्कों को ध्*यान से सुनकर निर्णय दिया कि जीवन उसका होता है जो उसको बचाने का प्रयत्*न करता है। अत: पक्षी सिद्धार्थ का हुआ। बस, यहीं से हुआ बालक सिद्धार्थ का महात्*मा बुद्ध बनने का कार्य प्रारम्*भ।

राजसी ठाट-बाट, नौकर-चाकर, घोड़ा-बग्गी, गर्मी, जाडे व वर्षात के लिए अलग-अलग प्रकार के महल, बडे-बडे उद्यान व सरोवरों में सुन्दर मछलियां पाली गयीं, कमल खिलाये गये। सभी अनुचर व अनुचरी भी युवा व सुन्दर रखे गये। किसी भी बूढ़े, बीमार, सन्यासी व मृतक से उन्हें कोषों दूर रखा गया। यशोधरा नामक एक सुन्दर व आकर्षक युवती से उनका विवाह हुआ। चारों ओर आनन्द ही आनन्द। किन्तु, सारी सुविधाओं से युक्त सिद्धार्थ के मन में तो कुछ और ही पल रहा था।

एक दिन वे अपने रथ वाहक के साथ बाहर निकल पड़े। बाहर आने पर उन्होंने पहली बार एक बूढ़े व्यक्ति को देखा जिसके बाल सफेद थे, त्वचा मुरझायी और शुष्क थी, दांत टूटे हुए थे, कमर मुड़ी हुई थी और पसलियां साफ दिखाई दे रहीं थी, आंखे अन्दर धंसी हुई थीं और लाठी के सहारे चल रहा था। शरीर की जीर्ण-शीर्ण अवस्था देख सिद्धार्थ कुछ विचलित हुए। उनके मस्तिष्क में हलचल मची और महल की तरफ वापस चल दिये। दूसरे दिन एक बीमार आदमी तथा तीसरे दिन शव यात्रा तथा चौथे दिन एक सन्यासी को देख सिद्धार्थ के मन का दबा हुआ गूढ़ ज्ञान जाग उठा। वे सोचने लगे ”..तो बुढ़ापे का दुख, बीमारी का कष्ट, फिर मृत्यु का दुख, यही मनुष्य का प्राप्य हैं और यही उसकी नित्य गति है। जीवन दु:ख ही दु:ख है। क्या इस दुख से बचने का कोई उपाय नहीं है? क्या मुझे और उन सबको, जिन्हें मैं प्यार करता हूं, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का कष्ट भोगना ही पड़ेगा?”

इस सबका उत्तार सोचते-सोचते उन्हें लगा कि ‘एक सन्यासी का जीवन ही शांत व निर्द्वंन्द है। लगता है इस संसार के दु:ख व सुख उसे छू नहीं सकते !’ उसी क्षण उन्होंने नि”चय किया कि मैं भी सन्यास ग्रहण करूंगा तथा संसार त्याग कर दुख से मुक्ति पाने का मार्ग ढूढ़ूंगा। यह तय करने के तुरन्त बाद ही महल से उनके पिता राजाशूद्धोधन ने संदेश भिजवाया कि उन्हें (सिद्धार्थ) को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। पुत्र प्राप्ति का मोह भी उन्हें उनके मार्ग से डिगा न सका।

वे सब कुछ छोड़कर कपिलवस्तु से विदा हो लिए। उन्होंने सत्य, अहिंसा, त्याग, बलिदान, करूणा और देश सेवा का जो पाठ पढ़ाया वह जग जाहिर है। पूरे विश्*व की रग-रग में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं समायी हुई हैं। ऐसे महान संत महात्मा बुद्ध को उनकी जयन्ती पर शत-शत नमन्।
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Old 06-01-2013, 09:49 AM   #38
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बालक सिद्धार्थ अपने चचेरे भाई के साथ जंगल की ओर निकले। भाई देवदत्त के हाथ में धनुष बाण था। ऊपर उडते एक पक्षी को देख देवदत्त ने बाण साधा और उस पक्षी को घायल कर दिया। पक्षी जैसे ही नीचे गिरा, दोनों भाई उसकी ओर दौडे। सिद्धार्थ पहले पहुंचे और उसे अपनी हथेली में रखकर बाण को बडे प्*यार से निकाला। किसी जडी-बूटी का रस उसके घाव पर लगाकर पानी आदि पिला उसे मृत्*यु से बचा लिया। देवदत्त पक्षी पर अपना अधिकार जमाना चाहता था। उसका कहना था कि मैंने इसे नीचे गिराया है अत: इस पर मेरा अधिकार है। सिद्धार्थ का कथन था कि यह केवल घायल हुआ है, यदि मर जाता तो तुम्*हारा होता। पर, क्*योंकि मैं इसकी सेवा सुश्रुषा कर रहा हूं अत: यह मेरा हुआ। दोनों में जब विवाद बढा तो मामला न्*यायालय तक जा पहुंचा। न्*यायालय ने दोनों के तर्कों को ध्*यान से सुनकर निर्णय दिया कि जीवन उसका होता है जो उसको बचाने का प्रयत्*न करता है। अत: पक्षी सिद्धार्थ का हुआ। बस, यहीं से हुआ बालक सिद्धार्थ का महात्*मा बुद्ध बनने का कार्य प्रारम्*भ।

राजसी ठाट-बाट, नौकर-चाकर, घोड़ा-बग्गी, गर्मी, जाडे व वर्षात के लिए अलग-अलग प्रकार के महल, बडे-बडे उद्यान व सरोवरों में सुन्दर मछलियां पाली गयीं, कमल खिलाये गये। सभी अनुचर व अनुचरी भी युवा व सुन्दर रखे गये। किसी भी बूढ़े, बीमार, सन्यासी व मृतक से उन्हें कोषों दूर रखा गया। यशोधरा नामक एक सुन्दर व आकर्षक युवती से उनका विवाह हुआ। चारों ओर आनन्द ही आनन्द। किन्तु, सारी सुविधाओं से युक्त सिद्धार्थ के मन में तो कुछ और ही पल रहा था।

एक दिन वे अपने रथ वाहक के साथ बाहर निकल पड़े। बाहर आने पर उन्होंने पहली बार एक बूढ़े व्यक्ति को देखा जिसके बाल सफेद थे, त्वचा मुरझायी और शुष्क थी, दांत टूटे हुए थे, कमर मुड़ी हुई थी और पसलियां साफ दिखाई दे रहीं थी, आंखे अन्दर धंसी हुई थीं और लाठी के सहारे चल रहा था। शरीर की जीर्ण-शीर्ण अवस्था देख सिद्धार्थ कुछ विचलित हुए। उनके मस्तिष्क में हलचल मची और महल की तरफ वापस चल दिये। दूसरे दिन एक बीमार आदमी तथा तीसरे दिन शव यात्रा तथा चौथे दिन एक सन्यासी को देख सिद्धार्थ के मन का दबा हुआ गूढ़ ज्ञान जाग उठा। वे सोचने लगे ”..तो बुढ़ापे का दुख, बीमारी का कष्ट, फिर मृत्यु का दुख, यही मनुष्य का प्राप्य हैं और यही उसकी नित्य गति है। जीवन दु:ख ही दु:ख है। क्या इस दुख से बचने का कोई उपाय नहीं है? क्या मुझे और उन सबको, जिन्हें मैं प्यार करता हूं, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का कष्ट भोगना ही पड़ेगा?”

इस सबका उत्तार सोचते-सोचते उन्हें लगा कि ‘एक सन्यासी का जीवन ही शांत व निर्द्वंन्द है। लगता है इस संसार के दु:ख व सुख उसे छू नहीं सकते !’ उसी क्षण उन्होंने नि”चय किया कि मैं भी सन्यास ग्रहण करूंगा तथा संसार त्याग कर दुख से मुक्ति पाने का मार्ग ढूढ़ूंगा। यह तय करने के तुरन्त बाद ही महल से उनके पिता राजाशूद्धोधन ने संदेश भिजवाया कि उन्हें (सिद्धार्थ) को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। पुत्र प्राप्ति का मोह भी उन्हें उनके मार्ग से डिगा न सका।

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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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Old 06-01-2013, 09:51 AM   #39
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श्रीनिवास रामानुजन्



श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर (तमिल ஸ்ரீனிவாஸ ராமானுஜன் ஐயங்கார்) (22 दिसम्बर, 1887 – 26 अप्रैल, 1920) एक महान भारतीय गणितज्ञ थे। इन्हें आधुनिक काल के महानतम गणित विचारकों में गिना जाता है। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।
ये बचपन से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवनभर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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Old 06-01-2013, 09:54 AM   #40
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