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Old 15-11-2012, 05:45 PM   #41
amol
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

राजा—कैकेयी, मैं कभी झूठ नहीं बोला, मैं तुमसे सच कहता हूं कि मैंने राम के तिलक का निश्चय स्वयं किया। कौशल्या ने इस विषय में मुझसे एक शब्द भी नहीं कहा। तुम्हारा उन पर सन्देह करना अन्याय है। राम ने भी भरत के विरुद्ध एक शब्द नहीं कहा। मेरे लिए राम और भरत दोनों बराबर हैं। किन्तु अधिकार तो बड़े लड़के का ही है। यदि मैं भरत का तिलक करना भी चाहूं, तो तुम समझती हो, भरत उसे स्वीकार करेंगे? कदापि नहीं। भरत के लिए यह असम्भव है कि वह राम का अधिकार छीनकर परसन्न हों। राम और भरत एक पराण दो शरीर हैं। तुमने इतने दिनों के बाद वरदान भी मांगे तो ऐसे, जो इस घर को नष्ट कर देंगे—शायद इस राज्य का अंत ही कर दें। खेद! कैकेयी ने उंगली नचाकर कहा—अच्छा! तो क्या आपने समझा था कि मैं आपसे खेलने के लिए गुड़िया मांगूंगी? क्या किसी मजदूर की लड़की हूं? अब इन चिकनीचुपड़ी बातों में आप मुझे न फंसा सकेंगे। आपको और इस घर के आदमियों को खूब देख चुकी। आंखें खुल गयीं। यदि आपको वचन के सच्चे बनने का दावा है तो मेरे दोनों वरदान पूरे कीजिये। अन्यथा फिर रघुवंशी होने का घमण्ड न कीजियेगा। यह कलंक सदैव के लिए अपने माथे पर लगा लीजिए कि रघुकुल के राजा दशरथ ने वादे किये थे, पर जब उन्हें पूरा करने का समय आया तो साफ निकल गये।
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Old 15-11-2012, 05:46 PM   #42
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

राजा ने तिलमिलाकर कहा—कैकेयी, क्यों जले पर नमक छिड़कती हो! मैं अपने वचन से कभी न फिरुंगा, चाहे इसमें मेरा जीवन, मेरे वंश और मेरे राज्य का अन्त ही क्यों न हो जाय। शायद बरह्मा ने राम के भाग्य में वनवास ही लिखा हो। शायद इसी बहाने से इस वंश का नाश लिखा हो। किन्तु इसका अपयश सदा के लिए तुम्हारे नाम के साथ लगा रहेगा। मैं तो शायद यह चोट खाकर जीवित न रहूंगा। मगर मेरी यह बात गिरह बांध लो कि राम को वनवास देकर तुम भरत के राज्य का सुख न देख सकोगी।
कैकेयी ने झल्लाकर कहा—यह आप भरत को शाप क्यों देते हैं? भरत राजा होंगे। आपको उन्हें राज्य देना पड़ेगा। वह राजा हो जायं यही मेरी अभिलाषा है। मैं सुख देखने के लिए जीवित रहूंगी या नहीं, इसका हाल ईश्वर जाने। राजा—यह तो मैं बड़ी परसन्नता से करने को तैयार हूं मेरे लिए राम और भरत में कोई अन्तर नहीं। मैं इसी समय भरत को बुलाने के लिए आदमी भेज सकता हूं। ज्योंही वह आ जायंगे, उनका तिलक हो जायगा। किन्तु राम को वनवास देते हुए मेरे हृदय के टुकड़े हुए जाते हैं। हाय! मेरा प्यारा राजकुमार चौदह वर्ष तक जंगलों में कैसे रहेगा? जो सदा फूलों के सेज पर सोया, वह पत्थर की चट्टानों पर घासपात का बिछौना बिछाकर कैसे सोयेगा? कैकेयी ईश्वर के लिए मुझ पर दया करो, इस वंश पर दया करो। अपना दूसरा वरदान पूरा करने के लिए मुझे विवश न करो।
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Old 15-11-2012, 05:47 PM   #43
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

कैकेयी ने राजा की ओर देखकर आंखें नचायीं और बोलीं—साफसाफ क्यों नहीं कहते कि मैं अपने वचन पूरे न करुंगा। क्या मैं इतना भी नहीं समझती कि राम के रहते बेचारा भरत कभी आराम से न बैठने पायेगा। राम अपनी मीठीमीठी बातों से परजा का हृदय वश में करके राज्य में क्रान्ति करा देंगे। भरत का जीवित रहना कठिन हो जायगा। मेरे दोनों वरदान आपको पूरे करने पड़ेंगे। अब आपके धोखे में न आऊंगी। राजा समझ गये कि कैकेयी को समझाना अब बेकार है। मैं जितना ही समझाऊंगा, उतना ही यह झल्लायेगी। सिर थामकर सोचने लगे कि क्या जवाब दूं। मालूम होता है, आंखों में अंधेरा छा गया है। कोई हृदय को चीरे डालता है। हाय! जीवन की सारी अभिलाषाएं धूल में मिली जा रही हैं। ईश्वर! यदि तुम्हें यही करना था तो बेटे दिये ही क्यों। बला से नि:संतान रहता। युवा बेटे का दुःख तो न देखना पड़ता। यह तीनतीन विवाह करने का फल है! बुढ़ापे में विवाह करने का यह फल! उससे अधिक मूर्ख दुनिया में कोई नहीं जो बुढ़ापे में विवाह करता है। वह जानबूझकर विष का प्याला पीता है। हाय! सुबह होते ही राम मुझसे अलग हो जायंगे। मेरा प्यारा हृदय का टुकड़ा जंगल की राह लेगा। भगवान्! इसके पहले कि इसके वनवास की आज्ञा मेरे मुंह से निकले, तुम मुझे इस दुनिया से उठा लेना। इसके पहले मैं उसे साधुओं के भेष में वन की ओर जाते देखूं, तुम मेरी आंखों को निस्तेज कर देना। हाय! ईश्वर करता राम इतना आज्ञाकारी न होता। क्या ही अच्छा होता कि वह मेरी आज्ञा मानना अस्वीकार कर देता। कैकेयी राजा को चिंता में डूबे हुए देखकर बोली—आप सोच क्या रहे हैं? बोलिये, मेरी बातें स्वीकार करते हैं या नहीं?
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Old 15-11-2012, 05:48 PM   #44
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

राजा ने आंसुओं से भरी हुई आंखों से कैकेयी को देखकर कहा—रानी! यह पूछने की बात नहीं। अपने वचन से न फिरुंगा। तुम्हारी दोनों बातें स्वीकार हैं। तुम इतनी सुन्दर होकर हृदय से इतनी कलुषपूर्ण हो, इसका मुझे अनुमान, विचार तक न था। मैं न जानता था कि तुम मेरे दोनों वरदानों का यह परयोग करोगी। खैर, तुम्हारा राज्य तुमको सुखी करे। प्यारे राम! मुझे क्षमा करना। तुम्हारा पिता जिसने तुम्हें गोद में खिलाया, आज एक स्त्री के छल में पड़कर तुम्हारी गर्दन पर तलवार चला रहा है। किन्तु बेटा! देखना, रघुकुल के नाम पर कलंक न लगने पाये....
यह कहतेकहते राजा मूर्छित हो गये। कैकेयी दिल में परसन्न हो रही थी, कल से अयोध्या में मेरे नाम का डंका बजेगा। वह सबेरे किसी दूत को कश्मीर भेजकर भरत को बुलाने का निश्चय कर रही थी। अहा! वह घड़ी कितनी शुभ होगी, जब भरत अयोध्या के राजा होंगे! राजा थोड़ीथोड़ी देर के बाद करवट बदलते और कराहते थे। हाय राम! हाय राम! इसके अतिरिक्त उनके मुंह से कोई शब्द न निकलता था। इस परकार सारी रात बीत गयी। सुबह को शहर के धनी मानी, विद्वान्, ऋषिमुनि और दरबार के सभासद तिलक का अनुष्ठान करने के लिए उपस्थित हुए। हवनकुण्ड में आग जलाई गयी। आचार्य लोग वेदमन्त्रों का पाठ करने लगे। भिक्षुओं का एक दल दान के रुपये लेने के लिये फाटक पर एकत्रित हो गया। लोगों की आंखें राजमहल के द्वार की ओर लगी हुई हैं। राजा साहब आज क्यों इतना विलम्ब कर रहे हैं। हर आदमी अपने पास बैठे आदमी से यही परश्न कर रहा है। शायद राजसी पोशाक पहन रहे हों। किन्तु नहीं, वह तो बहुत तड़के उठा करते हैं। अन्दर से कोई समाचार भी नहीं आता। रामचन्द्र स्नानपूजा से निवृत्ति होकर बैठे हैं। कौशल्या की परसन्नता का अनुमान कौन कर सकता है? परासाद में मंगलगीत गाये जा रहे हैं। द्वार पर नौबत बज रही है, पर दशरथ का पता नहीं।
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Old 15-11-2012, 05:48 PM   #45
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अन्त में गुरु वशिष्ठ ने साइत टलते देखकर मन्त्री सुमन्त्र को महल में भेजा कि जाकर महाराज को बुला लाओ।
सुमन्त्र अन्दर गये तो क्या देखते हैं कि महाराज भूमि पर पड़े कराह रहे हैं। और कैकेयी द्वार पर खड़ी है। सुमन्त्र ने रानी कैकेयी को परणाम किया और बोले—महाराज की नींद अभी नहीं टूटी? बाहर गुरु वशिष्ठ जी बैठे हुए हैं। तिलक का मुहूर्त्त टला जाता है आप तनिक उन्हें जगा दें।
कैकेयी बोली—महाराज को परसन्नता के मारे आज रात भर नींद नहीं आयी। इस समय तनिक आंख लग गयी है। अभी जगा दूंगी तो उनका सिर भारी हो जायेगा। तुम तनिक जाकर रामचन्द्र को अन्दर भेज दो। महाराज उनसे कुछ कहना चाहते हैं।
सुमन्त्र ने यह दृश्य देखकर ताड़ लिया कि अवश्य कोई षड्यंत्र उठ खड़ा हुआ है। जाकर रामचन्द्र जी से यह सन्देश कहा। रामचन्द्र जी तुरन्त अन्दर आकर राजा दशरथ के सामने खड़े हो गये और परणाम करके बोले—पिताजी मैं उपस्थित हूं, मुझे क्यों स्मरण किया है? दशरथ ने एक बार विवश निगाहों से रामचन्द्र को देखा और ठंडी सांस भर कर सिर झुका लिया। उनकी आंखों से आंसू जारी हो गये। रामचन्द्र को सन्देह हुआ कि सम्भवतः आज महाराज मुझसे अपरसन्न हैं। बोले—माता जी! पिता जी ने मेरी बातों का कुछ भी उत्तर न दिया, शायद वह मुझसे नाराज हैं।
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Old 16-11-2012, 05:51 AM   #46
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कैकेयी बोली—नहीं बेटा, वह तुमसे नाराज नहीं हैं। तुमसे वह इतना परेम करते हैं, तुमसे क्यों नाराज होने लगे। वह तुमसे कुछ कहना चाहते हैं। किन्तु इस भय से कि शायद तुम्हें बुरा मालूम हो, या तुम उनकी आज्ञा न मानो, कहते हुए झिझकते हैं। इसलिये अब मुझी को कहना पड़ेगा। बात यह है, महाराज ने मुझे दो वचन दिये थे। आज वह उन वचनों को पूरा करना चाहते हैं। यदि तुम उन्हें पूरा करने को तैयार हो, तो मैं कहूं।
राम ने निडर भाव से कहा—माता जी, मेरे लिये पिता की आज्ञा मानना कर्तव्य है। संसार में ऐसा कोई बल नहीं जो मुझे यह कर्तव्यपालन करने से रोक सके। आप तनिक भी विलम्ब न करें। मैं सर आंखों पर उनकी आज्ञा का पालन करुंगा। मेरे लिये इससे अधिक और क्या सौभाग्य की बात होगी। कैकेयी—हां, सुपुत्र बेटों का धर्म तो यही है। महाराज ने अब तुम्हारी जगह भरत का तिलक करने का निर्णय किया है और तुम्हें चौदह बरस के लिये वनवास दिया है। महाराज ये बातें अपने मुंह से न कह सकेंगे, मगर वह जो कुछ चाहते हैं, वह मैंने तुमसे कह दिया। अब मानना तुम्हारे अधिकार में है। यह तुमने न माना, तो दुनिया में राजा पर यह अभियोग लगेगा कि उन्होंने अपने वचन को पूरा न किया और तुम्हारे सिर यह कि पिता की आज्ञा न मानी।
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Old 16-11-2012, 05:51 AM   #47
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

रामचन्द्र यह आज्ञा सुनकर थोड़ी देर के लिये सहम उठे। क्या समझते थे क्या हुआ। सारी परिस्थिति उनकी समझ में आ गयी। यदि वह चाहते तो इस आज्ञा की चिन्ता न करते। सारी अयोध्या उनके नाम पर मरती थी। किन्तु सुशील बेटे पिता की आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा समझते हैं।
राम ने उसी समय निश्चय कर लिया कि मुझ पर चाहे जो कुछ बीते, पिता की आज्ञा मानना निश्चित है। बोले—माता जी, मेरी ओर से आप तनिक भी चिन्ता न करें। मैं आज ही अयोध्या से चला जाऊंगा। आप किसी दूत को भेजकर भरत को बुला भेजिये। मुझे उनके राजतिलक होने का लेशमात्र भी खेद नहीं है। मैं अभी माता कौशल्या से पूछ कर और सीता जी को आश्वासन देकर जंगल की राह लूंगा। यह कहकर रामचन्द्र जी ने राजा के चरणों पर सिर झुकाया, माता कैकेयी को परणाम किया और कमरे से बाहर निकले। राजा दशरथ के मुंह से दुःख या खेद का एक शब्द भी न निकला। वाणी उनके अधिकार में न थी। ऐसा मालूम हो रहा था, कि नसों की राह जान निकली जा रही है। जी में आता था कि राम के पैर पकड़कर रोक लूं। अपने ऊपर क्रोध आ रहा था। कैकेयी के ऊपर क्रोध आ रहा था। ईश्वर से परार्थना कर रहे थे कि मुझे मृत्यु आ जाय, इसी समय इस जीवन का अन्त हो जाय। छाती फटी जाती थी। आह! मेरा प्यारा बेटा इस तरह चला जा रहा है और मैं जबान से ाढ़स का एक वाक्य भी नहीं निकाल सकता। कौन पिता इतना निर्दयी होगा? यह सोचतेसोचते राजा को मूर्छा आ गयी।
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Old 16-11-2012, 05:52 AM   #48
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रामचन्द्र यहां से कौशल्या के पास पहुंचे। वे उस समय निर्धनों को अन्न और वस्त्र देने का परबन्ध कर रही थीं। राम को देखते ही बोलीं—क्या हुआ बेटा राजा बाहर गये कि नहीं? अब तो देर हो रही है।
रामचन्द्र ने आवाज को संभालकर कहा—माता जी, मामला कुछ और हो गया। महाराज ने अब भरत को राज देने का निर्णय किया है और मुझे चौदह बरस के बनवास की आज्ञा दी है। मैं आपसे आज्ञा लेने आया हूं, आज ही अयोध्या से चला जाऊंगा।
रानी कौशल्या को मूर्च्छासी आ गयी। रामचन्द्र की ओर निस्तेज आंखों से देखती रह गयीं, जैसे कोई मिट्टी की मूर्ति हों। लक्ष्मण भी वहीं खड़े थे। यह बात सुनते ही उनके त्योरियों पर बल पड़ गये। आंखों से चिनगारियां निकलने लगीं। बोले—यह नहीं हो सकता। कदापि नहीं हो सकता। भरत कभी लक्ष्मण के जीते जी अयोध्या के राजा नहीं हो सकते। आप क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय का धर्म है, अपने अधिकार के लिये युद्ध करना। सारी अयोध्या, सारा कोशल आपकी ओर है। सेना आपका संकेत पाते ही आपकी ओर हो जायेगी। भरत अकेले कर ही क्या सकते हैं। यह सब रानी कैकेयी का षड्यंत्र है।
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Old 16-11-2012, 05:52 AM   #49
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रामचन्द्र ने लक्ष्मण की ओर परेमपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—भैया, कैसी बातें करते हो! रघुकुल में जन्म लेकर पिता की आज्ञा न मानूं, तो संसार को क्या मुंह दिखाऊंगा। भाग्य में जो लिखा है; वह पूरा होकर रहेगा। उसे कौन टाल सकता है?
लक्ष्मण—भाई साहब! भाग्य की आड़ वे लोग लेते हैं जिनमें पराक्रम और साहस नहीं होता। आप क्यों भाग्य की आड़ लें? आप की भौहों के एक संकेत पर सारी अयोध्या में तूफान आ जायगा। भाग्य साहस का दास है, उसका राजा नहीं! यदि आप मुझे आज्ञा दें तो मैं इस धनुष और बाण के बल से भाग्य को आपके चरणों में गिरा दूं। फिर आपसे महाराज ने अपनी जिह्वा से तो कुछ कहा नहीं। क्या यह सम्भव नहीं कि रानी कैकेयी ने अपनी ओर से यह षड्यंत्र किया हो? रानी कौशल्या ने आंसू पोंछते हुए कहा—बेटा! मुझे इस बात की तो सच्ची खुशी है कि तुम अपने योग्यतम पिता की आज्ञा मानने के लिये अपने जीवन की बलि देने को तैयार हो, किन्तु मुझे तो ऐसा परतीत होता है कि लक्ष्मण का विचार ठीक है। कैकेयी ने अपनी ओर से यह छल रचा है।
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Old 16-11-2012, 05:55 AM   #50
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रामचन्द्र ने आदर के साथ कहा—माता जी, पिताजी वहीं मौजूद थे। यदि रानी कैकेयी ने उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई बात कही होती, तो क्या वह कुछ आपत्ति न करते? नहीं माता जी, धर्म से मुंह मोड़ने के लिये हीले ूंढ़ना मैं धर्म के विरुद्ध समझता हूं। कैकेयी ने जो कुछ कहा है, पिताजी की स्वीकृति से कहा है। मैं उनकी आज्ञा को किसी परकार नहीं टाल सकता। आप मुझे अब जाने की अनुमति दें। यदि जीवित रहा तो फिर आपके चरणों की धूलि लूंगा।
कौशल्या ने रामचन्द्र का हाथ पकड़ लिया और बोली—बेटा! आखिर मेरा भी तो तुम्हारे ऊपर कुछ अधिकार है! यदि राजा ने तुम्हें वन जाने की आज्ञा दी है, तो मैं तुम्हें इस आज्ञा को मानने से रोकती हूं। यदि तुम मेरा कहना न मानोगे, तो मैं अन्नजल त्याग दूंगी और तुम्हारे ऊपर माता की हत्या का पाप लगेगा। रामचन्द्र ने एक ठंडी सांस खींचकर कहा—माताजी, मुझे कर्तव्य के सीधे रास्ते से न हटाइये, अन्यथा जहां मुझ पर धर्म को तोड़ने का पाप लगेगा, वहां आप भी इस पाप से न बच सकेंगी। मैं वन और पर्वत चाहे जहां रहूं, मेरी आत्मा सदा आपके चरणों के पास उपस्थित रहेगी। आपका परेम बहुत रुलायेगा, आपकी परेममयी मूर्ति देखने के लिए आंखें बहुत रोयेंगी, पर वनवास में यह कष्ट न होते हो भाग्य मुझे वहां ले ही क्यों जाता। कोई लाख कहे; पर मैं इस विचार को दूर नहीं कर सकता कि भाग्य ही मुझे यह खेल खिला रहा है। अन्यथा क्या कैकेयीसी देवी मुझे वनवास देतीं!
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