28-03-2014, 07:37 PM | #211 |
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Re: इधर-उधर से
"अजल से वे डरें जीने को जो अच्छा समझतेहैं। मियाँ! हम चार दिन की जिन्दगी को क्या समझते हैं?" अशफाक की इस कता के कितना करीब जान पड़ता है- "मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है! हम इसे खेल ही समझा किये मरना क्या है? वतन हमारा रहे शाद काम और आबाद, हमारा क्या है अगर हम रहे, रहे न रहे।।" मुल्क की माली हालत को खस्ता होता देखकर लिखी गयी बिस्मिल की ये पंक्तियाँ- "तबाही जिसकी किस्मत में लिखी वर्के-हसदसे थी, उसी गुलशन की शाखे-खुश्क पर है आशियाँ मेरा।" अशफाक के इस शेर सेकितनी अधिक मिलती हैं- "वो गुलशन जो कभी आबाद था गुजरे जमाने में, मैं शाखे-खुश्क हूँ हाँ! हाँ! उसी उजड़े गुलिश्ताँ की।" >>>
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28-03-2014, 07:41 PM | #212 |
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Re: इधर-उधर से
इसी प्रकार वतन कीबरवादी पर बिस्मिल की पीड़ा-
"गुलो-नसरीनो-सम्बुल की जगह अब खाक उडतीहै, उजाड़ा हाय! किस कम्बख्त ने यह बोस्ताँ मेरा?" से मिलता जुलता अशफाक कायह शेर किसी भी तरह अपनी कैफियत में कमतर नहीं- "वो रंग अब कहाँ हैनसरीनो-नसतरन में, उजडा हुआ पड़ा है क्या खाक है वतन में?" बिस्मिल की एकबडी मशहूर गजल उम्मीदे-सुखन की ये पंक्तियाँ- "कभी तो कामयाबी पर मेराहिन्दोस्ताँ होगा। रिहा सैय्याद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।।" अशफाक कोबहुत पसन्द थीं। उन्होंने इसी बहर में सिर्फ एक ही शेर कहा था जो उनकीअप्रकाशित डायरी में इस प्रकार मिलता है:- "बहुत ही जल्द टूटेंगीगुलामी की ये जंजीरें, किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।" **
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28-03-2014, 09:22 PM | #213 | |
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Re: इधर-उधर से
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फ़ोरम में करीब १३००० सूत्रों में से ऐसें गुलदस्ते तो मात्र गिनती के ही हैं, "इधर उधर से" ना होकर यह तो विविध रंगो, रूपों और रसो का सुन्दरतम गुलदस्ता हैं, इस गुलदस्ते के लिए आपका हार्दिक आभार..........
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*** Dr.Shri Vijay Ji *** ऑनलाईन या ऑफलाइन हिंदी में लिखने के लिए क्लिक करे: .........: सूत्र पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे :......... Disclaimer:All these my post have been collected from the internet and none is my own property. By chance,any of this is copyright, please feel free to contact me for its removal from the thread. |
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28-03-2014, 10:42 PM | #214 | |
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Re: इधर-उधर से
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01-04-2014, 03:27 PM | #215 |
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Re: इधर-उधर से
दोन्यूँ तज्या पिराण
* एक वन में मृग और मृगी का जोड़ा रहता था. उन दोनों में आपस में बहुत प्रेम था. साथ साथ ही चारा करते थे. साथ ही पानी पीने को जाते. इस प्रकार दिन रात साथ एक दूसरे के साथ रहते. एक दिन की बात है कि वे आसपास के क्षेत्र में चरने गये तो एक शिकारी ने बहुत दूर तक उनका पीछा किया. वे शिकारी से तो बच गये पर अपने घर का रास्ता भूल गये. भटकते-भटकते उन्हें बड़े जोरों की प्यास लगी. वे पानी की तलाश में इधर-उधर घूमने लगे. पानी न मिलने के कारण दोनों प्यास से व्याकुल हो गये. आखिर खोजते खोजते उन्हें एक खड्डा दिखाई दिया. जिसमें थोड़ा सा पानी था – एक प्राणी की प्यास बुझाने लायक. मृगी ने मृग से कहा कि पानी तुम पियो. मृग ने मृगी से आग्रह किया कि पानी तुम पी लो. एक पानी पी ले और दूसरा बिना पानी के रह जाये यह किसी को भी स्वीकार नहीं था. वे एक दूसरे से आग्रह करते रहे किन्तु पानी किसी ने न पिया. अंत में प्यास के मारे दोनों के प्राण पखेरू उड़ गये. लेकिन दोनों मरे शांत चित्त से. ^ >>>
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01-04-2014, 03:32 PM | #216 |
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Re: इधर-उधर से
दोनों के शव जहां पड़े थे, वहां से हो कर दूसरे दिन प्रातःकाल सैर के लिये जाते हुये जब दो सखिया गुजरीं तो एक सखी को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि ये मृग मृगी कैसे मर गये? न तो इनके शरीर में किसी रोग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं और न ही इनके टन बाण से बिंधे हुये हैं. यह देख कर उसने अपनी सखी से पुछा,
“खड़यो न दीखे पारधी, लग्यो न दीखे बाण i मैं तन्ने पूछूं हे सखी, किस बिध तज्या पिराण ii” (न कोई शिकारी खड़ा दीखता है और न इनको कोई बाण ही लगा दीखता है. अतः हे सखी, मैं तुझसे पूछती हूँ कि इन्होने प्राण कैसे तज दिए) दूसरी सखी जो अधिक सयानी थी, अनुमान से सब कुछ समझ गयी. उसने कहा, “जल थोड़ो नेहो घणो, लग्या प्रीत का बाण i तू पी तू पी करत ही, दोन्यूँ तज्या पिराण ii” (श्री भागीरथ कनोड़िया की कथा से प्रेरित) **
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13-04-2014, 09:31 PM | #217 |
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Re: इधर-उधर से
सबसे बड़ा ग़रीब
महात्मा को एक बार रास्ते में पड़ा धन मिल गया। उन्होंने निश्चय किया कि वे इससबसे गरीब आदमी को दान कर देंगे। निर्धन आदमी की तलाश में वे खूब घूमे। उन्हें कोईसुपात्र नहीं मिला। एक दिन उन्होंने देखा राजमार्ग पर राजा के साथ अस्त्र-शस्त्रोंसे सजी विशाल सेना चली आ रही है। राजा महात्मा को पहचानता था। हाथी से उतरकरउसने महात्मा को प्रणाम किया। महात्मा ने अपनी झोली से धन निकाला और राजा को थमादिया। राजा ने विनीत स्वर में कहा महाराज! यह क्या? आपके आशीर्वाद से मेरे खजानेमें हीरे-जवाहरात का भंडार है। महात्मा ने उत्तर दिया राजन! मैं गरीब आदमी की तलाशमें था। तुम सबसे गरीब हो। यदि तुम्हारे खजाने में धन का अंबार है तो सेना लेकरकहां जा रहे हो? अगर तुम्हें किसी बात की कमी नहीं तो यह सब किसलिए? राज्य काविस्तार और धन के लिए। महात्मा की बातों ने असर किया। राजा ने तत्काल अपनी सेना कोलौटने का आदेश दिया। वह ऐसे जा रहा था मानो अनमोल खजाना जीतकर लौट रहा हो।
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14-04-2014, 10:52 AM | #218 |
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Re: इधर-उधर से
सुरक्षा गार्ड और सुरक्षा
(इंटरनेट से) कुछ समय पूर्व एक सर्वे किया गया, जिसके तहत इस बारे में रिसर्च की गई थी कि कुछ कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटीज में अक्सर चोरी-डकैती की घटनाएं क्यों होती हैं, जबकि अन्य सोसायटीज में ऐसा कुछ नजर नहीं आता? इससे मिले नतीजे चौंकाने वाले थे। जिन सोसायटीज में सुरक्षा गार्ड आने-जाने वाले लोगों को सलाम ठोकता रहता है, वहां पर लूटपाट या चोरी-डकैती की घटनाएं सामने नहीं आतीं, लेकिन जहां पर सुरक्षा गार्ड सोसायटी के कुछ ही लोगों (मसलन कमेटी के सदस्यों) को नमस्कार या सलाम करते हैं, वहां इस तरह की घटनाएं अमूमन देखी जाती हैं। आपको यह निष्कर्ष अजीब लग सकते हैं, लेकिन वास्तव में तथ्य यही है। जब कोई सुरक्षा गार्ड किसी को सलाम करता या उससे गुड मॉर्निंग, गुड आफ्टरनून या गुड नाइट कहता है, तो इसमें उसकी मुंह और हाथ की मांसपेशियां भी हरकत में आती हैं, जो परोक्ष तौर पर मस्तिष्क को सजग रहने के लिए चेता देती हैं। जापान में ट्रेन के किसी भी सिग्नल पर पहुंचने पर उसका ड्राइवर अपना हाथ उठाकर सिग्नल की ओर इशारा करता है और जोर से बोलता है कि सिग्नल लाल है या हरा। वह सिग्नल के रंग के बारे में खुद को जोर-से बोलकर सुनाता है और अपनी उंगली से इसकी ओर इशारा भी करता है। ऐसा करते हुए ड्राइवर यह सुनिश्चित करता है कि उसने सिग्नल की गलत पहचान नहीं की है। जापानी भाषा में इस विधि को 'शिसा कांको' कहते हैं। इसे अपनाने से मानवीय चूक के चलते होने वाली दुर्घटनाओं की दर तीन फीसदी से गिरकर एक फीसदी तक आ गई है। मैंने इसके बारे में 1985 में ‘द जापान टाइम्स’ के एक अंक में पढ़ा था और तबसे ही मैं अपने बैंक लॉकर को ऑपरेट करते समय इसका इस्तेमाल करता चला आ रहा हूं। बैंक लॉकर को ऑपरेट करने के बाद वहां से निकलने पर अक्सर मेरे दिमाग में यह शंका उभरने लगती कि 'क्या मैंने तमाम जेवरात वापस लॉकर में रख दिए हैं?', 'क्या मैंने लॉकर को ढंग से लॉक कर दिया है?' इत्यादि-इत्यादि। ऐसी शंकाओं से बचने के लिए मैं खुद से जोर से कहता हूं कि मैंने तमाम चीजें वापस लॉकर में रख दी हैं और इसे समुचित रूप से बंद भी कर दिया है। वैसे भी लॉकर रूम में उस वक्त लॉकर मालिक के अलावा कोई नहीं रहता। हम में से कई लोगों को किसी फैमिली फंक्शन के लिए घर से निकलने के बाद इस तरह की चिंताएं सताने लगती हैं कि क्या हमने नल की टोंटी खुली तो नहीं छोड़ दी, हम मास्टर बेडरूम की लाइट-पंखे वगैरह स्विच ऑफ करके आए हैं या नहीं, या फिर कहीं हम घर की चाभी तो नहीं भूल आए। ऐसा ख्याल मन में आते ही हम अपनी जेब या बटुआ टटोलने लगते हैं और चाबियां मिल जाने पर राहत की सांस लेते हैं। मेरे कई दोस्त भी इस 'शिसा कांको' तकनीक को अपनाने लगे हैं, जिससे उन्हें अब अपने घर से या लॉकर ऑपरेट कर बैंक से निकलने के बाद इस तरह की शंकाएं नहीं घेरतीं। तकनीक इस तरह की घटनाओं को रोकने का एक तरीका हो सकती है, लेकिन ऑपरेटिंग टेक्नोलॉजी में इंसानी दखल जरूरी हो जाता है, ताकि थकान या उदासीनता के चलते किसी तरह की चूक या लापरवाही आपके समक्ष तुरंत उजागर हो सके। ^^
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14-04-2014, 11:07 AM | #219 |
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Re: इधर-उधर से
लोगों की लुक्स पर न जायें
(इन्टरनेट से) लोगों को पूर्वग्रह के चश्मे से देखना ठीक नहीं है। किसी व्यक्ति के बाहरी लुक के आधार पर उसका आकलन करने के बजाय उसके भीतर झांकना ज्यादा जरूरी है। यह 1960 के दशक की बात है। उस वक्त मेरे माता-पिता महाराष्ट्र में वर्धा के निकट स्थित सेवाग्राम में महात्मा गांधी आश्रम के लिए काम करते थे। चूंकि सेवाग्राम में ज्यादा स्कूल नहीं थे, लिहाजा मैं नागपुर में रहकर पढ़ते हुए वीकेंड पर सड़क या रेलमार्ग के जरिए वहां आना-जाना करता था। सफर में मुझे नए-नए लोगों से मिलना अच्छा लगता था। मैं उस वक्त काफी छोटा था, लिहाजा मुझे ऐसी सीट पकड़ा दी जाती, जिस पर अमूमन नियमित यात्री बैठने से कतराते। मैं भी अपनी हर यात्रा में रोजमर्रा की गंदगी और रेत-मिट्टी के बीच से इंसानी करुणा के कुछ दाने चुन ही लेता। चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी लगती हैं। लोग अक्सर बाहरी आवरण के पीछे छिपी अच्छाई को प्रदर्शित करते हुए आपको चकित कर देते हैं। मैं सेवाग्राम से नागपुर लौट रहा था। मैं अमूमन अपने बाजू में बैठे शख्स को परिचय देते हुए बातचीत करने लगता था, लेकिन उस दिन मुझे ऐसा करना ठीक नहीं लगा। मेरे बाजू में बैठा शख्स बाईस-तेईस साल का एक सख्त किस्म का युवक था। उसके पास से सस्ते-से आफ्टर-शेव लोशन जैसी बू आ रही थी और उसने भारीभरकम जैकेट पहन रखी था, जो शायद फैशन था। संक्षेप में कहूं तो वह उन गंदे किरदारों की तरह लग रहा था, जिनसे आपकी मां दूर रहने के लिए चेताती रहती हैं। मैंने उस पर नजर डाली और अपना बैग ऊपर लगेज रैक में रखने के बजाय गोद में ही रख लिया, मानो वह उसे लेकर भाग जाएगा। मैं बगैर कुछ बोले खिड़की के बाजू वाली सीट में ही दुबक गया। मैं लगातार खिड़की से बाहर देखे जा रहा था, ताकि किसी भी सूरत में हमारी नजरें आपस में न टकराएं। >>>
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14-04-2014, 11:08 AM | #220 |
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Re: इधर-उधर से
हालांकि वह बातचीत के मूड में था। वह बार-बार मुझसे बातचीत करने की कोशिश करता। उसने मुझसे पूछा कि मैं कहां से आ रहा हूं, क्या मैं नागपुर में ही रहता हूं या नहीं और खुद अपने काम के बारे में भी बताया। मैंने बड़ी रुखाई से कम शब्दों में उसे जवाब दिया, जिससे मेरी झुंझलाहट साफ जाहिर हो रही थी। आखिर मेरे मूड को भांप वह चुप हो गया। उसी वक्त मुझे नींद आने लगी। चूंकि मुझे अपने बाजू वाले मुसाफिर पर तनिक भी भरोसा नहीं था, लिहाजा मैं खुद को मोड़ते हुए अपनी ही सीट के दायरे में सिमटकर बैठ गया। ठंडी हवा के झोंकों ने जल्द ही मुझे सुला दिया।
थोड़ी देर बाद जब मेरी नींद खुली, तो मैंने देखा कि मेरी बाजू वाली सीट खाली थी और मेरा बैग भी गायब था। मैं बहुत परेशान हो गया। तभी पीछे की सीट पर बैठे एक मुसाफिर ने बताया कि मेरे सोते वक्त कुछ बदमाश मेरे हाथ से बैग छीनकर भाग रहे थे। बाजू वाला मुसाफिर तुरंत बाहर दौड़ा और उन गुंडों से लड़ते हुए मेरा बैग वापस ले लिया। लेकिन तब तक ट्रेन चलने लगी थी, लिहाजा वह शख्स दौड़कर पीछे वाली बोगी में चढ़ गया है और अगले स्टेशन पर वह हमारे पास आ जाएगा। उसने मुझे बताया कि वह इस पूरे दृश्य को अपनी खिड़की से देख रहा था। अब मुझे अपने बर्ताव पर बहुत ग्लानि हो रही थी। जिस शख्स को मैं इतना गलत समझ रहा था, उसने मुझे अहसास दिलाया कि मैंने उसके साथ कितना ओछा बर्ताव किया। जल्द ही अगला स्टेशन आ गया। वह पीछे से दौड़ता हुआ आया और मुझे मेरा बैग दे दिया। अपना बैग लेते वक्त मेरे पास उससे माफी मांगने के लिए शब्द नहीं थे। मैंने उसका नाम नहीं पूछा और न ही उसने मुझसे मेरा। लेकिन मैं उसे कभी भूल नहीं पाया। ^^
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