02-08-2014, 11:52 PM | #41 |
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Re: कथा-लघुकथा
साभार: डॉ. एच. आर. कुमावत ^ एक गांव में एक गरीब आदमी रहता था। वह बहुत मेहनत करता, अपनी ओर से पूरा श्रम करता, लेकिन फिर भी वह धन न कमा पाता। इस प्रकार उसके दिन बड़ी मुश्किल में बीत रहे थे। कई बार तो ऐसा हो जाता कि उसे कई-कई दिन तक सिर्फ एक वक्त का खाना खाकर ही गुजारा करना पड़ता। इस मुसीबत से छुटकारा पाने का कोई उपाय उसे न सूझता।^ एक दिन उस गरीब आदमी को एक महात्माजी मिल गए। गरीब ने उन महात्माजी की बहुत सेवा की। महात्माजी उसकी सेवा से प्रसन्न हो गए और उसे धन की देवी की आराधना का एक मंत्र दिया। मंत्र से कैसे देवी की स्तुति व स्मरण किया जाए, उसकी पूरी विधि भी महात्माजी ने उसे अच्छी तरह समझा दी। गरीब उस मंत्र से देवी की नियमित प्रार्थना करने लगा। कुछ दिन मंत्र आराधना करने पर देवी उससे प्रसन्न हुईं और उसके सामने प्रकट हुईं। देवी ने उस गरीब से कहा, ‘मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। बोलो, क्या चाहते हो? नि:संकोच होकर मांगो।’
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02-08-2014, 11:53 PM | #42 |
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Re: कथा-लघुकथा
देवी को इस प्रकार अपने सामने प्रकट हुआ देख वह गरीब घबरा गया। क्या मांगा जाए, यह वह तुरंत तय ही नहीं कर पाया, इसलिए हड़बड़ाहट में बोल पड़ा, ‘देवी, इस समय तो नहीं, हां कल मैं आप से उचित वरदान मांग लूंगा।’ देवी अगले दिन प्रात: आने के लिए कहकर अंतध्र्यान हो गईं।
घर जाकर गरीब सोच में पड़ गया कि देवी से क्या मांगा जाए? उसके मन में आया कि उसके पास रहने के लिए घर नहीं है, इसलिए देवी से यही सबसे पहले मांगा जाए। अब सवाल आया कि घर कैसा होना चाहिए। वह घर के आकार-प्रकार व उसमें होने वाली विभिन्न सुख-सुविधाओं के बारे में विचार करने लगा। फिर उसने सोचा कि जब देवी मुझे मुंहमांगा वरदान देने के लिए तैयार हैं, तो केवल घर ही क्यों मांगू। ये जमींदार लोग गांव के सब लोगों पर रौब गांठते हैं, जब देखो तब हुक्म चलाते हैं। इसलिए देवी से वर मांगकर मैं ज़मींदार हो जाऊं, तो अच्छा रहे। यह सब सोचकर उसने जमींदारी मांगने का निर्णय कर लिया। जमींदार बनने का विचार आने के बाद वह सोचने लगा कि आखिर जब लगान भरने का समय आता है, तब ये जमींदार भी तो तहसीलदार साहब की आरज़ू-मिन्नतें करते हैं। इस प्रकार इन जमींदारों से बड़ा तो तहसीलदार ही है, इसलिए जब बनना ही है तो तहसीलदार क्यों न बन जाऊं। इस तरह वह तहसीलदार बनने की इच्छा करने लगा। अब वह अपने इस निर्णय से खुश था।
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02-08-2014, 11:54 PM | #43 |
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Re: कथा-लघुकथा
लेकिन, उसने मन में कुछ न कुछ चलता ही रहता। अब कुछ देर बाद उसे जिलाधीश का ध्यान आया। वह जानता था कि जिलाधीश साहब के सामने तहसीलदार भी कुछ नहीं है। तहसीलदार तो भीगी बिल्ली बना रहता है जिलाधीश के सामने। इस तरह उसे अब तहसीलदार का पद भी फीका दिखाई पडऩे लगा और उसकी जिलाधीश बनने की इच्छा बलवान हो उठी। इस प्रकार उसकी एक से एक नवीन इच्छा बढ़ती चली गईं। वह सोचने-विचारने में ही इतना फंस गया कि यह तय नहीं कर पाया कि क्या मांगा जाए। उसी सोचने की चिंता में दिन तो बीता ही, रात भी बीत गई।
दूसरे दिन सवेरा हुआ। गरीब आदमी अब तक भी कुछ निर्णय न कर पाया था कि उसे क्या वरदान मांगना चाहिए। उधर ज्यों ही सूरज की पहली किरण पृथ्वी पर पड़ी, त्यों ही देवी उसके सामने प्रकट हो गईं। उन्होंने उस गरीब से पूछा, ‘बोलो तुम क्या वरदान मांगाना चाहते हो? अब तो तुमने सोच लिया होगा कि तुम्हें क्या मांगना है?’ गरीब ने हाथ जोडक़र कहा, ‘देवी, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो सिर्फ भगवान की भक्ति और आत्मसंतोष का गुण दीजिए। यही मेरे लिए पर्याप्त है।’ देवी ने पूछा, ‘क्यों, तुमने घर-द्वार, ऐशो-आराम या धन-दौलत क्यों नहीं मांगी?’ गरीब विनम्रता से बोला, ‘मां, मेरे पास दौलत नहीं आई, बस आने की आशा मात्र हुई, तो मुझे उसकी चिंता से रातभर नींद नहीं आई। यदि वास्तव में मुझे दौलत मिल जाएगी, तो फिर नींद तो एकदम विदा ही हो जाएगी। साथ ही न मालूम और कौन-कौन सी मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए मैं जैसा हूं, वैसा ही रहना चाहता हूं। आत्मसंतोष का गुण ही सबसे बड़ी दौलत होती है, आप मुझे यही दीजिए। साथ ही यह संसार सागर पार करने के लिए भगवान नाम के स्मरण का गुण दीजिए।’ देवी ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और आशीर्वाद देकर अंतध्र्यान हो गईं। वह गरीब पहले की तरह खुशी से अपना जीवन बिताने लगा। फिर उसे कभी भी धन की लालसा नहीं हुई। **
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09-08-2014, 10:29 PM | #44 |
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Re: कथा-लघुकथा
एक घंटे की कीमत
कथाकार: कमल तनवानी एक आदमी अपने पूरे दिन की कड़ी मेहनत करके थका हारा देर से घर आया. उसका 5 साल का बेटा उसके लिए दरवाज़े पर इंतज़ार कर रहा था. बेटा - पिताजी, मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूँ? पिताजी - पूछो बेटा - पिताजी, आप एक घंटे में कितना कमाते हैं ? पिताजी - बेटा,इससे तुम्हें क्या मतलब? बेटा -पिताजी,बताइए ना . पिताजी-1000 रुपये प्रति घंटा. बेटा - पिताजी, मुझे 500 रुपये उधार दें कृपया.? पिता को गुस्सा आ गया और बच्चे को चिल्ला कर बिस्तर पर जानेको कहा। बेटा मायूस होकर अपने कमरे में चला गया। कुछ देर बाद आदमी जब शांत हुआ तो बच्चे के कमरे में गया और बच्चे से कहा क्षमा करना मैंने बेकार ही तुम पर क्रोध किया.ये लो 500 रुपये जो तुमने मांगे थे। बच्चा मुस्कुराया - ओह ... पिताजी, धन्यवाद! फिर लडके नें तकिये के नीचे से जमा करके रखे रुपये भी निकाले और सब को मिला कर पिता से कहा ! "पिताजी, मेरे पास 1000 रुपये हैं .क्या मैं आपका एक घंटे का समय खरीद सकता हूँ? कल आप जल्दी घर आना. "मैं आप के साथ रात का खाना खाना चाहता हूँ" (कृपया, जो लोग आप से प्यार करते हैं उनको भी अपना समय दें)
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09-08-2014, 10:37 PM | #45 |
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Re: कथा-लघुकथा
लालची बुढिया !!
कथाकार: देवेश किसी गावं में एक सास और बहू रहती थी. सास बहुत दुष्ट थी और अपनी बहू को बहुत सताती थी. बहू बेचारी सीधी-साधी थी और सास के अत्याचारों को सहती रहती थी. एक दिन तीज का त्यौहार था बहू अपने पति की लम्बी उम्र के लिए ब्रत रखे हुये थी. मुहल्ले की सभी औरते अच्छे अच्छे पकवान बना रही थी. नए नए कपड़े पहन कर और सज संवर कर मन्दिर जाने की तैयारी कर रही थी . पर सास ने अपनी बहू से कहा - अरे कलमुही तू बैठे बैठे यहाँ क्या कर रही है जा खेत में मक्का लगा है, कौवे और तोते फसल नस्ट कर रहे है जा कर उन्हें उडा. बहू ने कहा माँ आज मेरा ब्रत है मै तो पूजा की तैयारी कर रही थी, आज मुझे मन्दिर जाना है . सास ने कहा - तू सज सज सवर कर मन्दिर जा कर क्या करेगी, कौन सा जग जित लेगी, बहू को गालिया देने लगी. बहू बेचारी क्या करती मन मार कर जाना पड़ा लेकिन उसे रोना आ रहा था उसकी आँखे भर आयीं, वह और औरतों को मन्दिर जाते देख रही थी, औरतें मंगल गीत गा रही थी. उसके सब अरमान पलकों से टपक रहे थे. वह आज सजना चाहती थी, अपने पति के नाम की चूड़ियाँ पहनना चाहती थी, माग में अपने पति के नाम का सिंदूर लगाना चाहती थी और वह साड़ी पहनना चाहती थी जो उसके पति ने उसे अपनी पहली कमाई पर दी थी, आज उसके लिए ईश्वर के चरणों में जा कर मंगल कामना करना चाहती थी. वह अन्दर ही अन्दर रो रही थी और खेत की तरफ़ जा रही थी, खेत पर पंहुच कर‘को - कागा - को, यहाँ ना आ, मेरा ना खा - कही और जा जा’ कहती जा रही थी.
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09-08-2014, 10:39 PM | #46 |
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Re: कथा-लघुकथा
उसी समय पृथ्वी पर शंकर और पार्वती जी भ्रमण करने निकले थे, माँ पार्वती को बहू का रोना देख कर ह्रयद भर आया और उन्होंने शिव जी से कहा की नाथ देखिये तो कोई अबला नारी रो रही है. रूप बदल कर शंकर और पार्वती जी बहू के पास पंहुचे और पूछा की बेटी क्या बात है? क्यों रो रही हो? क्या कष्ट है तुम्हे? तो वह बोली कि मै अपनी किस्मत पर रो रही हूँ . आज तीज का ब्रत है गाव की सारी औरते पूजा पाठ कर रही है और मेरी सास ने मुझे यहाँ कौवे उड़ाने के लिए भेज दिया है और मै अभागी यहाँ कौवे उड़ा रही हूँ. भोले बाबा को बहू पर दया आ गई उन्होंने बहू को ढेर सारे गहने और चाँदी और सोने के सिक्के दे कर कर कहा की तुम घर जाओ और अपनी पूजा संपन्न करो, मै तुम्हारे खेत की देख भाल करूँगा. जब बहू घर पहुँची तो बहू के पास इतना धन देख कर उसकी सास आश्चय चकित रह गई. बहू ने सारी बात सास को बता दी. सास बहू से अच्छे से बोली अच्छा तू जा कर पूजा कर ले और अगले साल मै जाउंगी खेत की रखवाली करने.
अगले साल जब तीज आई बुढिया तैयार हो कर खेत पर पहुँच गई और खूब तेज तेज रोने लगी, ठीक उसी समय शंकर और पार्वती उधर से गुजर रहे थे और उन्होंने ने पूछा कि क्या बात है तो उस बुढिया ने बताया की मेरी बहू मुझे बहुत परेशान करती है और उसने आज भी उसने मुझे खेत की रखवाली के लिए भेज दिया जबकि आज मेरा ब्रत है. भगवान शंकर उस बुढिया को समझ गए और उन्होंने ने कहा तुम घर जाओ, तो बुढिया ने कहा कि ‘आपने मुझे कुछ दिया नही’ तो भोले बाबा ने कहा कि ‘घर जाओ तुम्हे मिल जायेगा’. जब वह घर पहुची तो उसके पूरे शरीर में छाले पड़ गए. बुढिया बहू को गलिया देने लगी. बहू ने पूछा तो बुढिया ने पुरी कहानी बताई, तब बहू ने कहा की भगवान हमेशा सरल, सच्चे और भोले-भाले लोगों की ही सहायता करते है, लालची लोगो की नही.
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13-01-2015, 10:22 PM | #47 |
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Re: कथा-लघुकथा
आधा किलो आटा
आभार: हंसराज सुज्ञ एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है। सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी” >>>
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13-01-2015, 10:24 PM | #48 |
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Re: कथा-लघुकथा
आधा किलो आटा
लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वे रात दिन चिंता में रहने लगे। तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते थे। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन की स्थिरता व शांति के लिए उन्हें एक संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाए। सेठ सीधा संत समागम में पहुँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- “महाराज मेरे दुख का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ” >>>
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13-01-2015, 10:26 PM | #49 |
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Re: कथा-लघुकथा
आधा किलो आटा
संत ने समस्या समझी और बोले- “इसका तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।” सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ क्वीन्टल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए” बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए” सेठ ने कहा- “फिर भी रख लीजिए” बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख के मुझे आवश्यकता नहीं है” सेठ ने कहा- “अच्छा, कोई बात नहीं, क्विंटल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए” बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, आज खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है” सेठ ने कहा- “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए” बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा” बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया। सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है। वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है। संग्रहखोरी तो बुराई ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है। **
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14-01-2015, 11:59 AM | #50 | |
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Re: कथा-लघुकथा
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