30-08-2013, 09:53 PM | #11 |
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Re: डायरी के पन्ने
हम लोगों के प्रति जीजाजी सदैव ही सशंक रहते थे। उनके इस स्वभाव की एक और बानगी देखोगी? बिर्जन जब शान्तिनिकेतन में पढ़ रही थी – सोमा जोशी नाम की एक कन्या से उसकी प्रगाढ़ मैत्री हो गई थी। सोमा जोशी श्री सुमित्रानन्दन पन्त की भांजी थी। बिर्जन ने उसे बता दिया कि मैं पन्त जी की रचनाओं से कितनी प्रभावित हूँ तथा उनकी बड़ी प्रशंसक भी हूँ । एक दिन तीसरे प्रहर सोमा जोशी अचानक पन्तजी को लेकर हमारे घर उपस्थित हो गई। (कोई अवकाश रहा होगा) – बिर्जन भी तब इलाहाबाद में ही थी। बिर्जन ने गर्मजोशी से सोमा का स्वागत किया था। पन्तजी से हम लोगों का परिचय कराया गया। मैं तो शर्मीली थी ही पर पन्तजी कम लजीले नहीं थे। उनकी कुछ कविताओं पर संकोच के साथ चर्चा हुई। फिर कुछ खुली मैं। मैंने अत्यन्त विनय के साथ उनसे अनुरोध किया कि वे अपने मुखारविन्द से कोई कविता सुना दें। मेरी यह प्रार्थना उन्हें स्वीकार न हुई। जाते-जाते उन्होंने इतना आश्वासन अवश्य दिया कि अगली बार वे अपने साथ नरेन्द्र शर्मा को लाएंगे। श्री नरेन्द्र शर्मा सस्वर जो काव्य पाठ करते हैं, वही सुनने योग्य है। ‘‘मेरी जो कविता आप सुनना चाहें उनके मुख से सुनवा दूँगा।” पन्त जी के ऐसे दर्शन पा मैं धन्य हो गई थी। यह सुअवसर बिर्जन की देन थी। कुछ महीने तक पन्तजी से पत्र व्यवहार हुआ। मैंने उन्हें एक बार लिखा था कि उनसे भेंट करना मेरे लिए तीर्थ-तुल्य था। पत्रों द्वारा मैं उनके सम्पर्क में रहूँ यह जीजाजी को सहन नहीं हुआ। अतः उनसे सम्पर्क की इति श्री। हाँ उनसे प्राप्त पत्रों का मुझ पर जो प्रभाव पड़ा, वह मेरी हैन्ड राइटिंग है। यह प्रभाव अमिट ही रहा। जैसा बता चुकी हूँ हिन्दी साहित्य समिति में मैं छात्राओं का प्रतिनिधित्व करती थी। प्रतिमास जाने-माने साहित्यकारों और मनीषियों से मिलने और उनकी बात सुनने का अवसर मिलता था। मैं श्री राहुल साँकृत्यायन से बहुत प्रभावित हुई – विशेषतः उनके उस वाक्य और विचार से जो उन्होंने मेरी ऑटोग्राफ बुक में लिखा थाः भूत मर गया, सड गया। भविष्य के निर्माण में लगो॥ अर्थ बड़ा सरल है किन्तु उत्सुकतावश मैंने इसी वाक्य को लेकर उनको पत्र लिखा। उन्होंने उत्तर दिया। Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:09 AM. |
30-08-2013, 09:54 PM | #12 |
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Re: डायरी के पन्ने
इस प्रकार उनके साथ कुछ भी पत्रों का आदान-प्रदान हुआ। किसी लिफाफे पर नाम और पता जब किसी अजनबी का होता, वह खेला जाता। सैन्सर किया जाता। फलतः इस मनीषी से भी सम्पर्क टूट गया था। मेरी कायरता ही थी कि ऐसे पत्रों को मैं सहेजूँ। पर सहेजने से भी भयातुर थी। काश, आज भी वे मेरे संग्रह में होते। अभी एक बात ऐसी याद आ गई जो तुम्हें सम्भवतः अप्रासंगिक लगे। किन्तु लिख ही दूँ । जब मैं ट्रेनिंग कॉलेज में पढ़ रही थी विभिन्न विषयों के शिक्षक लैक्चर पद्धति से अध्यापन करते थे। सभी छात्र-छात्राएं नोट्स् उतारते किन्तु अक्षरशः नोट्स् केवल मैं ही लिखने में सक्षम थी। आशुलिपिक तो न तब थी न अभी हूँ किन्तु लेखनी बड़ी त्वरित गति से चला करती थी – चला करती है। हमारा एक सहपाठी था – शम्भूनाथ झा। उसके पिता, जीजाजी के मित्र या परिचित जो भी कह लो, थे। शम्भुनाथ ने एक दिन मेरी नोटस् की कॉपी देख ली। फिर क्या था वह प्रति सप्ताह घर पर आता जीजाजी यदि पहले मिल जाते उन्हीं से कहता- ‘मिथिलेश जी को बुला दीजिए उनके नोटस् लेने हैं।’ मैंने बड़े अनमनेपन से उसे दे दिया करती, पर इसी शर्त पर कि तीसरे दिन वह मुझे लौटा देगा। पर वह तीसरा दिन काहे को आता? उसके खास दोस्तों के बीच वह कॉपी घूमने लगती थी। परिणाम स्वरूप मुझे हर विषय की दो-तीन कॉपियां लेनी पड़ी थीं। इस भावी शिक्षक के आगमन के लिए जीजा का द्वार खुला था। टीटू यह प्रकरण दो किश्तों में पूरा किया गया है। दो दिन लगे। अन्यान्य निरर्थक कार्यों में दिन गुज़ारे इसीलिए।
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:25 AM. |
30-08-2013, 09:58 PM | #13 |
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Re: डायरी के पन्ने
डायरी के पन्ने (5)
अब मैं कौनसी दिशा पकडूँ? पूरब या पश्चिम? चलो, पूरब का अन्तिम पड़ाव। उस पर संक्षिप्त सा दृष्टिपात। हैदराबाद के ‘दीपक’, कानुपर के ‘हरिशंकर विद्यार्थी’ के बाद एक नाम और जोड़ा जाए। वे हैं ‘हरिवंश राय बच्चन’। वे युनिवर्सिटी के एक होनहार और प्रतिभाशाली छात्र माने जाते थे। जब मैं बी.ए. फर्स्ट ईयर में थी, वह एम.ए. अंग्रेज़ी के फाइनल ईयर में पढ़ रहे थे। किसी छोटे कस्बे के मध्यवर्गीय परिवार के पुत्र थे। उनकी पत्नी का देहान्त टी.बी. से उन दिनों हुआ ही होगा। हमारे पुद्दे मामा उनसे अति प्रभावित थे। उनके विधुर होने की सूचना मामा को मिली। उन्होंने पहले जीजा से इस सम्बन्ध में बात की क्योंकि मामा की दृष्टि में बच्चनजी जैसा वर मित्थल के लिए ढूँढे न मिलेगा। जीजाजी की उदासीनता देख मामा ने दादा को लिखा, दादा ने मामा को उत्तर दिया कि मित्थल की राय ले लो। वह अगर सहमत है तो दादा को आपत्ति नहीं। एक विधुर पति की पत्नी होना कैसा होगा, मुझे बड़ा अटपटा सा लगा। अतः बात यों ही आई-गई हो कर रह गई। दूसरे वर्ष बच्चनजी का विवाह तेजी से हो गया। इसके बाद पुद्दे मामा बच्चनजी से मिलने उनके घर गए। उस समय मामा ने उस घर का जो हर्षोल्लास देखा, उस वातावरण की मधुरिमा देखी, उनको कुछ झटका सा लगा। सीधे हमारे यहां आए और बच्चनजी को जिस रूप में देखा उसका वर्णन कर डाला। बच्चन जी उस समय अपने घर के बरामदे में सपत्नीक बैठे थे। सामने टी-टेबल पर चाय की ट्रे लगी थी। बच्चनजी मस्ती में अपने गीत गाते झूम रहे थे आदि…..। दीदी से ही मामा ने कहा- ‘‘हमने एक स्वर्णिम अवसर खो दिया।” संयोग इसे कहते हैं। Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:28 AM. |
30-08-2013, 10:01 PM | #14 |
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Re: डायरी के पन्ने
डायरी के पन्ने (6)
यह गाथा लम्बी से और लम्बी होती जा रही है। यदि इस प्रयास में कुछ श्रेय बन पड़ा, वह श्रेय तुम्हारा ही कहा जाएगा। तुम्हारे मस्तिष्क की उपज का यह फल है। तुम्हारा सतत् आग्रह – मैं कैसे भूलूँ? तुमने इन सफ़ों में ऐसा क्या पाया कि उसे सोश्यो-इकोनॉमिक-कल्चरल सूचनाओं का खज़ाना कह डाला। ख़ैर, जैसा तुमने लिखा, तुम्हारा अपना नज़रिया है। अब अपने इस पुराण को आगे बढ़ाया जाए? सात दिनों का व्यवधान। पहली किताब तुम्हारे पास रह गई। मन में एक शंका उठी कि अब जो प्रसंग लिखना है वह इसमें लिखूँ कि वो पहले लिख चुकी हूँ? परसों वह किताब स्वाति तुमसे ले आई इसके बावजूद कल मैंने कलम हाथ में नहीं ली। तुम्हारी दी ‘बॉर्डर म्यूजि़क’ पढ़ने में व्यस्त रही। मैं बच्चों जैसी सफाई दे रही हूँ – तुम यही सोच रही हो ना? सच तो यह है कि कभी-कभी ऐसा मूड कुछ हल्का कर देता है मन को। अब अपने सेवाकाल के प्रथम सोपान पर कदम रखूँ? 1 अगस्त 1940। मैंने जिन अध्यापिका से उच्च कक्षाओं को हिन्दी पढ़ाने का भार ग्रहण किया वह थीं श्रीमती लीलावती। वह किसी उच्च परिवार की भद्र महिला थीं – आकर्षक व्यक्तित्व, वाणी में मिठास और कद-काठी में पंजाब की महिलाओं सरीखी थीं। विधवा थीं – एक पुत्र की माता। उनके पुत्र का नाम याद आ रहा है – जयकिशन। कालान्तर में उनके इस पुत्र की चर्चा डॉ. ताराचन्द गंगवाल और सुलोचना दीदी के मुख से अनेक बार सुनी गई थी। उनका पेट नेम था ‘जैकी’। अजमेर रोड़ पर उनकी एक विशाल कोठी थी। पर जाने किन परिस्थितियोंवश ‘लीला बहिनजी’ चाँदपोल बाज़ार स्थित नाहरगढ़ रोड पर रहती थीं। वह भी शायद उनका निजी मकान रहा होगा। निश्चित नहीं। मैं उनके घर जब-जब गई, बड़े दुलार से वह अपने हाथ का बनाया भोजन करातीं। उन्होंने हिन्दी की कोई परीक्षा पास की थी – उसी आधार पर वह हिन्दी अध्यापिका पद पर कार्यरत थीं। Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:30 AM. |
30-08-2013, 10:07 PM | #15 |
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Re: डायरी के पन्ने
जिस दिन उन्होंने मुझे अपनी कक्षाएं सौंपी उनके चेहरे पर किसी प्रकार का क्षेभ नहीं – न कोई मलाल, न कोई वैमनस्य। बड़े स्नेह और उत्साह से उन्होंने अपनी शिष्याओं से मेरा परिचय कराया था। मेरे प्रति उनका व्यवहार सदैव मातृतुल्य रहा था। मेरे विवाह पर उन्होंने कटक का फिलिग्री काम का चाँदी का ब्रेसलेट और एक लकड़ी का इत्रदान भेंट किया था। वह ब्रेसलेट मेरी कलाई के लिए बहुत बड़ा था, अतः किसी अवसर पर मैंने उसे मुन्नी को दे दिया। इत्रदान अभी है, जिसे देख कर उनकी याद ताज़ा हो जाती है। अब छात्राओं से पूर्व अपनी सहकर्मियों का परिचय दे दूँ। मिस नैन्सी मार्टिन, हमारी प्रधानाध्यापिका थीं। मिसेज राव गणित की अध्यापिका, मिस रूबेन्स चित्रकला की, सुश्री अनुसूया करकरे इतिहास की, मिसेज़ पॉल आठवीं तक अंग्रेज़ी पढ़ाने की, श्रीमती बादामी बहिन जी सिलाई की, मिस सिंह शायद भूगोल की अध्यापिका थीं। एक मिसेज़ माथुर थीं जो छोटी कक्षाओं को पढ़ातीं तथा पुस्तकालय भी चलाती थीं। वह डॉक्टर प्रेमप्यारी माथुर की भावज थीं। हाँ, शिशु कक्षा की इन्जार्च थीं मिस लीला हैनरी। उन्होंने बिर्जन के साथ ही अड्यार में मॉन्टेसरी का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। मेरी पहली मित्र बनीं मिस रूबेन्स, वह बम्बई निवासिनी यहूदी महिला थीं। ड्रॉइंग की वह कुशल अध्यापिका थीं। ड्रॉइंग वैकल्पिक विषय हुआ करता था। कक्षा में वह कुछ कड़ा रूख रखती थीं फिर भी छात्राएँ उनसे प्रसन्न रहती थीं। वह कलात्मक तरीके से सजी-सँवरी आती थीं। वह इकलौती अध्यापिका थीं, जिन्होंने दोस्ती का हाथ बढ़ा कर मुझे अपना बना लिया था। मिस मार्टिन को वह फूटी आँखों न सुहाती थीं। कारण दो थे। पहला और मुख्य कारण था, उनका यहूदी होना। दूसरा यह कि वह अपनी शिष्याओं के बीच काफी लोकप्रिय थीं। शनैः-शनैः उनके साथ मेरी घनिष्टता बढ़ती देख मिस मार्टिन मुझसे भी बिदक गईं। कोई न कोई निमित्त ढूंढ लड़कियों के सामने मुझे टोकते रहना उनका स्वभाव बन गया।
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:32 AM. |
30-08-2013, 10:09 PM | #16 |
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Re: डायरी के पन्ने
अपने ट्रेनिंग काल में हम लोगों को सिखाया गया था कि कक्षा की छात्र-संख्या के अनुरूप ही अपने स्वर को नियन्त्रित रखना चाहिए। नवीं और दसवीं कक्षा में क्रमशः 6 और 5 छात्राएँ थीं। अतः इतनी नगण्य संख्या के बीच मेरा कण्ठस्वर कक्षा के बाहर नहीं पहुंचता। मिस मार्टिन अपने राउण्ड पर मेरी कक्षा के बाहर खड़ी हो मेरी आवाज को कान लगा कर सुनने की कोशिश करतीं, अन्त में उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला कि मैं अपनी छात्राओं को पढ़ाती नहीं हूँ – केवल बातचीत ही करती हूँ, उनसे। एक बार कार्यवश वह विभागीय कार्यालय पहुँची तब दीदी उनसे पूछ बैठीं ‘‘मिस श्रीवास्तव कैसा काम कर रही हैं?” मेरी शिकायत दीदी (इन्स्पैक्ट्रेस) से करने का इससे उपयुक्त अवसर और कब आता? दीदी ने घर पर मुझे यह जानकारी दी थी। फिर क्या था। मैं मिस मार्टिन से जा भिड़ी। उनसे नम्र स्वर में निवेदन किया कि वे मेरी कक्षा के अन्दर आ कर बैठें और सुनें कि मैं लड़कियों को किस तरह पढ़ाती हूँ और कितनी बातें करती हूँ। मेरे इस अनुरोध को तत्काल मान लेना उनकी शान के खिलाफ था। नाक का सवाल जो था। लगभग एक सप्ताह बाद वह मेरी कक्षा में लगभग दस मिनट बैठीं, बिना कुछ टिप्पणी किए उठ कर चलती बनीं। कुछ ही समय में मैं अपनी छात्राओं से ऐसी घुल-मिल गई कि हमारी वरिष्ठ सहकर्मी मिस पॉल, मिस करकरे आदि ने एक अभियान सा छेड दिया कि यह लड़कियों के बीच लड़की ही जैसी रहती है, चोटी करती है, रंग-बिरंगी चूड़ी पहनती है – उनसे हँस-मिल बातें करती हैं, आदि। रिसेस में ये छात्राएँ कभी-कभी मुझे खींच कर अपने बीच अपना खाना खिलाने ले जाने लगीं। विशेष रूप से किसी पर्व-त्यौहार पर अपने व्यंजन मुझे खाने को बाध्य करती थीं। कक्षा के बाहर यदि अध्यापक-छात्र के सम्बन्ध में कुछ निकटता आ जाए, यह मुझे आपत्तिजनक मुद्दा कभी नहीं लगा। ‘’डिस्टेन्स ऑव डिग्निटी बिटवीन टीचर एण्ड टॉट।” यह मेरे लिए ऐसा गुरु-मन्त्र था जिसे मैंने सदा-सदा के लिए आत्मसात कर रखा था। हाँ, इतना अवश्य कह दूँ कि यह मन्त्र केवल कक्षा तक ही सीमित था ***
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:35 AM. |
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