05-02-2011, 01:20 AM | #11 |
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Re: हिंदी कहानियाँ
हामिद को इन शर्तो को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं। हामिद ने हारने वालों के ऑंसू पोंछे—मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले। लेकिन मोहसनि की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिल्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है। मोहसिन—लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा? महमूद—दुआ को लिय फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मां जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले? हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की मां इतनी खुश न होगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें—हिन्द हे ओर सभी खिलौनों का बादशाह। रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दियें। महमून ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुंह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद थां। ग्यारह बजे गॉँव में हलचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मोहसिन की छोटी बहन दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियॉं भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोए। उसकी अम्मॉँ यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चॉँटे और लगाए। मियॉँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर हो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गई। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिदाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। आदालतों में खर की टट्टियॉँ और बिजली के पंखे रहते हें। क्या यहॉँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बॉँस कापंखा आया ओर नूरे हवा करने लगें मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई। अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गॉँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हें। मगर रात तो अँधेरी होनी चाहिए, नूरे को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियॉँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टॉँग में विकार आ जाता है। महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टॉँग को आनन-फानन जोड़ सकता हे। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जावब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टॉँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहों, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है। अब मियॉँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी। ‘यह चिमटा कहॉं था?’ ‘मैंने मोल लिया है।‘ ‘कै पैसे में? ‘तीन पैसे दिये।‘ अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’ हामिद ने अपराधी-भाव से कहा—तुम्हारी उँगलियॉँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया। बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता हे और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना व्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहॉँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गदगद हो गया। और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद कें इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआऍं देती जाती थी और आँसूं की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!
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05-02-2011, 01:43 AM | #12 |
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Re: हिंदी कहानियाँ
प्रेमचंद की कहानी - कफ़न
1 झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के पास और अन्दर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव-वेदना से पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़े की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था। घीसू ने कहा - मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते ही गया, ज़रा देख तो आ। माधव चिढ़कर बोला - मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नही जाती ? देखकर क्या करूं? 'तू बड़ा बेदर्द है बे ! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!' 'तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।' चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना कामचोर था कि आधे घंटे काम करता तो घंटे भर चिलम पीता। इसीलिये उन्हें कहीं मज़दूरी नहीं मिलती थी। घर में मुट्ठी भर अनाज भी मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने कि कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियां तोड़ लाता और माधव बाज़ार में बेच आता। जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम कि कमी ना थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उस वक़्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी संतोष कर लेने के सिवा और कोई चारा ना होता। अगर दोनों साधू होते, तो उन्हें संतोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिल्कुल ज़रूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा और कोई सम्पत्ति नहीं थी। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढांके हुए जीये जाते थे। संसार की चिंताओं से मुक्त! कर्ज़ से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीं इतने की वसूली की बिल्कुल आशा ना रहने पर भी लोग इन्हें कुछ न कुछ कर्ज़ दे देते थे। मटर, आलू कि फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भूनकर खा लेते या दस-पांच ईखें उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृति से साठ साल कि उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे कि तरह बाप ही के पद चिन्हों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक़्त भी दोनो अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाए थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए देहांत हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जबसे यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनो बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनो और भी आराम तलब हो गए थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्बयाज भाव से दुगनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी, और यह दोनों शायद इसी इंतज़ार में थे कि वह मर जाये, तो आराम से सोयें। घीसू ने आलू छीलते हुए कहा- जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या! यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है! माधव तो भय था कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलू का एक बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला- मुझे वहाँ जाते डर लगता है। 'डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।' 'तो तुम्ही जाकर देखो ना।' 'मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नही; और फिर मुझसे लजायेगा कि नहीं? जिसका कभी मुँह नही देखा; आज उसका उधड़ा हुआ बदन देखूं। उसे तन कि सुध भी तो ना होगी। मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी ना पटक सकेगी!' 'मैं सोचता हूँ, कोई बाल बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नही है घर में!' 'सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दे तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वो ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ ना था, भगवान् ने किसी ना किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।' जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालात उनकी हालात से कुछ अच्छी ना थी, और किसानों के मुकाबले में वो लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीँ ज़्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृति का पैदा हो जान कोई अचरज की बात नहीं थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीँ ज़्यादा विचारवान था और किसानों के विचार-शुन्य समूह में शामिल होने के बदले बैठक बाजों की कुत्सित मंडली में जा मिलता था। हाँ, उसमें यह शक्ति ना थी कि बैठक बाजों के नियम और नीति का पालन कर्ता। इसलिये जहाँ उसकी मंडली के और लोग गांव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गांव ऊँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तस्कीन तो थी ही, कि अगर वह फटेहाल हैं तो उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नही करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नही उठाते। दोनो आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नही खाया था। इतना सब्र ना था कि उन्हें ठण्डा हो जाने दे। कई बार दोनों की ज़बान जल गयी। छिल जाने पर आलू का बहरी हिस्सा बहुत ज़्यादा गरम ना मालूम होता, लेकिन दोनों दांतों के तले पड़ते ही अन्दर का हिस्सा ज़बान, तलक और तालू जला देता था, और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा खैरियत तो इसी में थी कि वो अन्दर पहुंच जाये। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी समान था। इसलिये दोनों जल्द-जल्द निगल जाते । हालांकि इस कोशिश में उन्ही आंखों से आँसू निकल आते । घीसू को उस वक़्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वो उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताज़ा थी। बोला- वह भोज नही भूलता। तबसे फिर उस तरह का खाना और भर पेट नही मिला। लड़कीवालों ने सबको भरपेट पूड़ीयां खिलायी थी, सबको! छोटे-बड़े सबने पूड़ीयां खायी और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोग में क्या स्वाद मिल, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज़ चाहो, मांगो, जितना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पीया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गरम-गरम गोल-गोल सुवासित कचौड़ियां डाल देते हैं। मन करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल को हाथ से रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिए जाते हैं और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान इलाइची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी! खड़ा हुआ ना जाता था। झटपट अपने कम्बल पर जाकर लेट गया। ऐसा दिल दरियाव था वह ठाकुर! माधव नें पदार्थों का मन ही मन मज़ा लेते हुए कहा- अब हमें कोई ऐसा भोजन नही खिलाता। 'अब कोई क्या खिलायेगा। वह ज़माना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत खर्च करो। क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कामं नही है। हाँ , खर्च में किफायती सूझती है। ' 'तुमने बीस-एक पूड़ीयां खायी होंगी?' 'बीस से ज़्यादा खायी थी!' 'मैं पचास खा जाता!' 'पचास से कम मैंने भी ना खायी होगी। अच्छा पट्ठा था । तू तो मेरा आधा भी नही है ।' आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीँ अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़्कर पाँव पेट पर डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेदुलियाँ मारे पड़े हो। और बुधिया अभी तक कराह रही थी।
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05-02-2011, 01:47 AM | #13 |
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Re: हिंदी कहानियाँ
२
सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियां भिनक रही थी। पथराई हुई आँखें ऊपर टंगी हुई थी । साड़ी देह धुल से लथपथ हो रही थी थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था। माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों ज़ोर-ज़ोर से है-है करने और छाती पीटने लगे। पडोस्वालों ने यह रोना धोना सुना, तो दौड हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे। मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर ना था। कफ़न और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोसले में मॉस! बाप-बेटे रोते हुए गाव के ज़मिन्दार के पास गए। वह इन दोनों की सूरत से नफरत करते थे। कयी बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वाडे पर काम पर न आने के लिए। पूछा- क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीँ दिखलायी भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाव में रहना नहीं चाहता। घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आंखों से आँसू भरे हुए कहा - सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घर-वाली गुज़र गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा दारु जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, पर वोह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रह मालिक! तबाह हो गए । घर उजाड़ गया। आपका ग़ुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगायेगा। हमारे हाथ में जो कुछ था, वोह सब तो दवा दारु में उठ गया...सरकार की ही दया होगी तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊं! ज़मीन्दार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढाना था। जीं में तो आया, कह दे, चल, दूर हो यहाँ से। यों तोबुलाने से भी नही आता, आज जब गरज पढी तो आकर खुशामद कर रह है। हरामखोर कहीँ का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड का अवसर न था। जीं में कूदते हुए दो रुपये निकालकर फ़ेंक दिए। मगर सांत्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर के बोझ उतारा हो। जब ज़मींदर साहब ने दो रुपये दिए, तो गाव के बनिए-महाजनों को इनकार का सहस कैसे होता? घीसू ज़मीन्दार का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिए, किसी ने चार आने। एक घंटे में घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बांस-वांस काटने लगे। गाव की नर्म दिल स्त्रियां आ-आकर लाश देखती थी, और उसकी बेबसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थी।
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05-02-2011, 01:51 AM | #14 |
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Re: हिंदी कहानियाँ
३
बाज़ार में पहुंचकर, घीसू बोला - लकड़ी तो उसे जलाने भर की मिल गयी है, क्यों माधव! माधव बोला - हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिऐ। 'तो चलो कोई हल्का-सा कफ़न ले लें। 'हाँ, और क्या! लाश उठते उठते रात हो जायेगी। रात को कफ़न कौन देखता है!' 'कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते-जीं तन धांकने को चीथडा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिऐ।' 'कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।' 'क्या रखा रहता है! यहीं पांच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारु कर लेते। दोनों एक दुसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाज़ार में इधर-उधर घुमते रहे। कभी इस बजाज की दुकान पर गए, कभी उस दुकान पर! तरह-तरह के कपडे, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जंचा नहीं. यहाँ तक कि शाम हो गयी. तब दोनों न-जाने किस दयवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुंचे और जैसे पूर्व-निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गए. वहाँ ज़रा देर तक दोनों असमंजस में खडे रहे. फिर घीसू ने गड्डी के सामने जाकर कहा- साहूजी, एक बोतल हमें भी देना। उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछ्ली आयी, और बरामदे में बैठकर शांतिपूर्वक पीने लगे। कई कुज्जियां ताबड़्तोड़ पीने के बाद सुरूर में आ गए. घीसू बोला - कफ़न लगाने से क्या मिलता? आख़िर जल ही तो जाता. कुछ बहु के साथ तो न जाता. माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानो देवताओं को अपनी निश्पाप्ता का साक्षी बाना रह हो - दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग ब्राहमणों को हज़ारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं! 'बडे आदमियों के पास धन है,फूंके। हमारे पास फूंकने को क्या है!' 'लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?' घीसू हसा - अबे, कह देंगे कि रुपये कंमर से खिसक गए। बहुत ढूँढा , मिले नहीं। लोगों को विश्वास नहीं आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे। माधव भी हंसा - इन अनपेक्षित सौभाग्य पर. बोला - बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो ख़ूब खिला पिला कर! आधी बोतल से ज़्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूड़ियाँ मंगायी. चटनी, आचार, कलेजियां. शराबखाने के सामने ही दुकान थी. माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया. पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया. सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे. दोनो इस वक़्त इस शान से बैठे पूड़ियाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ रह हो. न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी का फिक्र। इन सब भावनाओं को उन्होने बहुत पहले ही जीत लिया था. घीसू दार्शनिक भाव से बोला - हमारी आत्म प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा? माधव ने श्रध्दा से सिर झुकाकर तस्दीख कि - ज़रूर से ज़रूर होगा। भगवान्, तुम अंतर्यामी हो. उसे बैकुंठ ले जाना । हम दोनो हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं. आज जो भोजन मिला , वह कहीँ उम्र-भर न मिल था. एक क्षण के बाद मॅन में एक शंका जागी. बोला - क्यों दादा, हम लोग भी एक न एक दिन वहाँ जायेंगे ही? घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया. वोह परलोक कि बाते सोचकर इस आनंद में बाधा न डालना चाहता था। 'जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नही दिया तो क्या कहेंगे?' 'कहेंगे तुम्हारा सिर!' 'पूछेगी तो ज़रूर!' 'तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझेईसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रह हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!' माधव को विश्वास न आया। बोला - कौन देगा? रुपये तो तुमने चाट कर दिए। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सिन्दूर मैंने डाला था। घीसू गरम होकर बोला - मैं कहता हूँ, उसे कफ़न मिलेगा, तू मानता क्यों नहीं? 'कौन देगा, बताते क्यों नहीं?' 'वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया । हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएंगे। ' ज्यों-ज्यों अँधेरा बढता था और सितारों की चमक तेज़ होती थी, मधुशाला, की रोनक भी बढती जाती थी। कोई गाता था, दींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपट जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाए देता था। वहाँ के वातावरण में सुरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज़्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाये यहाँ खीच लाती थी और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं कि मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं। और यह दोनो बाप बेटे अब भी मज़े ले-लेकर चुस्स्कियां ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी और जमी हुई थी। दोनों कितने भाग्य के बलि हैं! पूरी बोतल बीच में है। भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडियों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खडा इनकी और भूखी आंखों से देख रह था। और देने के गौरव, आनंद, और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया। घीसू ने कहा - ले जा, ख़ूब खा और आर्शीवाद दे। बीवी कि कमायी है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आर्शीवाद उसे ज़रूर पहुंचेगा। रोएँ-रोएँ से आर्शीवाद दो, बड़ी गाडी कमायी के पैसे हैं! माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा - वह बैकुंठ में जायेगी दादा, बैकुंठ की रानी बनेगी। घीसू खड़ा हो गया और उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला - हाँ बीटा, बैकुंठ में जायेगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुंठ जायेगी तो क्या मोटे-मोटे लोग जायेंगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मंदिरों में जल चडाते हैं? श्रद्धालुता का यह रंग तुरंत ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ। माधव बोला - मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी! वह आंखों पर हाथ रखकर रोने लगा, चीखें मार-मारकर। घीसू ने समझाया - क्यों रोता हैं बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गई, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिए। और दोनों खडे होकर गाने लगे - "ठगिनी क्यों नैना झाम्कावे! ठगिनी ...!" पियाक्क्ड्डों की आँखें इनकी और लगी हुई थी और वे दोनो अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बनाए, अभिनय भी किये, और आख़िर नशे से मदमस्त होकर वहीँ गिर पडे।
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06-02-2011, 08:13 AM | #15 |
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Re: हिंदी कहानियाँ
विष्णु प्रभाकर की कहानी 'मेरा वतन'
उसने सदा की भाँति तहमद लगा लिया था और फैज ओढ़ ली थी। उसका मन कभी-कभी साइकिल के ब्रेक की तरह तेजी से झटका देता, परन्तु पैर यन्त्रवत् आगे बढ़ते चले जाते। यद्यपि इस शि€त-प्रयोग के कारण वह बे-तरह काँप-काँप जाता, पर उसकी गति में तनिक भी अन्तर न पड़ता। देखने वालों के लिए वह एक अर्ध्दविक्षिप्त से अधिक कुछ नहीं था। वे अकसर उसका मंजांक उड़ाया करते। वे कहकहे लगाते और ऊँचे स्वर में गालियाँ देते, पर जैसे ही उनकी दृष्टि उठती—न जाने उन निरीह, भावहीन, फटी-फटी आँखों में €या होता कि वे सहम-सहम जाते; सोडावाटर के उफान की तरह उठनेवाले कहकहे मर जाते और वह नंजर दिल की अन्दरूनी बस्ती को शोले की तरह सुलगाती हुई फिर नीचे झुक जाती। वे फुसफुसाते, 'जरूर इसका सब कुछ लुट गया है,'...'इसके रिश्तेदार मारे गये हैं...' 'नहीं, नहीं ऐसा लगता है कि काफिरों ने इसके बच्चों की इसी के सामने आग में भून दिया है या भालों की नोक पर टिकाकर तब तक घुमाया है जब तक उनकी चीख-पुकार बिल्ली की मिमियाहट से चिड़िया के बच्चे की चीं-चीं में पलटती हुई खत्म नहीं हो गयी है।' ''और यह सब देखता रहा है।'' ''हां! यह देखता रहा है। वही खौफ इसकी आँखों में उतर आया है। उसी ने इसके रोम-रोम को जकड़ लिया है। वह इसके लहू में उस तरह घुल-मिल गया है कि इसे देखकर डर लगता है।'' ''डर'', किसी ने कहा, ''इसकी आँखों में मौत की तस्वीर है, वह मौत, जो कत्ल, खूँरेजी और फाँसी का निजाम संभालती है।'' एक बार राह चलते दर्दमन्द ने एक दुकानदार से पूछा, ''यह कौन है?'' दुकानदार ने जवाब दिया, ''मुसीबतंजदा है, जनाब! अमृतसर में रहता था। काफिरों ने सब कुछ लूटकर इसके बीवी-बच्चों को जिन्दा आग में जला दिया।'' ''जिन्दा !'' राहगीर के मुंह से अचानक निकल गया। दुकानदार हंसा ''जनाब किस दुनिया में रहते हैं? वे दिन बीत गये जब आग काफिरों के मुर्दों को जलाती थी। अब तो वह ंजिन्दों को जलाती है।'' राहगीर ने तब अपनी कड़वी भाषा में काफिरों को वह सुनायी कि दुकानदार ने खुश होकर उसे बैठ जाने के लिए कहा। उसे जाने की जल्दी थी। फिर भी जरा-सा बैठकर उसने कहा, ''कोई बड़ा आदमी जान पड़ता है।'' ''जी हां ! वकील था, हाईकोर्ट का बड़ा वकील। लाखों रुपयों की जायदाद छोड़ आये हैं।'' ''अच्छा...!'' ''जनाब! आदमी आसानी से पागल नहीं होता। चोट लगती है तभी दिल टूटता है। और जब एक बार टूट जाता है तो फिर नहीं जुड़ता। आजकल चारों तरफ यही कहानी है। मेरा घर का मकान नहीं था, लेकिन दुकान में सामान इतना था कि तीन मकान खरीदे जा सकते थे।'' ''जी हां,'' राहगीर ने सहानुभूति से भरकर कहा, ''आप ठीक कहते हैं पर आपके बाल-बच्चे तो सही-सलामत आ गये हैं!'' ''जी हां ! खुदा का फज़ल है। मैंने उन्हें पहले ही भेज दिया था। जो पीछे रह गये थे उनकी न पूछिए। रोना आता है। खुदा गारत करे हिन्दुस्तान को...।'' राहगीर उठा। उसने बात काटकर इतना ही कहा, ''देख लेना, एक दिन वह गारत होकर रहेगा। खुदा के घर में देर है, पर अंधेर नहीं।'' और वह चला गया, परन्तु उस अर्ध-विक्षिप्त के कार्यक्रम में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह उसी तरह धीरे-धीरे बांजारों में से गुजरता, शरणार्थियों की भीड़ में धक्के खाता, परन्तु उस ओर देखता नहीं। उसकी दृष्टि तो आस-पास की दुकानों पर जा अटकती थी। जैसे मिकनातीस लोहे को खींच लेता है वैसे ही वे बेंजबाम् इमारतें जो जगह-जगह पर खंडहर की श€ल में पलट चुकी थीं, उसकी नंजर को और उसके साथ-साथ उसके मन, बुध्दि, चिžा और अहंकार सभी को अपनी ओर खींच लेती थीं और फिर उसे जो कुछ याद आता, वह उसे पैर के तलुए से होकर सिर में निकल जानेवाली सूली की तरह काटता हुआ, उसके दिल में घुमड़-घुमड़ उठता। इसी कारण वह मर नहीं सका, केवल सिसकियाम् भरता रहा। उन सिसकियों में न शब्द थे, न आँसू। वे बस सूखी हिचकियों की तरह उसे बेजान किये रहती थीं। सहसा उसने देखा—सामने उसका अपना मकान आ गया है। उसके अपने दादा ने उसे बनवाया था। उसके ऊपर के कमरे में उसके पिता का जन्म हुआ था। उसी कमरे में उसने आम्खें खोली थीं और उसी कमरे में उसके बच्चों ने पहली बार प्रकाश-किरण का स्पर्श पाया था। उस मकान के कण-कण में उसके जीवन का इतिहास अंकित था। उसे फिर बहुत-सी कहानियाँ याद आने लगीं। वह उन कहानियों में इतना डूब गया कि उसे परिस्थिति का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। वह यन्त्रवत् जीने पर चढ़ने के लिए आगे बढ़ा और जैसा कि वह सदा करता था उसने घण्टी पर हाथ रखा। बे-जान घण्टी शोर मचाने लगी और तभी उसकी नींद टूट गयी। उसने घबराकर अपने चारों ओर देखा। वहाँ सब एक ही जैसे आदमी नहीं थे। वे एक जैसी जबान भी नहीं बोलते थे। फिर भी उनमें ऐसा कुछ था जो उन्हें 'एक' बना रहा था और वह इस 'एक' में अपने लिए कोई जगह नहीं पाता था। उसने तेजी से आगे बढ़ जाना चाहा, पर तभी ऊपर से एक व्यक्ति उतरकर आया। उसने ढीला पाजामा और कुरता पहना था, पूछा, ''कहिए जनाब?'' वह अचकचाया, ''जी!'' ''जनाब किसे पूछते थे?'' ''जी, मैं पूछता था कि मकान खाली है।'' ढीले पाजामे वाले व्यक्ति ने उसे ऐसे देखा कि जैसे वह कोई चोर या उठाईगीरा हो। फिर मुंह बनाकर तलखी से जवाब दिया, ''जनाब तशरीफ ले जाइए वरना...'' आगे उसने क्या कहा वह यह सुनने के लिए नहीं रुका। उसकी गति में तूफान भर उठा, उसके मस्तिष्क में बवंडर उठ खड़ा हुआ और उसका चिन्तन गति की चट्टान पर टकराकर पाश-पाश हो गया। उसे जब होश आया तो वह अनारकली से लेकर माल तक का समूचा बांजार लाँघ चुका था। वह बहुत दूर निकल आया था। वहाँ आकर वह तेजी से काँपा। एक टीस ने उसे कुरेद डाला, जैसे बढ़ई ने पेच में पेचकश डालकर पूरी शिक्त के साथ उसे घुमाना शुरू कर दिया हो। हाईकोर्ट की शानदार इमारत उसके सामने थी। वह दृष्टि गड़ाकर उसके कंगूरों को देखने लगा। उसने बरामदे की कल्पना की। उसे याद आया—वह कहाँ बैठता था, वह कौन से कपड़े पहनता था कि सहसा उसका हाथ सिर पर गया जैसे उसने सांप को छुआ हो। उसने उसी क्षण हाथ खींच लिया पर मोहक स्वप्नों ने उस रंगीन दुनिया की रंगीनी को उसी तरह बनाए रखा। वह तब इस दुनिया में इतना डूब चुका था कि बाहर की जो वास्तविक दुनिया है वह उसके लिए मृगतृष्णा बन गयी थी। उसने अपने पैरों के नीचे की धरती को ध्यान से देखा, देखता रहा। सिनेमा की तस्वीरों की तरह अतीत की एक दुनिया, एक शानदार दुनिया उसके अन्तस्तल पर उतर आयी। वह इसी धरती पर चला करता था। उसके आगे-पीछे उसे नमस्कार करते, सलाम झुकाते, बहुत से आदमी आते और जाते थे। दूसरे वकील हाथ मिलाकर शिष्टाचार प्रदर्शित करते और... विचारों के हनुमान ने समुद्र पार करने के लिए छलाँग लगायी। उसका ध्यान जज के कमरे पर जाकर केन्द्रित हो गया। जब वह अपने केस में बहस शुरू करता तो कमरे में सन्नाटा छा जाता। केवल उसकी वाणी की प्रतिध्वनि ही वहाँ गूँजा करती, केवल 'मी लार्ड' शब्द बार-बार उठता और 'मी लार्ड' कलम रख कर उसकी बात सुनते... हनुमान फिर कूदे। अब वह बार एसोसिएशन के कमरे में आ गया था। इस कमरे में न जाने कितने बेबाक कहकहे उसने लगाये, कितनी बार राजनीति पर उत्तेजित कर देनेवाली बहसें कीं, महापुरुषों को श्रद्धाजलियाँ अर्पित कीं, विदा और स्वागत के खेल खेले... वह अब उस कुर्सी के बारे में सोचने लगा जिस पर वह बैठा करता था। उसे कमरे की दीवार के साथ-साथ दरवाजे के पायदान की याद भी आ गयी। कभी-कभी ये छोटी-छोटी तंफसीलें आदमी को कितना सकून पहुंचाती हैं। इसीलिए वह सब-कुछ भूलकर सदा की तरह झूमता हुआ आगे बढ़ा, पर तभी जैसे किसी ने उसे कचोट लिया। उसने देखा कि लॉन की हरी घास मिट्टी में समा गयी है। रास्ते बन्द हैं। केवल डरावनी आँखों वाले सैनिक मशीनगन संभाले और हैलमेट पहने तैयार खड़े हैं कि कोई आगे बढ़े और वे शूट कर दें। उसने हरी वर्दी वाले होमगार्डों को भी देखा और देखा कि राइफल थामे पठान लोग जब मन में उठता है तब फायर कर देते हैं। वे मानो छड़ी के स्थान पर राइफल का प्रयोग करते हैं और उनके लिए जीवन की पवित्रता बन्दूक की गोली की सफलता पर निर्भर करती है। उसे स्वयं जीवन की पवित्रता से अधिक मोह नहीं था। वह खंडहरों के लिए आँसू भी नहीं बहाता था। उसने अग्नि की प्रज्वलित लपटों को अपनी आँखों से उठते देखा था। उसे तब खाण्डव-वन की याद आ गयी थी जिसकी नींव पर इन्द्रप्रस्थ-सरीखे वैभवशाली और कलामय नगर का निर्माण हुआ था। तो क्या इस महानाश की उस कला के कारण महाभारत सम्भव हुआ, जिसने इस अभागे देश के मदोन्मत, किन्तु जर्जरित शौर्य को सदा के लिए समाप्त कर दिया। क्या आज फिर वही कहानी दोहरायी जानेवाली है। एक दिन उसने अपने बेटे से कहा, ''जिन्दगी न जाने क्या-क्या खेल खेलती है। वह तो बहुरूपिया है। दूसरी दुनिया बनाते हमें देर नहीं लगती। परमात्मा ने मिट्टी इसलिए बनायी कि हम उसमें से सोना पैदा करें।'' बेटा बाप का सच्चा उत्तराधिकारी था। उसने परिवार को एक छोटे-से कस्बे में छोड़ा और आप आगे बढ़ गया। वह अपनी उजड़ी हुई दुनिया फिर से बसा लेना चाहता था, पर तभी अचानक छोटे भाई का तार मिला। लिखा था, ''पिताजी न जाने कहाँ चले गये!'' तार पढ़कर बड़ा भाई घबरा गया। वह तुरन्त घर लौटा और पिता की खोज करने लगा। उसने मित्रों को लिखा, रेडियो पर समाचार भेजे, अंखबारों में विज्ञापन निकलवाये। सब कुछ किया, पर वह यह नहीं समझ सका, कि आंखिर वे कहाँ गये और €यों गये। वह उसी उधेड़-बुन में था कि एक दिन सवेरे-सवेरे क्या देखता है कि उसके पिता चले आ रहे हैं शान्त निर्द्वन्द्व और निर्लिप्त। ''आप कहाँ चले गये थे?'' प्रथम भावोद्रेक समाप्त होने पर उसने पूछा। शान्त मन से पिता ने उत्तर दिया, ''लाहौर।'' ''लाहौर,'' पुत्र अविश्वास से काँप उठा, ''आप लाहौर गये थे?'' ''हां।'' ''कैसे?'' पिता बोले, ''रेले में बैठकर गया था, रेल में बैठकर आया हूं।'' ''पर आप वहाँ क्यों गये थे?'' ''क्यों गया था,'' जैसे उनकी नींद टूटी। उन्होंने अपने-आपको संभालते हुए कहा, ''वैसे ही, देखने के लिए चला गया था।'' और आगे की बहस से बचने के लिए वे उठकर चले गये। उसके बाद उन्होंने इस बारे में किसी प्रश्न का जवाब देने से इनकार कर दिया। पुत्रों ने पिता में आनेवाले इस परिवर्तन को देखा, पर न तो वे उन्हें समझा सकते थे, न उन पर क्रोध कर सकते थे, हां, पंजाब की बात चलती तो आह भरकर कह देते थे, ''गया पंजाब! पंजाब अब कहाँ है?'' पुत्र फिर काम पर लौट गये और वे भी घर की व्यवस्था करने लगे। इसी बीच में वे फिर एक दिन लाहौर चले गये, परन्तु इससे पहले कि उनके पुत्र इस बात को जान सकें, वे लौट आये। पत्नी ने पूछा, ''आंखिर क्या बात है?'' ''कुछ नहीं।'' ''कुछ नहीं कैसे? आप बार-बार वहाँ क्यों जाते हैं?'' तब कई क्षण चुप रहने के बाद उन्होंने धीरे से कहा, ''क्यों जाता हूं, क्योंकि वह मेरा वतन है। मैं वहीं पैदा हुआ हूं। वहाँ की मिट्टी में मेरी जिन्दगी का रांज छिपा है। वहाँ की हवा में मेरे जीवन की कहानी लिखी हुई है।'' पत्नी की आँखें भर आयीं, बोली, ''पर अब €या, अब तो सब-कुछ गया।'' ''हां, सब-कुछ गया।'' उन्होंने कहा, ''मैं जानता हूं अब कुछ नहीं हो सकता, पर न जाने €या होता है, उसकी याद आते ही मैं अपने-आपको भूल जाता हूं और मेरा वतन मिकनातीस की तरह मुझे अपनी ओर खींच लेता है।''
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06-02-2011, 08:16 AM | #16 |
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Re: हिंदी कहानियाँ
2...
पत्नी ने जैसे पहली बार अपने पति को पहचाना हो। अवाक्-सी दो क्षण वैसे ही बैठी रही। फिर बोली, ''आपको अपने मन को संभालना चाहिए। जो कुछ चला गया उसका दु:ख तो जिन्दगी-भर सालता रहेगा। भाग्य में यही लिखा था, पर अब जान-बूझकर आग में कूदने से क्या लाभ?'' ''हां, अब तो जो-कुछ बचा है उसी को सहेजकर गाड़ी खींचना ठीक है।''—उसने पत्नी से कहा और फिर जी-जान से नये कार्य-क्षेत्र में जुट गया। उसने फिर वकालत का चोगा पहन लिया। उसका नाम फिर बार-एसोसिएशन में गूँजने लगा। उसने अपनी जिन्दगी को भूलने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। और शीघ्र ही वह अपने काम में इतना डूब गया कि देखनेवाले दाँतों तले उँगली दबाकर कहने लगे, ''इन लोगों में कितना जीवट है। सैकड़ों वर्षों में अनेक पीढ़ियों ने अपने को खपाकर जिस दुनिया का निर्माण किया था वह क्षण-भर में राख का ढेर हो गयी, और बिना आँसू बहाये; उसी तरह दुनिया ये लोग क्षणों में बना देना चाहते हैं।'' उनका अचरज ठीक था। तम्बुओं और कैम्पों के आस-पास, सड़कों के किनारे, राह से दूर भूत-प्रेतों के चिर-परिचित अड्डों में, उजड़े गाँवों में, खोले और खादर में, जहाँ कहीं भी मनुष्य की शक्ति कुंठित हो चुकी थी वहीं ये लोग पहुँच जाते थे और पादरी के नास्तिक मित्र की तरह नरक को स्वर्ग में बदल लेते थे। इन लोगों ने जैसे कसम खायी थी कि धरती असीम है, शि€त असीम है, फिर निराशा कहाँ रह सकती है? ठीक उसी समय जब उसका बड़ा पुत्र अपनी नयी दुकान का मुहूर्त करनेवाला था, उसे एक बार फिर छोटे भाई का तार मिला, ''पिताजी पाँच दिन से लापता हैं।'' पढ़कर वह क्रुध्द हो उठा और तार के टुकड़े-टुकड़े करके उसने दूर फेंक दिये। चिनचिनाकर बोला, ''वे नहीं मानते तो उन्हें अपने किये का फल भोगना चाहिए। वे अवश्य लाहौर गये हैं।'' उसका अनुमान सच था। जिस समय वे यहाँ चिन्तित हो रहे थे उसी समय लाहौर के एक दूकानदार ने एक अर्द्ध-विक्षिप्त व्यक्ति को, जो तहमद लगाये, फैज कैप ओढ़े, फटी-फटी आँखों से चारों ओर देखता हुआ घूम रहा था, पुकारा, ''शेख साहब! सुनिए तो। बहुत दिन में दिखाई दिए, कहाँ चले गये थे?'' उस अर्द्ध-विक्षिप्त पुरुष ने थकी हुई आवांज में जवाब दिया, ''मैं अमृतसर चला गया था।'' ''क्या,'' दूकानदार ने आँखें फाड़कर कहा, ''अमृतसर!'' 'हाँ, अमृतसर गया था। अमृतसर मेरा वतन है।' दूकानदार की आँखें क्रोध से चमक उठीं, बोला, ''मैं जानता हूं। अमृतसर में साढे तीन लाख मुसलमान रहते थे, पर आज एक भी नहीं है।'' ''हां,'' उसने कहा, ''वहाँ आज एक भी मुसलमान नहीं है।'' ''काफिरों ने सबको भगा दिया, पर हमने भी कसर नहीं छोड़ी। आज लाहौर में एक भी हिन्दू या सिक्ख नहीं है और कभी होगा भी नहीं।'' वह हँसा, उसकी आँखें चमकने लगीं। उसमें एक ऐसा रंग भर उठा जो बे-रंग था और वह हँसता चला गया, हँसता चला गया...''वतन, धरती, मोहब्बत सब कितनी छोटी-छोटी बातें हैं...सबसे बड़ा मजहब है, दीन है, खुदा का दीन। जिस धरती पर खुदा का बन्दा रहता है, जिस धरती पर खुदा का नाम लिया जाता है, वह मेरा वतन है, वही मेरी धरती है और वही मेरी मोहब्बत है।'' दुकानदार ने धीरे से अपने दूसरे साथी से कहा, ''आदमी जब होश खो बैठता है, तो कितनी सच्ची बात कहता है।'' साथी ने जवाब दिया, ''जनाब! तब उसकी जबान से खुदा बोलता है।'' ''बेशक,'' उसने कहा और मुड़कर उस अर्द्ध-विक्षिप्त से बोला—''शेख साहब! आपको घर मिला?'' ''सब मेरे ही घर हैं।'' दुकानदार मुस्कराया, ''लेकिन शेख साहब! जरा बैठिए तो, अमृतसर में किसी ने आपको पहचाना नहीं।'' वह ठहाका मारकर हँसा, ''तीन महीने जेल में रहकर लौटा हूं।'' ''सच।'' ''हां,'' उसने आँखें मटकाकर कहा। ''तुम जीवट के आदमी हो।'' और तब दुकानदार ने खुश होकर उसे रोटी और कवाब मंगाकर दिए। लापरवाही से उन्हें पल्ले में बाँधकर और एक टुकड़े को चबाता हुआ वह आगे बढ़ गया। दुकानदार ने कहा, ''अजीब आदमी है। किसी दिन लखपती था, आज फाकामस्त है।'' ''खुदा अपने बन्दों का खूब इम्तहान लेता है।'' ''जन्नत ऐसे को ही मिलता है।'' ''जी हां। हिम्मत भी खूब है। जान-बूझकर आग में जा कूदा।'' ''वतन की याद ऐसी ही होती है।'' उसके साथी ने जो दिल्ली का रहनेवाला था कहा, ''अब भी जब मुझे दिल्ली की याद आती है तो दिल भर आता है।'' उतने कष्ट की कल्पना करना जो दूसरे ने भोगा है असम्भव जैसा है, फिर भी यातना की समानता के कारण दो मित्र व्यक्तियों की संवेदना एक बिन्दु पर आकर एक हो जाती है। वह आगे बढ़ रहा था। माल पर भीड़ बढ़ रही थी। कारें भी कम नहीं थीं। अँग्रेंज, एंग्लो-इंडियन तथा ईसाई नारियाँ पहले की तरह ही बांजार में देखी जा सकती थीं। फिर भी उसे लगा कि वह माल जो उसने देखी थी यह नहीं है। शरीर अवश्य कुछ वैसा ही है, पर उसकी आत्मा वह नहीं है। लेकिन यह भी उसकी दृष्टि का दोष था। कम-से-कम वे जो वहाँ घूम रहे थे उनका ध्यान आत्मा की ओर नहीं था। एकाएक वह पीछे मुड़ा। उसे रास्ता पूछने की जरूरत नहीं थी। बैल अपनी डगर को पहचानते हैं। उसके पैर भी दृढ़ता से रास्ते पर बढ़ रहे थे और विश्वविद्यालय की आलीशान इमारत एक बार फिर सामने आ रही थी। उसने नुमायश की ओर एक दृष्टि डाली, फिर बुलनर के बुत की तरफ से होकर वह अन्दर चला गया। उसे किसी ने नहीं रोका। वह लॉ कॉलिज के सामने निकल आया। उसी क्षण उसका दिल एक गहरी हूक से टीसने लगा। कभी वह इस कॉलेज में पढ़ा करता था... वह काँपा, उसे याद आया, उसने इस कॉलेज में पढ़ाया भी है... वह फिर काँपा। हूक फिर उठी। उसकी आँखें भर आयीं। उसने मुंह फेर लिया। उसके सामने अब वह रास्ता था जो उसे दयानन्द कॉलेज ले जा सकता था। एक दिन पंजाब विश्वविद्यालय, दयानन्द विश्वविद्यालय कहलाता था। तभी एक भीड़ उसके पास से निकल आयी। वे प्राय: सभी शरणार्थी थे। बे-घर और बे-जर लेकिन उन्हें देखकर उसका दिल पिघला नहीं, कड़वा हो आया। उसने चीख-चीखकर उन्हें गालियाँ देनी चाहीं। तभी पास से जानेवाले दो व्यक्ति उसे देखकर ठिठक गये। एक ने रुककर उसे ध्यान से देखा, दृष्टि मिली, वह सिहर उठा। सर्दी गहरी हो रही थी और कपड़े कम थे। वह तेजी से आगे बढ़ गया। वह जल्दी-से-जल्दी कॉलेज-कैम्प में पहुँच जाना चाहता था। उन दो व्यक्तियों में से एक ने, जिसने उसे पहचाना था, दूसरे से कहा—''मैं इसको जानता हूं।'' ''कौन है?'' ''हिन्दू।'' साथी अचकचाया, ''हिन्दू !'' ''हां, हिन्दू। लाहौर का एक मशहूर वकील...।'' और कहते-कहते उसने ओवरकोट की जेब में से पिस्तौल निकाल लिया। वह आगे बढ़ा। उसने कहा, ''जरूर यह मुखबिरी करने आया है।'' उसके बाद गोली चली। एक हल्की-सी हलचल, एक साधारण-सी खटपट। एक व्यक्ति चलता-चलता लड़खड़ाया और गिर पड़ा। पुलिस ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया, परन्तु जो अनेक व्यक्ति कुतूहलवश उस पर झुक आये थे, उनमें से एक ने उसे पहचान लिया। वह हतप्रभ रह गया और यन्त्रवत् पुकार उठा ''मिस्टर पुरी ! तुम यहाँ कैसे...!'' मिस्टर पुरी ने आँखें खोलीं, उनका मुख श्वेत हो गया था और उस पर मौत की छाया मंडरा रही थी। उन्होंने पुकारने वाले को देखा और पहचान लिया। धीरे से कहा, ''हसन...!'' आँखें फिर मिच गयीं। बदहवास हसन ने चिल्लाकर सैनिक से कहा, ''जल्दी करो। टैक्सी लाओ। मेयो अस्पताल चलना है। अभी...'' भीड़ बढ़ती जा रही थी। फौज, पुलिस और होमगार्ड सबने घेर लिया। हसन, जो उसका साथी था, जिसके साथ वह पढ़ा था, जिसके साथ उसने साथी और प्रतिद्वन्दी बनकर अनेक मुकदमे लड़े थे, वह अब उसे भीगी-भीगी आँखों से देख रहा था। एक बार झुककर उसने फिर कहा, ''तुम यहाँ इस तरह क्यों आये, मिस्टर पुरी?'' मिस्टर पुरी ने इस बार प्रयत्न करके आँखें खोलीं और वे फुसफसाये, ''मैं यहाँ क्यों आया? मैं यहाँ से जा ही कहाँ सकता हूं? यह मेरा वतन है, हसन ! मेरा वतन...!'' फिर उसकी यातना का अन्त हो गया।
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08-02-2011, 05:05 PM | #17 |
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Re: हिंदी कहानियाँ
एक लम्हे की प्रेम कहानी - कु0 नीरज तोमर
वो एक लम्हा, उसकी वो एक नज़र और उस क्षण का वो तूफान जिसने जिन्दगी के मायने ही बदल दिये। मैं कभी उस दिन को नहीं भूल पाऊगाँ। मेरी जिन्दगी का वो एक पन्ना जिस पर दर्द की कलम से मेरी प्रेम कहानी अनजाने में ही चित्रित हो गई। जी हाँ, मेरी प्रेम कहानी। ये प्रेम कहानी कुछ लम्हों की है पर इसका अहसास मानों सदियों पुराना हो। इस कहानी में दर्द प्रेम से ज्यादा व्याप्त है, ऐसा कहकर शायद अपने इस अमर प्रेम को मैं गाली दे जाऊँ। क्योंकि प्रेम का समय से कोई सम्बन्ध नहीं होता। शायद आपको विश्वास न हो। पर मुझे यकीन है मेरी कहानी जानकर आप न केवल इस बात पर विश्वास करेंगें बल्कि इसका यकींन आपके रोम-रोम में बस जायेगा और प्यार के लिए आपकी धारणा बदल जायेगी। यह एक ऐसी निश्चछल प्रेम कथा है जो प्यार के ज़ज्बातों को अमरत्व की माला में पिरोती है। ये कहानी शुरू होती है कोहलापुर में भड़क रहे दंगों से। कोहलापुर के हालात बद से बदत्तर हो गये थे। चारों ओर एक ऐसा अजीब सा सन्नाटा था जो चीख-चीखकर वहाँ के लोगों की मौत के दर्द को गा रहा था। लोगों के अन्दर डर का ऐसा आतंक था कि कोयल की आवाज भी उन्हें कर्कश और आतंकित करने वाली प्रतीत हो रही थी। बच्चे जिनका नन्हा बचपन सड़क, पार्क आदि में खेलकर गुजरता था, वो आज घर की चार दीवारी में कैद सिसकियाँ ले रहे थे। लोगों के आतंकित चेहरों पर पड़ी सिकुड़न उनके हर पल मौत के खौफ को बयाँ कर रही थी। लोग समझ नहीं पा रहे थे कि वे जी-जी कर मर रहे हैं या मर-मर कर जी रहे हैं। ओह! कितना घुटन भरा वातावरण था वो सब। जिन्दगी नरक सी लगने लगी थी। असल में ये दंगा प्रत्येक समुदाय के लोग शहर में शान्ति व्यवस्था के बिगड़ते हालातों के खिलाफ कर रहे थे। लोगों में असंतोष था कि क्यों उनके शहर की शान्ति व्यवस्था की हालत इतनी दरिद्र्र है? पर कोई उन्हें यह कैसे समझाये कि सुख-शान्ति, चैन-आराम के अर्थ जिस दिन वे समझ जायेंगें, सबसे पहले ये दंगे समाप्त हो जायेंगें। ये लोगों की संकीर्ण मानसिकता नहीं तो और क्या है कि वे जिस चीज के लिए लड़ रहे हैं, सबसे पहले उसी का तिरस्कार कर रहे है। यही तिरस्कृत शान्ति अचानक गली-मोहल्ले से विलुप्त होने लगी। अचानक एक ओर से कुछ हाहाकार की आवाजें आने लगी। मैं कुछ समझ नहीं पाया। और जब तक कुछ समझता, दंगाईयों की एक टोली बहुत तेजी के साथ मेरी ओर बढ़ती चली जा रही थी। वे लोग ईंट, पत्थर, तलवार, लोहे की छड़, लाठी, मशाल आदि हथियार लिये दौड़े चले आ रहे थे। एक बार तो उन्हें देखकर मेरी सांसे थम ही गई। मैं मिट्टी के बूत की भाँति स्थिर हो गया। मैं चाह रहा था कि भाग जाऊँ पर डर के मारे मैं अपनी जगह जड़ हो गया था। कितना लाचार था मैं उस समय। पर फिर याद आया कि मैं पुलिस की सुरक्षा में खड़ा हूँ। हालांकि यह असुरक्षित सुरक्षा थी। पर मेरे लिए यह डूबते में तिनके का सहारा बनी हुई थी। पर मैं कौन हूँ? जिसे इतनी सुरक्षा मिली है। नहीं- नहीं मैं कोई वी0 आई0 पी0 नहीं हूँ जो उन दंगाइयों की दलील सुनने वहाँ आया हूँ। हालाँकि मेरी उस समय की मनोदशा, दिल का खौफ और परजीवी प्रकृति (पुलिस वालों पर आश्रित होना) बाह्य रूप से मुझे किसी वी0 आई0 पी0 से कम नहीं आँक सकती थी। पर वास्तविकता तो यह है कि मैं तो एक मामूली सा पत्रकार हूँ जो अपनी पूरी टीम के साथ घटना स्थल की रिर्पोटिंग के लिए वहाँ उपस्थित था। पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जो साहस की बुनियाद पर अपना करियर बनाता है। जो अपने जज्.बे और जुनून से अँधेरे में दबे सच को रोशनी दिखाकर दुनिया को वास्तविकता से रूबरू कराता है। इस पेशे में स्पष्टवादिता, चतुरता और इन सभी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण ‘साहस’ की आवश्यकता होती है। पर उस दिन मुझे अपने साहस का अहसास हुआ। मेरे इस विशालकय शरीर में चूहे का दिल निवास करता है। मुझे अच्छी तरह याद है स्कूल-कॉलेज की हर क्लास में अपनी वीरता के हमने ढ़ेरों किस्से गाये थे। लड़कियों पर इम्प्रैशन ड़ालने के लिए ऊँची-ऊँची आवाज में ड़ींगे मारना। उल्टे-सीधे फिल्मी डायलॉग बोलना। किसी भी दब्बू लड़के को पीटकर खुद को हीरो साबित करना, क्लास की बैंच पर कूदकर खुद को जिम्नास्ट साबित करना और ऐसे अनगिनत ख्याल एक ही पल में एक के बाद एक मेरे दिमाग में आते जा रहे थे। पर आज सच के एक दृश्य ने मेरी भ्रम के बादलों की दुनिया को कहीं विलुप्त कर दिया। ओह! कितना शर्मिंदगी महसूस की उस वक्त मैंने। कल्पना से बाहर की दुनिया कितनी निदर्यी है और इसी के साथ ही मैंने अपने करियर को असफलता के पर से उड़ते देखा। मेरे पैर धीरे-धीरे पीछे हटने लगे थे। और आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा था। धुँधले से इस माहौल के बीच इक हल्की सी रोशनी ने मुझे भ्रम और वास्तविकता के बीच उलझा दिया। मुझे लगा जैसे कोई झाँसी की रानी की तरह उस युद्ध के मैदान में अपने शौर्य का परिचय देती हुई आगे बढ़ रही है। पर ये क्या.............. एक झलक के बाद ही वो कहाँ खो गई। शायद मेरी ही आँखों का धोखा था। डर के कारण कुछ-कुछ दिखाई दे रहा था। शायद मेरे अंदर कहीं किसी कोने में छुपा बैठा साहस मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने की असफल कोशिश कर रहा था। क्योंकि अब मैं पुलिस व दंगाईयों की टोली के बीच खुद को ढूँढ़ रहा था कि मैं किस की तरफ खड़ा हूँ कि अचानक............. वही धुंधला चेहरा जो अब सच बनकर मेरी बाहों में पड़ा था। वो बेचैन सा शरीर मेरी बाहों के सहारे में अचानक खुद को सहज महसूस करने लगा। उसके उस मासूम से चेहरे पर बेखौफ हिम्मत की चमक मुझे सम्मोहित कर रही थी। उसके गुलाबी गालों पर धूल की हल्की सी परत वाला वो चेहरा काली घटा में से झाँकते चाँद सा लग रहा था। और उस पर वो पसीने की बूँदे जैसे चाँद की रोशनी से टिमटिमाते तारे। वो बड़ी-बड़ी आँखें जो मेरी आँखों पर थम गई थी, उनमें लगा काजल जो थोड़ा सा बह गया था मानो नीले आकाश में बहती घटा हो। भगवान ने उसके चेहरे के एक-एक भाग को बखूबी तराशा था। मेरी बाहों में उसकी वो मजबूत पकड़ मेरे अंदर उसके प्रेम का संचार कर रही थी। 15 सेकण्ड का वो समय जिसमें हम न कुछ कह पाये, न कुछ समझ पाये। बस समझे तो वो वादा जो आँखों ही आँखों में हमने एक दूसरे से किया कि “हम सिर्फ एक दूसरे के लिए बने है।” उन 15 सेकण्ड में हमने आँखों ही आँखों में जीवन भर साथ निभाने की कसमें खा ली। हम पूरी निष्ठा से सारी उम्र एक दूसरे का साथ निभायेंगें। अपने दिल के भावों को शब्दों में पिरोते हुए मैंने अपने लब खोलने ही चाहे कि अचानक.............. उसके गुलाबी चेहरे पर चमकती पसीने की बूँदे लाल हो गई। मेरे हाथों में एक झटके के साथ उसका भार कम हो गया। जमीन पर पड़ा उसका धड़ और मेरे हाथों में उसका सर। उसकी वो बड़ी-बड़ी खुली आँखें अभी भी मुझसे कह रही थी ‘‘हम जीवन भर साथ रहेगें।’’ और मैं हकदम उसकी आँखों के विश्वास को अपना विश्वास नहीं बना पा रहा था। दिल कहता है कि वो झूठ नहीं बोल सकती। दिमाग कहता है कि वो अब नहीं.................. दंगाईयों ने मेरी बाहों में ही उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। और मैं आवाक् खड़ा सब देखता रहा। आज भी उसकी आँखें मुझे उसके प्यार का अहसास कराती हैं। उसका वो क्षणिक स्पर्श आज भी मेरी यादों में बसा है। इसके साथ-साथ एक ग्लानि जो उस क्षण से आज तक मेरे अन्दर है-‘‘कि वो मेरी कायरता के असुरक्षित घेरे में मुझसे दूर हो गई। मेरा एक पल का साहस हमारे एक पल में देखे उस सपने को साकार कर सकता था। मेरा क्षणिक आत्मविश्वास हमें जीवन की डगर पर साथ-साथ कदम बढ़ाने में सहायक होता। पर सच तो यह है कि आज भी मैं उन मृत सपनों को जीवित करने के एक और भ्रम में खो चुका हूँ...................
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08-02-2011, 05:17 PM | #18 |
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Re: हिंदी कहानियाँ
मेरी माँ कहाँ - कृष्णा सोबती की कहानी
दिन के बाद उसने चाँद-सितारे देखे हैं। अब तक वह कहाँ था? नीचे, नीचे, शायद बहुत नीचे...जहाँ की खाई इनसान के खून से भर गयी थी। जहाँ उसके हाथ की सफाई बेशुमार गोलियों की बौछार कर रही थी। लेकिन, लेकिन वह नीचे न था। वह तो अपने नये वतन की आंजादी के लिए लड़ रहा था। वतन के आगे कोई सवाल नहीं, अपना कोई खयाल नहीं! तो चार दिन से वह कहाँ था? कहाँ नहीं था वह? गुंजराँवाला, वजीराबाद, लाहौर! वह और मीलों चीरती हुई ट्रक। कितना घूमा है वह? यह सब किसके लिए? वतन के लिए, कौम के लिए और...? और अपने लिए! नहीं, उसे अपने से इतनी मुहब्बत नहीं! क्या लम्बी सड़क पर खड़े-खड़े यूनस खाँ दूर-दूर गाँव में आग की लपटें देख रहा है? चीखों की आवांज उसके लिए नयी नहीं। आग लगने पर चिल्लाने में कोई नयापन नहीं। उसने आग देखी है। आग में जलते बच्चे देखे हैं, औरतें और मर्द देखे हैं। रात-रातभर जलकर सुबह खाक हो गये मुहल्लों में जले लोग देखे हैं! वह देखकर घबराता थोड़े ही है? घबराये क्यों? आजादी बिना खून के नहीं मिलती, क्रान्ति बिना ंखून के नहीं आती, और, और, इसी क्रान्ति से तो उसका नन्हा-सा मुल्क पैदा हुआ है! ठीक है। रात-दिन सब एक हो गये। उसकी ऑंखें उनींदी हैं, लेकिन उसे तो लाहौर पहुँचना है। बिलकुल ठीक मौके पर। एक भी काफिर जिन्दा न रहने पाये। इस हल्की-हल्की सर्द रात में भी 'काफिर' की बात सोचकर बलोच जवान की ऑंखें खून मारने लगीं। अचानक जैसे टूटा हुआ क्रम फिर जुड़ गया है। ट्रक फिर चल पड़ी है। तेज रंफ्तारसे। सड़क के किनारे-किनारे मौत की गोदी में सिमटे हुए गाँव, लहलहाते खेतों के आस-पास लाशों के ढेर। कभी-कभी दूर से आती हुई अल्ला-हो-अकबर' और 'हर-हर महादेव' की आवांजें। 'हाय, हाय'...'पकड़ो-पकड़ो'...मारो-मारो'...। यूनस खाँ यह सब सुन रहा है। बिलकुल चुपचाप इससे कोई सरोकार नहीं उसे। वह तो देख रहा है अपनी ऑंखों से एक नयी मुंगलिया सल्तनतशानदार, पहले से कहीं ज्यादा बुलन्द...। चाँद नीचे उतरता जा रहा है। दूध-सी चाँदनी नीली पड़ गयी है। शायद पृथ्वी का रक्त ऊपर विष बनकर फैल गया है। ''देखो, जरा ठहरो।'' यूनस खाँ का हाथ ब्रेक पर है। यहयह क्या? एक नन्ही-सी, छोटी-सी छाया! छाया? नहींरक्त से भीगी सलवार में मूर्च्छित पड़ी एक बच्ची! बलोच नीचे उतरता है। जख्मी है शायद! मगर वह रुका क्यों ? लाशों के लिए कब रुका है वह? पर यह एक घायल लड़की...। उससे क्या? उसने ढेरों के ढेर देखे हैं औरतों के...मगर नहीं, वह उसे जरूर उठा लेगा। अगर बच सकी तो...तो...। वह ऐसा क्यों कर रहा है यूनस खाँ खुद नहीं समझ पा रहा...। लेकिन अब इसे वह न छोड़ सकेगा...काफिर है तो क्या? बड़े-बड़े मजबूत हाथों में बेहोश लड़की। यूनस ख़ाँ उसे एक सीट पर लिटाता है। बच्ची की ऑंखें बन्द हैं। सिर के काले घने बाल शायद गीले हैं। खून से और, और चेहरे पर...? पीले चेहरे पर...रक्त के छींटे। यूनस खाँ की उँगलियाँ बच्ची के बालों में हैं और बालों का रक्त उसके हाथों में...शायद सहलाने के प्रयत्न में! पर नहीं, यूनस खाँ इतना भावुक कभी नहीं था। इतना रहमइतनी दया उसके हाथों में कहाँ से उतर आयी है? वह खुद नहीं जानता। मूर्च्छित बच्ची ही क्या जानती है कि जिन हाथों ने उसके भाई को मारकर उस पर प्रहार किया था उन्हीं के सहधर्मी हाथ उसे सहला रहे हैं! यूनस खाँ के हाथों में बच्ची...और उसकी हिंसक ऑंखें नहीं, उसकी आर्द्र ऑंखें देखती हैं दूर कोयटे मेंएक सर्द, बिलकुल सर्द शाम में उसके हाथों में बारह साल की खूबसूरत बहिन नूरन का जिस्म, जिसे छोड़कर उसकी बेवा अम्मी ने ऑंखें मूँद ली थीं। सनसनाती हवा मेंकब्रिस्तान में उसकी फूल-सी बहिन मौत के दामन में हमेशा-हमेशा के लिए दुनिया से बेंखबर...और उस पुरानी याद में काँपता हुआ यूनस खाँ का दिल-दिमाग। आज उसी तरह, बिलकुल उसी तरह उसके हाथों में...। मगर कहाँ है वह यूनस खाँ जो कत्ले-आम को दीन और ईमान समझकर चार दिन से खून की होती खेलता रहा है...कहाँ है? कहाँ है? यूनस खाँ महसूस कर रहा है कि वह हिल रहा है, वह डोल रहा है। वह कब तक सोचता जाएगा। उसे चलना चाहिए, बच्ची के जख्म!...और फिर, एक बार फिर थपथपाकर, आदर से, भीगी-भीगी ममता से बच्ची को लिटा यूनस खाँ सैनिक की तेजी से ट्रक स्टार्ट करता है। अचानक सूझ जानेवाले कर्तव्य की पुकार में। उसे पहले चल देना चाहिए था। हो सकता है यह बच्ची बच जाए उसके जख्मों की मरहम-पट्टी। तेज, तेज और तेज ! ट्रक भागी जा रही है। दिमाग सोच रहा है वह क्या है? इसी एक के लिए क्यों? हजारों मर चुके हैं। यह तो लेने का देना है। वतन की लड़ाई जो है! दिल की आवाज है चुप रहो...इन मासूम बच्चों की इन कुरबानियों का आजादी के खून से क्या ताल्लुक ? और नन्ही बच्ची बेहोश, बेखबर... लाहौर आनेवाला है। यह सड़क के साथ-साथ बिछी हुई रेल की पटरियाँ। शाहदरा और अब ट्रक लाहौर की सड़कों पर है। कहाँ ले जाएगा वह ? मेयो हास्पिटल या सर गंगाराम ?...गंगाराम क्यों? यूनस ख़ाँ चौंकता है। वह क्या उसे लौटाने जा रहा है? नहीं, नहीं, उसे अपने पास रखेगा। ट्रक मेयो हास्पिटल के सामने जा रुकती है। और कुछ क्षण बाद बलोच चिन्ता के स्वर में डाक्टर से कह रहा है, ''डाक्टर, जैसे भी हो, ठीक कर दो...इसे सही-सलामत चाहता हूँ मैं !'' और फिर उत्तेजित होकर, ''डाक्टर, डाक्टर...'' उसकी आवांज संयत नहीं रहती। ''हाँ, हाँ, पूरी कोशिश करेंगे इसे ठीक करने की।'' बच्ची हास्पिटल में पड़ी है। यूनस खाँ अपनी डयूटी पर है मगर कुछ अनमना-सा हैरान फिकरमन्द। पेट्रोल कर रहा है। लाहौर की बड़ी-बड़ी सड़कों पर। कहीं-कहीं रात की लगी हुई आग से धुऑं निकल रहा है। कभी-कभी डरे हुए, सहमे हुए लोगों की टोलियाँ कुछ फौंजियों के साथ नंजर आती हैं। कहीं उसके अपने साथी शोहदों के टोलों को इशारा करके हँस रहे हैं। कहीं कूड़ा-करकट की तरह आदमियों की लाशें पड़ी हैं। कहीं उजाड़ पड़ी सड़कों पर नंगी औरतें, बीच-बीच में नारे-नारे, और ऊँचे! और यूनस खाँ, जिसके हाथ कल तक खूब चल रहे थे, आज शिथिल हैं। शाम को लौटते हुए जल्दी-जल्दी कदम भरता है। वह अस्पताल नहीं, जैसे घर जा रहा है। एक अपरिचित बच्ची के लिए क्यों घबराहट है उसे ? वह लड़की मुसलमान नहीं हिन्दू है, हिन्दू है। दरवाजे से पलंग तक जाना उसे दूर, बहुत दूर जाना लग रहा है। लम्बे लम्बे डग। लोहे के पलंग पर बच्ची लेटी है। सफेद पट्टियों से बँधा सिर। किसी भयानक दृश्य की कल्पना से ऑंखें अब भी बन्द हैं। सुन्दर-से भोले मुख पर डर की भयावनी छाया...। यूनस खाँ कैसे बुलाएक्या कहे ? 'नूरन' नाम ओठों पर आके रुकता है। हाथ आगे बढ़ते हैं। छोटे-से घायल सिर का स्पर्श, जिस कोमलता से उसकी उँगलियाँ छू रही हैं उतनी ही भारी आवाज उसके गले में रुक गयी है। अचानक बच्ची हिलती है। आहत-से स्वर में, जैसे बेहोशी में बड़बड़ातीहै ''कैम्प, कैम्प...कैम्प आ गया। भागो...भागो...भागो...'' ''कुछ नहीं, कुछ नहीं देखो, ऑंखें खोलो...'' ''आग, आग...वह गोली...मिलटरी...'' बच्ची उसे पास झुके देखती है और चीख मारती है... ''डाक्टर, डाक्टर...डाक्टर, इसे अच्छा कर दो।'' डाक्टर अनुभवी ऑंखों से देखकर कहता है, ''तुमसे डरती है। यह काफिर है, इसीलिए।'' काफिर...यूनस खाँ के कान झनझना रहे हैं ,काफिर...काफिर...क्यों बचाया जाए इसे ? काफिर?...कुछ नहीं...मैं इसे अपने पास रखूँगा! इसी तरह बीत गयी वे खूनी रातें। यूनस खाँ विचलित-सा अपनी डयूटी पर और बच्ची हास्पिटल में। एक दिन। बच्ची अच्छी होने को आयी। यूनस खाँ आज उसे ले जाएगा। डयूटी से लौटने के बाद वह उस वार्ड में आ खड़ा हुआ। बच्ची बड़ी-बड़ी ऑंखों से देखती हैउसकी ऑंखों में डर है, घृणा है और, और, आशंका है। यूनस खाँ बच्ची का सिर सहलाता है, बच्ची काँप जाती है! उसे लगता है कि हाथ गला दबोच देंगे। बच्ची सहमकर पलकें मूँद लेती है! कुछ समझ नहीं पातीकहाँ है वह ? और यह बलोच?...वह भयानक रात! और उसका भाई! एक झटके के साथ उसे याद आता है कि भाई की गर्दन गँड़ासे से दूर जा पड़ी थी! यूनस ख़ाँ देखता है और धीमे से कहता है, ''अच्छी हो न ! अब घर चलेंगे!'' बच्ची काँपकर सिर हिलाती है, ''नहीं-नहीं, घर...घर कहाँ है! मुझे तुम मार डालोगे।'' यूनस खाँ देखना चाहता था नूरन लेकिन यह नूरन नहीं, कोई अनजान है जो उसे देखते ही भय से सिकुड़ जाती है। बच्ची सहमी-सी रुक-रुककर कहती है, ''घर नहीं, मुझे कैम्प में भेज दो। यहाँ मुझे मार देंगे...मुझे मार देंगे...'' यूनस खाँ की पलकें झुक जाती हैं। उनके नीचे सैनिक की क्रूरता नहीं, बल नहीं, अधिकार नहीं। उनके नीचे है एक असह्य भाव, एक विवशता...बेबसी। बलोच करुणा से बच्ची को देखता है। कौन बचा होगा इसका? वह इसे पास रखेगा। बलोच किसी अनजान स्नेह में भीगा जा रहा है... बच्ची को एक बार मुस्कराते हुए थपथपाता है, ''चलो चलो, कोई फिक्र नहीं हम तुम्हारा अपना है...'' ट्रक में यूनस खाँ के साथ बैठकर बच्ची सोचती है ,बलोच कहीं अकेले में जाकर उसे जरूर मार देने वाला है...गोली से छुरे से! बच्ची बलोच का हाथ पकड़ लेती है, ''खान, मुझे मत मारना...मारना मत...'' उसका संफेद पड़ा चेहरा बता रहा है कि वह डर रही है। खान बच्ची के सिर पर हाथ रखे कहता है, ''नहीं-नहीं, कोई डर नहीं...कोई डर नहीं...तुम हमारा सगा के माफिक है...।'' एकाएक लड़की पहले खान का मुँह नोचने लगती है फिर रो-रोकर कहती है, ''मुझे कैम्प में छोड़ दो छोड़ दो मुझे।'' खान ने हमदर्दी से समझाया, ''सब्र करो, रोओ नहीं...तुम हमारा बच्चा बनके रहेगा। हमारे पास।'' ''नहीं''लड़की खान की छाती पर मुट्ठियाँ मारने लगी, ''तुम मुसलमान हो...तुम...।'' एकाएक लड़की नफरत से चीखने लगी, ''मेरी माँ कहाँ है! मेरे भाई कहाँ हैं! मेरी बहिन कहाँ...''
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12-02-2011, 07:06 AM | #19 |
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Re: !! प्रसिद्द हिंदी कहानियाँ !!
अहसास
"बडकी, टेबल पे नाश्ता तो लगा दो; बारात लौटने से पहले सब कम से कम नाश्ता ही कर लें....." "बडकी ...... बड़ी जीजी को गरम पानी नहीं दिया क्या? कब नहायेंगीं ? बारात आने ही वाली है.........." "बडकी....परछन का थाल तैयार किया या नहीं ?.....दुल्हन दरवाजे पर आ जायेगी तब करोगी क्या?" बडकी -बडकी-बडकी............सबको बस एक ही नाम याद रहता है जैसे......... मेहमानों से ठसाठस भरे इस घर में काम की ज़िम्मेदारी केवल बडकी की...... मशीन बन गई है बडकी जब से छोटे देवर अभय की शादी तय हुई.... शादी भी ऐसे आनन-फानन की कुछ सोचने - प्लान करने का वक्त ही नहीं.... वैसे बडकी यानि बड़ी बहू अलका को कुछ प्लान करने का हक़ ही कहाँ है ? उसके हिस्से में तो केवल कर्तव्य ही आया है। छोटे घर की है न!! इन बड़े घर के लोगों के सामने कुछ भी बोलने का अधिकार है ही कहाँ उसके पास ? जब से आई है, तब से केवल हिदायतें ही तो मिल रहीं हैं । रस्मो-रिवाज़ सीखते -सीखते पाँच साल गुज़र गए....फिर भी अम्मा जी को लगता है कि वह कुछ सीख ही नहीं पाई। |
12-02-2011, 07:07 AM | #20 |
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Re: !! प्रसिद्द हिंदी कहानियाँ !!
क्या पहनना है, क्या बोलना है, क्या बनाना है, कैसे बनाना है, सब अम्मा जी ही तो तय करतीं हैं । उसका अपना अस्तित्व तो जैसे कुछ रह ही नहीं गया ............. । यहाँ तक कि अपना नाम भी भूल गई है .........बस "बडकी" बन के रह गई है। .......भूल गई है कि कभी कॉलेज की बेहतरीन छात्राओं में से एक गिनी जाती थी वह । भूल गई है, कि उसके सलीके, उसके पहनावे , उसके बातचीत के तरीके और उसकी बुद्धिमत्ता के क़ायल थे कभी लोग.............. । उसके अपने घर में उसकी सलाह महत्वपूर्ण मानी जाती थी।
लेकिन यहाँ ?? यहाँ तो उसे ख़ुद आश्चर्य होता है अपने आप पर। कैसा दब गया है उसका व्यक्तित्व! लगता जैसे नए सिरे से कोई मूर्ति गढ़ रहा है। ये वो अलका तो नहीं जिसका उदाहरण उसके शहर की अन्य माँएँ अपनी बेटियों को दिया करतीं थीं। पाँच बरस हो गए अलका की शादी को , लेकिन आज भी नई-नवेली दुल्हन की तरह सर झुकाए सारे आदेश सर-माथे लेने पड़ते हैं। पाँच साल पहले की अलका कितनी खुशनुमा थी। एकदम ताज़ा हवा की तरह। उसकी खनकदार आवाज़ गूंजती रहती थी घर में। गुनगुनाते हुए हर काम करने की आदत थी उसकी। और इसी आदत पर बबाल हो गया यहाँ। "घर की बड़ी बहू हो । ज़रा कायदे से रहना सीखो। क्या हर वक्त मुजरा करती रहती हो.... । " मुज़रा !!! बाप रे!!!! सन्नाटे में आ गई थी अलका। नहीं। अब नहीं गाऊँगी। बस! तब से गुनगुनाना भी बंद। अलका को चटख रंग कभी पसंद नहीं आते थे। एकदम हलके पर खिले खिले से रंग उसे खूब पसंद थे। ऐसे ही रंगों की बेहतरीन साडियां भी उसने खरीदीं थीं अपनी शादी के समय। तमाम रस्मों के दौरान भारी साडियां ही पहने रही थी, लेकिन तीन - चार दिन बाद थोड़ा हल्का महसूस करने के लिए अपनी पसंद की साड़ी पहनी और कमरे से बाहर आई तो अम्मा जी ने ऐसे घूरना शुरू किया जैसे पाता नहीं कितना बड़ा अपराध हो गया हो उससे। छूटते ही बोलीं- " ये क्या मातमी कपड़े पहने हो ? हमारे यहाँ ऐसे कपड़े नई बहुएँ नहीं पहनती कोई देखे तो क्या कहे? जाओ। बदल कर आओ। अब यहाँ के हिसाब से रहना सीखो। " तब से ले कर आज तक उन्हीं की पसंद की साडियां पहनती चली आ रही है। सुबह की सब्जी शाम को भी खाई जाए अलका को ये बिल्कुल पसंद नहीं। फिर जिसे खाना हो खाए, अलका तो नहीं ही खायेगी। पूरे खाने का स्वाद ही ख़त्म हो जाता है जैसे .......................यहाँ अक्सर ही ऐसा होता है। सुबह दो सब्जियाँ बनवाई जातीं ज़ाहिर है बच भी जायेगी। ऐसे में अपनी कटोरी में ज़रा सी सब्जी ले लेती अलका उसी में किसी प्रकार निगलती खाना.....इसी बात पर सुना एक दिन अम्मा जी कह रहीं हैं- |
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