24-05-2011, 12:19 AM | #11 |
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Re: निर्मोही नुक्कड़ ... नास्तिक की चाय की दुकान
तो लीजिए चाय की पहली चुस्की ले कर हाज़िर हुआ हूँ ..... The Question of significance... or Relevance... महत्व का प्रश्न ... मैं , एक मिनट के लिए मान लेता हूँ कि है एक दैव शक्ति, जो इस ब्रह्माण्ड को चला रही है .... परन्तु क्या उसकी ओर अग्रसर होना, या होने का प्रयास करना, और इस प्रोसेस में अपना कर्म समय और ऊर्जा व्यर्थ करना, जबकि मालूम है कि वह परा मानवीय है , अप्राप्य है , क्या उचित है, क्या संगत है ??? मना कि उत्सुकता मनुष्य की प्रवृत्ति है, और अधूरा ज्ञान अति उत्सुकता की पहली और सबसे बड़ी वजह है, परन्तु उत्सुक होने और अज्ञानी होने में अंतर है, क्यूँ नही हम जितना ज्ञात है उसे मान लेते हैं, और कल्पना को उचित सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं ??? क्या एक समय सामान आवश्यकताओं के अज्ञानी समाज को एकजुट करने के लिए बनाये गए बंधनों को गहना बना कर पहनना आज के समय में उचित है ... प्रश्न, औचित्य का है दोस्तों, या पहला प्रश्न औचित्य का है , इतना तो अवश्य है .... आपका विक्की |
24-05-2011, 01:17 AM | #12 | |
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Re: निर्मोही नुक्कड़ ... नास्तिक की चाय की दुकान
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मित्र, विस्तृत और कभी ना समाप्त होने वाली चर्चा का विषय प्रस्तुत किया है / चर्चा के अंत में तीखा वाद विवाद होगा और किसी एक पक्ष को हताश होकर दूसरे पक्ष की बात को स्वीकार करना पडेगा / जैसाकि आपने स्वयं ही लिखा हैकि जिज्ञासु होना मानव मात्र का स्वभाव है / यह जिज्ञासा ही मानव को उच्चतम शिखर तक ले जाती है और धरा के मूल तक भी / आपने कहा हैकि जितना ज्ञात है उसी को मान लिया जाना चाहिए .... तब जिज्ञासा का क्या औचित्य ? फिर निरंतरता कहाँ रही ? और यह आधा अथवा कुछ ज्ञान भी कैसे आया मानव तक ? क्या बिना जिज्ञासा के ? मित्र, यथार्थ तो यही हैकि हम प्रथम सोपान पर चढ़ने के उपरान्त द्वितीय सोपान चढ़ने का प्रयत्न करते हैं ? यह भी सत्य हैकि एक सीढ़ी उतरने के बाद अगली सीढ़ी उतरकर देखने की अभिलाषा होती है ? प्रकृति का सिद्धांत ही इसी निरंतरता पर आधारित है / सभी कुछ क्रमशः उत्तरोत्तर (सकारात्मक दृष्टि में )बढ़ता रहता है और (नकारात्मक दृष्टि में) घटता रहता है ..... शिशु ... से बालक...से किशोर..... से युवा..... से प्रौढ़..... से वृद्ध ..... यही जड़ चेतन का सिद्धांत है / निरंतरता ही जिज्ञासा है / हम जिस प्रकार से एक भाषा का ज्ञान लेते हैं और फिर दूसरी का फिर तीसरी का और फिर ...... आवश्यकतानुसार हम ज्ञानार्जन करते ही रहते हैं / क्या हमें एक ही विषय का ज्ञान अर्जित करके शांत हो जाना चाहिए ? यदि वैज्ञानिक समुदाय एक खोज पर ही रुक जाते तो आज हम जिस युग में जी रहे हैं क्या उसकी कल्पना की जा सकती थी ? यदि अभियंता समुदाय एक ही प्रकार की मशीन पर कार्य करते रहते तो क्या आज हम यह कंप्यूटर आदि की कल्पना कर सकते थे ? मित्र, जिज्ञासु होना प्रकृति का अनिवार्य अंग है ऐसा ना होना मूढ़ता का दोष है / जिज्ञासु होना ज्ञानार्जन का प्रथम सोपान है / यह ज्ञानार्जन किसी भी विधा पर हो सकता है .... विज्ञान..... कृषि.....जलवायु...... योग...... वेद....अथवा पराशक्ति..... ठहर जाना मृत्यु का पर्याय है जबकि निरंतरता जीवन का / धन्यवाद /
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
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24-05-2011, 01:29 AM | #13 |
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Re: निर्मोही नुक्कड़ ... नास्तिक की चाय की दुकान
जय भैया ,
उचित कहा है , अपनी शब्दों की अस्पष्टता को मानता हूँ, और उसे परिष्कृत कर के ऐसे प्रस्तुत करूँगा ... " कल्पना के सत्य को ढूँढने की बजाय सत्य को आरोपित करने का प्रयास क्यूँ करते हैं " एक विचार या कल्पना के ऊपर अनुसन्धान करना, और एक कल्पना के ऊपर कल्पनाओं का वटवृक्ष खड़ा करना , दो पूरी तरह अलग मार्ग हैं.... मैं मानता हूँ , और आन्सटाइन आदि ने कहा भी है, जो विचार विचारातीत न हो, वह विश्व को प्रगति नहीं दे सकता, यदि आप आज से २०० वर्ष पहले किसी राजा से कहते एक समय आम जनता वायु मार्ग से यात्रा करेगी, तो वह आपको निश्चित ही शूली पर चढवा देता, पर राईट बंधुओं और अन्य कई उन्मत्त उन्मुक्त और सशक्त आत्माओं ये यह कर दिखाया, .. अनगिनत उदाहरण हैं, पर आशय इतना ही है कि रचनात्मकता और कपोल कल्पना में अंतर कुछ यूँ है .. "No idea is good enough till it comes from a good salesman" परिष्कृत, अनुभूत, सिद्ध और लॉजिकल ज्ञान, जिसे मैं आगे से 'विज्ञानं' कहूँगा, और, हाइपोथीसिस जिसका अभिन्न अंग हैं, को नकार कर, चंद लिखी हुई बातों पर विश्वास करना क्या बुद्धिमत्ता है ..... निर्यण गुणीजनों पर छोड़ता हूँ .... आपका विक्की |
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