17-11-2013, 01:54 PM | #11 |
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Re: मशीन बन गया हूँ.....
सूत्र पर आनेके लिए आपका हार्दिक आभार.............
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20-12-2013, 10:18 PM | #12 |
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Re: मशीन बन गया हूँ.....
विवशता या दिखावा :........ अंततः कार्यालय से छुट्टी नहीं मिली और मैं घर नहीं जा पा रहा हूँ। आज इस व्यस्तता के दौर में जब कभी अपने अतीत में झांक कर देखता हूँ तो मन में एक उथल-पुथल सी मच जाती है। बरबस ही दिल भर जाता है, चेहरे पर उदासी रेखांकित हो जाती है। क्या हमने यही सोचा था, अपने भविष्य के बारे में? हमने पढाई इसी-लिए की थी। एक-एक रुपये जोड़-जोड़ कर पिताजी ने फीस भरी थी मेरी पढाई के लिए। सोचा था की बेटे को भविष्य में कोई कष्ट न हो, इसलिए खुद कष्ट सहकर मुझे पढाया, अच्छी डिग्री दिलवाई। पर आज जब खुद को इस हाल में पाता हूँ, आंसू गिरने लगते है. इस वैश्वीकरण के दौर में अपने, पराये बन गए हैं और पराये से अपनापन दिखाना पड़ता है। और-तो-और कुछेक का साथ ऐसा लगने लगता है कि ये मेरे जन्मों के साथी हैं। मां – पिताजी का ख्याल शायद ही कभी ज़ेहन में आये पर यहाँ पर ऐसे बहुत से हमारे सम्बन्धी बन गए जिनको अपनापन दिखाना पड़ता है, उनकी नाराजगी का ख्याल रखना पड़ता है। माँ -पिताजी, वहाँ कोसों दूर बैठे, बेटे की सलामती की दुआ मांग रहे हैं। वो इस बात को सोंचकर खुश होंगे कि बेटा राजी-ख़ुशी कमा रहा है और चैन से ज़िन्दगी जी रहा है। परन्तु यहाँ मेरी स्थिति इतनी दयनीय है की मैं खुद से नज़रे नहीं मिला पा रहा हूँ । कहने को तो आज़ाद हूँ पर एक-एक पल गुलामी की जंज़ीरों से जकड़ा हुआ है। बस एक स्वचालित यन्त्र बनकर रह गया हूँ। जहाँ दिल की चलती ही नहीं है। दिल कुछ और कहता पर समय के नज़ाकत समझना पड़ता है।
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20-12-2013, 10:21 PM | #13 |
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Re: मशीन बन गया हूँ.....
विवशता या दिखावा :........ रात में बिस्तर पर सोने जाता हूँ तो ये सोचकर की सुबह जल्दी उठना है। कई बार आधी रात में ही नींद खुल जाती है और घडी देखकर ख़ुशी मिलती है कि अरे अभी तो आधी रात बांकी है। पर उतना ही दुखी तब होता हूँ जब सुबह फिर घडी देखता हूँ। कई बार बिस्तर पर पड़े-पड़े झपकियाँ लेता हूँ और इसी क्रम में आधा घंटा लेट हो जाता हूँ । बिस्तर से उठते ही मशीन बन जाता हूँ, टाइमिंग मशीन। एक बार चाबी दिया तो एक घंटे के भीतर ही सार काम निबटा के ऑफिस पंहुचकर ही इंसानी रूप में आ पाता हूँ यानि रिलैक्स महसुस करता हूँ । पर वो भी क्षणिक मात्र, जब तक की सीनियर्स या बॉस नहीं आए हो । उनके आते ही फिर खुद को चाबी देकर मशीन बन जाता हूँ । फिर काम, काम और सिर्फ काम। थोड़ी सी ख़ुशी लंच टाइम में तब मिलती है, जब सभी कलिग (सहयोगी) एकसाथ बैठते हैं। खाना से ज़्यादा तो गप्पे मारकर खुद को तरोताज़ा महसूस करता हूँ। सबसे ज्यादा रिफ्रेशमेंट तो तब होती है जब सभी लोग काम के प्रेशर में शान्ति से काम कर रहे होते हैं और जिसका काम सफलतापूर्वक हो गया हो वो अचानक से किसी की खिचाई करे और सारे कलिग के चेहरे पर ख़ुशी खिल उठे। ओह्फ़— सच में– कॉलेज के दिन याद आ जाते है। पर उतनी ही तकलीफ तब होती है जब सीनियर आकर आँखे दिखाए। ओह्फ्फ़–! तब तो ज़िन्दगी, जहन्नुम लगने लगती है।
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20-12-2013, 10:23 PM | #14 |
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Re: मशीन बन गया हूँ.....
विवशता या दिखावा :........ घंटे-पर-घंटा, दिन-पर-दिन और फिर महीना ख़त्म होने को हो जाता है। जैसे ही सैलरी की तारीख आई, पता नहीं — अन्दर से अजीब सी ख़ुशी आ जाती है। शायद, उसी दिन सिर्फ मेरा मन खुश होता है। वो भी पूरी ख़ुशी मिलती है। ऐसा लगता है कि आज के एक दिन की ख़ुशी के लिए ही, पिछला तीस दिन हँस के दुःख झेला। जबकि मेरे बैंक के खाते में अभी भी पर्याप्त पैसे है पर न जाने क्यूँ ऐसा लगता की आज अगर सैलरी की तारीख पर, नीयत समय पर सैलरी नहीं मिली तो पिछले तीस दिन की अरमानों और इच्छाओं से बनी ख़ुशी की दुनिया तबाह हो जायेगी। जबकि मैं भी जानता हूँ दी अगले एक सप्ताह सैलरी न मिले तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। काम करते – करते कई वर्ष गुज़र गए पर आज भी मेरे पास पर्याप्त रुपये जमा नहीं हो पाए, जितने की आशा करता हूँ । एक अच्छा कपडा सिर्फ इसलिए नहीं खरीदता हूँ कि अतिरिक्त खर्च पर काबू पाकर पैसे बचाऊं और घरवालों की मदद करूँ। पर ये मन कपड़े की ख़रीद पर तो काबू पा लिया परन्तु गर्लफ्रेंड की एक छोटी ख्वाहिश पर लुटा दिया।
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20-12-2013, 10:26 PM | #15 |
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Re: मशीन बन गया हूँ.....
विवशता या दिखावा :........ जब छोटा था तो चाची, बुआ, दादी, बड़ी दीदी सभी कहतीं थी जब तुम कमाओगे तो मेरे लिए अच्छे – अच्छे कपड़े ला देना । पर यहाँ इस संवेदनहीन माहौल का सामना करते-करते मैं खुद असंवेदनशील बन गया हूँ। वो दादी की बूढी आँखें आज भी याद है मुझे, कितना प्यार झलकता था उसमें । एक हलकी आह पर, पूरा घर सर पर उठा लेती थी। कितनी आशाएं थी मुझसे, दादी को। आज घर से फ़ोन आया -”दादी नहीं रही दुनिया में।” मैं उस समय औफ़िस में बौस के सामने था। न मैं रो पा रहा था न ही कोई प्रतिक्रिया दे रहा था बस जैसे मैं ज़मीन में गडा जा रहा था। मैं निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ – ये हमारी विवशता थी या हमारा दिखावा :......... इस स्रोत का लिंक:.........
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14-01-2014, 05:23 PM | #16 |
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Re: मशीन बन गया हूँ.....
मैं मशीन हूँ :........ होता होगा अलसाया गर्व और बनावटीपन भरा ऐश्वर्य और विलासिता भरा अपनी मर्ज़ी से चलता शहरों का जीवन! मैंने तो नहीं पाया मैंने तो अपने को भी नहीं पाया कि कभी उगते सूरज के बाद चिड़ियों के रियाज़ करने के बाद अख़बार वाले के चले जाने पर बिस्तर छोड़ा होऊँ, (इतवार को छोड़ कर।) मैं और फुर्तीला समय का पाबंद और गतिशील हो गया हूँ शहर में आकर। मैं और परिश्रमी, कर्मयोगी और सहनशील हो गया हूँ शहर में अपना वक़्त बिताकर। सुबह उठकर पढ़ना पड़ता है अखबार को आते-आते सूरज की लाली छोड़ना ही पड़ता है अपने तथाकथित घर-बार को और जाना ही पड़ता है काम पर रेंट, रोटी और रोजगार के लिए। यह अलग बात है कि सुबह उठकर भी प्रकृति की सुन्दरता को मौसम की अल्हड़ता को पंछियों की जुगाली को फसलों की हरियाली को मैं जी भर निरख नहीं सकता। ऐसा नहीं कि रसहीन हूँ | कुछ भी नहीं होने पर भी नंगे बिस्तर या टूटी खाट में सोने पर भी कल तक तो आदमी था सब कुछ पाकर आज मैं मशीन हूँ :......... ——————— – केशव मोहन पाण्डेय स्रोत :.........
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22-03-2014, 11:31 PM | #17 |
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Re: मशीन बन गया हूँ.....
समस्या का दूसरा पहलु :........ पिताजी कोई किताब पढने में व्यस्त थे , पर उनका बेटा बार-बार आता और उल्टे-सीधे सवाल पूछ कर उन्हें डिस्टर्ब कर देता . पिता के समझाने और डांटने का भी उस पर कोई असर नहीं पड़ता. तब उन्होंने सोचा कि अगर बच्चे को किसी और काम में उलझा दिया जाए तो बात बन सकती है. उन्होंने पास ही पड़ी एक पुरानी किताब उठाई और उसके पन्ने पलटने लगे. तभी उन्हें विश्व मानचित्र छपा दिखा , उन्होंने तेजी से वो पेज फाड़ा और बच्चे को बुलाया – ” देखो ये वर्ल्ड मैप है , अब मैं इसे कई पार्ट्स में कट कर देता हूँ , तुम्हे इन टुकड़ों को फिर से जोड़ कर वर्ल्ड मैप तैयार करना होगा.” और ऐसा कहते हुए उन्होंने ये काम बेटे को दे दिया. बेटा तुरंत मैप बनाने में लग गया और पिता यह सोच कर खुश होने लगे की अब वो आराम से दो-तीन घंटे किताब पढ़ सकेंगे . लेकिन ये क्या, अभी पांच मिनट ही बीते थे कि बेटा दौड़ता हुआ आया और बोला , ” ये देखिये पिताजी मैंने मैप तैयार कर लिया है .” पिता ने आश्चर्य से देखा , मैप बिलकुल सही था, – ” तुमने इतनी जल्दी मैप कैसे जोड़ दिया , ये तो बहुत मुश्किल काम था ?” :.........
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22-03-2014, 11:32 PM | #18 |
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Re: मशीन बन गया हूँ.....
समस्या का दूसरा पहलु :........ ” कहाँ पापा, ये तो बिलकुल आसान था , आपने जो पेज दिया था उसके पिछले हिस्से में एक कार्टून बना था , मैंने बस वो कार्टून कम्प्लीट कर दिया और मैप अपने आप ही तैयार हो गया.”, और ऐसा कहते हुए वो बाहर खेलने के लिए भाग गया और पिताजी सोचते रह गए . Friends , कई बार life की problems भी ऐसी ही होती हैं, सामने से देखने पर वो बड़ी भारी-भरकम लगती हैं , मानो उनसे पार पान असंभव ही हो , लेकिन जब हम उनका दूसरा पहलु देखते हैं तो वही problems आसान बन जाती हैं, इसलिए जब कभी आपके सामने कोई समस्या आये तो उसे सिर्फ एक नजरिये से देखने की बजाये अलग-अलग दृष्टिकोण से देखिये , क्या पता वो बिलकुल आसान बन जाएं ! :.........
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