09-12-2010, 08:14 PM | #11 |
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Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
चौ.-इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर।।
सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा।।1।। यहाँ (विमान पर से) सूर्यकुलरूपी कमल के प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्रीरामजी वानरोंको मनोहर नगर दिखला रहे हैं। [वे कहते है-] हे सुग्रीव ! हे अंगद ! हे लंकापति विभीषण ! सुनो। यह पुरी पवित्र है और यह देश सुन्दर है।।1।। जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदितजगु जाना।। अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।।2।। यद्यपि सबने वैकुण्ठकी बड़ाई की है-यह वेद पुराणोंमें प्रसिद्ध है और जगत् जानता है, परन्तु अवधपुरीके समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है। यह बात (भेद) कोई-कोई (विरले ही) जानते हैं।।2।। जन्मभूमि मम पुरी सुहावनी। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।। जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा।।3।। यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है। उसके उत्तर दिशामें [जीवोंको] पवित्र करने वाली सरयू नदी बहती है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य बिना ही परिश्रम मेरे समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पा जाते हैं।।3।। अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी।। हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी।।4।। यहाँ के निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधामको देनेवाली है। प्रभुकी वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए [और कहने लगे कि] जिस अवध की स्वयं श्रीरामजीने बड़ाई की, वह [अवश्य ही] धन्य है।।4।। |
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